वो ज़माना याद आता है जब अनाड़ी, सुजाता, बंदिनी, प्यासा, जागते रहो, श्री420, आनंद, आंधी, चुपके-चुपके, प्यार किये जा, ख़ामोशी,  जैसी फ़िल्में बना करती थीं जिन्हें देख कर दर्शकों के व्यक्तित्व में गुणात्मक परिवर्तन हो पाता था। आज की हिट फ़िल्में बॉक्स ऑफ़िस पर खनखनाहट तो पैदा करती हैं, मगर इन्सान सोचता रह जाता है कि फ़िल्म बनाने वालों को हो क्या गया है!

कहा जाता है कि ‘जो जिस लायक होता है उसे वही मिलता भी है’। पाकिस्तान और बांग्लादेश की सरकारों और हिन्दी सिनेमा में सफल फ़िल्मों पर यह कथन पूरी तरह से लागू होता है। आज बात राजनीति की नहीं करेंगे, वरना सीधा बंगाल जाना पड़ेगा जहां ईडी (प्रवर्तन निदेशालय) के अधिकारियों पर हुए जानलेवा हमले के बारे में लिखना पड़ेगा। आज बात करते हैं वर्ष 2023 की कुछ सफल फ़िल्मों की और ढूंढते हैं जवाब कि ऐसी फ़िल्में ही क्यों सफल होती हैं।
पहले फ़िल्मों में ढिशुम-ढिशुम और हिंसा केवल फ़िल्म का एक हिस्सा मात्र होती थी। मगर आज लगता है जैसे निर्देशक ने फ़ाइट और हिंसा वाले सीन पहले शूट कर लिये हों और फिर अपने सहायकों को निर्देश दिया हो कि जाओ इन हिंसा वाले सीनों के इर्द-गिर्द एक कहानी बुन कर लाओ। इस रवैये को मज़बूत बनाने में दक्षिण भारत की फ़िल्में भी महत्वपूर्ण किरदार निभाती हैं।
वर्ष 2023 की सबसे अधिक कमाई करने वाली अधिकांश फ़िल्मों न तो कोई कहानी है, न संवेदनशीलता। अभिनय भी बस वही रुटीन और घिसा-पिटा। हैरानी की बात यह है कि पठान, ग़दर-2, जवान और एनिमल ने तो 500 करोड़ से अधिक कमाई की। वैसे दावा किया जा रहा है कि वर्ष 2023 में हिन्दी फ़िल्मों ने पांच हज़ार करोड़ रुपये का बिज़नस किया।

650 करोड़ के आसपास बिज़नस करने वाली महान फ़िल्म जवान की कहानी इतनी नई है कि हमें पता ही नहीं चलता कि हम इससे पहले यही कहानी कितनी और फ़िल्मों में पहले देख चुके हैं। विक्रम राठौड़ एक पूर्व सैनिक है जो अपने अतीत को सुधारने के लिए प्रतिबद्ध है, जहां वह देश भर में डकैतियों की एक श्रृंखला में छह कुशल महिलाओं की एक टीम का नेतृत्व भी करता है और मुंबई मेट्रो को हाईजैक करता है।
विक्रम को पता चलता है कि उसका खोया हुआ बेटा आज़ाद राठौड़ एक ईमानदार पुलिस अधिकारी है, जिसे दुनिया के चौथे सबसे बड़े हथियार डीलर, उसके दुश्मन काली द्वारा निशाना बनाया जा रहा है। विक्रम काली को ख़त्म करने के मिशन पर निकलता है और सरकार के सामने कुछ माँगें भी रखता है, इस प्रकार एक रोमांचक और बड़े दांव वाले प्रदर्शन के लिए मंच तैयार करता है।
फ़िल्म पठान की कहानी हमें किसी भी जेम्स बॉण्ड की फ़िल्म की कहानी याद दिलवा सकती है। फ़िल्म की कहानी शुरू होती है कश्मीर से जहां धारा 370 के हटते ही पाकिस्तान में खलबली का माहौल शुरू हो जाता है। कहानी में आगे एक निजी टेररिस्ट गैंग दिखाया जाता है जिसका नाम ‘आउटफ़िट एक्स’ होता है। इस गैंग का लीडर है जिम (जॉन अब्राहम)। जिम कभी भारत का जवान हुआ करता था। वह भारत से नफ़रत करता है और अब एक टेररिस्ट बन चुका है। क्योंकि जॉन एक हीरो भी है तो उसके टेररिस्ट बनने की भी एक कहानी है ताकि उसे पूरा विलेन न समझ लिया जाए। जिम को भारत में वायरस फैलाने का मिशन सौंपा जाता है जो कि कुछ ही मिनटों में पूरे देश को ख़त्म करने की क्षमता रखता है।
ऐसे में पठान को खोजा जाता है जो कि जेम्स बाण्ड की तरह कहीं बनवास काट रहा है। मगर पठान अपने देश को बचाने कि लिये कुछ भी कर सकता है। इस मिशन में रूबीना भी पठान के साथ आती है। रूबीना का किरदार निभा रही हैं दीपिका पादुकोण। कितनी नई कहानी है… इससे पहले हमने कहां ऐसी कहानी पर आधारित कोई फ़िल्म देखी है।

