Sunday, October 6, 2024
होमकहानीप्रितपाल कौर की कहानी - दावानल

प्रितपाल कौर की कहानी – दावानल

स्त्री और पुरुष कदम से कदम मिला कर साथ-साथ चल रहे थे. ये दोनों सदियों से इसी तरह साथ-साथ कदम से कदम मिला कर चल रहे थे. यहाँ तक कि दोनों का खाना पीना, उठाना बैठना, सोना -जागना, नहाना धोना, मल मूत्र विसर्जन तक एक दूसरे के सानिंध्य में या फिर एक दूसरे की मौजूदगी में होते थे. कई बार तो यूँ होता था कि एक अपना काम कर रहा होता तो दूसरा उसकी पहरेदारी में तैनात होता. इसमें कहीं कोई भेद नहीं था. 
पहरेदारी भी तो भला किस से होनी थी? एक दूसरे से तो वे अभिन्न थे. एक ही अंश के दो अलग-अलग रूप. वे जानते थे एक दूसरे के इस भेद को. वे जानते थे कि एक ही नूर से उपजे हुए दो अंग हैं. इश्वर की स्मृति के अंश. उन्हें इस ज़मीन पर उसी इश्वर ने किन्ही कारणों से भेजा है. वे लगातार अपने दैनिंदिन कार्य कलाप करते हुए इसी या फिर इन्हीं कारणों को जानने के लिए हमेशा प्रयास रत रहते थे. 
सदियाँ बीत चुकी थीं. वे चलते जा रहे थे. मगर वे कारण या फिर वह एक वजह  उन्हें अभी तक पकड़ में नहीं आयी थी. यूँही सदियों से भटकते भटकते वे ये भी सोचने लगे थे कि धरती पर और भी उन्हीं के जैसे जीव  होने चाहियें. और इस सोच के तहत वे और भी शिद्दत से घूमने लगे. ताकि उन अपने जैसे अन्य जीवों की तलाश भी कर सकें.
अगर उनके जैसे और जीव मिल गए तो वे उनके साथ क्या करेंगें या फिर वे उनके साथ कैसा सलूक करेंगें इस पर अभी उन्होंने कोई विचार नहीं किया था. सच कहें तो वे अभी विकास के उस दौर में नहीं पहुंचे थे जहाँ समय से पहले ही भविष्य में पैदा होने वाली परिस्थितियों के बारे में विचार कर के रखें और तय कर लें कि  जब ऐसा होगा तो उन्हें कैसे इनसे निपटना है या फिर अगर ऐसा नहीं होने देना है तो पहले ही क्या-क्या कदम उठाने हैं.   
इस भटकने के दौरान वे दोनों कई बार नदियों के किनारे पार कर के नदी के दूसरी तरफ  के तट तक चले जाते थे. मगर होता यूँ था कि यहाँ भी उन्हें जंगल का दूसरा सिरा ही मिलता था. जिसे भेद कर कई बार वे भीतर तक गहरे जंगल में भी चले जाते थे. मगर जब जंगल घना होने लगता तो घबरा कर बाहर निकल आते थे. आग तो उन्होंने खोज ली थी. मगर रोशनी से उनका नाता अभी ठीक से नहीं जुड़ा था. दूसरी महत्वपूर्ण बात ये थी कि औजार के नाम पर उनके पास कुछ पत्थर ही थे. इनसे वे उन जीवों से रक्षा करने में खुद को असमर्थ पाते थे जो इन दोनों को देखते ही आक्रामक हो उठते थे. 
ये वो ज़माना था जब सभी तरह के जीव एक दूसरे की भाषा समझ लेते थे.  ये अलग बात है कि वे आपस में बहुत प्रेम से नहीं रहते थे. ये काम तो वैसे वे आज तक नहीं सीख पाए हैं. वो तो फिर सदियों पुराना ज़माना था. अब ये बात भी अलग है कि कुछ मान्यताओं के अनुसार प्राचीन काल अधिक अनुकूल काल था क्योंकि उनके अनुसार उस वक़्त आपसी बैर अभी उतना नहीं पनपा था. मगर अलग अलग तरह के जीव तब भी और आज भी एक दुसरे के प्रति वैमनस्य रखते ही आये हैं. 
