Friday, October 11, 2024
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सविता चड्ढा का लेख – महिला लेखन की चुनौतियां और संभावना

यदि कैंसर जैसे शारीरिक रोग को लेखन में चुनौती माना जाये तो मैं इस रोग का शिकार होकर भी अपनी संभवनाओं की तलाश में जुटी रही। यदि घर में अपाहिज बेटी के कारण होने वाले मानसिक कष्ट को लेखन में चुनौती माना जाये तो मैंने इसका सामना भी किया है। मैं मानती हूं कि ईश्‍वर ने महिलाओं को किसी दूसरे के वार से आहत होने के बावजूद, कभी न टूटने की अद्भुत क्षमता प्रदान की है। मैंने सदा ही कठिनाईयों में संभावनाओं को तलाशा है और मैं उनमें कामयाब रही हूं। सच तो ये है कि चुनौतियां बहुत मिली है, रूप बदलकर कठिनाईयां भी आती रही है और सच तो ये है कि आज भी मेरे हाथ इन चुनौतियों से जकड़े हुये हैं। इन सबके बावजूद लेखन का कर्म जारी है। 
हम लिखते रहें और पुस्‍तकें प्रकाशित होती रहें, हम किसी से मिले नहीं, कहीं जायें नहीं  घरेलू विपरीत परिस्थितियों के बावजूद ऐसा ज्‍यादा देर तक नहीं चल सका। कभी कभार कुछ खास कार्यक्रमों मे जाना शुरू किया । एक बार एक कार्यकम में एक जाने माने आलोचक और लेखक अपना वक्तव्य दे रहे थे। उन्‍होंने कहा कि ‘महिलाएं तो लटके झटके दिखाकर राष्‍ट्रपति भवन में प्रवेश पा लेती हैं और मुझे आज तक वहां जाने का समय नहीं दिया गया’।  
मुझे उन महोदय की इस टिप्पणी पर  बहुत क्रोध आया और जब बोलने की बारी मेरी आयी तो मैने  उनकी इस टिप्‍पणी पर एतराज़ करते हुए माफी मांगने के लिए कहा। उन्‍होंने उस समय तो माफी  मांगी भी मगर लगता है कि वे मुझे शायद आजतक माफ नहीं कर सके। 
मुझे जो बात ग़लत लगती है उसका विरोध मैंने हमेशा किया है, मेरे पास इसके कई उदाहरण हैं। अपने स्‍वार्थ के लिए अयोग्‍यों की चरण वंदना मैं नहीं कर पायी । मेरे ये अवगुण मेरे लिए सदा ही लेखन में चुनौतियां तो खड़ी करते रहे हैं। मुझे अपनी बात कहने और ग़लत के विरोध करने पर नुकसान तो हुये हैं पर इन्‍हें मैने अपने लेखन में बाधा नहीं बनने दिया । आखिर मैं जीवित थी और जीवित होने के लिए जिन अनिवार्य गुणों को मुझमें रहना चाहिए था उसे मैंने सदा बनाये रखा है। मैं उस नदी की तरह बहती रही जिस के रास्ते में बाधाएं कभी पेड़ तो कभी पठार और चट्टानों के रूप में आती रहीं लेकिन आने वाले अवरोधों को पार करती, रास्‍ते बनाती, बचती, निकलती मैं बहती रही। अवरोध आते रहे, संभवतः चुनौती भी बने लेकिन  मैने उन्‍हें संभावनाओं में बदल दिया।  समय और उसकी उपयोगिता को मैने सदैव पहले रखा।
एक बार  एक बहुत बड़े कार्यक्रम में मुझे निमंत्रण मिला। साहित्‍य और फिल्‍म उदृयोग की हस्तियां मंच पर विराजमान थी, दिल्‍ली के कई साहित्‍यकार भी इसमें सम्मिलित थे। मैं कई व्याख्यान सुन चुकी थी। कुछ देर के बाद मुझे महसूस हुआ कि यदि मैं वहां से उठ कर चली भी जाऊं तो किसी को मेरी कमी महसूस नहीं होगी।  मैं अपना समय बचाकर अपने ऑफिस में जाकर अपना  काम कर सकती हूं। उन दिनों मैं संसद मार्ग पर पंजाब नेशनल बैंक के प्रधान कार्यालय  में प्रबन्धक थी । उस दिन, उसी समय ख़ुद-ब-ख़ुद ये पंक्तिया लिखी गयी थी और अपने आफ़िस में आकर उस दिन मैंने खूब काम किया। पंक्तिया कुछ इस प्रकार थीं –
“यहां बूंद हूं मैं, वहां सागर हूं,
यहां लोटा हूं, वहां गागर हूं,
मैं काहे बूंद बनी डोलूं,
मैं सागर हूं, मैं सागर हूं।”
  
वहां शब्‍द का प्रयोग मैने अपने ऑफ़िस के लिए लिए किया था। 
