20 मार्च, 2022 को प्रकाशित पुरवाई के संपादकीय ‘दि कश्मीर फ़ाइल्स… कितनी हकीकत, कितना सिनेमा’ पर निजी संदेशों के माध्यम से प्राप्त पाठकीय प्रतिक्रियाएं

मीरा गौतम
आपके सम्पादकीय पर मैं अपनी राय प्रेषित कर चुकी हूँ.आपने मूल पटकथा, पात्रों के अभिनय,ऐतिहासिक घटनाओं की तथ्यता, परिवेश और संगीत,अर्थसंगति में तारतम्यता और संयोजन की जटिलताओं पर बेबाक और तटस्थ चर्चा की है.फ़िल्म की सीमाओं पर भी ध्यान दिलाया है.इसे लेकर सकारात्मक और नकारात्मक दोनों ही तरह की बातें सुनने को मिल रही हैं. संपादकीय के दूसरे हिस्से की प्रतीक्षा रहेगी तेजेन्द्र जी.बधाई.
डॉक्टर सच्चिदानन्द
पूरी फिल्म जैसे आपने डूब कर देखी है। लेकिन इस फिल्म के उत्तेजक प्रभाव से अलग आपकी अभिव्यक्ति में हृदय और बुद्धि का अद्भुत सामंजस्य आम दर्शक से अलग एक परिपक्व समालोचक का सबूत है। मै नही देख पाया हूँ अभी ।लेकिन तमाम आलोचनाओं से अलग आपके अन्तिम पंक्तियों की स्वीकारोक्ति से एक सकारात्मक असर पड़ रहा है। इस फिल्म में जो दर्द उभरा है उसे नजरान्दाज कर के अपने वामपन्थी खाँचे में जकड़े हृदय वाले उसे महसूस करते हुए भी मजबूरी में उसका विरोध करते नजर आ गये हैं।
सुधा जुगरान
बहुत ही बेहतरीन संपादकीय। आपने फिल्म के मजबूत व कमजोर पक्ष पर निष्पक्ष टिप्पणी की। फिल्म के उन कमजोर बिंदुओं पर फिल्म देखते हुए मेरा भी ध्यान गया। लेकिन फिल्म मजबूती से कश्मीरी पंडितों का दर्द सामने रखती है व प्रत्येक कलाकार का अभिनय सधा हुआ व बहुत ही स्वाभाविक है। इंतजार है अगले संपादकीय अंक का।
विरेन्द्र वीर मेहता
बहुत ही सुंदर और विस्तृत ढंग से की गई समीक्षा। जिस तरह संपादकीय में एक-एक पात्र का विश्लेषण किया गया है वह सराहनीय है। फिल्म के दो दृश्य (अनुपम खेर के बिस्कुट चाटने और एक लाइन में खड़े लोगों को गोली मारने के दृश्य) पर बहुत गहन दृष्टि डाली गई है। इस बात से सहमत हुआ जा सकता है कि फ़िल्म का अंत अप्रत्याशित रूप से हुआ है जहाँ दर्शक अभी कुछ और देखने की इच्छा रख रहा था (शायद फ़िल्म की लंबाई पहले ही अधिक होना भी इसका कारण हो सकती है। बहरहाल जुलियर सीजर के नाटक की स्पीच (फ्रेंड्स रोमस कंट्रीमेन. . .) का वर्णन सम्पादकीय की अद्भुत जानकारी है। इस लाज़वाब समीक्षा के लिए हार्दिक बधाई के साथ सम्पादकीय के दूसरे हिस्से की प्रतीक्षा रहेगी. . . हार्दिक सादुवाद तेजेन्द्र सर।
विजय नागरकर
फिल्म के कुछ अज्ञात विषयों पर तथा किरदारों पर आपकी विशेष टिप्पणी महत्वपूर्ण है। चिन्मय मांडलेकर मराठी नाटक, टीवी के चर्चित अभिनेता और पटकथा लेखक है। पल्लवी जोशी ने अपने पति विवेक की फिल्म में विशेष योगदान दिया है। फिल्म की चर्चा चक्राकार तूफान की तरह फैल रहा है। मूलभूत प्रश्न कश्मीरी पंडितों का विस्थापन और धार्मिक उन्माद से तबाह होता कश्मीर है। इतिहासबोध लेकर अब कुछ रचनात्मक कार्य होना चाहिए। बहुत बढ़िया लेख, तेजेंद्र जी।
सूर्यकांत सुतार सूर्य
वाह! बहुत ही सुंदर समीक्षाकरण किया है आदरणीय तेजेन्द्र जी। मैं कल ही देर रात फ़िल्म देख कर आया और आज सुबह सबसे पहले उठ कर अपनी समीक्षा तैयार की। आपको भेजने ही वाला था कि उसके पहले आपका लेख पढ़ने को मिला। परंतु वाकई में इतनी बारीकी से की हुई फ़िल्म की और उनके क़िरदारों की विस्तृत विवरण पढ़कर बहुत ही अच्छा लगा। आप लेखनी पूरे की पूरे फ़िल्म का दृश्य आंखों के सामने उतारती है। अति सुंदर लेखन।
मोनी बिजय
नमस्कार सर🙏
आपकी समीक्षा पढ़कर तो इस सच्चाई को देखने की और व्यग्रता बढ़ गई है। पता नही देखकर बर्दाश्त कर पाऊं या नही,पर सुनकर ही इस अत्याचार के खिलाफ़ शब्द और मन स्थिर नहीं हो रहे हैं।
उम्मीद तो नही है की यहां हॉल में लगेगा। कब देख पाऊंगी, पता नही?