तो ये स्त्री और पुरुष एक दूसरे का ख्याल रखते हुए सदियों से कदम से कदम मिला कर साथ साथ चलते आ रहे थे. थकते थे तो एक दूसरे की टेक लगा कर आराम कर लेते थे. भूख लगती थी तो जंगल से कुछ फल ले कर खा लेते थे. कभी कोई अनाज भी कहीं जलती हुयी आग मिल गयी तो भून कर खा लेते थे. 
रोटी और चालाकी दोनों से ही अभी इनका साबका नहीं पडा था. चक्की का आविष्कार नहीं किया था. न ही घर-आँगन और चूल्हे का. प्रेम की ज़रुरत होती तो एक दूसरे से प्रेम भी कर लेते थे. प्रेम में अधिकार अभी तक नहीं शामिल हो पाया था. 
 जंगल में इनकी अधिक घुसपैठ नहीं हुयी थी. सो इन्हें स्त्री-पुरुष या यूँ कहें कि नर-नारी समागम की जानकारी अभी तक नहीं मिल पायी थी. सो पति-पत्नी होने की परिपाटी से अछूते थे. खालिस स्त्री-पुरुष थे या फिर दो जाने-पहचाने इंसानी जीव थे और सदियों से एक दूसरे के साथ प्रेम से कदम से कदम मिला कर चल रहे थे.  
सारी परेशानी इन्हीं छोटे-मोटे अविष्कारों के बाद ही तो शुरू हुयी थी.  एक दिन यूँ हुया कि दो पत्थरों को टकरा कर आग निकालने वाले इन पुरुष स्त्री ने जंगल के किनारे फोस्फोरस की चमक देख ली. गौर से देखा और पाया कि ये तो अपने में आग समेटे हुए है. स्त्री ने उसका एक टुकड़ा अपने पास अंक में रख लिया. ताकि जब भी ज़रूरत हो वो उससे आग को पैदा कर ले. 
ये टुकड़ा कुछ इस तरह उसके पास रहा कि थोड़े वक़्त के साथ उसके व्यक्तिव का एक अंग ही बन गया. और फिर एक ऐसा वक़्त आया कि ये फ्सोफोरस उसके मन में ही बस गया. कुछ इस तरह कि जब भी उसका मन उद्विग्न होता, दुःख से, सुख से, पीड़ा से, प्रेम से, या अपमान से, तो ये फोस्फोरस का अंश उसके भीतर खुद ही सुलग उठता और वह इसकी आग से धधक जाती. 
ऐसे में उसे बाहर की आग भी जला ना पाती थी. उसके भीतर की ये आग अलबत्ता किसी को भी जला कर राख में बदल सकती थी. अहिस्ता-अहिस्ता स्त्री ने इस आग को पकाना सीख लिया. और फिर एक दिन  ऐसा वक़्त आया जब वो इस आग को इस तरह साध चुकी थी कि जब चाहे तब ज़रा से आंसुओं की आंच दे कर सुलगा लेती और जी चाहे तो किसी भी चीज़ को पका लेती या जला देती. 
पका कर चाहती तो उस भोजन को खुद खा लेती और मन में आग की आंच अधिक न होती तो पुरुष को भी परोस देती. अलबत्ता पुरुष को जब भूख लगती तो उसे फलों पर आश्रित होना पड़ता या वो स्त्री के मन के समानुसार होने की प्रतीक्षा करता. वैसे अक्सर स्त्री उसे भोजन अपने साथ ही परोस कर खिलाने लगी थी.  
