चाहे आप किसी भी वर्ग का हिस्सा हों, जब रिश्तों में खटास या दरार आती है तो दर्द एक सा ही होता है। एक विकसित देश की प्रधानमंत्री होते हुए भी जॉर्जिया मेलोनी अपने निजी रिश्तों को लेकर जितनी गंभीर बनी रहीं, उनका पति अपनी अनियंत्रित कारगुज़ारियों के कारण उस रिश्ते की गरिमा को निभा नहीं पाया। लॉर्ड बायरन अपनी कविता डॉन जुआन में कहते भी हैं, “एक पुरुष के लिये प्रेम एक बाहरी अनुभूति है / जबकि एक महिला के लिये प्रेम उसका पूरा अस्तित्व है।”
भारत में इटली को लेकर लगातार व्यंग्यात्मक स्वर में बातें कही जाती हैं। कांग्रेस की मुखिया सोनिया गाँधी को लेकर इटली हमेशा चर्चा का विषय बना रहता है। मगर हाल के दिनों में इटली दो ख़ास समाचारों के कारण चर्चा के केन्द्र में आया है।
करीब आठ दिन पहले यह समाचार पढ़ने को मिला कि सात वर्षीय बेटी जिनेवरा की माँ और विश्व की सबसे सुन्दर प्रधानमंत्री जॉर्जिया मेलोनी ने अपने पति एंड्रिया जेम्ब्रुनो से अलग होने की घोषणा कर दी। वे दस वर्षों से साथ रह रहे थे मगर विवाहित नहीं थे।
उन्होंने इस बात का ऐलान सोशल मीडिया पर किया। दरअसल मेलोनी के पति ने हाल ही में एक आपत्तिजनक टिप्पणी की थी, जिसके बाद जॉर्जिया ने उनसे अलग होने का फ़ैसला लिया। मेलोनी ने फ़ेसबुक पर लिखा – एंड्रिया जेम्ब्रुनो के साथ मेरा दस साल का रिश्ता यहीं ख़त्म होता है। कुछ समय से हमारे रास्ते अलग हो गए थे अब इसे स्वीकार करने का समय आ गया है। एंड्रयू जेम्ब्रुनो जाने-माने न्यूज चैनल के पत्रकार हैं।
जॉर्जिया मेलोनी ने अपनी बेटी के बारे में एक बेहद भावुक पोस्ट में लिखा कि हम उसकी रक्षा करेंगे। हम अपनी दोस्ती और अपनी 7 वर्षीय बेटी की हर हाल में रक्षा करेंगे… जो अपनी मां और अपने पिता से बेहद प्यार करती है। जैसा कि मुझे अपने माँ-बाप का प्यार नहीं मिल सका था। इसके अलावा मेरे पास कहने के लिए कुछ नहीं है।
रॉयटर्स की रिपोर्ट के अनुसार जेम्ब्रूनो को हाल ही में एमएफई मीडिया समूह के हिस्से मीडियासेट पर डायरियो डेल डियोर्नो शो की मेजबानी करने के दौरान उस वक्त तीखी आलोचना का सामना करना पड़ा था, जब इस कार्यक्रम के ऑफ़-एयर अंश में उन्हें अभद्र भाषा का उपयोग करते और अपनी महिला सहकर्मी के साथ हद से आगे बढ़ते देखा गया जब वे उस महिला से जबरन शारीरिक संबंध बनाने की पेशकश कर रहे थे।
बीते अगस्त में जेम्ब्रूनो द्वारा एक सामूहकि बलात्कार के मामले में स्पष्ट रूप से महिलाओं को दोषारोपण करते हुए यह कहने कि लिए व्यापक रूप से आलोचना का सामना करना पड़ा था कि महिलाएं बहुत अधिक शराब न पीकर बलात्कार से बच सकती हैं। उन्होंने कहा था कि “यदि आप नाचने जाते हैं, तो आपको नशे में होने का पूरा अधिकार है – किसी भी प्रकार की गलतफहमी और किसी भी प्रकार की समस्या नहीं होनी चाहिए – लेकिन यदि आप नशे में होने और अपनी इंद्रियों को खोने से बचते हैं, तो आप कुछ समस्याओं में फंसने और एक भेड़िये के चंगुल में आने से भी बच सकते हैं।”
एक बात तो समझ में आती है कि चाहे आप किसी भी वर्ग का हिस्सा हों, जब रिश्तों में खटास या दरार आती है तो दर्द एक सा ही होता है। एक विकसित देश की प्रधानमंत्री होते हुए भी जॉर्जिया मेलोनी अपने निजी रिश्तों को लेकर जितनी गंभीर बनी रहीं, उनका पति अपनी अनियंत्रित कारगुज़ारियों के कारण उस रिश्ते की गरिमा को निभा नहीं पाया। लॉर्ड बायरन अपनी कविता डॉन जुआन में कहते भी हैं, “एक पुरुष के लिये प्रेम एक बाहरी अनुभूति है / जबकि एक महिला के लिये प्रेम उसका पूरा अस्तित्व है।”
अब बात एक वृद्ध माँ की जो कि इटली के शहर पाविया की रहने वाली है। उसे 75 वर्ष की उम्र में अपने दो बेटों के विरुद्ध अदालत का दरवाज़ा खटखटाना पड़ा।
भारत में कहा जाता है कि माँ-बाप अपने बच्चों के लिये जीवन भर समर्पित रहते हैं। यहां आम तौर पर समस्या होती है कि बच्चे अपने बूढ़े माँ-बाप की देखभाल करने से इन्कार कर देते हैं। मगर इटली की समस्या इससे बिल्कुल अलग है। इटली में यह परंपरा है कि पैंतीस साल की उम्र तक बच्चे अपने माँ-बाप के घर ही रहते हैं। यूरोप में शायद यह एक अकेला उदाहरण है क्योंकि यूरोप में बच्चे बहुत जल्दी माता-पिता का घर छोड़ कर स्वतन्त्र रूप से जीना शुरू कर देते हैं।
इटली में माता-पिता को समस्या तब होती है जब उनके बच्चे परजीवी (पैरासाइट) बन जाते हैं और अपने बूढ़े माँ-बाप का ख़ून चूसने लगते हैं। हमारी आज की घटना की केन्द्रीय पात्र एक ऐसी महिला जिसे अपने 40 और 42 साल के पुत्रों को घर से निकालने कानून की मदद लेनी पड़ी।
महिला (नाम जानबूझ कर नहीं दिया जा रहा है) ने अदालत में अर्ज़ी दाखिल करते हुए अपने बेटों को ‘परजीवी’ यानी कि ख़ून चूसने वाला पैरासाइट कहा है। उसका कहना है कि उसके पुत्र घर के ख़र्चे में कोई योगदान नहीं देते और धड़ल्ले से अपने पारिवारिक अपार्टमेंट में रह रहे हैं। पाविया ज़िले के न्यायालय में माँ ने यह भी लिख कर दिया है कि उसके दोनों पुत्र नौकरी भी कर रहे हैं मगर घर पर एक पैसा ख़र्च नहीं करते और न ही घर के किसी काम में सहायता करते हैं।
