सुरेन्द्र वर्मा द्वारा लिखित उपन्यास ‘दो मुर्दों के लिए गुलदस्ता’ मुख्य रूप से पुरुष-वेश्यावृत्ति पर केन्द्रित है। इसमें सहकथा के रूप में मुम्बई के अंडरवर्ल्ड की कथा भी शामिल की गयी है। सुरेन्द वर्मा ने इस उपन्यास में महानगरीय सभ्यता में उपजते विकृतियों को कथा के माध्यम से उजागर करने का प्रयास किया है। पुरुष वेश्यावृत्ति पर लिखे गए इस उपन्यास की प्रशंसा इस तौर पर ज्यादा हुई है कि यह ‘जिगालो’ पर लिखी गयी हिन्दी की प्रथम कृति है। पुष्पपाल सिंह के शब्दों में “राजेन्द्र यादव तो सुरेन्द्र वर्मा के उपन्यास ‘दो मुर्दों के लिए गुलदस्ता’ की प्रशंसा ही इसलिए करते हैं कि वह पुरुष वेश्यावृत्ति (जिगालो) पर हिन्दी में प्रथम कृति है।” अपने विषय में नयेपन के साथ यह उपन्यास पूँजीपति एवं बाजार से प्रभावित स्त्री स्वरूप की व्याख्या करने वाला है। 
इस उपन्यास में भोला और नील नामक दो युवकों की कहानी साथ-साथ चलती है। भोला अंडरवर्ल्ड में चला जाता है एवं नील जिगालो बन जाता है। जिगालो के रूप में नील की मुलाकात कई अलग-अलग स्त्रियों से होती है। ये स्त्रियाँ उच्चवर्ग की हैं। ज्यादातर स्त्रियाँ महानगरीय संत्रास से पीड़ित हैं। बाजार ने किस प्रकार से स्त्री-पुरुष को एक-दूसरे के लिए उपभोग की वस्तु बना दिया है यह यहाँ देखा जा सकता है। कहा यह भी जा सकता है कि पितृसत्तात्मक समाज में स्त्री वेश्या के रूप में वरणेय थी फिर पुरुष का वेश्या रूप अपरूप में क्यों देखा जाना चाहिए? दरअसल पुरुष का वेश्या रूप उपभोक्तावाद और विशुद्ध रूप से बाजार की देन है। बाजार वह व्यवस्था है जहाँ जरूरत के अनुसार सबकुछ मिलता है। “शायद नैतिकता को, दकियानूसी विचार मानने वाले, इस कस्मोपोलिटन शहर का एक बड़ा बिजनेस बन रहा था यह। इस बिजनेस में और और आदमी नहीं थे, कम-से-कम, वे दो उत्पाद थे और ज्यादा-से-ज्यादा, नर और मादा। इन उत्पादों का बाजार भाव था जो शेयर बाजार सेंसेक्स की तरह घटता-बढ़ता था। रंग, रूप, कद, काठी, सामर्थ्य के साथ-साथ, अंग्रेजी भाषा, इसके भाव तय करने में अहम थे।” जिगालो व्यवसाय जरूरत की नहीं वासना की उपज है जिसे बाजार ने बढ़ावा दिया है। 
पूँजी बाजार के लिए आवश्यक तत्त्व है। पूँजी है तभी बाजार है। बाजार अपने तरीके से सभी कुछ बिकाउफ बना देने के लिए निरंतर प्रयत्नशील रहता है। इस उपन्यास में देखा जाए तो पूँजीपति स्त्री पुरुष का अपने हिसाब से उपभोग करती है एवं उसकी उपयोगिता समाप्त होने पर उसे झटक कर आगे बढ़ जाती है। उसके अंदर किसी प्रकार का अपराधबोध नहीं होता है। यह बिल्कुल वैसे ही है जैसे पुरुष अपने लिए स्वच्छंद यौन संबंध चाहता है और किसी भी नैतिक मानदंड को स्वयं के लिए स्वीकार करने से कतराता है। बदलते परिवेश के कारण स्त्री के सामाजिक संरचना में बड़े गहराई से परिवर्तन महसूस किया जा सकता है। आधुनिकता बोध ने स्त्री को स्वतंत्र व्यक्तित्व की चेतना से संपन्न किया है। वह अपने तरीके से जिन्दगी जीने लगी है। बड़े-बड़े पद पर प्रतिष्ठित होकर उसने स्वयं के लिए पूँजी भी एकत्रित की एवं पुरुषों के समान स्वतंत्र मार्ग भी बनाया है। सामाजिक मानदंड महत्त्वपूर्ण न होकर व्यक्ति महत्त्वपूर्ण दिखाई देता है।