ऐसे में अब पुरुष को अक्सर स्त्री की सेवाओं की ज़रुरत होने लगी. वह कई बातों के लिए स्त्री पर निर्भर रहने लगा. भूख लगती तो उसकी तरफ देखता. अगर स्त्री का मन होता तो वो अपने भीतर रखी आग पर कुछ सेंकती, पकाती और पेश कर देती. अगर स्त्री का मन आग से खेलने का नहीं होता तो वह चुपचाप उसी काम में लगी रहती जो वो कर रही होती थी. या फिर कुछ भी न करती हुयी इधर-उधर डोलती, या फिर अपनी एक बांह को सिरहाना बना कर लेटी अथवा सोती रहती. 
हाँ सोना, आराम करना स्त्री और पुरुष दोनों ने ही भरपूर सीख लिया था. अक्सर वे जब कुछ नहीं कर रहे होते तो सो जाते, या फिर यूँ ही लेट भी जाते.
 एक चीज़ जो अक्सर दोनों को ही परेशान करती वो ये थी कि पाबंदी से कुछ समय के बाद अन्धेरा छा जाता था और लगभग उतने ही समय के बाद चारों तरफ रोशनी भी हो जाती थी. ये रोशनी तेज़ होती फिर कम होती और फिर घुप्प अन्धेरा छा जाता. फिर हल्की रोशनी होती, ये तेज़ होती और फिर घुप्प अँधेरा. ये सिलसिला उनकी ज़िंदगी के साथ शुरू से ही जुड़ा हुया था. वे दोनों इसी घुप्प अँधेरे और तेज़ रोशनी से बने दायरों में घुमते-फिरते इस धरती के कुछ हिस्से को अपने कदमों से नापते कदम से कदम मिलाते साथ-साथ चल रहे थे. 
एक दिन इसी तरह पुरुष को भूख लगी तो उसने चाह में भरे हुए स्त्री की तरफ देखा. स्त्री उस वक़्त नदी के ठन्डे शफ्फाक पानी में अठ-खेलियाँ करती हुयी नहा रही थी. उसे इस तरह अपने साथ खेलना बहुत पसंद था. पुरुष को इस खेल में ज्यादा मज़ा नहीं आता था. सो ऐसे में वो अक्सर नदी के किनारे ही बना रहता और इधर-उधर की बेकार सी  बातें सोचते हुए कुछ न कुछ खुराफात करता हुआ वक़्त काटता. 
दरसल जब वे दोनों साथ होते थे तो उन्हें वक़्त को काटना नहीं पड़ता था. वैसे वे एक दूसरे के साथ नहीं होने वाली स्थिति में कभी होते ही नहीं थे. दोनों के बीच भाषा तो नहीं थी बातचीत के लिए, मगर एक संवाद दोनों के बीच लगातार बना ही रहता था. एक खामोश संवाद. जिसमें तमाम तरह की संवेदनाएं होती थीं. जिनका वास्ता मूक बेजुबान लोगों को अकसर पड़ता रहता है. 
तो स्त्री जो उस वक़्त नदी के शफ्फाक पानी में अठखेलियाँ करती हुयी नहा रही थी. उसकी निगाह पुरुष की निगाह से दो चार तो हुयी मगर उस वक़्त चूँकि वो पानी के फेर में थी उसने आग से खेलना गवारा नहीं किया. वो अपने खेल में लगी रही और इस तरह ये पहला दिन तो नहीं हुया था कि जब स्त्री ने पुरुष की मर्जी की अवहेलना की थी मगर पुरुष  के मन में उस दिन एक नयी तरह का ख्याल आया था. 
इस ख्याल के चलते पुरुष चुप्पी तो लगा गया था. मगर हुया कुछ यूँ था कि इस चुप्पी के चलते पुरुष के भीतर एक दबी-दबी  सी चिंगारी भड़क उठी थी. एक हल्की सी नामालूम सी वेदना . एक बेझिझक सी डाह.  आग जैसी कुछ हल्की सी झंकार युक्त तड़प. 