इटली में ऐसे बच्चों को ‘बेम्बीचियोनी’ या बड़ा शिशु कहा जाता है जो इतनी बड़ी उम्र में भी अपने बूढ़े माँ-बाप के सिर पर जीना चाहते हैं। अब सोचा जाए कि दो हट्टे-कट्टे कमाऊ बेटों की 75 वर्षीय माँ उनके लिये खाना पकाए, बर्तन मांझे, उनके कपड़े धोए, इस्त्री करे और ये बेटे केवल टीवी देखें, खाना खाएं और बिस्तर तोड़ें! इनकी तुलना शायद पिस्सु से की जा सकती है जो स्वयं जीवित रहने के लिये अपने पीड़ित का ख़ून चूसता है।
जज सिमोना केटरबी ने अपनी जजमेंट में लिखा है, “कानून में ऐसा कोई प्रावधान नहीं है जो व्यस्क बच्चे को विशेष रूप से माता-पिता के स्वामित्व वाले घर में, उनकी इच्चा के विरुद्ध और केवल पारिवारिक बंधन के आधार पर रहने का बिना शर्त अधिकार देता हो।”
न्यायाधीश केटरबी ने सेवानिवृत्त माँ के पक्ष में निर्णय सुनाया। माँ इन बच्चों के पिता से अलग हो चुकी है और उसका घर केवल उसकी पेंशन पर चलता है जिसमें भोजन और रख-रखाव शामिल है। फ़ैसले में दोनों बेटों को घर ख़ाली करने के लिये 18 दिसंबर तक का समय दिया गया है।
बेटों की ढिठाई का आलम यह है कि उन्होंने बाक़ायदा माँ के विरुद्ध केस लड़ा। एक स्थानीय समाचारपत्र ‘ला प्रोविंसिया पावेसे’ के अनुसार बेटों के वकीलों ने यह कुतर्क दिया कि इतालवी मात-पिता को कानून के अनुसार जब तक आवश्यक हो तब तक अपने बच्चों की देखभाल करना आवश्यक है।
जज केटरबी ने वकीलों की बात को सुनने के बाद कहा कि यह सच है कि इस मामले को वर्तमान कानून के हिसाब से भी परखा जा सकता है और माँ पर बच्चों की देखभाल का ज़िम्मा तय किया जा सकता है। मगर इस केस में यह कानून सही नहीं बैठता। दोनों प्रतिवादी 40 वर्ष की आयु से अधिक के हैं। और एक बार एक निश्चित आयु पार हो जाने के बाद कोई बच्चा अपने माता-पिता से उस सीमा से परे रख-रखाव की ज़िम्मेदारी जारी रखने की उम्मीद नहीं कर सकता है। और यह उचित भी नहीं है।
अभी यह नहीं पता चल सका है कि बेटे जज सिमोना केटरबी के फ़ैसले के विरुद्ध ऊपरी अदालत में अपील दायर करेंगे या नहीं।
जिस तरह विश्व एक छोटा सा गाँव बनता जा रहा है और इंटरनेट के ज़रिये हर देश की परंपराओं और कानून सोशल मीडिया और ऑनलाइन समाचारपत्रों में चर्चा का विषय बन रहे हैं, हम सबको भी भिन्न देशों के समाजों की जानकारी प्राप्त हो रही है। इन दो मामलों में दो महिलाओं ने अपने-अपने निर्णय लिये और उन पर जम कर खड़ी भी हैं। हमें पूरी उम्मीद है कि पुरवाई के पाठक भी इन महिलाओं को अपना पूरा समर्थन देंगे।
आखिर क्यों महिलाओं के साथ ऐसा होता है। एक स्त्री जो अपना सर्वस्व न्योछावर कर के घर को मन्दिर बनाती हैं, बच्चों को संभालती है, पूरे परिवार का ख़याल रखती हैं। उसे सही सम्मान, अपनत्व, प्यार मिलना चाहिए।
ऐसे बच्चों का होना, होकर भी ना के बराबर है।
रिश्तें में प्यार, सम्मान, विश्वास,understanding होनी चाहिये, यही रिश्तें की बुनियाद होती हैं। जहा ये सब कमजोर पड़ जाते हैं, वहा रिश्तें अपने आप ख़तम होने लगते हैं।
एक और आफ़रीन संपादकीय। पत्रकारिता में माइक्रो और मैक्रो अंदाज़ और लोगों के दिल और दिमाग को छूने वाले मुद्दे को फोकस में लाना ही जनोन्मुखी लेखन है। इसी की नज़ीर यह संपादकीय है। यूरोप या विदेशों में महिलाओं की सोच और निर्णय लेने की क्षमता और निडरता को
जानदार ढंग से शोकेस किया गया है इटली की निवर्तमान प्रधान मंत्री के निजी जीवन प्रकरण को मर्यादित अंदाज़ ए बंया से।
दूसरा मुद्दा चौंकाने वाला है यूरोप में बहुत शीघ्र बच्चे मां बाप का घर छोड़ आज़ाद और स्वच्छंद जीवन जीते हैं। परंतु दोनों जवान और हट्टे कट्टे पुत्रों का माता के प्रति यह व्यवहार निंदनीय है।
यथार्थपरक संपादकीय हेतु आदरणीय डॉक्टर तेजेंद्र शर्मा जी को बहुत बहुत साधुवाद।
बहुत न्यायोचित मांग है इन स्त्रियों की।उनकी वत्सलता को विवशता समझ कर उन पर अपना बोझ डालना न पार्टनर के लिए उचित है न बच्चों के लिए।दिक्कत यही है कि स्त्रियां अन्याय के खिलाफ आवाज़ उठाने में विलंब कर देती हैं।
दोनों महिलाओं की मांग न्याय उचित है। यूरोप की स्त्रियां संवेदनशील होने के साथ-साथ सुदृढ़ भी है। यहां पर संस्कृति इसी तरह समाज को बनती है। परंतु यह स्थिति अगर भारत में होती तो संवैधानिक न्याय से पूर्व सामाजिक न्याय में स्त्रियों पर ही प्रश्न चिन्ह लगा दिया जाता।
मैंने किसी जगह पढ़ा था कि विश्व की तमाम स्त्रियों का दुख, पीड़ा और स्थिति समान है और आज शिद्दत से यह महसूस कर रही हूं। इस दुख पीड़ा से निकलने की रास्ते सबके अलग-अलग है।
इन महिलाओं का यह रास्ता बहुत उचित है।
स्त्री सशक्तिकरण की मंजिल अभी बहुत दूर है क्योंकि इस कारवां में साथी (स्त्री पुरुष दोनों)जुड़ते नहीं , बल्कि अपनी तुच्छ इच्छाओं आकांक्षाओं या कहीं महत्वाकांक्षाओं से बंधे हुए हैं। पितृसत्ता एक ऐसा मजबूत किला है जो समय के साथ अपने बाहरी ढाँचे को तो बदल रहा है लेकिन उसके नियम नहीं बदले। कुछ लोगों को प्रिविलेज मिलता है और कुछ लोग सिर्फ शोषण के लिए होते हैं जिसमें सिर्फ स्त्रियां ही नहीं वह लड़के भी हैं जिन्हें पितृसत्ता के अनूकूल ढालने की कोशिश की जाती रही है।
Your Editorial of today makes a very interesting read.