इस उपन्यास में ‘पारुल’ एक औद्योगिक घराने से संबंध रखती है। उसका मायका और ससुराल दोनों मुंबई का प्रतिष्ठित एवं ऊँचा औद्योगिक घराना है। पारुल जयंत की पत्नी है। नवीन सोमपुरिया पारुल का भाई है। ये दोनों नाम जयंत और नवीन उद्योग जगत के बड़े नाम हैं। इनकी छत्रछाया मुम्बई के अंडरवर्ल्ड जगत को प्राप्त है। पारुल से नील की मुलाकात एक पार्टी में होती है यह पार्टी पारुल के घर पर रखी गई है जिसमें नील मेहताब जी के साथ शामिल होता है। मेहताब वह महिला है जिनके यहाँ नील नौकरी करता है। पारुल को नील जब पहली बार देखता है तो वह उसे बहुत व्यथित और अकेली जान पड़ती है। “उस एक पल नील की निगाह पारुल से मिल गई। उसकी मोनालिशा-मुस्कान में एक और अर्थ कसमसा रहा था – व्यग्र उदासी का। यह स्त्री अंदर कहीं बहुत अकेली और व्यथित है, उसने सोचा।” नील की पारखी आँखें पारुल का जायजा ले लेती हैं। “नीली साड़ी में लिपटी गोरी, नाजुक-सी पारुल में परिष्कृत लालित्य था। पीठ पर खुले हुए बाल लहरा रहे थे। आँखें गहरी और शांत। तराशे होठ कसे-से।” ऐसा नहीं है कि वह केवल सौन्दर्य की प्रतिमूर्ति है। पारुल ने उच्च शिक्षा प्राप्त किया है। पारुल व्यवसायिक प्रबंधन में डॉक्टरेट है। “दो रैकों के बीच में लगे एक चौखटे को देखकरे वह ठिठक गया। यह व्यवसायिक प्रबंधन में पारुल की डॉक्टरेट का प्रमाण पत्रा था।” उच्च शिक्षित एवं उच्चवर्गीय पारुल में उसमें तर्क करने एवं स्वयं को महत्त्व देने की क्षमता विद्यमान है। वह अपने पति से प्रसन्न नहीं है। 
पारुल अपने पति जयंत के उद्योग जगत की एक बड़ी हस्ती है। उसके तीक्ष्ण बुद्धि एवं सुव्यवस्थित विचार का पता नील को उससे बात करके लग जाता है। नील पारुल के आकर्षण में अवश्य बँध जाता है लेकिन पहल पारुल ही करती है। वह फोन करके नील को सी ब्रिज फ्लैट में बुलाती है। नील को पहली बार पारुल से शारीरिक रूप से मिलकर उसके अतृप्त शरीर का पता लगता है। “उसे लगा, पारुल के भीतर ऊष्मा की हिलोर-सी उठी है… जैसे मेले में भटके पारुल की बाँहें उसे कसने लगीं और उसके अंदरुनी बीहड़ों में कातर पुकार गूँजी, अब तक तुम कहाँ थी पारुल?” पारुल के अंदरुनी अकेलेपन का अहसास नील को उससे मिलकर हो जाता है। पारुल जयंत को पसंद नहीं करती है। उसका विवाह जयंत से एक समझौते के रूप में हुआ है। “अगर पारुल आज शाह परिवार की बहू है, तो इसके पीछे संकट के समय में मानिक भाई शाह के पूरी ईमानदारी से अपने पुराने मित्रा चंदन सोमपुरिया के व्यवसाय को सँभालना है।” दोनों परिवार इस विवाह से अपना औद्योगिक रिश्ता मजबूत कर लेते हैं। विवाह के बाद पारुल दोनों परिवारों के बीच एक कड़ी के रूप में है। “अब वे शाह परिवार की तीन और सोमपुरिया परिवार की पाँच कंपनियों के बोर्ड पर हैं और दोनों की एक-एक कंपनी की मैनेजिंग डायरेक्टर।” पारुल तीनों है। वह ‘मैनेजिंग डायरेक्टर’ के पद पर अपना योगदान यहाँ दे रही है। पारुल को ऐसा प्रतीत होता है कि एक दिन ऐसा अवसर आयेगा जब उसे नील के साथ जीवन के सुखद अनुभव प्राप्त होंगे। “…चरम सीमा के बाद पारुल की आँख से दो नन्हें आँसू ढुलक आए। एकाएक उन्होंने अपने गले से कार्टियर की माला उतारी और नील के गले में डाल दी, ‘नील, तुमने मुझे जिंदगी का पहला आर्गेज्म दिया है…’।” पारुल के द्वारा नील को दिया जाने वाला पुरस्कार स्वरूप ‘कार्टियर’ की माला पारुल के आंतरिक खुशी का परिणाम है जो नील को कार्यकुशलता के परिणामस्वरूप पारितोषिक रूप में दिया गया है। 