मगर चूँकि वह आग का मालिक नहीं था सो चुप ही रहा और जंगल के किनारे-किनारे चलता हुआ केले के कुछ फल तोड़ कर उसने अपनी भूख मिटा ली थी. मगर उसके अन्दर की एक जगह उस दिन पूरी तरह भर नहीं पाई थी. पेट भी काफी कुछ खाली रह गया था. कारण यही कि जब से स्त्री ने आग से खेलने की परम्परा  शुरू की थी, पुरुष को गाहे-बगाहे आग पर सिका और पका भोजन मिल ही जाया करता था. मगर आज स्त्री के पानी से हो रहे खेल के चलते पुरुष की इच्छा होने के बावजूद उसे पका हुआ भोजन नहीं मिला था. ये एक नया मोड़ था. पुरुष का मन उस रोज़ पहली बार इस अक्षमता पर उद्विग्न हो गया था. 
उस पूरा दिन पुरुष का मन खिन्न रहा. 
जब स्त्री नहा-धो कर नदी के किनारे आयी तब तक उसका मन ठंडक से उकता चुका था. सो उसने अपने भीतर की आग को भड़का कर नदी में से कुछ मछलियाँ उठाईं और उन्हें पका कर नदी तट की रेत पर रख दिया. 
पुरुष टेढ़ी-टेढ़ी नज़रों से ये सारा उपक्रम देख रहा था. उसके पेट की भूख जो केले के भोजन से तृप्त नहीं हुयी थी, भुनती हुयी मछली  की सुगंध से और  भड़क उठी थी. साथ ही मन की भूख भी तृप्ति से छूटी हुयी अचानक से दावानल की तरह भड़क गयी थी. वह फ़ौरन आग के पास सिमट आया था. 
स्त्री और पुरुष ने हमेशा इसी तरह आग पर पका हुया भोजन एक दूसरे के सानिंध्य में बैठा कर खाया था. दोनों के पेट और मन भर जाने के बाद जो बच जाता था उसे पुरुष नदी में बहा दिया करता था. 
मगर आज  स्त्री को लगा कि पुरुष को ये नहीं करना चाहिए. उसने आखिर में बची हुयी मछली को नदी में बहाने से पुरुष को रोक लिया और पास ही में लगे पेड़ की एक टहनी से उसे किसी तरह उलझा कर लटका दिया. 
स्त्री का ख्याल था कि जब अँधेरा हो जाने के बाद उसका मन कुछ खाने को करेगा तो बजाय नदी में से मछली निकाल कर फिर से पकाने के वह इसी बची हुयी मछली को फिर से पका कर खा सकेगी. 
जितना यकीन उसे अँधेरे के हो जाने का था उतना ही यकीन उसे फिर से उजाले के आने का भी था. उतना ही यकीन फिर से भूखे हो जाने का था और उतना ही यकीन इस बात का था कि ये पेड़ और वो लटकी हुयी मछली जब भी वो चाहगी उसे वहीं मिलेंगे जहाँ उसने उन्हें छोड़ा है. साथ ही ये भी यकीन था कि पुरुष भी हर वक़्त उसके साथ कदम से कदम मिला कर चलता रहेगा. रोशनी अँधेरा आये जाए मगर उसका और पुरुष का साथ सदा बना ही रहेगा.  
ये एक नयी शरुआत की भूमिका थी स्त्री और पुरुष दोनों के ही लिए. स्त्री को अपनी आग पर उस दिन भरोसा कुछ कम हो गया था और पुरुष को स्त्री पर भरोसा कुछ और बढ़ गया था. 
उस दिन के बाद से अक्सर ही जब कुछ पका हुया बच जाता तो स्त्री उसे कहीं न कहीं रख लेती. एक बार तो स्त्री ने भीतर की आग के साथ ही बचे हुए भोजन को रख दिया तो वो उसे बाद में बेतरह जला हुया मिला. 
 वो समझ गयी कि आग के साथ बेपरवाह हो कर सिर्फ मन या नीयत को ही रखा जा सकता है. बाकी सब चीज़ें आग की सोहबत में रखने से या तो जल जाती हैं या ज़रुरत से ज़्यादा पक जाती हैं.