It speaks of two women,one,the Prime Minister of Italy (announcing her separation from her journalist partner for his obnoxious behavior towards a co-host during a TV break) and the other,that of a 75- year old mother (lodging a law-suit against her grown -up sons who refuse to share the household expenses).
Both cases compel us to admire these two women for taking firm and unemotional decisions as much as appreciate you for making this the subject of your Editorial today.
Warm regards
Deepak Sharma
आपकी संपादकीय के विषय के प्रति उत्सुकता और विषय में वैविध्य इसके प्रति रुचि बनाए रखते हैं।
जॉर्जिया मेलोनी के बारे में जानकर बहुत दुख हुआ।
अबकी बार के संपादकीय में दो मुद्दे प्रधान हैं और दोनों ही महिलाओं से संबन्धित हैं ।
एक इटली की प्रधानमंत्री है जिसका विवाह नहीं हुआ है और जिसके साथ 10 साल तक पति रूप में रही और सात साल की एक बच्ची भी है उससे अलग हो गई ।(क्या इसे तलाक कहना जायज है?)
और दूसरी एक 75 वर्षीय ऐसी वृद्धा मांँ !जो अपने दो बेटों से त्रस्त है और न्यायालय से अपने प्रति न्याय की अपेक्षा करती है।
बिना विवाह के साथ रहना आजकल बहुत सुनाई दे रहा है,
क्योंकि प्रधानमंत्री का पद महत्वपूर्ण है इसलिए यह बात और भी गंभीर हो लग रही है। सामान्य लोगों के साथ इस तरह की स्थिति का बनना और बिगड़ना थोड़ा सा स्वाभाविक लगता है लेकिन उच्च पद पर रहकर भी अगर ऐसी स्थितियांँ बनती हैं तो आश्चर्य होता है!
वैसे यह सब वैवाहिक संस्कार के औचित्य पर प्रश्न चिन्ह की तरह हैं और जैसा कि दिखाई भी दे रहा है, इसमें धोखे की संभावना भी बहुत ज्यादा है। सच पूछा जाए तो यह दिशा एक अंधे मोड़ की तरह है ।आप समझ ही नहीं पाएंँगे और दुर्घटना घट जाएगी। अपने जीवन और अपनी खुशियों के साथ खिलवाड़ है की तरह है यह।
पढ़े लिखे विद्वान और समर्थ लोगों से जब इस तरह के काम होते हैं तो आश्चर्य और अधिक होता है। साहित्य में नारी हर वक्त , अपने हर रूप में चर्चा में रहती है। पर विकास के जिस मोड़ पर हम उसे खड़ा देखना चाहते हैं, जिस रूप में हम उसे देखना चाहते है,उस दशा का स्वरूप क्या है और दिशा कौन सी है? यह कोई नहीं जानता।
कैशोर्य अवस्था के संक्रमण काल में जब सबसे ज्यादा समझाइश और विवेक की आवश्यकता होती है । अच्छी संगति में बच्चा सही रास्ते पर जा सकता है लेकिन बुरी संगति में वह गलत रास्ते पर भी जा सकता है; इन सब चीजों के ध्यान रखने की आवश्यकता है तब उम्र के इस नाजुक दौर में बच्चे मांँ बाप से अलग हो जाते हैं तो उनसे रिश्तों के प्रति संवेदनाओं की अपेक्षा कैसे की जा सकेगी? जब रिश्ते ही नहीं रहेंगे तो रिश्तों को समझेंगे कैसे और समझेंगे नहीं तो उनके प्रति संवेदनाएंँ कैसे जागृत होंगी?