समय के अनुसार नील की बुकिंग का ‘रेट’ बढ़ जाता है। विकएण्ड पर वह दोगुने पैसे लेता है और स्त्रियाँ उसे खुशी-खुशी पैसे देती हैं। पारुल महंगे उपहारों से लगभग उसे ढक देती है। नीले हीरे की अंगूठी से लेकर लंदन से स्पेशल ऑडर पर मंगाये कपड़े एवं कॉस्मेटिक से नील की आलमारी भर जाती है। धीरे-धीरे पारुल की वह जरूरत बनने लगता है। पारुल नील से जितनी खुशी चाहती है उतनी उसे मिलती है और वह नील को भी खुशियों से भर देती है। “इस समय डिजायनर रंगीन चश्मे के साथ वह लार्ड जिम लेबेल की बटन-डाउन कमीज़ पहने था, वान हूसेन की स्टील ग्रे ट्राउजर्स और रेंग्लर की आसमानी जैकेट। दूसरे मिलन से पहले एक दिन के नोटिस पर पारुल ने ये चीज़ें लंदन से मँगवाई थीं। हर भेंट में वे उपहारों के दो तीन पैकेट लेकर आती थी। अब उसके पास हीरों से जड़ी अंगूठियाँ, कफ-लिंक्स और टाई-पिनें थीं, वॉडरोब पूरा भर चुका था और स्नान घर की आलमारी तरह-तरह के विदेशी रेजर, शेविंग क्रीम, आफ्टर शेव लोशन और शैंपू की शीशियों से ठसाठस थी।” यह सब उसे पारुल की कृपा से प्राप्त हुआ था। बाजार वृद्धि ने इसमें योग दिया था। “‘कितना आनंद देते हो तुम’… पारुल फुसफुसाई। फिर उसके माथे पर होठ रख दिए। उसकी पीठ को बाँहों से घेरते हुए वह निश्चल पड़ा रहा अब धड़कन स्थिर होने लगी थी। पर मुँह सूखा हुआ था।” देखा जाए तो उपभोग की इस रीति में स्त्री और पुरुष दोनों समान दिखाई देते हैं। ध्यातव्य है कि पुरुष के जिस उपभोग वृत्ति से स्त्री आज तक दुःखी होती आयी है स्वयं स्त्री द्वारा उसे अपनाया जाना क्या लाभकारी हो सकता है? उत्तर केवल नकारात्मक होगा। अतः पुरुष का अनुसरण मात्रा स्त्री समानता का अधिकार नहीं है।
पारुल नील को पैडर रोड के नेबुला बिल्डिंग में चौदहवीं मंजिल पर एक फ्लैट खरीद कर दे देती है। नील के यह पूछने पर कि यह फ्लैट तो बहुत ही महंगा होगा, तो जवाब में पारुल कहती है कि “नील, तुमने मुझे कितने आर्गेज्म दिए है? सोमपुरिया घराने की राजदुलारी और शाह घराने की गृहलक्ष्मी को मिले सुख का क्या मोल लगाया जाएगा?… मेरा कंप्यूटर कहेगा कि यह फ्लैट फिर भी सस्ता है।” नील अब पूर्ण रूप से पारुल का रखैल बन जाता है। पारुल यहाँ आती जाती है। नील के पास आने और रुकने के लिए पारुल अपने परिवार में कई झूठ का सहारा लेती है। नील के साथ समय बिताने वाली कितनी औरतें हैं। उन सबकी अपनी फैंटेसी है। पारुल की फैंटेसी पूर्णतः भारतीय है। नील के साथ उसे उसी रंग में रंगना अच्छा लगता है जो भारतीय शैली की देन है। पारुल के कारनामे से जयंत बेखबर है ऐसा नहीं है उसे सब कुछ पता लग जाता है। वह यह जानकर कि उसकी पत्नी ने एक जिगालो को अपना रखैल बना रखा है इससे विचलित नहीं होता उल्टा वह नील माथुर के सामने उसका आभार मानता है कि उसने उसके घर को टूटने से बचा लिया है। “मेरा तुमसे एक ही आग्रह है उससे ‘डिस्क्रीट’ होने के लिए कहो। टाउन में तुम्हें बगल में बैठाये घूमना, होटलों में हमारे बगल में तुम्हारे लिए कमरा बुक करवाना, ज्यादों घंटों के लिए ऑफिस या घर से गायब हो जाना ये बातें गलत हैं। यह मेट्रोपोलिस हमारे जैसे लोगों के लिए गाँव की तरह है। उसे समझाओ कि सी-ब्रिज या नेबुला में घुसे रहना ज्यादा सुरक्षित है।” जयंत सब जानते हुए भी पारुल के साथ रहता है उससे दूर नहीं होता क्योंकि वह अपनी कंपनी को आगे बढ़ाना चाहता है। विस्तृत बाजारवाद की नीति एवं भूमंडलीकरण के बढ़ते प्रभाव ने जयंत को पारुल और नील के संबंध को प्रोत्साहन देने के लिए प्रेरित किया है। पारुल के चले जाने से उसकी एक तिहाई शक्ति रह जाएगी। इसलिए ही वह नील को अतिरिक्त पैसे देता है कि वह उसकी पत्नी के साथ संबंध बनाये रखे। पारुल पूँजीपति स्त्री के उस स्वरूप में है जिसके आगे पुरुष और पुरुषत्व दोनों नतमस्तक दिखाई देते हैं।