ग़दर 2 पर अपनी एक फ़ेसबुक पोस्ट में मैनें लिखा था – सफलता को उसकी कमियां कोई नहीं बता सकता। अगर हम पांच सौ करोड़ से अधिक पैसे कमाने वाली फ़िल्मों के निर्माता, निर्देशक, अभिनेता से कहेंगे कि आपकी फ़िल्म की कहानी कमज़ोर है, तो ज़ाहिर है कि वे मुस्कुरा कर कहेंगे, “भाई तेजेन्द्र शर्मा, तुम लिख को अच्छी कहानी! हम अभी व्यस्त हैं अपने पाँच सौ करोड़ के नोट गिनने में!”
ग़दर एक प्रेम कथा में तारा सिंह अपनी पत्नी सकीना को लेने के लिये पाकिस्तान जाता है तो ग़दर 2 में तारा सिंह अपने पुत्र को पाकिस्तानी फ़ौज के चंगुल से बचाने के लिये जाता है। एक विचित्र सी बात यह भी है कि ओ माई गॉड में भी पुत्र किसी षड़यंत्र में फंस गया है और उसका पिता उसे उस चक्रव्यूह से बाहर निकालने के लिये अपनी जान लड़ा देता है। मगर यह सब होता है अदालत के भीतर। वहीं तारासिंह अपने पुत्र को पाकिस्तान से वापिस लाने के लिये ‘लार्जर दैन लाइफ़’ तरीकों से कमर्शियल सिनेमा के तमाम लटके झटकों का इस्तेमाल करता है।

फ़िल्म एनिमल की कहानी एकदम नई है!!!… “अपने बिज़नस में दिन-रात मसरूफ रहने वाला बलबीर बेटे को वो प्यार और समय नहीं दे पाता, जिसकी चाहत विजय करता है।” युवा होते साइको विजय (रणबीर कपूर) की एक ही धुन है कि वो किसी तरह अपने पिता का अटेंशन हासिल करे और उन्हें प्रभावित कर सके। मगर उसकी हिंसक वृत्ति और हरकतें उसे पिता से दूर करती जाती हैं। इस फ़िल्म को देखकर लगता है कि इस फ़िल्म के हीरो और हीरोइन ‘हिंसा और ख़ून ख़राबा’ हैं।
एक विचित्र सी बात यह है कि ओ माई गॉड-2, ग़दर-2 और एनिमल की कहानी के मूल में पिता और पुत्र का रिश्ता है। बस इसके बाद ग़दर-2 और एनिमल एक अलग यात्रा पर निकल पड़ती हैं और ओ माई गॉड शानदार सलीकेदार ढंग से अपनी कहानी कहती चलती है। वैसे इन फ़िल्मों के अलावा भी कुछ फ़िल्में हिट रहीं जैसे कि – तू झूठी मैं मक्कार, टाइगर-3, ड्रीम गर्ल 2, केरला स्टोरी और रॉकी और रानी की प्रेम कहानी और डंकी।
इन धमाकेदार हिट फ़िल्मों में यदि कोई समानता है तो केवल इतनी ही कि इनमें विश्वसनीयता की कमी है। निर्देशकों ने इतनी अधिक सिनेमैटिक स्वतंत्रता ली है कि सब नकली लगने लगता है। इन फ़िल्मों की सफलता साबित करती है कि हमें नकली और अविश्वसनीय फ़िल्में ही अच्छी लगती हैं। यदि ऐसा न होता तो फ़िल्म सैम बहादुर वर्ष की सबसे अधिक पैसा कमाने वाली फ़िल्म होती। जनरल सैम मानेकशॉ हमारे जीवित नायक थे। बांग्लादेश युद्ध के दौरान वे भारत के सेना प्रमुख थे और उनके जीवन की बारीकियों को मेघना गुलज़ार के निर्देशन में विक्की कौशल ने अद्भुत प्रस्तुति दी है।