पहली बार भीतर का दर्द कलम के रास्‍ते कागज़ पर कब कब उतरा याद नहीं लेकिन इतना याद है कि पहली कविता मैने 1972 में लिखी थी।  मैने पर्यटन विभाग में बतौर अंग्रेजी आशुलिपिक पदभार गृहण किया था और उस समय मेरी आयु 19 वर्ष 2 महीने थी। अपने रेल भवन कार्यालय की पांचवी मंजिल से जब मैने बसंत के आने से पहले के पेड़ों को देखा तो मेरा मन व्‍याकुल हो गया। कुछ दिन पहले तक ये वृक्ष कितने हरे भरे थे, फिर इनके पत्‍ते पीले पड़ने शुरू हुये फिर वे गिरने लगे, पटरी पीले सूखे पत्‍तों से भर जाती थी। एक समय आया जब मैने देखा पेड़ों पर बहुत कम पत्‍ते रह गये थे। एक पेड़ तो बिल्‍कुल अकेला रह गया था एक भी पत्‍ता नहीं था। मेरा मन उसे देख बहुत उदास हुआ और मैने उसे देख कुछ पंक्तियां लिख दी।  उस समय पर्यटन विभाग में राजकुार सैनी हिंदी अधिकारी थे। उन्‍होंने इन पंक्तियों को देखा और पूछा ’’ ये क्‍या लिख रही हो।’’
मैने कोई उत्‍तर नहीं दिया, मैं सहम गयी, नौकरी के दौरान संभवतः इसकी अनुमति नहीं होगी। लेकिन उसी समय मैने जब उन्‍हें वे पंक्तिया दिखाईं, तो उन्‍होंने कहा था, “अरे यह तो कविता है।’’
उन्‍होंने पूछा था “पहले भी कभी लिखी हैं?’’ तो मैने हॉं में गर्दन हिला दी थी।
बाद में उनके कहने पर मैने अपनी सब छिटपुट रचनाएं उन्‍हें दिखाईं और उन्‍होंने मुझे कहा तुम कहानियां भी लिख सकती हो। बाद में उन्‍होंने मुझे कहानियां लिखने के लिए प्रोत्‍साहित किया। मानों मेरे भीतर बसंत का संचार हो गया था। मेरे भीतर रचना सृजन के बीज को जल और उत्‍साह रूपी खाद मिलनी शुरू हुयी तो अलग अलग रंगों के सृजन पौधे पनपने लगे। मैने देखा बाहर पटरी पर,  संसद भवन के प्रागंण और परिसर में भी सभी पेड़ पत्‍तों से भर गये थे और वे  रंग बिरंगें फूलों से लद गये थे। बाद में “योग वियोग” शीर्षक से वे कविताएं एक संग्रह में प्रकाशित हुयी थी। मेरी लेखन यात्रा शुरू हो गयी थी।
1984 में मेरा पहला कहानी संग्रह ‘’आज का ज़हर’’ प्रकाशित हुआ और उससे पूर्व जनयुग अखबार में मेरी कहानी ‘यादें’ प्रकाशित हो चुकी थी। आकाशवाणी की पत्रिका में मेरी कहानी “आज का ज़हर”  संपादक की एक खूबसूरत टिप्‍पणी के साथ छप चुकी थी कई कविताएं भी पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी थी, 2015 आते आते मेरी 31 पुस्‍तकें प्रकाशित हो गयी। । इस दौरान आकाशवाणी से मेरी कहानियां भी प्रसारित होने लगी थी। मैं पर्यटन विभाग को छोड़ वित्‍त मंत्रालय में वरिष्‍ठ अनुवादक बन गयी थी और फिर वहां से त्‍यागपत्र दे कर 1985 में पंजाब नैशनल बैंक में हिंदी अधिकारी बन गयी। 1987 में मेरा कहानी संग्रह “एक और भगवान” प्रकाशित हुआ और उसे हिंदी अकादमी का साहित्यिक कृति सम्‍मान मिल गया और मैं एक लेखक के रूप में जाने जानी लगी ।
लेखन और प्रकाशन में मेरे समक्ष चुनौतियां अधिक नहीं आ पायीं। उसका कारण था मेरा परिवार, मेरे पिता पुलिस अधिकारी थे और बेटियों को शिक्षित करने का पिता का मार्गदर्शन और अपने पैरों पर खड़े होने ने जीवन को ज्‍यादा समय तक असहज नहीं रहने दिया। बचपन में जब हमारे पिता अकेले कमाने वाले थे और हम पांच बहन भाई थे। घर के हालात सामान्‍य थे और चुनौतियों से भरे हुये । उन हालात ने हमें आत्‍मनिर्भरता की ओर अग्रसर किया और मैने पढ़ाई को अपना लक्ष्‍य बना लिया।  हमारे भीतर जिसका संचार बचपन में हो गया था वह था देशप्रेम और गलत का विरोध। मेरे पिता कभी किसी भिखारी को पैसे नहीं देते थे न ही किसी घर वाले को देने देते थे। भिखारी को वे अक्सर डांट देते- कहते हट्टे कट्टे हो, भगवान ने दो हाथ दिये हैं, कमा कर क्यों नहीं खाते । भीख मांगना अच्छा लगता है ?