पारुल का व्यक्तित्व उस स्त्री की तरह दिखाई देता है जो अपने दैहिक स्वच्छंदता के लिए कुछ भी कर गुजरने के लिए तैयार है। वह नील से कहती है कि जयंत को स्लो पॉयजन दे दूँ। पारुल जयंत के अपाहिज बहन से, जो कभी माँ नहीं बन सकती है, नील का विवाह करके अपने स्वार्थ पूर्ति के लिए उसे अपने घर में रख लेना चाहती है। पारुल के इस प्रस्ताव से नील घृणा से भर जाता है। नील जब एक बार पारुल से मिलने उसके ऑफिस पहुँचता है तो वहाँ उसकी व्यग्रता देख कर वह दंग रह जाता है। वह बीमार है फिर भी पारुल को उसकी बीमारी से कुछ लेना-देना नहीं है। वह केवल नील को भोगना चाहती है। नील वहाँ से चल देता है। पारुल तड़प कर रह जाती है। इस प्रसंग को पढ़ने के बाद नील को डॉक्टर की दी गई वह हिदायत पाठकों को याद आती है जिसमें डॉक्टर कहता है कि “जिस पेशे में तुम हो, वह स्त्री से निभ सकता है, क्योंकि उसे सक्रिय नहीं होना होता।” इस पेशे में मौजूद स्त्री एवं पुरुष के अंतर को यहाँ डॉक्टर स्पष्ट कर देता है। परंतु मुनाफा, लाभ, फायदा जैसे शब्द इस अंतर को स्वीकारने को तैयार नहीं है। पुरुष की अपनी समस्याएँ हैं। यह बात पारुल नील के विषय में नहीं सोचती अपने ‘इनवेस्टमेंट’ से ज्यादा मुनाफा प्राप्त करना उसकी आदत है। उसके स्वरूप की यह प्रवृत्ति स्त्री की परिवर्तित मनोवृत्ति कही जा सकती है जिसे बाजार ने पोषित किया है। 
पारुल नील के तरफ आकर्षित है। यह आकर्षण तब खत्म हो जाता है जब उसे नील बताता है कि वह विवाह करके घर बसाना चाहता है। पारुल नील की प्रेमिका नैन एवं उसकी माँ से अपने और नील के रिश्ते की सच्चाई को बताकर उन दोनों की नजरों में उसे गिरा देती है। जो फ्लैट नेबुला में पारुल ने उसे दिया था वह उससे छीन लेती है। उसे इतने से भी चैन नहीं पड़ता तो वह उसे पुलिस से अरेस्ट करवाती है। पुलिस उसकी हिस्ट्री को लेकर कई आरोप लगाकर उसे जेल में बंद कर देती है। पारुल लाखों रुपये खर्च करके जैसे नील को आबाद करती है वैसे ही उसे लाखों रुपये बर्बाद करने में खर्च कर देती है। पुलिस नील को तरह-तरह की यातनाएं देती है। उसे मारती-पीटती है एवं उसका बलात्कार करवाती है। नील के साथ जैसा बलात्कार का वर्णन यहाँ किया गया है ऐसा ही पुरुष के साथ बलात्कार का वर्णन मैत्रेयी पुष्पा ‘अल्मा कबूतरी’ में करती हैं। सुरेन्द्र वर्मा और मैत्रेयी के वर्णन में यह अंतर है कि सुरेन्द्र वर्मा का नील पर हुए बलात्कार का वर्णन करुणा पैदा करता है तो मैत्रेयी का बलात्कार वर्णन जुगुप्पसा। नील की स्थिति इस बलात्कार के बाद एकदम सुन्न के समान हो जाती है। “अधेड़ उठकर पास आया और नील की पतलून ऊपर खींच दी… आधी चेतना के पार नील को रातरानी का कैबरे याद आया, जब नर्तकी के पूरी तरह निर्वसन होकर एग्ज़िट लेने के बाद ध्वल बालों वाले चाचाजान स्टेज पर आकर ब्रा और पेंटी समेटने लगते थे… वह निस्पंद पड़ा रहा। सब कुछ सुन्न था – भीतर और बाहर।” रात रानी के कैबरे का दृश्य यहाँ बताकर लेखक एक रूपक भी बाँधता है और उससे नील की स्थिति स्पष्ट हो जाती है। वहाँ अनेक पुरुषों के बीच एक स्त्री कैबरे के दौरान नग्न होती है जबकि यहाँ एक स्त्री के इशारे पर पुरुष को नग्न स्थिति में पहुँचा दिया जाता है। 