पिछले वर्ष की सफल फ़िल्मों में युवा निर्देशक अमित राय की फ़िल्म ओ माई गॉड-2 भी शामिल है। अमित राय की समस्या थी कि अपनी फ़िल्म के थीम को बिना अश्लील बनाए एक फ़ीचर फ़िल्म में कैसे पिरो दे। इसके लिये उसके पास सक्षम कलाकार भी थे। हस्तमैथुन जैसे थीम को पंकज त्रिपाठी ने बहुत विश्वसनीयता से पर्दे पर उतारा है। फ़िल्म दर्शकों की संवेदनाओं को झकझोरती है। कोर्ट सीन में आर्या शर्मा और पंकज त्रिपाठी के संवाद फ़िल्म का केन्द्र बिन्दु बन जाते हैं। अमित राय को ऐसी ख़ूबसूरत कृति बनाने के लिये साधुवाद कहना होगा।
हो सकता है कि कुछ पाठक यह सवाल पूछें कि भाई फ़िल्में पैसे बना रही हैं और आपकी अकड़ देखिये कि उनमें नुक़्स निकाल रहे हैं। सच तो यह भी है कि यदि मैं कहूं कि फल तो केवल ब्लूबेरी, स्ट्राबेरी या किवी ही अच्छे होते हैं… भला आम और ख़रबूज़ा भी कोई फल हैं… इन्हें तो हर आदमी गली मुहल्ले में खाता हुआ दिख जाता है।
ठीक वैसे ही जो इन्सान रम पीता है उसे वोदका या व्हिस्की में कोई रुचि नहीं होती। बीयर पीने वाले को किसी और प्रकार की शराब में रुचि नहीं। और वाइन पीने वालों की नज़ाकत कुछ अलग ही होती है। अब यदि रेड वाइन पीने वाले घोषणा कर दें कि उनके अलावा बाकी किसी को शराब पीने की तमीज़ नहीं है तो बेवजह विवाद खड़ा हो जाएगा।
मुझे याद है एक बार महेश भट्ट से बात हो रही थी। वे दिवंगत जगदम्बा प्रसाद दीक्षित जी के विद्यार्थी रह चुके थे। उन्होंने एक दिन मुझे कहा, “दोस्त, आप जब कोई कहानी या नॉवल लिखते हैं, तो अकेले कमरे में बैठ कर अपनी मेहनत और बॉल पेन की स्याही से लिखते हैं। मगर जब हम फ़िल्म बनाते हैं तो करोड़ों रुपये लगते हैं। सैंकड़ों लोगों को रोज़गार मिलता है और उनके घर चलते हैं। जब तक फ़िल्म चलेगी नहीं और पैसे नहीं कमायेगी, लोग अपने घर नहीं चला सकेंगे। इसलिये फ़िल्मों का सफल होना बहुत ज़रूरी है।”
फिर भी मैं कहूंगा कि वो ज़माना याद आता है जब अनाड़ी, सुजाता, बंदिनी, प्यासा, जागते रहो, श्री420, आनंद, आंधी, चुपके-चुपके, प्यार किये जा, ख़ामोशी,  जैसी फ़िल्में बना करती थीं जिन्हें देख कर दर्शकों के व्यक्तित्व में गुणात्मक परिवर्तन हो पाता था। आज की हिट फ़िल्में बॉक्स ऑफ़िस पर खनखनाहट तो पैदा करती हैं, मगर इन्सान सोचता रह जाता है कि फ़िल्म बनाने वालों को हो क्या गया है!
लेखक वरिष्ठ साहित्यकार, कथा यूके के महासचिव और पुरवाई के संपादक हैं. लंदन में रहते हैं.

55 टिप्पणी

  1. तेजेन्द्र जी मैं आज आपके संपादकीय पर कोई भी टिप्पणी करने में असमर्थ हूँ क्योंकि तथाकथित सुपर हिट फिल्मों में एक भी मैंने नहीं देखी, न जवान, न पठान, न एनिमल न ग़दर , इस वर्ष मतलब 2023 म् सिर्फ एक फ़िल्म देखी है सैम बहादुर। 7स्की भूरी भूरी प्रसंशा फेसबुक पर लिख चुका हूँ

  2. नाइजीरिया में एक बहुत बड़ी FMCG कंपनी है,(नाम नहीं लिख सकती), उसमें एक बहुत करीबी ने काम किया है। अपनी सेल्स दिखाने के लिए कम्पनी ख़ुद अपने प्रॉडक्ट ख़रीद कर एक गुमनाम गोडाउन में डलवा देती है।
    कुछ ऐसा ही किस्सा खान साहब की फ़िल्मों की कमाई का है। डूबते बॉलीवुड को बचाने की एक चालक कोशिश। जवान तो रियायती दरों पर स्कूल के बच्चों को दिखा-दिखा कर हिट करायी गयी।
    दुनिया को जो दिखा दो, वही देखती है… फिर बॉलीवुड तो दिखाने के लिए ही बना है।
    जिस फिल्म की तारीफ़ करते एक बंदा भी नहीं मिला वो हिट कैसे हुई ये तो निर्माता, डिस्ट्रीब्यूटर या ईश्वर जनता है।
    दर्शक जहाँ पहुँचे वो केरला फाइल्स और omg है। गदर को तो हिट होना ही था, पूरा पंजाब उसे हिट कराता है।
    स्तरीय फिल्म देखने के लिए दर्शक सिनेमा हॉल का मोहताज नहीं रहा। अच्छा देखना है तो ott अब सभी के पास है।
    आपने नीर क्षीर विवेक से फिल्मों की समीक्षा की। हमेशा की तरह एक पठनीय सम्पादकीय के लिए धन्यवाद।

  3. बस कमाई और घर चलने के लिए अपनी संस्कृति को ताक पर रख देने की परंपरा नहीं बदलेगी। ऐसी पिक्चर बनाने वालों के पास अपने लिए बहुत से तर्क हैं।

  4. तेजेन्द्र भाई आपने अपने इस सम्पादतीय में बहुत सी so called popular फ़िल्मों के नाम गिनाने के साथ साथ इस बात की भी जानकारी दी है कि निर्माता ने इन फ़िल्मों को बनाकर करोड़ों की आमदनी की है। सिवाये OMG2 को छोड़कर मैं ने इन सब blockbuster में से किसी को भी नहीं देखा है और न ही देखने की इच्छा है। ख़ून ख़राबा, हिंसा, foul language और बेहूदा किसम के अशलील नाच और गानों से भरी इन फ़िल्मों को देखने के बाद दिमाग़ यह सोचने पर मजबूर हो जाता है कि बे सिर पैर की इस मूवी में क्या था। घिसी पिटी कहानी और हूहल्ले के इलावा कुछ भी नहीं। संगीत और गाने भी ऐसे जिस में शोर ही शोर होता है। लगता है गीतकारों की तो जैसे दुकान बन्द हो गई है। आजकल तो दोस्तों से पूछना पड़ता है कि अगर कोई अच्छी फ़िल्म देखी हो तो बताओ।
    एक बात जो समझ से बाहर है वो यह कि फ़िल्म निर्माताओं ने करोड़ों तो कमा लिया लेकिन पुराने गाने अभी भी ख़ूब गाये जाते हैं। आख़िर इन की अभी भी बहुत demand है वो इस बात का प्रतीक हैं कि इस सब शोर शराबे मेँ लोगों के दिल में अभी भी अच्छी कविता सुनने की चाहत बनी हुई है।