 एक और बात उसे समझ आ गयी कि आग से हर चीज़ को अपने नियत समय पर निकाल लेना होता है वर्ना आग उसे खुद में ही समो कर कोयला बना डालती है. और एक बार कोयला हो जाने के बाद कोई भी चीज़ अपने सही रूप में लौट कर नहीं आती. वो सिर्फ कोयला हो कर रह जाती है. 
इस ज्ञान की प्राप्ति के बाद उसे अपने भीतर की आग से कुछ-कुछ डर लगने लगा था. उसे लगने लगा कि कहीं उसने आग को ज्यादा हवा दे दी तो आग उसके भीतर को ही न पकाने लग जाए. पकने से उसे तकलीफ  होती थी. वो चाहती थी कि वो उसी तरह कच्ची मिट्टी की अनगढ़ जीव ही बनी रहे जो आज़ाद है और पुरुष के कंधे के साथ कंधे मिला कर चलती आ रही है. मगर होनी को कुछ और ही मंज़ूर था. 
इन दिनों वे दोनों कदम से कदम मिला कर चलते हुए कुछ पहाडी इलाकों में आ गये थे. यहाँ उन दोनों को ही मौसम में तबदीली साफ़ महसूस होने लगी थी. यहाँ फल-फूल तो बहुत थे साथ ही सर्दी भी काफी थी. उन्हें अँधेरे के समय खासी ठण्ड लगती. 
उस वक़्त जब रोशनी ज़्यादा होती तो उस वक़्त तो वे दोनों ही अच्छा महसूस करते मगर जब अँधेरा हो जाता तो वे ठिठुरने लगते थे. कुछ दिन तो वे दोनों ही कुछ समझ नहीं पाए. अंधरे में स्त्री तो अपने भीतर की आग से किसी तरह खुद को गर्म बना लेती मगर पुरुष त्रस्त और पस्त हो जाता था. ऐसे में स्त्री ने पुरुष को अपने निकट रखना शुरू कर दिया था. अब वे सिर्फ चलते हुए ही नहीं बल्कि बैठे और लेटे हुए भी एक दूसरे से सटे रहते. 
इस तरह साथ-साथ लिपटे हुए पुरुष को अपने कुछ अंगों में अजीब तरह की उत्तेजना महसूस होने लगती. वो समझ नहीं पाता था इसके स्वरूप और कारण को.  मगर उसे अच्छा लगता जब वह स्त्री के तन से लिपटा हुया होता था. अँधेरे के बाद रोशनी हो जाने पर भी वह वह इसी तरह स्त्री के साथ बने रहना चाहने लगा. मगर उस वक़्त स्त्री खुद को बेहद गर्म महसूस करती और पुरुष को उससे हट कर बैठना होता. लेकिन पुरुष ने महसूस किया था कि स्त्री को भी उससे लिपटे रहना अच्छा लगने लगा था. सो वह   अपनी नैसर्गिक इच्छा के प्रतिरूप अँधेरा होने की प्रतीक्षा करने लगा. 
ऐसे ही चलते-चलते एक दिन पुरुष ने उसे जंगल में गहरे तक चले जाने का प्रस्ताव रखा. उन दिनों  स्त्री अपने भीतर की आग से खासी घबराई हुयी थी. वह अक्सर बिला वजह भड़क उठती थी और काफी कुछ पका लेने के बाद भी ठंडी नहीं हो पाती थी. 
लगता था  जैसे उसका अंतस किसी विशेष तरह की आहुति की मांग लगातार कर रहा था. उस रोज़ जब दोनों ने कदम से कदम मिला कर जंगल के भीतर घने पेड़ों की वजह से छाये नीम अँधेरे में कदम रखे तो पुरुष अनायास ही आगे चलने लगा था. पुरुष उस दिन कद में कुछ ऊंचा भी लग रहा था. 
उस दिन जंगल के भीतर प्रवेश करते हुए किसी नामालूम वजह से स्त्री के अन्दर की आग कुछ अधिक ही भड़क उठी थी. स्त्री अपने में सिमटी अपनी आग से भीतर ही भीतर तपती हुयी पुरुष के एक कदम पीछे चलने को मजबूर लग रही थी. 