पिताजी की इस अप्रत्यक्ष सीख ने  मुझे समझा दिया था की मांगना बहुत बुरा होता है और ये भी की मांगने से  कुछ नहीं मिलता। शायद इसी बात ने मुझे आत्मनिर्भर बना दिया और सर उठाकर, सममानपूर्वक जीवन जीने में सहायता भी की । इसी आत्मनिर्भरता  के कारण कोई  चुनौती अधिक समय तक मेरा मार्ग नहीं रोक पाई ।   
19 वर्ष में सरकारी नौकरी पाकर धन के पीछे भागने का मोह भी जाता रहा और जीवन के प्रति मेरा नज़रिया भी बदल गया था । इसका श्रेय अपने पिता को देती हूं। 20 वर्ष में मेरी शादी हो गयी और बाकी की शिक्षा मैंने विवाह के बाद पूरी की जिसका श्रेय मैं अपने पति सुभाष चड्ढा को देती हूं। शादी के बाद मैंने नॉन-कालेजिएट, दिल्ली विश्वविद्यालय से बी. ए. पास किया और पर्यटन विभाग में ही अनुवादक बन गयी। आगे बढ़ने की इच्छा के कारण बाद में मैंने एम. ए. हिंदी औऱ एम. ए. अंग्रेज़ी में की डिग्री भी हासिल की। उसके तुरन्त बाद ही मैं वित्‍त मंत्रालय में वरिष्‍ठ अनुवादक के रूप में चयनित हो गयी।  
वित्‍त मंत्रालय में उपन्‍यासकार श्री जगदीश चंद्र पांडेय वरिष्‍ठ अनुवादक मेरे साथ ही थे, जिन्‍होंने मेरे पहले कहानी संग्रह ‘आज का ज़हर’ प्रकाशन कराने में सहयोग दिया और तक्षशिला प्रकाशन के तेज सिंह जी से मिलाया और मेरी पहली पुस्‍तक छप गयी। हालांकि पांडुलिपि को प्रकाशन के लिए देने से पहले इसे कई बार साफ़-साफ़ लिखना पड़ा था। उस समय कम्प्यूटर तो थे नहीं, गोदरेज या रेमिंगटन टाइपराइटर हुआ करते थे जिस पर एक बार में केवल एक ही प्रिंट निकाल सकता था । 
एक बार एक प्रकाशक का पत्र आया कि वह मेरा कोई कहानी संग्रह प्रकाशित करना चाहते है। बाद में वह प्रकाशक मेरे घर आये और मैने उन्‍हें ‘’नारी अस्मिता व अंतर्वेदना की कहानियां’’ शीर्षक से  पांडुलिपि उन्‍हें सौंप दी। प्रकाशन के बाद जब वह मेरे घर मुझे  उस कहानी संग्रह की 10 पुस्‍तकें देने आये तो मैं पुस्‍तक का कवर और पुस्‍तक की सूरत देख बहुत दुखी हुयी। प्रकाशन बहुत ही ख़राब था। वह संकलन मैं किसी को भी दे नहीं पाई जबकि उसकी कहानियां मुझे बहुत ही पसंद थी। मैने केवल दो किताबें रखकर प्रकाशक को वे पुस्‍तकें लौट दी थीं। इसके बाद में मैं पुस्‍तक छपने के लिए देने में प्रकाशकों के मामले में सतर्क हो गयी ।
दिल्‍ली शहर में अपने लेखन के लगभग 40 साल होने पर भी कुछ ही लेखकों से मेरा जुड़ाव हो पाया है जो मेरी नज़र में सच्‍चे मायनों मे लेखक और श्रेष्‍ठ इंसान हैं और थे । मेरी खुशकिस्‍मती कहिए कि सदा ही अच्‍छे लोगों का सान्निध्‍य मुझे मिलता रहा है। जानती हूं लेखन में चुनौतियां तो आंयेगी ही पर जिस महिला को नदी की तरह राह बना कर विस्‍तारित होना, गतिशील बने रहना आ जाये वो अपने लिए ही नहीं दूसरी महिलाओं के लिए राह आसान कर सकती है। बस हमें एक दूसरे का हाथ बहुत ही शालीनता और विनम्रता के साथ पकड़ना है। इस दंभ से बचना होगा कि केवल मैं ही श्रेष्‍ठ लेखक हूं। मुझ से पहले भी मुझ से बेहतर लेखक आए थे, मेरे बाद भी आएंगे।
सविता चड्ढा
सविता चड्ढा
सविता चड्ढा संपर्कः- 899 रानी बाग, दिल्‍ली-110034 मोबाइलः 09313301370
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1 टिप्पणी

  1. आपकी बातों ने मन छू लिया.. फूट-फूट कर रो पड़े हम, आपकी लेखनी को और आपके संघर्षों को बहुत पास से महसूस किया है हमने। आप पर गर्व है आदरणीय!

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