भारत इन मामलों में अच्छा है लेकिन जब पड़ोस के घर में आग लगी हो तो अपने घर के जलने की संभावनाएं भी बहुत बढ़ जाती हैं। यहांँ भी प्रभाव नजर आ रहा है।
इटली में तो 35 साल तक माता-पिता के साथ रहने की स्थिति ही माँ की तकलीफ का कारण बन गई है।यहांँ तो साथ रहकर भी अपनेपन और अपनत्व का अभाव है।
किसी भी स्त्री के लिए यह जरूरी है कि – फिर चाहे वह युवा हो,किसी भी पद पर हो, या फिर वृद्ध ही क्यों ना हो , अन्याय के विरुद्ध अपनी स्थितियों से लड़ने की ताकत अपने में पैदा करे।हौसला रखे। यह समझे कि उसकी जिंदगी शतरंज की चाल की तरह नहीं है जिसे खेलने वाला अपने हिसाब से चलाए। यह समझदारी हर स्त्री को रखनी ही होगी। वह परिवार के लिए तो जीती है लेकिन उसे अपने लिए भी जीना सीखना होगा। यही सब चीजें उसे ध्यान रखना जरूरी है तभी पुरुष को भी यह समझ आएगा कि स्त्री का मतलब सिर्फ देह नहीं होता जैसा कि अक्सर पुरुष सोचते हैं और पुरुष होने का मतलब तानाशाह होना भी नहीं होता।
पुरुष सत्तात्मकता तो हिंदुस्तान में भी पहले से ही चली आ रही है। समय और स्थितियांँ बदल रही हैं लेकिन पुरुष की सोच आज भी स्त्री की देह पर आकर अटक जाती है।
हम लार्ड बायटन से परिचित न थे। गूगल की मदद से परिचय हुआ और महसूस हुआ कि उस जैसे कवि का यह कहना स्वाभाविक है कि,”एक पुरुष के लिए प्रेम एक बाहरी अनुभूति है जबकि एक महिला के लिए प्रेम उसका पूरा अस्तित्व है।”
एंड्रिया जेंब्रिनो और जॉर्जिया मेलोनी पर यह उक्ति सही बैठती है। जॉर्जिया मेलोनी अपने संबन्ध के प्रति संवेदनशील थी लेकिन छोड़ना उसकी मजबूरी थी और उसने निर्णय लिया।
स्त्री को अब संभालना होगा ,अपने अस्तित्व को पहचानना होगा ।अन्याय होने पर अपने लिए लड़ना भी होगा। अपने हित में दृढ़ता से निर्णय लेने की क्षमता पैदा करनी होगी। हम इटली की दोनों माताओं के निर्णय और हौसले की प्रशंसा करते हैं।इन दोनों सहित विश्व की समस्त ऐसी महिलाओं के प्रति न्याय के लिये उनके साथ हैं जो पिता या पुत्र या किसी भी संबन्ध में पुरुष के इस तरह अन्यायपूर्ण व्यवहार से त्रस्त हैं और उनके लिए न्याय की अपेक्षा करते हैं।
अनायास ही मुंशी प्रेमचंद की कहानी पंच परमेश्वर याद आ गई, जिसमें जुम्मन शेख की खाला अपने प्रति होने वाले अन्याय के खिलाफ पंचायत बिठाती है।
इस संपादकीय को पढ़ने के बाद एक प्रश्न चक्रवात की तरह दिमाग में घूम रहा है कि विकास सब चाहते हैं,हो भी रहा है,दिख भी रहा है ,पर जो दिख रहा है क्या वही हमारा अभिप्सित है?
नित नई जानकारी से रूबरू करवाने के लिए आपका बहुत-बहुत शुक्रिया।
मैं बहुत ज्ञानी नहीं पर एक स्त्री ज़रूर हूँ । स्त्री होने के नाते मैं यहाँ यह ज़रूर कहना चाहती हूँ की यह दोनों स्त्रियाँ अपने अस्तित्व व अपने स्वाभिमान के लिए आवाज़ उठा रहीं है। जो होना भी चाहिए । बिना विवाह किसी के साथ रहना और बच्चा पैदा करने को मैं तब तक कोई अपराध नहीं मानती जब तक उस रिश्ते में कोई छल कपट न हो। भारत की अपेक्षा यूरोप में बिना शादी की मोहर लगे लोग साथ साथ रहते है और एक शादीशुदा पति पत्नी की तरह अपने बच्चों की ज़िम्मेदारी उठाते है। और उन्हें क़ानूनन उठानी भी पड़ती है क्योंकि यहीं यहाँ का नियम है। बिना शादी के भी यदि महिला व पुरुष साथ रहते हैं और बच्चा पैदा करते हैं तब भी बच्चे को पिता का नाम मिलता है और पिता को बच्चे की अठारह वर्ष तक ज़िम्मेदारी उठानी होती हैं । भारत में लोग सिर्फ़ पाश्चात्य देशों की अंधाधुंध नक़ल करते हैं बिना ठोस सच्चाई व कारण जाने।
दूसरी घटना एक 75 वर्षीय माँ की है। जो अपने बच्चों से अब मुक्ति पाना चाहती है । मुझे इसमें भी कोई बुराई नज़र नहीं आती । बेटी , बहन, बहूँ , पत्नी और माँ होने का अर्थ यह नहीं है कि उसके सहृदय , अच्छेपन या जिम्मेदारी की कड़ी डाल कर उसका बेवजह फ़ायदा उठाया जाए? वह माँ है तब तक जब तक बच्चे उसके हैं और वह भी वही प्यार और इज़्ज़त माँ को दे जो माँ उन्हें देती है । अधेड़ उम्र तक माँ के साथ रहने में कोई बुराई नहीं है बशर्ते वह माँ कीं अच्छी देखभाल करें, इस उम्र में उसकी रोज़मर्रा के कामों में सहायता करें। माँ या स्त्री होने का मतलब यह नहीं की उन्हें रिश्ते की ज़ंजीर पहना कर उनका शोषण किया जाए। माँ, बेटी , प्रेमिका पत्नी बनने से पहले वह स्वयं हैं और यही उसकी पहचान है। मैं दोनों स्त्रियों का समर्थन करती हूँ। संपादक महोदय को बेहतरीन संपादकीय लिखने के लिए बहुत बहुत शुभकामनाएँ