पर आपका संपादकीय बहुत प्रभावी और सटीक है।
पुष्पा रॉव, नॉटिंघम
तेजेन्द्र जी, मेंने फिल्म नही देखी पर आपका सम्पादकीय पृष्ठ देख कर ऐसा लग रहा है कि अब देखने की कोशिश करनी चाहिए। आपका वर्णन इतना सटीक है.. इसे saveकर रखना चाहिए। फिल्म देखते हुए अपने notes बना रहे थे… शायद। बहुत बधाई स्वीकारें। अद्भुत।
शन्नो अग्रवाल, लंदन
इस फ़िल्म की देश-विदेश हर जगह चर्चा हो रही है। सबकी जुबान पर इसी फिल्म का नाम है। किंतु मैं अब तक नहीं देख पाई हूँ। पर काफी कुछ सुन चुकी हूँ इसके बारे में। आपके इस संपादकीय से और भी जानकारी मिली। अनुपम खेर के साथ अन्य किरदारों के बारे में भी जाना। 1990 में कश्मीर में जो कुछ भी हुआ उसके बारे में सुनकर रूह काँप उठती है। इस भयावह कांड के बारे में विवेक अग्निहोत्री ने फ़िल्म बनाकर बहुत साहसी कदम उठाया है। जिसे अन्य कोई और नहीं सोच सका। तेजेन्द्र जी, इस फ़िल्म के बारे में इतनी विस्तृत जानकारी देने के लिये आपको साधुवाद। अब आपके संपादकीय की अगली किश्त का बेसब्री से इंतज़ार है।
दिव्या शुक्ल
बहुत ही अच्छा सन्तुलित सम्पादकीय । फ़िल्म के हर पहलू को बारीकी से रखा है । कश्मीर फ़ाइल बेहद मार्मिक फ़िल्म जिसे देखने की हिम्मत नही जुटा पा रहे हम । तेजिंदर जी आपको बधाई और अगली क़िस्त का इंतज़ार है ।
उषा साहू, मुंबई
जी संपादकीय पढ़ा l ऐसा लगा सामने चलचित्र देख रहे हैं l पारिवारिक व्यस्तता के कारण मैं अभी तक मूवी देख नहीं पाई हूँ l …और मुझे ये मूवी थियेटर में जाकर ही देखना है l कुछ भाग तो आपने समझा ही दिया है l
सब ने घर में ही देखी l मैंने नहीं देखीl
डॉक्टर ऋतु माथुर, प्रयागराज
आदरणीय तेजेंद्र जी, आपका संपादकीय ‘कश्मीर फाइल्स कितनी हकीकत कितना सिनेमा’ वास्तव में अपने शीर्षक की सत्यता को उजागर करता है, जिसके अंतर्गत आपने अत्यंत सूक्ष्मता और कुशलता पूर्वक फिल्म के शीर्षक का तुलनात्मक विश्लेषण ,फिल्म के हिट होने में दर्शकों की भूमिका, फिल्म की अब तक की कमाई ,सकारात्मक-नकारात्मक पक्ष ,संबंधित आवश्यक पहलू, ऐतिहासिक संदर्भ, उससे संबंधित निदेशक व पात्रों के शोध कृत्य घटनाओं और नारी चरित्र आदि का कुशल प्रस्तुतीकरण, किरदारों के लिए की गई मशक्कत, घटनाओं का विवरण बोलने का लहजा, परिपक्वता फिल्म के प्रभावकारी संवेदनात्मक दृश्य, महिला वैंप के भावों, वेशभूषा व महत्वपूर्ण कथन, नज़्म की पंक्तियां, अन्य महिला किरदारों की पीड़ा जो आंखों से बयां होती दिखती है, बाल किरदार की अभिनय परिपक्वता, पात्रों के चेहरे की अनिश्चितता और उलझन श्रोताओं की मानसिकता पर प्रभावोत्पादक असर, स्पीच बोलते समय किरदार की नसों का फूलना किस प्रकार वास्तविक किरदार के चरित्र को दर्शाता है।
फिल्म में पार्श्व संगीत की महत्ता, दृश्यों की पुनरावृत्ति किस प्रकार फिल्म के उस दृश्य के प्रभाव को कमतर कर देती है, किस दृश्य को और अधिक संवेदनशील बनाया जा सकता था, फिल्म में 24-25 सैनिकों का एक-एक करके गोली खाकर गिरना किस प्रकार दुख और खौफ को बोरियत में बदल देता है,इसके स्थान पर किस प्रकार का फिल्मांकन अन्य दृश्यों पर भी किया जा सकता था जिससे, दर्शकों पर यंत्रवत प्रभाव ना पड़ता, क्योंकि दृश्यों, ध्वनियों आदि का उत्कृष्ट प्रभाव दर्शकों की मनोदशा को अवश्य ही प्रभावित करता है । सुदूर लंदन में फिल्म किस प्रकार दिखाई जा रही है व अपने उद्देश्य में सफल सिद्ध हो रही है,फिल्म की समाप्ति अचानक से हो जाना निदेशक की असमंजसता को जाहिर करता है और अंततः निष्कर्ष कि यह फिल्म आज तक की आतंकवादी दृष्टिकोण से बनी अन्य फिल्मों से भिन्न है, जिसमें कश्मीरी पंडितों की पीड़ा स्पष्टत: प्रदर्शित की गई है, जिसकी तुलना अपने जर्मनी में यहूदियों के विरुद्ध होलोकास्ट से की है। इन सभी आयामों, तथ्यों को अत्यंत बारीकी से जांचते हुए जो समीक्षा ,निरीक्षण बख़ूबी आपने संपादकीय के माध्यम से सबके समक्ष प्रस्तुत की है, निश्चय ही वह श्लाघनीय है।

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