    • विजय भाई आपकी नाराज़गी एकदम जायज़ है। सार्गर्भित टिप्पणी के लिए हार्दिक आभार।

  5. सच पूछिए तो एनिमल फिल्म के नायक से मुझे कोई संवेदना कोई सहानुभूति नहीं रही,
    नायक (तथाकथित )का पिता एक चरित्रवान व्यक्ति है वह अपने परिवार से प्यार करता है, अगर वह समय नहीं दे पाते,…तो ऐसे हजारों लाखों करोड़ों पिता है जो समय नहीं दे पाते।
    कितने ही पिता है जो सैनिक है,मजदूर है,डॉक्टर हैं विभिन्न व्यवसाय में लगे हुए हैं जो अपने परिवार को समय नहीं दे पाए तो क्या उनके पुत्र ऐसे जानवर बन जाए,
    जहां जवान या पठान फिल्म में नायक अपने पिता.. परिवार के लिए… देश के लिए, समाज के लिए समर्पित है,
    छः स्त्रियों की जो टीम है नायक उन सभी स्त्रियों के लिए उसके हृदय में सम्मान है,
    वहीँ एनिमल फिल्म के नायक का कोई चरित्र ही नहीं है।
    .
    सेट मैक्स पर कई बार सूर्यवंशम फिल्म देखने के बाद, जहां नायक अपने पिता से तिरस्कृत होने के बाद भी पिता से प्रेम औऱ दूसरों के लिए सम्मान नहीं छोड़ पाता
    हमारे अंदर नायक की animal जैसी खलनायक वाली छवि कभी नहीं स्वीकार होगी।

    • विभा जी आपकी टिप्पणी संपादकीय में उठाए गये मुद्दे को सही अर्थ देती है। हार्दिक आभार।

  6. बढ़िया विचारणीय संपादकीय।
    मैं तो आज की अधिकांश फिल्मों के लिए यहीं कहना चाहूंगी, हिंसा,बे सिर पैर के कथानक, ऊल जलूल घटनाक्रम देखने के लिए समय जाया नहीं करना।

  7. सादर नमस्कार सर । मैं आधुनिक बॉलीवुड फ़िल्में न देखती हूँ न कोई जानकारी रखती हूँ क्योंकि इनमें केवल अश्लीलता एवं हिंसा होती है….क्योंकि इनमें न कोई संवेदनशीलता होती है न शिक्षाप्रद संदेश। आपके विचारों से सहमत हूँ, मुझे दुख है…. कि नाटकीय प्रस्तुति से सत्य घटनाओ को उपस्थापित कर समाज के..शिक्षित अशिक्षित लोगों के सोच विचार में परिवर्तन लाती फिल्मों को हो क्या गया!!! वास्तव में केवल पैसा,नशा,अश्लीलता और युवा पीढ़ी को नकारात्मक गुणों से परिपूर्ण करने वाली फ़िल्मी राजनीति….यही लक्ष्य है…

    आपका संपदाकीय सदैव हम पाठकों को.. उन विषयों पर सोचने के लिए प्रेरित करता जो हम देखकर भी मौन रहते हैं….

    • पुरवाई के संपादकीयों के प्रति आपकी टिप्पणी के लिये हार्दिक आभार अनिमा जी।

  8. आज की बाकी सभी गतिविधियों की तरह ही हिन्दी सिनेमा भी पूरी तरह अर्थ- केन्द्रित हो चला है। इस आलेख में आपने इस दुष्प्रवृत्ति को बख़ूबी उजागर किया है। साधुवाद।
    जैसाकि पचौरी जी ने लिखा, मैंने भी इनमें से एक भी फ़िल्म नहीं देखी है- और भी ग़म हैं मुझे तेरी मोहब्बत के सिवा।
    साहित्य, सिनेमा और अन्य कलात्मक विधाएँ भाविक के संस्कार गढ़ती हैं। हमारे सिने-दर्शक भी इन फ़िल्मों से संस्कारित (?) हो रहे हैं। इसीलिए तो आज समाज में इतनी हिंसा और घृणा‌ दिख रही है।
    आपने इतना महत्त्वपूर्ण विषय उठाया और उसकी रेशा- रेशा व्याख्या की, इसके लिए आपको पुनः साधुवाद।

    • जी सिंह साहब सही कहा कि ‘हमारे सिने-दर्शक भी इन फ़िल्मों से संस्कारित (?) हो रहे हैं। इसीलिए तो आज समाज में इतनी हिंसा और घृणा‌ दिख रही है।’ इस सार्थक टिप्पणी के लिये आभार।

