Sunday, October 6, 2024
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डॉ ऋतु शर्मा (नंनन पांडे) का संस्मरण – कल आज और कल

गुरुवार की सुबह क़रीब साढ़े ग्यारह बजे होंगे,सूरज धीरे धीरे अपने बिस्तर से बाहर आ रहा था। मैं पासन की (ईस्टर) की छुट्टियों में दो दिन के लिए दादा जी यहाँ रहने ऐम्सटर्डम गई थी।
सुबह का नाश्ता करने के बाद दादाजी बोले “ kom meid het is mooi weer ,wij gaan buiten wandelen” यानी चलो बेटी अच्छा मौसम है हम बाहर टहल कर आते हैं। दादा जी अपना लंबा कोट पहन छड़ी ले कर झट से तैयार हो कर खड़े हो गये। वैसे तो पिछले नवंबर में हमने दादाजी का 95 जन्मदिन मनाया था,पर फुर्ती में वह आज भी हम सबसे ज़्यादा फुर्तीले हैं। मैं भी अपना गर्म कोट व जूते पहन दादा जी के साथ हो ली। यहाँ नीदरलैंड के मौसम का कोई भरोसा नहीं होता इसलिए हमें हमेशा कोट अपने साथ रखना होता है । 
हम लोग ऐम्सटर्डम के बाज़ार (Haarlemmerdijk) हार्लेम्मेर्दाइक पहुँचे, यह अब एक हिप्पी बाज़ार हैं। पहले दादाजी के समय में यानी दूसरे विश्व युद्ध के पहले यहाँ एक साधारण बाज़ार हुआ करता था। जहाँ रोज़मर्रा की ज़रूरतों का सामान मिल जाया करता था। उस समय यही वो जगह थी जहाँ उस समय भी विभिन्न धर्मों व समुदायों के लोग मिलकर रहते थे। दादा जी चलते-चलते अचानक एक जूते की दुकान के सामने आ कर रुक गए, मेरा कंधा पकड़ते हुए उन्होंने मुझे बाज़ार में एक जूते की दुकान की तरफ़ इशारा करते हुए बताया “देखो वो जो जूते की दुकान के ऊपर वाली मंज़िल है दूसरे विश्व युद्ध के समय मैं वहाँ अपने माता-पिता व छोटी बहन के साथ रहता था। वो समय बहुत ही डरावना था। रात दिन जर्मनी से आने वाले लड़ाकू विमान और गोला बारी की आवाज़ें बहुत डराती थीं। मैं डर के मारे अपने बिस्तर में छुपा रहता था। बात करते-करते दादा जी और मैं उस जूते की दुकान के पास आ पहुँचे थे। दादा जी ने दुकान में घुसकर बताया देखो, यहाँ जो सीढ़ी के नीचे जगह है। यह हमारा स्टोर हुआ करता था। यहाँ मैं और मेरी छोटी बहन अपनी साइकिल खड़ा किया करते थे। लेकिन जब दूसरे विश्वयुद्ध की शुरुआत हो गई तो मेरा और मेरी छोटी बहन का जाना वहाँ एकदम मना था। कहते हैं न जिस काम को मना किया जाए, बालमन उसी काम को करने के लिए मचलता है। सो मैं भी एक दिन मौक़ा पा कर नीचे स्टोर में जा पहुँचा। 
जब मैं वहाँ पहुँचा तो देखा वहाँ दो अजनबी व्यक्ति बैठे आपस में अजनबी भाषा में बात कर रहे थे। अपरिचित लोगों को वहाँ बैठा देख मैं डर गया और ज़ोर से चिल्लाते हुए मैं सीधा ऊपर अपने पिताजी के पास पहुँचा। मुझे लगा जर्मन लोग हमें भी पकड़ने आए हैं। पिताजी ने मुझे प्यार से अपनी गोद में बिठाकर पूछा, “क्या हुआ? इतने डरे हुए क्यों हो?” मैंने उन्हें बताया की हमारे नीचे के स्टोर में कोई दो अजनबी लोग बैठ कर अनजानी भाषा में बात कर रहे हैं। पिताजी ने मुझे समझाया “देखो बेटा नीदरलैंड में ग्यारह डिस्ट्रिक्ट हैं (दूसरे विश्वयुद्ध के समय नीदरलैंड में ग्यारह डिस्ट्रिक्ट हुआ करती थी,अब बारह डिस्ट्रिक्ट हैं) और हर डिस्ट्रिक्ट की अपनी एक भाषा है। तुम सारी भाषा तो नहीं समझ सकते। ये लोग फ़्रिसलॉंद से आए है। ये फ़्रीस भाषा में बात कर रहे हैं,इसलिए तुम इनकी भाषा नहीं समझ पा रहे। 