पिछले काफी वक़्त से पुरुष की निगाह की मांग पर उसके लिए भोजन को पकाते हुए उसे खुद पर क्षोभ भी होने लगा था. उसे लगने लगा था जैसे वो पुरुष की इच्छा की गुलाम होती जा रही है. कम से कम पुरुष की मांग पर आग सुलगाने की अपनी दक्षता उसे अब खुद पर ही भारी लगने लगी थी. आज जब वह पुरुष के पीछे चल रही थी तो उसकी आग भी भड़कने लगी थी. 
दोनों को भूख भी लग आयी थी. जंगल में उन्हें भुट्टे के पौधे मिले जिन पर नन्हे भुट्टे लगे थे जिनमें दूधिया दाने भरना शुरू ही हुए थे. स्त्री और पुरुष अब तक भुट्टे के बारे में अच्छी-खासी जानकारी रखने लगे थे. सो वे रुके. पुरुष ने भुट्टे तोड़े और उन पर से पत्ते और बाल उतार कर एक-एक कर स्त्री को देने लगा जो अपने भीतर की आग पर उन्हें पकाने लगी. 
जंगल में उस वक़्त खामोशी छाई थी.  कभी कभार कोई पंछी बोल उठता था. जानवरों का ये वक़्त खा पी कर सो जाने का था. जागने वालों में ये दोनों ही प्रमुख थे. भुट्टा भूनते-भूनते हुए स्त्री का मन भी पंछियों की तरह गा लेने को हुआ. शब्दों का आविष्कार अभी तक दोनों ने ही नहीं किया था. सो पंछी की नक़ल करती हुयी स्त्री ने उसी की तरह ही कूक अपने गले से निकाल कर मुख में भरी और होठों की राह अपने सामने की हवा में उढ़ेल दी. 
एक बेहद खूबसूरत सा फूल झनक की आवाज़ के साथ स्त्री की नग्न गोद में आ गिरा. पुरुष स्त्री को भुट्टा भूनते हुए निहार रहा था. उसने जब स्त्री के होठों की कंपन देखी और उसके बाद वो फूल देखा तो विस्मित हुया उसके और निकट सरक आया. उसे इस बात की कत्तई परवाह नहीं रही कि उस वक़्त स्त्री अपनी आग के उच्चतम स्तर पर थी. भुट्टा सिक चुका था. स्त्री ने उसे पुरुष की तरफ बढ़ाया. पुरुष ने भुट्टा लिया मगर उसे खाने का काम शुरू करने की बजाय उसे एक तरफ जंगल की धरती पर रख दिया और स्त्री के बिलकुल पास आ कर उसकी आग से दहकते हुए उस फूल को उठा कर अपने चेहरे के पास ले आया.   
स्त्री ने पुरुष को देखा. दोनों की नज़रें पहली बार मिलीं. और एक मुखर संवाद उनके बीच पहली बार शुरू हुया. भाषा उस वक़्त उसी क्षण उन दोनों के बीच निर्मित हुयी. हर शब्द दुनिया में पहली बार गूंजा और फिर चिरस्थायी हो कर ब्रम्हांड में बस गया. हर शब्द उपजा था अर्थ-हीनता के गर्भ से. मगर हर शब्द उनके मुखों से निकलते ही अर्थ धारण करता हुया जीवंत हो कर दुनिया के  पटल पर स्थापित हो गया. 
पुरुष: तुम मेरे जीवन में सदा बनी रहती हो. मैं इस नाते तुम्हारा सत्कार करता हूँ. मुझे भूख से बचाती हो. मैं किस तरह तुम्हें धन्यवाद दूँ? मुझे बताओ. 
स्त्री: तुम बने रहो. मैं भी बनी रहूँ. यही करना हमारे लिए उचित लगता है. इससे अधिक की जानकारी मुझे नहीं है. शायद जिसने मुझे बनाया हो उसे इसकी जानकारी हो. मगर मुझे उसकी जानकारी नहीं है. ये बनाने वाला कौन है. क्या तुम जानते हो?