नील जब मदद के लिए अपने एक क्लाइंट यास्मिन को फोन करता है तो वह भी उसे यह कहकर टाल देती है कि तुम्हारे पास सब पारुल का दिया था उसने ले लिया। जब नील बहुत अनुनय करता है तो यास्मीन कहती है कि “तुम पारुल की ताकत के सामने खड़े हो सकते हो?… मैं कहूँगी, पारुल फिर भी रहमदिल है। मैं होती, तो तुम्हारा कत्ल करवा देती।” यहाँ पारुल के अलावा एक अन्य उच्चवर्गीय स्त्री यास्मीन के व्यक्तित्व को उसके इन शब्दों से समझा जा सकता है। अंत में नील पुलिस की बात मानकर तड़ीपार होने के लिए तैयार हो जाता है। उपभोक्तावादी समाज उसे जिगालो बनाता है वह वस्तु मात्र है माँग है तो सप्लाई होगी ही। अगर सप्लाई नहीं तो वह कुछ भी नहीं। नील की कामयाबी के पीछे की सच्चाई को जानकर सब उससे नाता तोड़ लेते हैं। नील पारुल के दफ्तर में उससे हाथापाई करने की कोशिश करता है जहाँ गार्ड उसे बुरे तरीके से पीटते हैं। नील की दुर्गती पारुल के इशारे पर होती है। पूँजी ने स्त्री और पुरुष दोनों को निर्मम बना दिया है। ‘मैला आँचल’ उपन्यास में बावन दास की हत्या से पूँजीपति पुरुष की निर्ममता एवं नील की दुर्गती से स्त्री की निर्ममता का अंदाजा लगाया जा सकता है। 
नील इन सब घटनाओं से निकलते हुए अपने आपको सम्भालता है। वह अपने दोस्त भोला के मदद से अपना एकाउंट और लॉकर खुलवाकर उसमें पड़े पैसे से अपने लिए पिछली जिन्दगी से अलग एक नई जिन्दगी की शुरुआत करना चाहता है। वह अपने सुखद भविष्य की कल्पना में लीन हो जाता है तथा भोला से अपनी योजनाओं का वर्णन करता है। सोचता है कि “आज का दिन उसकी जिंदगी का ऐतिहासिक दिन है। महानगर में एक बार फिर वह अपना कायाकल्प करने जा रहा है।… स्मृति से चिथड़ों और फिर समृद्धि तक…।” वह ऐसा केवल सोच कर रह जाता है क्योंकि अगले पल ही उसकी हत्या कर दी जाती है। यह हत्या पारुल के भाई नवीन सोमपुरिया के सुपारी दिये जाने पर भोला के साथी द्वारा की जाती है। नील की हत्या पूँजीपतियों के ‘यूज एण्ड थ्रो’ सिद्धान्त से हमें अवगत करा देता है।
नील की गति और दुर्गति दोनों के लिए एक स्त्री जिम्मेदार है लेकिन साथ-साथ बाजार भी है जो हर चीज़ को एक माल के रूप में प्रस्तुत करता है। नील की जिन्दगी में अनगिनत स्त्रियाँ आती हैं जिनमें कुमुद, ब्लोसम, यास्मीन, कुंतल राव, वरुणा, शिल्पी, वैशाली, उर्वशी, शिल्पा, मार्था, रोला, जुली, कृष्णा, सैदामिनी, करुणा, सुमंगला इत्यादि शामिल हैं। इनमें कुमुद नील को रतिक्रिया में दक्षता हासिल करने का पाठ पढ़ाती है। सभी स्त्रियों की रतिक्रिया को लेकर अपनी फैंटेसी है। यद्यपि नील फैंटेसी का चार्ज अलग से लेता है और वे खुशी-खुशी देती है। शिल्पा की फैंटेसी इन सबसे अलग है वह नील को औरत के रूप में पसंद करती है। पारुल उसके साथ भारतीय स्त्री की तरह समय गुजारना पसंद करती है। देखा जाये तो ये सभी स्त्रियाँ स्त्री के दमित वासनात्मक अभिव्यक्ति की श्रृंखला मात्रा प्रतीत होती हैं। ये सभी स्त्रियाँ अधेड़ है एवं उच्च वर्ग की है। बाजार इन्हें वह सुविध प्रदान करता है जिससे ये अपनी दबी यौन इच्छाओं को पूर्ति कर पाती हैं। नील स्वयं स्वीकार करता है कि यहाँ जिन्दा रहने के लिए कुछ न कुछ बेचने की हुनर का होना आवश्यक है। बाजार की यह नियति है जो बिकता है वह टिकता है। समाज में हर दिशा में प्रगति करती स्त्री आज बाजार प्रदत्त अवदान के उपभोग में भी पीछे नहीं है। बाजार ने स्त्री को उत्पीड़क की भूमिका में ला खड़ा किया है।