  9. आदरणीय सर आपने हिंदी सिनेमा के गिरते स्तर का सटीक विश्लेषण किया है।एनिमल और गदर -2 फिल्में मैंने देखी हैं।इन फिल्मों को देखकर लगा कि हम समाज को क्या दे रहे हैंं?युवा वर्ग ही नहीं परिपक्व आयु वर्ग के लोगों में भी क्रूरता ,सहन ना करने की प्रवृत्ति को बढ़ावा मिला है।अश्लीलता और हिंसा बस यही कथानकविहीन फिल्मों का मूल मंत्र रह गया है जबकि हमारे गौरवपूर्ण सिनेमा के इतिहास में मदर इंडिया जैसी फिल्म भी मौजूद है।
    एनिमल फिल्म के उस दृश्य को देखकर जहाँ नायक खलनायक को मारता है घृणा हो जाती है।
    आपका संपादकीय गंभीर चिंतन को विवश करता है।

    • अमित भाई आपने सही कहा है कि – अश्लीलता और हिंसा बस यही कथानकविहीन फिल्मों का मूल मंत्र रह गया है जबकि हमारे गौरवपूर्ण सिनेमा के इतिहास में मदर इंडिया जैसी फिल्म भी मौजूद है। हमारे फ़िल्म निर्माताओँ को समय रहते सचेत होना पड़ेगा।

  10. मात्र बु”द्धिजीवी” के लिए ही नहीं बल्कि एक सामान्य रुचि के पाठक के लिए संपादकीय लिखने के लिए आपको हार्दिक बधाइयां,
    संपादकीय के शीर्षक के लिए तो बस सूरदास की एक पंक्ति ही मन में आती है
    *दाख छुहारा छांड़ि अमृतफल
    विष कीरा विष खात,
    उधो मनमाने की बात*
    और जहां तक बॉक्स ऑफिस पर धन कमाने की बात है उसके बारे में तो अभी बहुत हाल में ही यह जानकारी प्राप्त हुई कि विदेशों से में बैठे आतंकवादियों द्वारा जो उगाही और अपहरण से धन कमाया जा रहा है ,वह इन फिल्मों को हिट दिखाकर कैसे सफेद किया जाता है।
    2023 की ही एक बहुत साफ सुथरी और दर्शनीय फिल्म “12वीं फेल ” भी रही, जो धन कमाने में बहुत अधिक सफल न हो पाई।
    कानों के रास्ते हृदय तक जलन पहुंचती भाषा वाली ओटीटी पर चलने वाली फिल्मों के युग में अभी हाल में ही एक फिल्म देखी ‘तड़का” जो अत्यंत संवेदनशील ,साफ सुथरी भाषा की प्यारी सी फिल्म लगी!
    असभ्य, असंस्कृत और अश्लील भाषा का प्रयोग कर जनमानस को विकृत कर ,धन कमाने की लालसा वाली अश्लील फिल्मों के युग के इस विनाशक झंझा काल में भी कुछ लोग कहीं-कहीं एक छोटा दीपक लिए बैठे हैं जो इस जिन्होंने बढ़ते अंधकार का सामना करने की कोशिश कर रहे हैं।
    पठनीय संपादकीय के लिए साधुवाद।

    • सरोजिनी जी मैं हमेशा से इस बात का पक्षधर रहा हूं कि कवि शैलेन्द्र की तरह सरल शब्दों में बड़ी बात कही जाए। उस महान उक्ति का क्या लाभ जो समझ ही न आए।

  11. नमस्कार तेजेन्द्र जी
    कम ही देख पाते हैं फ़िल्म तो। कुछ ही ऐसी होती हैं जिन्हें पूरा पचाया जा सके।
    समसामयिक विषयों पर लेखन आपके लिए बहुत सहज है और आपके पाठकों को नए विचारों से परिचित कराता है। साधुवाद आपको

  12. सिनेमा आज, पर सटीक बातें कहीं हैं।
    फिल्म उद्योग पहले भी था पर निर्माताओं का चिंतन उसमें कला, साहित्य ,विज्ञान और संस्कृति का प्रदर्शन भी था अब भौतिकता वाद दिखाई देता है ।
    वह भी निरंकुश सा ।
    साधुवाद
    Dr Prabha mishra

  13. एक और बेहतरीन संपादकीय और इस बार फिल्म जैसे सशक्त और कमाई वाले मुद्दे की।
    सन 2023 में आई फिल्मों पर एक समीक्षात्मक टिपण्णी के साथ साथ समालोचना भी।पुरानी फिल्मों की उद्देश्यता को रेखांकित करते हुए पाठकों की सोच को एक नए आयाम पर आकर्षित किया गया है।अमित राय की फिल्म एक जटिल विषय पर सफल रही, अश्लीलता को शालीनता के साथ प्रस्तुति और उसमें आर्या शर्मा का शानदार अभिनय और साथ मिला आज के चर्चित अभिनेता पंकज त्रिपाठी का।
    आर्या शर्मा का रोल बहुत बड़ा नहीं रहा परंतु एक फिल्म समीक्षक की दृष्टि से यथा चावलों की भरी देग में कुछ चावल के दानों का अंदाज़ और स्वाद बता देता है कि क्या पका है वही बात इस अदाकारा के बारे में कही जा सकती है।सही मौके और कुशल निर्देशन में हम एक जानदार और शानदार अदाकारा को सिनेमा के रुपहले पर्दे पर देख सकते हैं।
    खैर बात संपादकीय की। एक संतुलित परंतु पैना अंदाज़ ए बंया , तेजेंद्र शर्मा की बानगी को बखूबी दर्शाने में सक्षम और रोचक दोनों है।
    बधाई हो ,संपादक महोदय।