उस दिन तो पिताजी की बातों पर विश्वास कर मैं निश्चिंत होकर सो गया था। बाद में पता लगा की वह लोग यहूदी धर्म के थे और अपनी जान बचाने के लिए वहाँ आ कर छिपे थे। उस समय किसी यहूदी को शरण देना अर्थ सीधे-सीधे मौत को गले लगाना था। फिर भी पिताजी ने मानवता को प्राथमिकता दी थी और उन दोनों यहूदी व्यक्तियों को वहाँ शरण दी गई थी और हम बच्चों का वहाँ जाना मना था। बातें करते-करते,अब तक हम बाज़ार के बीचोंबीच आ पहुँचे थे।      
जहाँ एक बड़ी बिलकुल ऐम्सटर्डम के आर्किटेक्चर वाली सफ़ेद बिल्डिंग थी। दादा जी ने बताया की, वहाँ उनके दादा दादी रहते थे। 1940 के अंत में दादा जी के दादा जी का देहांत हो गया था। अब समस्या यह थी की उनको दफ़नाया कैसे जाए? दूसरे विश्वयुद्ध के समय सभी धर्मों के मृतकों को दफ़नाया ही जाता था। आज भी नीदरलैंड में मृतकों को या तो दफ़नाया जाता है या बिजली के शवगृह में जलाया जाता है। 
उस समय नीदरलैंड ने Hongerwinter यानी ‘भूखी सर्दी की मार’ भी झेली थी। लोग ट्यूलिप बॉल को उबाल करखाने के लिए मजबूर थे। इसलिए खाने की वस्तुओं के साथ-साथ लकड़ी का मिलना भी बहुत मुश्किल था। इसलिए मृतकों को दूसरे विश्वयुद्ध के समय गत्ते के डिब्बों में रख कर दफ़नाया जा रहा था, जो मेरे पिताजी को सही नहीं लग रहा था। वह अपने पिताजी को सम्मान पूर्वक अंतिम विदाई देना चाहते थे। इसलिए नीचे आँगन में लगी लकड़ियों से जैसे-तैसे एक ताबूत बना, दादा जी को उसमें  दफ़नाया गया। यह बताते हुए दादा जी की आँखें भर आई थीं। उन्होंने एक गहरी साँस लेते हुए अपनी आँखें बंद कर ली थीं। हम कुछ और आगे बढ़े अब हम pits oude buurt से मुड़कर prinses gracht की ओर जाने वाली सड़क के बीच खड़े थे।
दादाजी वहाँ खड़े होकर मुझे बिना देखे कहा मुझे यह भी याद है 1941 की, फ़रवरी की वो ठंडी रात,  मैं बिलकुल यहीं खड़ा अपने फ़ैमिली डॉक्टर को आवाज़ लगा रहा था। मेरी तीन साल की बिमार बहिन को बचाने के लिए। जर्मनी की दिन रात की गोलीबारी से सब कुछ तबाह हो गया था। डाक्टर के पास दवाई भी ख़त्म हो गई थी और मेरी छोटी बहन बिना दवाई के मर गई थी। इतना बताते-बताते दादाजी की मोटी-मोटी आँखों से बहे उनके आँसू, उनके लाल गालों पर आ गए थे। 
दादाजी को पहले कभी यूँ रोते नहीं देखा था ,मैंने उनका हाथ अपने हाथ में लिया और आगे बढ़ गई। दादा जी ने मेरे पैरों में दो अलग-अलग रंग की मोटी जुराबें देखी तो वह हँसने लगे। उन्होंने मुझसे पूछा “क्या तुमने भी इसमें कुछ छुपाया है मेरी तरह? जैसे दूसरे विश्वयुद्ध के समय मेरे पिताजी और बुआ करते थे, मेरे साथ। जब मैं, अपनी बुआ के घर जाता था तो मेरे पिताजी ठंड से बचाने के लिए मेरी जुराबों में कुछ काग़ज़ लगा देते थे और जब मैं अपनी बुआ के घर जाता था तो बुआ यह कह कर वो काग़ज़ निकाल लेती थीं की ये काग़ज़ ठंड से गल गये मैं दूसरे काग़ज़ लगा देती हूँ । 
मुझे हमेशा एक ही रास्ते से अपने घर से बुआ के घर और बुआ के घर से अपने घर जाना होता था। बाद में जब नीदरलैंड, जर्मन से आज़ाद हुआ तब जा कर मुझे पता लगा की वह काग़ज़ मात्र काग़ज़ नहीं थे। वह विशेष संदेश होते थे जो मैं वहाँ पहुँचाता था। मैं उस समय का उनका कूरीयर वाला था, दादा जी ने ज़ोर-ज़ोर से हँसते हुए कहा।