इस उपन्यास में कुमुद स्त्री-पुरुष संबंधों की विवेचना करती हुई नील से कहती है “स्त्री और पुरुष वीणा और वादक के समान हैं।… निसंदेह ऊँचे स्तर की निर्दोष, कसी हुई वीणा भी रागोपलब्धि में अपना योगदान देती हैं। लेकिन अगर वादक में सही रागिनी की समझ और उँगलियों में सही झाला निकालने का कौशल नहीं है, तो? एक रागिनी फूटती है, तो कव्वे बोलने लगते हैं और दूसरी उभरती है जो हिरन आकर झूमने लगते हैं।” गद्य भाषा में रूपक का ऐसा समन्वय सुरेन्द्र वर्मा की अपनी विशेषता है। उपन्यास में आये कामुक प्रसंग के लिए उन्होंने संस्कृतनिष्ठ तत्सम शब्दावलियों का प्रयोग किया है जिसे उपमा एवं रूपक के माध्यम से उभारा गया है। 
शालु यहाँ मुम्बईया हिन्दी बोलती है जैसे – “देवा रे, हनुमान जी का भक्ति इंग्लिश स्टाइल लाइन मारता है….।” “मय चुडैल है क्या…. मय तेरा तप तोड़ रही है क्या…।” “…अब मय तुमको अक्खा महाभारत सुनाएगी…।” ओ देवा, क्या हो गया तेरे कूँ?… मय इदरीच रहती है। ऐसे वाक्यों के प्रयोग द्वारा उपन्यासकार शालु के चरित्र को जीवंत कर देता है। वे ऐसी भाषा रचते हैं जो घटना की वास्तविकता को हमारे समक्ष पुष्ट कर देता है। उनके उपन्यासों की भाषा कहीं-कहीं सरलता से कठिनता की ओर अग्रसर हो जाती है। कहा जा सकता है कि इस उपन्यास की भाषा अपनी समय एवं सीमा के अनुरूप है।
सुरेन्द्र वर्मा के उपन्यासों का कथ्य सदा विशेष होता है। ‘दो मुर्दों के लिए गुलदस्ता’ उपन्यास लीक से अलग संदर्भ को प्रस्तुत करने के कारण विशिष्ट है। राजेन्द्र यादव ने इसकी भूरी-भूरी प्रशंसा की है। ‘दो मुर्दों के लिए गुलदस्ता’ हिन्दी का पहला ऐसा उपन्यास है जिससे पुरुष वेश्या (जिगेलो) वृत्ति का इतना व्यापक और बारीक वर्णन मिलता है। उच्चवर्गीय स्त्री का व्यवसायिक स्वरूप यहाँ वर्णित है। इसके माध्यम से सुरेन्द्र वर्मा ने उच्च वर्ग में मौजूद स्त्री के काम वृत्ति का वर्णन किया है। 
उपन्यास में दो दोस्त नील और भोला की कहानी है। नील और भोला दोनों का आखेट गरीबी ने कर रखा है। उपन्यासकार इन्हीं दोनों की कथा के माध्यम से जिगेलो एवं अंडरवर्ल्ड की हैरान कर देने वाली कथा कहता है। उपन्यासकार अगर कथा को ‘नैरेटर’ के रूप में सुनाता है तो आख्यानक की सक्रियता कहानी में बढ़ जाती है। यहाँ बातें केवल रख दी गई हैं जिसमें विवरण न के बराबर है। कहानी का ‘नैरेटर’ गौण प्रतीत होता है। “अचानक नील को लगा, आज का दिन सामान्य नहीं है। मन में कहीं किरन की घोषणा से गुनगुनी-सी खुशी हुई, पर दूसरे ही पल आशंका की झुरझुरी भर गई।” यहाँ कथ्य को कथावाचक की ओर से स्पष्ट कर दिया गया है। अनावश्यक विस्तार नहीं दिये जाने के कारण कथा विन्यास घटना प्रधान प्रतीत होता है। कथा में शुरु से अंत तक फ्लैशबैक पद्धति का प्रयोग किया गया है। 