    • भाई सूर्यकांत जी आप भी एक हरफ़नमौला पाठक हैं। हर विषय पर इतनी बारीक़ टिप्पणी करते हैं कि आनंद कीअनुभूति होती है। आभार।

  14. दैनिक भास्कर रायपुर में कभी मैं भी फिल्म समीक्षक हुआ करता था. हिंदुस्तान के बारे में बहुत जानकारी रखते हैं आप. इस फिल्म की समीक्षा से लगता है की फिल्में भी खूब देखते हैं. हिंदी फिल्मों की सफलता का कोई पैमाना नहीं है. चोरी चोरी फिल्म हिट हो जाती है और दिल है कि मानता नहीं भी. अब जो फिल्में बनती है वह पूरी तरह ग्लैमर और जनता को क्या चाहिए वह सब मसाला रहता है. फिल्मी शिक्षाप्रद कम ही बनती है. हिट फिल्मों की स्टोरी से ऐसा लगता है कि अब लेखकों की कमी हो गई है. फिल्मी के शीर्षक बदल बदल कर फिल्मी बनाई जा रही है. सिर्फ फिल्मांकन का तरीका अलग-अलग होता है.

    • भाई रिपु जी आप फ़िल्म समीक्षक हुआ करते थे यह जान कर अच्छा लगा। वैसे आपको बता दूं कि राजकपूर नर्गिस की फ़िल्म चोरी चोरी (1956) भी एक अंग्रेज़ी फ़िल्म It happened One Night (1934) पर आधारित थी। इस फ़िल्म के हीरो थे क्लार्क गैबल। यह फ़्रैंक कापरा की फ़िल्म थी। लगता है कि सच में अच्छे लेखकों और निर्माता निर्देशकों का अकाल सा पड़ गया है।

  15. जो बात संगीत में है वह भोंपू में कहां
    जो बात सुर में है वह सुरा में कहां… old is gold बढ़िया लेख

  16. बहुत सुन्दर बात रखी आपने .. पुरानी फ़िल्म देख कर एक प्रेरणा मिलती थी और एक स्वाभाविकता का एहसास होता था पटकथा के साथ इंसान अपने को जुड़ा पाता था लेकिन आज हिंसा , सेक्स और वाहियाद सीन के अलैदा कुछ नहीं है फ़िल्मों में …हम सोचने पर बाध्य हैं कि समाज का टेस्ट और सोच को क्या हुआ है जो इस तरह की फ़िल्म को बढ़ावा दे रहा है । संस्कार सबसे बड़ी चीज़ है जिससे आपके व्यक्तित्व का निर्माण होता है इस तरह की फ़िल्में समाज को या व्यक्ति को किधर ले जायेंगी ये वक़्त ही बतायेगा … समीक्षा की जितनी तारीफ़ की जाये कम है बहुत गहन रिसर्च
    “ पैसे से कहीं ज़्यादा मूल्यवान वस्तु , संस्कार होता है “

    • कुसुम जी आपकी सोच एकदम सही है। सिनेमा का अर्थ केवल वीभत्स मनोरंजन नहीं होना चाहिये। आपको संपादकीय पसंद आया, हार्दिक आभार।

  17. एक बार पुनः आपका विचारणीय संपादकीय सर । कई गिरहें खोलता हुआ और मन को विचारों की शृंखला में धकेलता हुआ । दरअसल फिल्मों की सफलता /असफलता भी सामाजिक सोच का परिणाम होती है l अनुमानतः हिंसा का दौर अमिताभ बच्चन की फिल्मों से आया l लेकिन तब शोषित वर्ग से नायक व्यवस्था के खिलाफ तब उठ खड़ा होता था जब उसे कहीं न्याय नहीं मिलता l पर आज के दौर में हिंसा का महिमामंडन किया जा रहा है l जवान के बारे प्रचारित है कि खुद ही टिकटे खरीदवाई गईं l गदर में देशभक्ति की फिल्म थी, इसलिए मुझे लगा कि चली होगी पर सैम बहुदर का ना चलना, जैसे दर्शकों कि पोल खोल गया, जो देशभक्ति की आड़ में मसाले के लिए गए l

    एनिमल मेरी दृष्टि से एक खतरनाक फिल्म है, जो जंगली होमो सैपियन्स से मानव बने इंसान की वापस पशुता की यात्रा है l पिता से उपेक्षा सिर्फ आड़ है l ये स्थापना है एक टॉक्सिक नायक की, जिसे अल्फा मेल प्रचारित किया जा रहा है l फिल्म देखकर निकली पुरुष भीड़ के चौड़े सीने ये बताने के लिए काफी हैं कि उन्होंने इसे अंगीकार किया है l ये उनके अंदर की बुराई को मान्यता जो देती है l “अपुन तो भाई ऐसे है ” टाइप l ‘सैम बहादुर’ और ‘ओ माय गॉड’ जैसे नायक बनने के लिए बहुत विकट परिस्थितियाँ झेलनी पड़ती हैं l पहले अपने खिलाफ यद्ध जीतना होता है l आसान है अपनी बुराई को स्वीकार्यता देना l आज हेल्दी डाइट के लिए बच्चों को टोंकते माता -पिता कटघरे में खड़े हैं , “आप बॉडी शेमिंग कर रहे हैं l “निर्माता -निर्देशक इसी कमजोरी को भुना रहे हैं l धन लोलुपता में उनके साहित्य जैसे सरोकार नहीं हैं l लेकिन जो देख रहे हैं, वो अपनी नीयत को दिखा रहे हैं l