पुरुष: नहीं. हम तलाश करेंगे. मिल जायेगा. 
स्त्री; मुझे तो मेरी आग से जूझना होता है. आजकल मैं तेज़ चल भी नहीं पाती हूँ. 
पुरुष: मैं एक ठिकाना बना दूंगा. तुम उसमें बैठ कर आग को धारण किये रखना. मैं तलाश कर लूँगा. 
स्त्री: ऐसे में तब हम कदम से कदम मिला कर नहीं चलेंगे. 
पुरुष: हाँ! अब हम कुछ बदल जायेंगे. तुम अलग भी तो हो. तुम्हारे अन्दर ये आग है. मैं अछूता हूँ. मुझे भटकने में आनंद भी आता है. तुम थकती हो. 
स्त्री ने कुछ पल इस पर विचार किया और फिर खामोश हो गयी. उसकी खामोशी की सहमती पा कर पुरुष ने जंगल के किनारे पर एक झोंपडा खड़ा कर दिया. स्त्री उसमें रहने लगी. अब वो अक्सर ही पुरुष के साथ कदम से कदम मिला कर चलने से बचने लगी. उसे अपनी आग की फ़िक्र कुछ अधिक होने लगी थी. उसे भड़काए रखना और उस पर भोजन को पकाना उसका मुख्य काम होने लगा. दोनों के बीच अक्सर शब्दों के माध्यम से बातचीत होने लगी. नित नए शब्द बनने लगे. नित नए अर्थ निकलने लगे. कई बार किसी शब्द का अर्थ दोनों ही अलग-अलग लगा लेते और उनमें गलतफहमी पैदा हो जाती. ऐसे में स्त्री ने हर शब्द को उसके अर्थ के माध्यम से चित्र बना कर अपनी झौंपडी की दीवार पर अंकित करना शुरू कर दिया. 
और देखते देखते एक पूरा शब्द कोष उनकी उस झौंपडी की दीवार पर अंकित हो गया. स्त्री चूँकि अब कदम से कदम मिला कर नहीं चलती थी. आग को सँभालते हुए उसे कई तरह के इल्हाम होने लगे. उसके मन में चित्रों के साथ ही रंगों का भी आगमन हुया. उसने आग में तप कर ठन्डे हो चुके पदार्थों से बने कोयले के अलावा पत्तों, फलों और फूलों के रंगों से आस-पास की पहाड़ियों पर पुरुष के, जानवरों के, आग के, मछलियों के चित्र बनाने भी शुरू कर दिए. उसकी देखा-देखी पुरुष भी जब उसके पास होता तो वो भी चित्र उकेरने लगा. अब वहां स्त्री के चित्र भी नज़र आने लगे.  
अब ये आवश्यक हो गया कि इन शब्दों के अर्थों और चित्रों को आगे बढ़ाने और उन्हें धारण  करने के लिए स्त्री और पुरुष के वंशजों का आगमन भी हो. क्योंकि प्रकृति का नियम है कि जो भी उत्पन्न होता है वह स्वरूप चाहे बदल ले उसका नष्ट होना असंभव है. शब्द को धारण करने के लिए मुख का होना अवश्यम्भावी है. तो प्रकृति ने उस दिन न चाहते हुए भी हस्तक्षेप करने की ठानी. 
वे दोनों खूब खिली हुयी रोशनी में टहलते हुए जंगल के अंदरूनी हिस्से में पहुँच गए थे. अब उन्हें जंगली जानवरों से डर या हिचक नहीं होती थी. लगभग सभी के साथ इन दोनों के स्वाभाविक सम्बन्ध हो गए थे. तभी एक झाड़ी के पास पहुँच कर दोनों एक साथ ही ठिठक गए. उन्हें एक सांप रास्ता काटता हुआ दिखाई दिया. 