उपन्यासकार ने घटनाओं के वर्णन में दृश्य विधान किया है इसका कारण उनका नाट्य साहित्य में मौजूद गहरी रूचि का होना है। “उसे देखते ही पारुल डबडबाई आँखों के साथ उठी और उसे बाँहों में भरते हुए उन्मत्त-सी चूमने लगी, ‘नील’ स्वर रुँध हुआ था, जैसे साँस लेने में मुश्किल हो रही हो। एक आँख की ओर से नन्हीं-सी बूँद फिसल आई थी।” दृश्य विधान से पात्रों के मनोभाव स्वतः प्रकट हो जाते हैं। उपन्यासकार को किसी विवरण के द्वारा उसे समझाने की आवश्यकता नहीं होती है। उपन्यास में कामसूत्र के कुछ अंशों का उपयोग अपनी शैली में लेखक ने किया है। “नखक्षतों की संख्या ठीक है, लेकिन वे आमतौर से जंघाओं तक ही सीमित रहते हैं। इस लिहाज से देह के पिछले हिस्सों की संभावनाएँ भी टटोली जा सकती हैं। जैसा कि मैंने समझाया था, दंतक्षत पहली किस्म की तुलना में ज्यादा गहन और संवेदनशील होते हैं। क्योंकि इसमें एक प्रकार का चुंबन भी मिला रहता है और दाँत का ख़ासा कामोद्दीपक इस्तेमाल होता है। संख्या और गहनता की दृष्टि से तुम्हारे दंतक्षत अभी अपर्याप्त ही कहे जाएँगे।” प्रसंगों को कथानुकूल बनाकर यहाँ व्याख्यायित किया गया है उसे फैंटेसी के अनगढ़ बिम्बों द्वारा प्रस्तुत करके भावोद्वीपक नहीं बनाया गया है।
उपन्यास में पारुल का स्त्री स्वरूप ‘कार्पोरेट’ जगत की उस स्त्री के सदृश है जो आर्थिक तौर पर स्वतंत्र होकर अपने नैतिक मूल्यों को स्वयं के अनुरूप परिभाषित करती है। पति के रहते हुए नील को अपने रखैल के रूप में रखना, अपने जरूरत की पूर्ति न होने की संभावना को देखते हुए उसे तबाह कर देना। पूँजी ने स्त्री को कितना निर्मम बनाया है इस तथ्य से लेखक हमें अवगत कराना चाहता है। पारुल का निर्णय उसका अपना है जो काम तृप्ति के साथ स्वयं को सहानुभूति देने वाला प्रतीत होता है। उपन्यास यह संकेत करता है कि काम तृप्ति के लिए प्राचीनकाल से पुरुष वर्ग ने सार्वजनिक तौर पर जिस व्यवस्था को बनाया है वर्तमान समय में स्त्रियाँ भी उससे पीछे नहीं हैं।
पारुल का स्त्रीत्व नील से तृप्त होकर सुखद कामना में लीन होकर स्वयं की खुशहाली की कामना में मग्न रहता है। वह हर प्रकार से केवल नील का उपयोग करना चाहती है। पारुल जब अपने पति की लंगड़ी बहन नलिनी, जो कि माँ नहीं बन सकती थी, उससे नील के विवाह के लिए कहती है तो उसके पीछे उसका मकसद साफ नजर आता है। “नलिनी के साथ तुम्हारी शादी करा दूँ? पारुल के स्वर में उत्तेजना थी। तुम दोनों को अपने ही घर में रख लूँगी। जयंत मेरी यह शर्त मान जाएगा… समाज में हमें एक पर्दा मिल जाएगा।” यहाँ पुरुष स्त्री के आगे विवश दिखाई देता है। जिस प्रकार पूँजी का स्वामी पुरुष होकर स्त्री को दास बनाकर रखा वैसे ही स्त्री के हाथों में पूँजी होने से वह पुरुष को दासत्व में रखती है। पूँजी के इस खेल में स्थिति एक होती है केवल मनुष्य बदल जाते हैं। पूँजी एवं बाजार के बदौलत पुरुष ही नहीं स्त्री भी पुरुष का शोषण कर सकती है।
उपन्यास में पुरुष के द्वारा वेश्या कर्म करने की बारीकी एवं स्त्री द्वारा उसमें जो अपनायी जाने वाली फैंटेसी है वह यथार्थ के करीब है लेकिन इसमें अंग्रेजी फिल्म के दृश्यों की झलक मिलती है। जिन स्त्रियों को यहाँ पुरुष वेश्याओं (जिगेलो) का उपयोग कर देह तृप्ति के लिए दिखाया गया है ज्यादातर वे पूँजीपतियों के घराने से हैं। ये स्त्रियाँ उसी प्रकार अपनी काम भावना को शांत करती है जैसे मौका मिलने पर पुरुष वेश्याओं के द्वारा अपनी काम भावना को शांत कर लेते हैं। काम स्वभाविक प्रक्रिया है। वह अजर है। वह शाश्वत है। चाहे वह स्त्री में हो या पुरुष में। इस भाव की तृप्ति के लिए पूँजी द्वारा बाजार एवं उसके विकृत रूप का पोषण हितकर नहीं हो सकता है। उपन्यास में अंडरवर्ल्ड के कारनामे एवं बड़े-बड़े