    इस वैचारिक संपादकीय के लिए पुनः बधाई

    • वंदना जी आपकी टिप्पणी गहराई लिये हैं। स्वयं टिकटें ख़रीद कर प्रचार वाला मामला हमारे लिये एकदम नया है। आपकी टिप्पणी बेहतरीन है कि – “एनिमल मेरी दृष्टि से एक खतरनाक फिल्म है, जो जंगली होमो सैपियन्स से मानव बने इंसान की वापस पशुता की यात्रा है l पिता से उपेक्षा सिर्फ आड़ है l ये स्थापना है एक टॉक्सिक नायक की।”
      हार्दिक आभार।

  18. Your Editorial of today brings forth a good peep as all as an objective appraisal of the prominent n mainstream Hindi films released in 2023.
    You have also mentioned those good old Hindi films which were more sociological and idealistic in their presentation n themes.
    Makes this Editorial both interesting n thought provoking.
    Warm regards
    Deepak Sharma

  19. सिनेमा का उद्देश्य मात्र मनोरंजन ही नहीं है, बल्कि समाज को यथार्थ से परिचित कराकर यथोचित मार्गदर्शन कराना भी है,आधुनिक से आधुनिकतम होते इस समाज की मनोवृत्ति भी परिवर्तित हुई है,सामाजिक मूल्यों पर आधारित सिनेमा को देखना युवाओं का एक बड़ा वर्ग पिछड़ेपन का पर्याय मानता है,जिसमें कोई उस प्रकार का ओछा आकर्षण नहीं, जो उन्हें सर्वदा अपेक्षित है,क्योंकि उनका उद्देश्य मात्र मनोरंजन व कुछ नकारात्मक पहलुओं से प्रेरित होना ही है।अतः यह शतप्रतिशत हम दर्शकों पर ही निर्भर करताहै,कि हमारा चयन क्या हो..अफ़सोस होता है, कि मूल्यों को जीने वाली हमारी पूर्व पीढ़ी धीरे-धीरे विदा ले रही है,किन्तु उनके सकारात्मक गंभीर चिंतन,उत्तम वरेण्य योग्यता हम सभी में जीवित होनी अति आवश्यक है, तभी हम सभी सन्दर्भों में भावी पीढ़ी को उत्कृष्ट चयन योग्यता, मूल्यों के प्रति सम्मान का भाव हस्तांतरित कर सकेंगे।
    सिनेमा के माध्यम से एक गंभीर और विचारणीय विषय को संपादकीय के माध्यम से प्रस्तुत करने के लिए आपको सादर आभार आदरणीय।

  20. ऋतु जी आप ने सही कहा है कि – अतः यह शतप्रतिशत हम दर्शकों पर ही निर्भर करताहै,कि हमारा चयन क्या हो..अफ़सोस होता है, कि मूल्यों को जीने वाली हमारी पूर्व पीढ़ी धीरे-धीरे विदा ले रही है,किन्तु उनके सकारात्मक गंभीर चिंतन,उत्तम वरेण्य योग्यता हम सभी में जीवित होनी अति आवश्यक है, तभी हम सभी सन्दर्भों में भावी पीढ़ी को उत्कृष्ट चयन योग्यता, मूल्यों के प्रति सम्मान का भाव हस्तांतरित कर सकेंगे।

    आप पुरवाई संपादकीय निरंतर पढ़ती हैं और अपना समर्थन हम तक पहुंचाती हैं। आभार।

  21. आपका संपादकीय हमेशा नवीन अछूते विषयों पर होता है, जो बहुत कुछ सोचने पर मजबूर करता है ।आपको साधुवाद ।

  22. पुरानी हिंदी फिल्मों और मौजूदा दौर की फिल्मों में
    वास्तव में बहुत अंतर है चाहे वो कथानक के स्तर पर हो , अभिनय के स्तर हो या तकनीक के स्तर पर। डिमांड के अनुसार स्पलाई का फार्मूला किसी हद तक यहाँ भी लागू होता है। प्रश्न .यहपीढ़ी गुजरे
    वक्त की धीमी गति की फिल्मों को कितना पसंद
    करती हैं ?

  23. पुरानी हिंदी फिल्मों और मौजूदा दौर की फिल्मों में
    वास्तव में बहुत अंतर है चाहे वो कथानक के स्तर पर हो , अभिनय के स्तर हो या तकनीक के स्तर पर। डिमांड के अनुसार स्पलाई का फार्मूला किसी हद तक यहाँ भी लागू होता है। प्रश्न यह भी है कि आज की पीढ़ी गुजरे वक्त की धीमी गति की फिल्मों को कितना पसंद करती है ? फिर भी उनकी पसंद
    और नापसंद की सोच से उन फिल्मों का महत्व कम नहीं हो सकता। ‘ओल्ड इज गोल्ड ‘
    समीक्षात्मक संपादकीय के लिए बधाई एवं शुभकामनाएं ।