 पुरुष जानता था कि जंगल के जीवों से दूरी बरतनी चाहिए. ये उसका अंतर्मन उसे कहता था. अंतर्मन की बात ये दोनों हमेशा से मानते आये थे. आज भी वह ठिठक गया. स्त्री पीछे आ रही थी. वह पुरुष से टकराई तो वह भी ठिठक गयी. उसका एक हाथ पुरुष की कमर पर था. कुछ अजीब एहसास उसे हुआ तो उसका वह हाथ  खिसक कर पुरुष की कमर से नीचे उतर आया. उसने कुछ अन्तरंग और अजनबी हलचल महसूस की तो सवालिया निगाहों के साथ पुरुष के सामने आ खड़ी हुई. 
पुरुष उत्तेजना की चरमावस्था में था. उसके भाव कुछ इस तरह उभरे कि स्त्री की आग उसके वक्ष में से होते हुए नीचे उतर कर पेट के भीतर ही भीतर होती जननागों में उतर आयी. पुरुष और स्त्री ने प्रकृति के रचनात्मक रहस्य का साक्षात्कार इस एक पल में अनायास ही पा लिया. प्रकृति से सन्देश का मिलना था कि स्त्री ने आगे बढ़ कर पुरुष को अपने बदन की रहस्यमयी संरचना से परिचित करवाते हुए एक नयी दुनिया का द्वार दोनों के लिए खोल दिया. 
तेज़ रोशनी चौंधिया कर मद्धम पड़ गयी थी. उसी क्षुधा तृप्ति के पल में संतोष के साथ प्रकृति ने  बादलों की मदद से पूरे जंगल को ढक लिया. स्त्री की आग को पुरुष ने और धधका दिया था. साथ ही खुद भी भड़क उठा था. प्रकृति ने बारिश की फुहारों से दोनों को तृप्त किया और इस तरह हर रोज़ धधकने और तृप्त होने की राह से स्त्री और पुरुष दोनों ही दो-चार हुए.  
देखते ही देखते समय, जो अब तक रुका हुया स्त्री और पुरुष को कदम से कदम मिलाते हुए चलता देखा करता था, तेज़ रफ़्तार से बह निकला. 
अब धरती पर स्त्री और पुरुष के विभिन्न आकार प्रकार के प्रारूप विचरते नज़र आने लगे थे. झोंपड़ों की शक्लें विस्तार पाती हुयी वैभवमयी अट्टालिकाओं में बदल गयी थी. स्त्री ऊंची दीवारों में आग को पोसती हुयी स्वादिष्ट पकवान बनाने लगी थी. पुरुष नित नए आखेट करने लगा था. 
धरती एक दावानल में बदलती जा रही थी.   
प्रितपाल कौर
प्रितपाल कौर
अब तक चार उपन्यास : 'हाफ मनू ', 'ठग लाइफ', 'राहबाज़' और 'इश्क फरामोश' प्रकाशित. दो कहानी संग्रह 'लेडीज आइलैंड' और 'मर्दानी आँख' प्रकाशित. एक कविता संग्रह 'अफसाना लिख रह हूँ' प्रकाशित. संपर्क - [email protected]
RELATED ARTICLES

1 टिप्पणी

  1. यह शब्दातीत है। अकल्पनीय। सृष्टि के प्रारंभ में प्रकृति के मध्य पुरुष और स्त्री का प्रथम परिचय, जीवन शैली और प्रथम सानिध्य की कहानी जिससे सृष्टि की निर्मिती हुई। क्या बात है प्रीतपाल जी! अद्भुत शैली प्रयुक्त की।
    परिस्थितियोंवश हम इसे सात-आठ बैठक में पूरा पढ़ पाए।
    एक पल दिनकर की कामायनी याद आ गई कि शायद यह प्रेरणा श्रोत रही हो। हम यह नहीं समझ पा रहे कि आपकी इस कहानी को किस श्रेणी में रखा जाए?
    एक बेहतरीन कहानी के लिए आपको बहुत-बहुत बधाइयां।

कोई जवाब दें

कृपया अपनी टिप्पणी दर्ज करें!
कृपया अपना नाम यहाँ दर्ज करें

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.

Most Popular

Latest