दुनिया के हर कोने में लगभग महिलाओं की स्थिति एक सी ही है। एक माँ होने के कारण उनकी पहली प्राथमिकता बच्चे ही होते हैं और यहीं वो कमजोर भी पड़ जाती हैं। सशक्त आलेख के लिए आपको बधाई।
आज के संपादकीय में आने वाली दो महिलाएँ, एक उच्च पद पर आसीन और एक आम महिला पर दोनों का प्रेम या रिश्ते के नाम पर किए जाने वाले शोषण के नाम पर आवाज़ उठाना इटली ही नहीं समस्त विश्व की महिलाओं की बदलती सोच का पर्याय है l कोई भी रिश्ता टूटता है तो तकलीफ तो होती है, महिलाओं के लिए यह आसान बिल्कुल भी नहीं होता क्योंकि वो भावना जगत में जीती हैं l पूरे विश्व में समर्थ सशक्त महिलायें वैवाहिक रिश्तों में घुट -घुट कर जीने की विवशता को अस्वीकार करने का साहस कर रहीं हैं पर ममता और मोह के बंधन कहीं गहरे हैं l ऐसे में दूसरे उदाहरण ने मुझे खासा प्रभावित किया l भारत में भी बच्चे, बेरोजगार रहते हुए 34 -35 या आगे भी, तक परीक्षा की तैयारी के नाम पर देर से उठना, दोस्तों में घूमना, कलह करना आदि में लगे रहते हैं और माता -पिता उनके भोजन -पानी की व्यवस्था में l वो भी ऐसे देश में जहाँ भगवान कृष्ण स्वयं कर्म का उपदेश दे गए हैं 🙂 पिता अगर कभी कुछ कहना भी चाहें तो माएँ बच्चों के पक्ष में आकर खड़ी हो जाती हैं l मुझे हमेशा लगता है कि “माँ तुम पराठे अच्छे बनाती हो” के नाम पर कब तक बच्चों की अकर्मण्यता को प्रश्रय देती रहेंगी l ऐसे में अगर दादी की अंतिम इच्छा पूरी करने के नाम पर बेटे की शादी भी कर दी तो भावी बहु पिस जाती हैं l माँ का कदम बहुत सार्थक और प्रेरक लगा l थोड़ा कमाओ पर इतना तो कमाओ कि अपनी रोटी खुद खाओं l तब परिश्रम और पैसे दोनों का महत्व समझ आता है l आज के जमाने में अगर बच्चा स्वस्थ है तो ऐसी कोई आयु सीमा होनी ही चाहिये l ये बच्चों के लिए भी अच्छा है l महिलाओं को अपने ही मोह द्वारा शोषित होने से निकलना ही होगा l
संपादक श्री
नमस्कार
कितना समसामयिक संपादकीय प्रस्तुत किया है आपने! आपका गहराई और ईमानदारी से किया गया चिंतन और उस पर उतनी ही गहनता से किया गया लेखन आपके प्रति एक श्रद्धा उत्पन्न करता है।
स्त्री किसी भी देश, जाति, वर्ग की हो जब वह माँ होती है तब उसकी संवेदनाएं अधिकांशतः एक सी ही होती हैं। उसकी खुशी, पीड़ा सब पर माँ का लेबल चिपक जाता है जिसे वह प्रयास करके भी छुड़ा नहीं पाती।
मेरी स्मृति मुझे पीछे खींचकर ले गई जहाँ यू. के में एक कैनेडियन लाइब्रेरियन ने किसी बात पर चर्चा करते हुए मुझसे पूछा था कि मुझे क्या ऐसा लगता है कि संसार की किसी भी जाति या वर्ग की महिला एक विशेष स्थिति में आकर अपने भीतर एक जैसी संवेदनाओं से ओतप्रोत नहीं हो जाती?उन्होंने मुझे बहुत कुछ सोचने पर विवश कर दिया था।
एक हाल ही की युवा से हुई चर्चा भी याद आ गई जिसने कहा था कि बच्चे पैदा ही क्यों करने चाहिएं जब माँ बाप पर बोझ हो जाते हैं?
ऐसी घटनाएं बहुत कुछ सोचने पर विवश करती हैं। आप अपने संपादकीय के माध्यम से चिंतन को दिशा देते हैं। बहुत कुछ बाहर आने के लिए मचलने लगता है।
मैं हर बार आपके बारीकी से लिखे गए संपादकीय के लिए साधुवाद के साथ आभार व्यक्त करने के लिए विवश होती हूँ।
सार्थक संदेश युक्त विषय के लिए साधुवाद स्वीकारें।
दोनों महिलाओं एक देशप्रमुख दूसरी गृहप्रमुख के निर्णयों को आपने
सटीक स्वर दिया है।निश्चित ही दोनों की हिम्मत को सराहना उनके पक्ष में निर्णय से मिलना चाहिए ।
इन महिलाओं के हक में फैंसला होना चाहिए। जो कि न्यायपूर्ण है।
धन्यवाद अनुपमा जी।
आखिर क्यों महिलाओं के साथ ऐसा होता है। एक स्त्री जो अपना सर्वस्व न्योछावर कर के घर को मन्दिर बनाती हैं, बच्चों को संभालती है, पूरे परिवार का ख़याल रखती हैं। उसे सही सम्मान, अपनत्व, प्यार मिलना चाहिए।
ऐसे बच्चों का होना, होकर भी ना के बराबर है।
रिश्तें में प्यार, सम्मान, विश्वास,understanding होनी चाहिये, यही रिश्तें की बुनियाद होती हैं। जहा ये सब कमजोर पड़ जाते हैं, वहा रिश्तें अपने आप ख़तम होने लगते हैं।
इन महिलाओं के पक्ष में फैसला होना चाहिए।
इन महिलाओं को न्याय अवश्य मिलना चाहिए। यह वाकई में ज्ञानवर्धक लेख है, आपका बहुत-बहुत धन्यवाद सर..