  24. आपने मेरी पीढ़ी के फिल्म दर्शकों की मनोव्यथा को बखूबी लिखा है। इतनी हिंसा और खून खराबा देखकर सच में सोच में पड़ जाती हूं कि ऐसी फिल्में आखिर कैसे रिलीज हो रही हैं और इसीलिए आजकल फिल्मों से दूरी बना ली है बशर्ते कि कोई दमदार फिल्म हो

  25. संपादकीय में फिल्मों को विषय बनाया और निष्पक्ष समीक्षा बहुत अच्छी लगी। वह कौन सा वर्ग है, जो ऐसी फिल्मों को बहुत देखता है और इन्हें इतनी आर्थिक सफलता दिलाती है।
    बहुत सोचने की बात है कि हम ” सैम बहादुर , “12वीं फेल” , “वैक्सीन वार” देखते हैं और भूरि भूरि प्रशंसा भी करते हैं । फिर भी उनसे बहुत पीछे रह जाती हैं।
    इस पर भी हमें विचार करना होगा।

  26. आदरणीय तेजेंद्र जी!

    आपके संपादकीय से ज्यादा उत्सुकता हमें आपके संपादकीय के हेडिंग की होती है।बड़ा ही अर्थपूर्ण शीर्षक है आज का।एक पल तो व्यंग्य ही लगा।वास्तव में हिंदी सिनेमा के दर्शक एनिमल ही हुए जा रहे हैं। इसलिए वही पसंद आएगा। हमने तो पिक्चर का नाम भी आज ही जाना आपको पढ़कर,और थोड़ा बहुत स्टोरी से भी परिचित हुए।किस तरह की मानसिकता है समझ ही नहीं आता।
    संस्कार और संस्कृति से दूर गुणात्मकता का ह्रास हुआ शिक्षा और सिनेमा दोनों की ही स्थिति खराब है।
    अब आज का संपादकीय सिनेमा है और आजकल हम सिनेमा बहुत कम देखते हैं क्योंकि देखने लायक कुछ रहता ही नहीं है उसमें। पर फिर भी आपकी कई बातों से हम सहमत है।
    आपके हैडिंग पैराग्राफ या कहें अंतिम पैराग्राफ से तो हम पूरी तरह से सहमत हैं 100%।
    सुजाता ,अनाड़ी ,आनंद इत्यादि जितनी भी फिल्मों के आपने नाम लिखे हैं ,सब अपने समय में एक नंबर रहीं। निश्चित ही इससे दर्शकों के व्यक्तित्व में गुणात्मक परिवर्तन आता था। हालांकि बीच में भी कुछ फिल्में अच्छी आईं किन्तु आधिक्य मारधाड़ वाली पिक्चरों का ही रहा। दक्षिण भारत की तो फिल्म ही मारधाड़ आधारित रहती है। अतिशयोक्ति भी कम नहीं होती। पर अब बंबइया फिल्मीस्तान भी इसी नक्शे कदम पर है। फिल्मों के प्रति अरुचि होने का एक कारण यह भी है।
    जवान और पठान फिल्म तो हमने नहीं देखी है।विकी कौशल की “उरी” और मनोज बाजपेई की “सिर्फ एक बंदा काफी है” फिल्म काफी अच्छी थी।
    गदर और ओएमजी दोनों ही पिक्चर हमारी देखी हुई हैं।विषय भले ही अलग थे किंतु दोनों ही पिक्चर कमाल की थीं।हिंसा तो गदर में भी थी पर वह पिक्चर की जरूरत थी।गदर ने हमें बहुत प्रभावित किया था। एक दुखदाई अतीत को चित्रपट पर देखना बहुत तकलीफ देता है। इसीलिए ग़दर 2 और ओमजी 2 देखने की इच्छा है।जब भी मौका लगेगा जरूर देखेंगे। यह इच्छा इसलिए भी प्रबल है कि इसमें आर्या है।
    सिर्फ एक बंदा काफी है में मनोज वाजपेई ने बहुत अच्छा रोल अदा किया है।
    अदालत में उसका आखिरी वाक्य पंच वाक्य था।
    महेश भट्ट के आपसे वार्तालाप को पढ़कर यह तो तय हो गया कि आजकल सब कुछ बाजार के हिसाब से चलता है। जनता की सोच और पसंद समय की धुंध में है। यह एक ऐसा सम्मोहन है जिसने सबको विवेकहीन कर दिया है। एक भेड़ चाल की तरह सब बेतहाशा, दिशाहीन भागते चले जा रहे हैं।यह दौर सबसे अलग है।
    आपने जो बताया है हम “सेम बहादुर “फिल्म जरूर देखेंगे।
    एक नये संपादकीय बोध के लिए आपका बहुत -बहुत शुक्रिया एवं आभार भी मित्र।

    • आदरणीय नीलिमा जी, आपकी विस्तृत टिप्पणी संपादकीय को सही ढंग से समझने का अवसर देती है।

  27. आधुनिक बॉलिवुड फ़िल्मों पर सही और सटीक संपादकीय । इन्ही कारणों से काफ़ी समय से मैंने फ़िल्में देखना ही बंद कर दिया है ।मनोरंजन और अच्छे संदेश के स्थान पर हिंसा और बेकार की बातें देख कर सच में लगता है फ़िल्म निर्देशकों को हो क्या गया है ।बहुत बढ़िया संपादकीय के लिए बधाई

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