अब हम दो गलियों के बीच बने पुल पर खड़े थे। दादाजी ने पुल की दूसरी तरफ़ वाली एक बड़ी बिल्डिंग की और इशारा करते हुए बताया की दूसरे विश्वयुद्ध के पहले यहाँ मेरी बुआ का कार्यालय हुआ करता था। एक बार मेरा भी वहाँ जाना हुआ। तब पता लगा की वहाँ फ़ैमिली फ़्रांक ( एना फ़्रांक की डायरी की लेखिका) का घर भी वहीं था। 
वहाँ उस गली के सभी यहूदी समुदाय के लोगों को जर्मन के ट्रकों में भरा जा रहा था। मेरी बुआ मेरी आँखों पर हाथ रख अंदर ले गई। उस समय यहूदियों के साथ जो हुआ उसे मुझे बताने की ज़रूरत नहीं है। 
खैर 12 सितंबर 1944 को नीदरलैंड का एक हिस्सा, लिम्बर्ग, अमेरिका की मदद से आज़ाद हो गया था और इस तरह धीरे-धीरे नीदरलैंड की आज़ादी का सफ़र शुरू हुआ। 5 मई 1945 को नीदरलैंड  जर्मनी से आज़ाद हो गया था। जो खिड़कियांँ, दरवाज़े, दूसरे विश्वयुद्ध के समय काले रंगों से रंगे गये थे, अब साफ़ होने लगे थे।
पैराशूट से स्वीडन की मीठी ब्रेड फेंकी गई थी, जिसका स्वाद आज भी मेरे मुँह में है। पूरे एमस्टर्डम में उत्सव मन रहा था मेरे पिताजी ने भी एक बड़ा सा नीदरलैंड का झंडा घर पर फहराया। उस दिन मेरे पिताजी ने मुझसे बात की और बताया की उन्हें मुझ पर बहुत गर्व हैं। मैंने उनके संदेश सही समय, सही जगह पहुँचाये। मैं भी इस आज़ादी की लड़ाई का छोटा सा सिपाही था। उस दिन मैं ख़ुशी से फूला न समा रहा था, ऐसा कहते हुए दादा जी ना मेरा हाथ अपने हाथ में लेते हुए कहा, “जानती हो मैं तुम्हें यहाँ क्यों लाया और ये सब तुमको क्यों बताया? क्योंकि मैं तुम्हारा कल हूँ। तुम मेरा आज हो और तुम्हारी आने वाली पीढ़ी तुम्हारा नया कल होगा। 
अगले सप्ताह 5 मई को नीदरलैंड का स्वतन्त्रता दिवस मनाया जाएगा। मैं चाहता हूँ की तुम ये कहानी अपनी आने वाली पीढ़ी को सुनाओ और उन्हें आज़ादी पाने और आज़ादी उपहार में मिलने का अंतर समझा कर, इस आज़ादी का सम्मान करना सीखाओ। 
दादा जी की इस बात को समझने में मुझे काफ़ी समय लगा पर अंततः बात समझ आ गई । 
डॉ ऋतु शर्मा (नंनन पांडे) नीदरलैंड 
स्वतंत्र पत्रकार, लेखिका, कवयित्री 
टाउनहॉल आसन ( नीदरलैंड ) की परामर्श समिति की सदस्या । 
पत्र व्यवहार RituS0902gmail.com
मोबाइल नंबर 031-622252508
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2 टिप्पणी

  1. बेहद रोचक अंदाज ए बयां।यथार्थ परक आलेख जो एक संवेदनशील संस्मरण के जरिए नीदरलैंड की आजादी और उस समय की स्थितियों को मूर्तिमान सा बताता है।
    डॉक्टर ऋतु नैनन पांडे को बधाई तो अवश्य परंतु उस से पहले यह बधाई पुरवाई परिवार और संपादक के हिस्से में सबसे पहले आती है।
    यह संपादकीय स्कंध ही है जो इतनी महत्वपूर्ण तथ्यों को देख पढ़ और सोच कर प्रकाशन के ढांचे में ढालता है।

  2. बेहद रोचक‌और मार्मिक संस्मरण है यह! इस संस्मरण के माध्यम से द्वितीय विश्व युद्ध की नीदरलैंड की समस्याओं से से भी रूबरू हुए। युद्ध कभी भी किसी समस्या का समाधान नहीं हुआ है। काश अपनी महत्वाकांक्षाओं के लिए तत्पर लोग इस बात को समझ पाते!
    कल 5 मई है, नीदरलैंड का स्वतंत्रता दिवस!
    आपको नीदरलैंड के स्वतंत्रता दिवस की अनेक-अनेक शुभकामनाएँ।

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