व्यवसायिक घराने से उनके संबंध को यथार्थपरक ढंग से दिखाया गया है। इन संबंधों के बीच पूँजी सेतु के सदृश है। संपूर्ण उपन्यास पर बाजारवाद का विकृत प्रभाव दिखाई देता है। बलात्कार के बाद नील को रात-रानी के कैबरे की याद आती है। “आधी चेतना के पार नील को रातरानी का कैबरे याद आया, जब नर्तकी के पूरी तरह निर्वसन होकर एग्ज़िट लेने के बाद ध्वल बालोंवाले चाचाजान स्टेज पर आकर ब्रा और पेंटी समेटने लगते थे…।” नील का इस घटना को याद करना न्यूनोक्ति (अंडरस्टेटमेंट्स) के अंतर्गत है जो मानव संवेदनाओं की गहन अभिव्यक्ति करने में समर्थ है।
उपन्यास में जिगेलो के जिन्दगी में व्याप्त कठिनाई एवं द्वंद्व का जीवंत वर्णन किया गया है। लेखक ने उसके जीवन के अन्तरंग से लेकर बाह्य क्षणों को व्यापक स्तर पर व्याख्यायित किया है। उसका उद्देश्य समाज को इससे आगाह करना दिखाई देता है। भोला जब यह कहता है कि “दुनिया की सारी लड़ाई बस यहीं सिमटकर रह गई है – पेट और उससे नीचे की जगह।” तो वह उपभोक्तावादी संस्कृति की सच्चाई को व्यंजित करता है। इसमें उपजे माँग की भयावहता को उपन्यास में भोला एवं नील के तर्क द्वारा समझा जा सकता है। नील को क्लाइंट द्वारा भेंट में मिली जिन विदेशी वस्तुओं का वर्णन है वह बृहत बाजार में सामाजिक इकाईयों के अतिशय सक्रियता का सूचक है। सतही तौर पर इस उपन्यास की कहानी किसी “ पाकेट बुक” में वर्णित उपन्यास की कहानी के समान है। कदाचित यही कारण है कि इसकी निन्दा कई आलोचकों द्वारा की गई है। लेकिन बाजार तंत्रा का बढ़ता प्रभाव उपभोक्तावादी संस्कृति का समाज में दखल एवं इसकी चपेट में आये उच्च तथा मध्य वर्ग पैसों के बल पर इच्छित वस्तु की प्राप्ति में लिप्त उच्चवर्गीय सदस्य और उपन्यास की लेखन कला इन सब कारणों से यह उपन्यास सराहनीय है। पारुल का स्त्री स्वरूप उपभोक्तावादी संस्कृति की उपज है जहाँ ‘यूज एण्ड थ्रो’ का सिद्धान्त लागू है।
पारुल पूँजीवादी व्यवस्था में उन गलत महत्त्वाकांक्षाओं का ही एक रूप है, जो अपने स्वार्थ की सिद्धि के लिए साधनहीन, सामान्य पुरुष को बहकाने, फुसलाने या फिर उनका इस्तेमाल अपने अनुरूप करने से किसी भी प्रकार का परहेज नहीं करती है। बाजार ने स्त्री और पुरुष दोनों के अंदर उपभोग करने की क्षमता को बढ़ा दिया है। वर्तमान समय में उपभोक्तावादी संस्कृति ने भोक्ता और भोग्य दोनों को बढ़ावा दिया है। बाजार ने सब कुछ उपलब्ध कराने का कार्य किया है। बदलते परिवेश में स्त्री आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर होकर स्वयं के लिए मुक्त होने के मार्ग तलाश कर उस पर चलने की सफल कोशिश कर रही है। उद्योग जगत की स्त्रियाँ पुरुषों के साथ बराबरी की सदा से पक्षधर रही है। वे उन सब मार्गों को चुनती है जिन पर पुरुष सहजता से चलते हैं। अपनी आकांक्षा के पारावार को पार करने के लिए पारुल नील का उपयोग करती है जब नील उससे अलग होने की बात करता है तो वह उसे बर्बाद कर डालती है। ‘दो मुर्दों के लिए गुलदस्ता’ उपन्यास में स्त्री के ऐसे स्वरूप को दिखाया गया है, जिनमें बाजार के कारण विलास की क्षमता का विकास हुआ है। अतः इतना अवश्य कहा जा सकता है कि उच्च वर्ग की स्त्रियाँ पुरुषों के समान ही स्वेच्छाचारिता को अपनाने लगी हैं जिसे पूँजी एवं बाजार ने बढ़ावा दिया है।

रवि रंजन कुमार ठाकुर
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