आभार अपूर्वा।
डॉक्टर सपना आप की बात से सहमत। आभार।
एक और आफ़रीन संपादकीय। पत्रकारिता में माइक्रो और मैक्रो अंदाज़ और लोगों के दिल और दिमाग को छूने वाले मुद्दे को फोकस में लाना ही जनोन्मुखी लेखन है। इसी की नज़ीर यह संपादकीय है। यूरोप या विदेशों में महिलाओं की सोच और निर्णय लेने की क्षमता और निडरता को
जानदार ढंग से शोकेस किया गया है इटली की निवर्तमान प्रधान मंत्री के निजी जीवन प्रकरण को मर्यादित अंदाज़ ए बंया से।
दूसरा मुद्दा चौंकाने वाला है यूरोप में बहुत शीघ्र बच्चे मां बाप का घर छोड़ आज़ाद और स्वच्छंद जीवन जीते हैं। परंतु दोनों जवान और हट्टे कट्टे पुत्रों का माता के प्रति यह व्यवहार निंदनीय है।
यथार्थपरक संपादकीय हेतु आदरणीय डॉक्टर तेजेंद्र शर्मा जी को बहुत बहुत साधुवाद।
भाई सूर्यकांत जी इस सार्थक एवं सार्गर्भित टिप्पणी के लिए हार्दिक आभार।
बहुत न्यायोचित मांग है इन स्त्रियों की।उनकी वत्सलता को विवशता समझ कर उन पर अपना बोझ डालना न पार्टनर के लिए उचित है न बच्चों के लिए।दिक्कत यही है कि स्त्रियां अन्याय के खिलाफ आवाज़ उठाने में विलंब कर देती हैं।
आदरणीय ममता जी आपका संपादकीय पढ़ना और उस पर टिप्पणी करना, हमारे प्रयास पर सफलता की मोहर है। हार्दिक आभार।
एक दुसरे के प्रति इज्जत और समझदारी होना हितकारी होता है| बहुत सुन्दर लेख है
आभार अभिषेक भाई।
दोनों महिलाओं की मांग न्याय उचित है। यूरोप की स्त्रियां संवेदनशील होने के साथ-साथ सुदृढ़ भी है। यहां पर संस्कृति इसी तरह समाज को बनती है। परंतु यह स्थिति अगर भारत में होती तो संवैधानिक न्याय से पूर्व सामाजिक न्याय में स्त्रियों पर ही प्रश्न चिन्ह लगा दिया जाता।
मैंने किसी जगह पढ़ा था कि विश्व की तमाम स्त्रियों का दुख, पीड़ा और स्थिति समान है और आज शिद्दत से यह महसूस कर रही हूं। इस दुख पीड़ा से निकलने की रास्ते सबके अलग-अलग है।
इन महिलाओं का यह रास्ता बहुत उचित है।
भारती आपकी टिप्पणी संपादकीय को समझने में सहायक होगी। हार्दिक आभार।
एक और शानदार पोस्ट हमेशा की तरह
एक नया विषय और दमदार लेखन,
आपको बधाइयाँ,शुभकामनाएँ भैया श्री
कपिल आपकी टिप्पणी आपके स्नेह का सुबूत है।
स्त्री सशक्तिकरण की मंजिल अभी बहुत दूर है क्योंकि इस कारवां में साथी (स्त्री पुरुष दोनों)जुड़ते नहीं , बल्कि अपनी तुच्छ इच्छाओं आकांक्षाओं या कहीं महत्वाकांक्षाओं से बंधे हुए हैं। पितृसत्ता एक ऐसा मजबूत किला है जो समय के साथ अपने बाहरी ढाँचे को तो बदल रहा है लेकिन उसके नियम नहीं बदले। कुछ लोगों को प्रिविलेज मिलता है और कुछ लोग सिर्फ शोषण के लिए होते हैं जिसमें सिर्फ स्त्रियां ही नहीं वह लड़के भी हैं जिन्हें पितृसत्ता के अनूकूल ढालने की कोशिश की जाती रही है।
रक्षा आपकी टिप्पणी सच में गहराई से लिखी गई है। हार्दिक आभार।
Your Editorial of today makes a very interesting read.
It speaks of two women,one,the Prime Minister of Italy (announcing her separation from her journalist partner for his obnoxious behavior towards a co-host during a TV break) and the other,that of a 75- year old mother (lodging a law-suit against her grown -up sons who refuse to share the household expenses).
Both cases compel us to admire these two women for taking firm and unemotional decisions as much as appreciate you for making this the subject of your Editorial today.
Warm regards
Deepak Sharma
Deepak ji you have fully understood the plight of the two ladies. Thanks for such an inspiring message.
डॉन जुआन की इस पंक्ति से कि “एक पुरुष के लिये प्रेम एक बाहरी अनुभूति है / जबकि एक महिला के लिये प्रेम उसका पूरा अस्तित्व है।” सब कह दिया, अच्छा आलेख
हार्दिक आभार आलोक। लॉर्ड बायरन की ये पंक्तियां मुझे बहुत प्रिय हैं।
इस शोध परक आलेख के लिए शुक्रिया तेजिंदर भाई
सर जी बहुत शुक्रिया।
हमेशा की तरह प्रभावशाली प्रस्तुति
आभार अनुपमा जी।
आदरणीय तेजेंद्र जी !
आपकी संपादकीय के विषय के प्रति उत्सुकता और विषय में वैविध्य इसके प्रति रुचि बनाए रखते हैं।
जॉर्जिया मेलोनी के बारे में जानकर बहुत दुख हुआ।
अबकी बार के संपादकीय में दो मुद्दे प्रधान हैं और दोनों ही महिलाओं से संबन्धित हैं ।
एक इटली की प्रधानमंत्री है जिसका विवाह नहीं हुआ है और जिसके साथ 10 साल तक पति रूप में रही और सात साल की एक बच्ची भी है उससे अलग हो गई ।(क्या इसे तलाक कहना जायज है?)
और दूसरी एक 75 वर्षीय ऐसी वृद्धा मांँ !जो अपने दो बेटों से त्रस्त है और न्यायालय से अपने प्रति न्याय की अपेक्षा करती है।
बिना विवाह के साथ रहना आजकल बहुत सुनाई दे रहा है,
क्योंकि प्रधानमंत्री का पद महत्वपूर्ण है इसलिए यह बात और भी गंभीर हो लग रही है। सामान्य लोगों के साथ इस तरह की स्थिति का बनना और बिगड़ना थोड़ा सा स्वाभाविक लगता है लेकिन उच्च पद पर रहकर भी अगर ऐसी स्थितियांँ बनती हैं तो आश्चर्य होता है!
वैसे यह सब वैवाहिक संस्कार के औचित्य पर प्रश्न चिन्ह की तरह हैं और जैसा कि दिखाई भी दे रहा है, इसमें धोखे की संभावना भी बहुत ज्यादा है। सच पूछा जाए तो यह दिशा एक अंधे मोड़ की तरह है ।आप समझ ही नहीं पाएंँगे और दुर्घटना घट जाएगी। अपने जीवन और अपनी खुशियों के साथ खिलवाड़ है की तरह है यह।
पढ़े लिखे विद्वान और समर्थ लोगों से जब इस तरह के काम होते हैं तो आश्चर्य और अधिक होता है। साहित्य में नारी हर वक्त , अपने हर रूप में चर्चा में रहती है। पर विकास के जिस मोड़ पर हम उसे खड़ा देखना चाहते हैं, जिस रूप में हम उसे देखना चाहते है,उस दशा का स्वरूप क्या है और दिशा कौन सी है? यह कोई नहीं जानता।
कैशोर्य अवस्था के संक्रमण काल में जब सबसे ज्यादा समझाइश और विवेक की आवश्यकता होती है । अच्छी संगति में बच्चा सही रास्ते पर जा सकता है लेकिन बुरी संगति में वह गलत रास्ते पर भी जा सकता है; इन सब चीजों के ध्यान रखने की आवश्यकता है तब उम्र के इस नाजुक दौर में बच्चे मांँ बाप से अलग हो जाते हैं तो उनसे रिश्तों के प्रति संवेदनाओं की अपेक्षा कैसे की जा सकेगी? जब रिश्ते ही नहीं रहेंगे तो रिश्तों को समझेंगे कैसे और समझेंगे नहीं तो उनके प्रति संवेदनाएंँ कैसे जागृत होंगी?
भारत इन मामलों में अच्छा है लेकिन जब पड़ोस के घर में आग लगी हो तो अपने घर के जलने की संभावनाएं भी बहुत बढ़ जाती हैं। यहांँ भी प्रभाव नजर आ रहा है।
इटली में तो 35 साल तक माता-पिता के साथ रहने की स्थिति ही माँ की तकलीफ का कारण बन गई है।यहांँ तो साथ रहकर भी अपनेपन और अपनत्व का अभाव है।
किसी भी स्त्री के लिए यह जरूरी है कि – फिर चाहे वह युवा हो,किसी भी पद पर हो, या फिर वृद्ध ही क्यों ना हो , अन्याय के विरुद्ध अपनी स्थितियों से लड़ने की ताकत अपने में पैदा करे।हौसला रखे। यह समझे कि उसकी जिंदगी शतरंज की चाल की तरह नहीं है जिसे खेलने वाला अपने हिसाब से चलाए। यह समझदारी हर स्त्री को रखनी ही होगी। वह परिवार के लिए तो जीती है लेकिन उसे अपने लिए भी जीना सीखना होगा। यही सब चीजें उसे ध्यान रखना जरूरी है तभी पुरुष को भी यह समझ आएगा कि स्त्री का मतलब सिर्फ देह नहीं होता जैसा कि अक्सर पुरुष सोचते हैं और पुरुष होने का मतलब तानाशाह होना भी नहीं होता।
पुरुष सत्तात्मकता तो हिंदुस्तान में भी पहले से ही चली आ रही है। समय और स्थितियांँ बदल रही हैं लेकिन पुरुष की सोच आज भी स्त्री की देह पर आकर अटक जाती है।
हम लार्ड बायटन से परिचित न थे। गूगल की मदद से परिचय हुआ और महसूस हुआ कि उस जैसे कवि का यह कहना स्वाभाविक है कि,”एक पुरुष के लिए प्रेम एक बाहरी अनुभूति है जबकि एक महिला के लिए प्रेम उसका पूरा अस्तित्व है।”
एंड्रिया जेंब्रिनो और जॉर्जिया मेलोनी पर यह उक्ति सही बैठती है। जॉर्जिया मेलोनी अपने संबन्ध के प्रति संवेदनशील थी लेकिन छोड़ना उसकी मजबूरी थी और उसने निर्णय लिया।
स्त्री को अब संभालना होगा ,अपने अस्तित्व को पहचानना होगा ।अन्याय होने पर अपने लिए लड़ना भी होगा। अपने हित में दृढ़ता से निर्णय लेने की क्षमता पैदा करनी होगी। हम इटली की दोनों माताओं के निर्णय और हौसले की प्रशंसा करते हैं।इन दोनों सहित विश्व की समस्त ऐसी महिलाओं के प्रति न्याय के लिये उनके साथ हैं जो पिता या पुत्र या किसी भी संबन्ध में पुरुष के इस तरह अन्यायपूर्ण व्यवहार से त्रस्त हैं और उनके लिए न्याय की अपेक्षा करते हैं।
अनायास ही मुंशी प्रेमचंद की कहानी पंच परमेश्वर याद आ गई, जिसमें जुम्मन शेख की खाला अपने प्रति होने वाले अन्याय के खिलाफ पंचायत बिठाती है।
इस संपादकीय को पढ़ने के बाद एक प्रश्न चक्रवात की तरह दिमाग में घूम रहा है कि विकास सब चाहते हैं,हो भी रहा है,दिख भी रहा है ,पर जो दिख रहा है क्या वही हमारा अभिप्सित है?
नित नई जानकारी से रूबरू करवाने के लिए आपका बहुत-बहुत शुक्रिया।
नीलिमा जी इस विस्तृत और सारगर्भित टिप्पणी के लिए धन्यवाद और आभार।
आदरणीय संपादक जी
सादर प्रणाम।
सदैव की भांति इटली के सामाजिक जीवन में घटित होने वाली
ली नवीनतम जानकारी से परिचित कराने हेतु हार्दिक आभार
धन्यवाद और आभार डॉक्टर क्षमा पांडेय जी।
मैं बहुत ज्ञानी नहीं पर एक स्त्री ज़रूर हूँ । स्त्री होने के नाते मैं यहाँ यह ज़रूर कहना चाहती हूँ की यह दोनों स्त्रियाँ अपने अस्तित्व व अपने स्वाभिमान के लिए आवाज़ उठा रहीं है। जो होना भी चाहिए । बिना विवाह किसी के साथ रहना और बच्चा पैदा करने को मैं तब तक कोई अपराध नहीं मानती जब तक उस रिश्ते में कोई छल कपट न हो। भारत की अपेक्षा यूरोप में बिना शादी की मोहर लगे लोग साथ साथ रहते है और एक शादीशुदा पति पत्नी की तरह अपने बच्चों की ज़िम्मेदारी उठाते है। और उन्हें क़ानूनन उठानी भी पड़ती है क्योंकि यहीं यहाँ का नियम है। बिना शादी के भी यदि महिला व पुरुष साथ रहते हैं और बच्चा पैदा करते हैं तब भी बच्चे को पिता का नाम मिलता है और पिता को बच्चे की अठारह वर्ष तक ज़िम्मेदारी उठानी होती हैं । भारत में लोग सिर्फ़ पाश्चात्य देशों की अंधाधुंध नक़ल करते हैं बिना ठोस सच्चाई व कारण जाने।
दूसरी घटना एक 75 वर्षीय माँ की है। जो अपने बच्चों से अब मुक्ति पाना चाहती है । मुझे इसमें भी कोई बुराई नज़र नहीं आती । बेटी , बहन, बहूँ , पत्नी और माँ होने का अर्थ यह नहीं है कि उसके सहृदय , अच्छेपन या जिम्मेदारी की कड़ी डाल कर उसका बेवजह फ़ायदा उठाया जाए? वह माँ है तब तक जब तक बच्चे उसके हैं और वह भी वही प्यार और इज़्ज़त माँ को दे जो माँ उन्हें देती है । अधेड़ उम्र तक माँ के साथ रहने में कोई बुराई नहीं है बशर्ते वह माँ कीं अच्छी देखभाल करें, इस उम्र में उसकी रोज़मर्रा के कामों में सहायता करें। माँ या स्त्री होने का मतलब यह नहीं की उन्हें रिश्ते की ज़ंजीर पहना कर उनका शोषण किया जाए। माँ, बेटी , प्रेमिका पत्नी बनने से पहले वह स्वयं हैं और यही उसकी पहचान है। मैं दोनों स्त्रियों का समर्थन करती हूँ। संपादक महोदय को बेहतरीन संपादकीय लिखने के लिए बहुत बहुत शुभकामनाएँ
डॉ. ऋतु आपने संपादकीय में चर्चित दोनों महिलाओं का पूरे तर्कों के साथ समर्थन किया है। आपका हार्दिक आभार।
जानकारी से भरपूर, हकीकत की परतें खोलता संपादकीय!
हार्दिक आभार आस्था।
दुनिया के हर कोने में लगभग महिलाओं की स्थिति एक सी ही है। एक माँ होने के कारण उनकी पहली प्राथमिकता बच्चे ही होते हैं और यहीं वो कमजोर भी पड़ जाती हैं। सशक्त आलेख के लिए आपको बधाई।
आभार पल्लवी जी।
आज के संपादकीय में आने वाली दो महिलाएँ, एक उच्च पद पर आसीन और एक आम महिला पर दोनों का प्रेम या रिश्ते के नाम पर किए जाने वाले शोषण के नाम पर आवाज़ उठाना इटली ही नहीं समस्त विश्व की महिलाओं की बदलती सोच का पर्याय है l कोई भी रिश्ता टूटता है तो तकलीफ तो होती है, महिलाओं के लिए यह आसान बिल्कुल भी नहीं होता क्योंकि वो भावना जगत में जीती हैं l पूरे विश्व में समर्थ सशक्त महिलायें वैवाहिक रिश्तों में घुट -घुट कर जीने की विवशता को अस्वीकार करने का साहस कर रहीं हैं पर ममता और मोह के बंधन कहीं गहरे हैं l ऐसे में दूसरे उदाहरण ने मुझे खासा प्रभावित किया l भारत में भी बच्चे, बेरोजगार रहते हुए 34 -35 या आगे भी, तक परीक्षा की तैयारी के नाम पर देर से उठना, दोस्तों में घूमना, कलह करना आदि में लगे रहते हैं और माता -पिता उनके भोजन -पानी की व्यवस्था में l वो भी ऐसे देश में जहाँ भगवान कृष्ण स्वयं कर्म का उपदेश दे गए हैं 🙂 पिता अगर कभी कुछ कहना भी चाहें तो माएँ बच्चों के पक्ष में आकर खड़ी हो जाती हैं l मुझे हमेशा लगता है कि “माँ तुम पराठे अच्छे बनाती हो” के नाम पर कब तक बच्चों की अकर्मण्यता को प्रश्रय देती रहेंगी l ऐसे में अगर दादी की अंतिम इच्छा पूरी करने के नाम पर बेटे की शादी भी कर दी तो भावी बहु पिस जाती हैं l माँ का कदम बहुत सार्थक और प्रेरक लगा l थोड़ा कमाओ पर इतना तो कमाओ कि अपनी रोटी खुद खाओं l तब परिश्रम और पैसे दोनों का महत्व समझ आता है l आज के जमाने में अगर बच्चा स्वस्थ है तो ऐसी कोई आयु सीमा होनी ही चाहिये l ये बच्चों के लिए भी अच्छा है l महिलाओं को अपने ही मोह द्वारा शोषित होने से निकलना ही होगा l
आपने स्थितियों को सही पकड़ा है वंदना जी। आप पुरवाई के संपादकीयों पर निरंतर निगाह रखती हैं। इस सार्थक टिप्पणी के लिए आभार।
मां का मर्म बच्चे ना समझे तो कौन समझे!
वैसे भी भारतीय परंपरा में मां के नौ रूप होते हैं जिसमें से एक काली मां चंडी का भी रूप है…
आपने बहुत अच्छा लिखा
हार्दिक आभार संगीता जी।
संपादक श्री
नमस्कार
कितना समसामयिक संपादकीय प्रस्तुत किया है आपने! आपका गहराई और ईमानदारी से किया गया चिंतन और उस पर उतनी ही गहनता से किया गया लेखन आपके प्रति एक श्रद्धा उत्पन्न करता है।
स्त्री किसी भी देश, जाति, वर्ग की हो जब वह माँ होती है तब उसकी संवेदनाएं अधिकांशतः एक सी ही होती हैं। उसकी खुशी, पीड़ा सब पर माँ का लेबल चिपक जाता है जिसे वह प्रयास करके भी छुड़ा नहीं पाती।
मेरी स्मृति मुझे पीछे खींचकर ले गई जहाँ यू. के में एक कैनेडियन लाइब्रेरियन ने किसी बात पर चर्चा करते हुए मुझसे पूछा था कि मुझे क्या ऐसा लगता है कि संसार की किसी भी जाति या वर्ग की महिला एक विशेष स्थिति में आकर अपने भीतर एक जैसी संवेदनाओं से ओतप्रोत नहीं हो जाती?उन्होंने मुझे बहुत कुछ सोचने पर विवश कर दिया था।
एक हाल ही की युवा से हुई चर्चा भी याद आ गई जिसने कहा था कि बच्चे पैदा ही क्यों करने चाहिएं जब माँ बाप पर बोझ हो जाते हैं?
ऐसी घटनाएं बहुत कुछ सोचने पर विवश करती हैं। आप अपने संपादकीय के माध्यम से चिंतन को दिशा देते हैं। बहुत कुछ बाहर आने के लिए मचलने लगता है।
मैं हर बार आपके बारीकी से लिखे गए संपादकीय के लिए साधुवाद के साथ आभार व्यक्त करने के लिए विवश होती हूँ।
सार्थक संदेश युक्त विषय के लिए साधुवाद स्वीकारें।
दोनों महिलाओं एक देशप्रमुख दूसरी गृहप्रमुख के निर्णयों को आपने
सटीक स्वर दिया है।निश्चित ही दोनों की हिम्मत को सराहना उनके पक्ष में निर्णय से मिलना चाहिए ।