ब्रिटेन में सवाल उठाए जा रहे हैं कि आखिर उनकी सरकार क्यों इस विषय में कोई कानून नहीं बनाती। इस तरह सरकार ग़रीब और अमीर में अंतर पैदा कर रही है। अमीर को यदि सम्मानजनक इच्छा मृत्यु अपने पैसे के बल पर मिल सकती है तो ग़रीब इससे वंचित क्यों रहे। एक व्यक्ति को सम्मानजनक मौत के लिये क़रीब दस हज़ार पाउंड का ख़र्चा हो जाता है। मरीज़ की हालत यात्रा करने लायक नहीं होती मगर सम्मानजनक मौत के लिये वह इस कष्ट को भी सहने को तैयार हो जाता है। वर्तमान कानून के चलते मरीज़ पूरी तरह निराश होने से पहले ही मरने को तैयार हो जाता है क्योंकि बाद में उसे यात्रा करने की अनुमति नहीं मिलेगी। 

जब मैंने अपनी कहानी मुझे मार डाल बेटा लिखी थी तो मन में यह सवाल बार-बार उठता था कि क्या किसी भी ऐसे मरीज़ को मरने की अनुमति दे देनी चाहिये जिसे यह अहसास हो चुका है कि वह बचने वाला नहीं है। 
मगर अलग-अलग देशों के डॉक्टरों की सोच कुछ अलग है। डॉक्टर सोचते हैं कि चमत्कार भी तो होते हैं। कोई मरीज़ यह सोच सकता है कि वह अपनी बीमारी से ठीक होने वाला नहीं है। मगर क्या यह सच है? सवाल यह भी तो उठता है कि कौन तय करेगा कि बीमार ठीक होगा या कुछ दिनों बाद मर जाएगा।
मगर स्विटज़रलैण्ड इस विषय पर हमेशा से अलग ही कुछ सोचता रहा है। वहां इच्छा मृत्यु को हमेशा अलग अंदाज से देखा जाता रहा है।  इच्छा मृत्यु  के मामले में स्विटजरलैंड की सरकार ने इच्छा मृत्यु की मशीन को कानूनी मंजूरी दे दी है। इस मंजूरी के बाद इच्छा मृत्यु का रास्ता साफ हो गया है… इच्छा मृत्यु की जरूरत कब पड़ती है, यह मशीन कैसे इंसान को खत्म करती है और अब तक कैसे दी जाती थी इच्छा मृत्यु, जानिए इन सवालों के जवाब…
माना जा रहा है कि ऐसे मरीज़ जो गंभीर बीमारी से जूझ रहे हैं और जिनके बचने की कोई आशा नहीं रही है वे इस मशीन के माध्यम से मौत को गले लगा सकेंगे। दावा यह भी किया जा रहा है कि इस मशीन के ज़रिये इन्सान को एक आरामदायक मौत दी जाएगी जिसमें उसे दम घुटने का अहसास न हो।
इस कैप्स्यूल का आविष्कार ऑस्ट्रेलिया के एक संगठन एग्ज़िट इंटरनेशनल के संस्थापक डॉ. फिलिप निटस्‍के ने किया है। सोशल मीडिया पर उन्हें डॉ. डेथ यानि कि मौत का डॉक्टर कहा जा रहा है।
दरअसल स्विटज़रलैण्ड में इच्छा मृत्यु को 1942 से स्वीकृति मिली हुई है। ब्रिटेन से हर वर्ष 350 से अधिक लोग इस माध्यम से मृत्यु का वरण करते हैं। याद रहे मृतक के संबंधी जो कि उसके साथ स्विटज़रलैण्ड इच्छा मृत्यु में सहायता करने जाते हैं, वापिस ब्रिटेन में आने पर उन पर कानूनी कार्यवाही हो सकती है। उन्हें हत्या के जुर्म में 14 वर्ष की जेल की सज़ा तक का प्रावधान है।  
ब्रिटेन में सवाल उठाए जा रहे हैं कि आखिर उनकी सरकार क्यों इस विषय में कोई कानून नहीं बनाती। इस तरह सरकार ग़रीब और अमीर में अंतर पैदा कर रही है। अमीर को यदि सम्मानजनक इच्छा मृत्यु अपने पैसे के बल पर मिल सकती है तो ग़रीब इससे वंचित क्यों रहे। एक व्यक्ति को सम्मानजनक मौत के लिये क़रीब दस हज़ार पाउंड का ख़र्चा हो जाता है। मरीज़ की हालत यात्रा करने लायक नहीं होती मगर सम्मानजनक मौत के लिये वह इस कष्ट को भी सहने को तैयार हो जाता है। वर्तमान कानून के चलते मरीज़ पूरी तरह निराश होने से पहले ही मरने को तैयार हो जाता है क्योंकि बाद में उसे यात्रा करने की अनुमति नहीं मिलेगी।  
कुछ समय पहले ब्रिटेन के पूर्व स्वास्थ्य सचिव मैट हैन्कॉक ने अपने वक्तव्य में कहा था  कि, “जो लोग इच्छा मृत्यु के लिये विदेश यात्रा करना चाहते हैं उन पर कोविद यात्रा नियम नहीं लागू किये जाएंगे।” वहीं उन्होंने जोर दे कर कहा कि जो भी व्यक्ति किसी को इच्छा मृत्यु में सहायता करेगा उसे एक दंडनीय अपराध माना जाएगा और उस पर मुकद्दमा चलेगा।
इच्छा मृत्यु का सीधा सादा अर्थ है जब जीवन मौत से अधिक कष्टदायक हो जाए तो मौत को गले लगाना। इसे अंग्रेज़ी में यूथेनेशिया कहा जाता है। इच्छा मृत्यु भी दो तरह की होती है – सक्रिय इच्छा मृत्यु (Active Euthanasia) और निष्क्रिय इच्छा मृत्यु (Passive Euthanasia). पहली स्थिति में डॉक्टर मरीज़ को किसी प्रकार का इंजेक्शन देता है जिस से धीरे-धीरे रोगी की मृत्यु हो जाती है। दूसरी स्थिति में मरीज़ के सगे संबंधियों की सहमति से कोमा या गंभीर हालत में पड़े मरीज को बचाने वाले जीवन-रक्षक उपकरण को धीरे-धीरे बंद करते जाते हैं… इस तरह मरीज की मौत हो जाती है।
73 वर्षीय डेविड पेस (2019) जैसे बहुत से मरीज़ हैं जो ब्रिटेन से स्विटज़रलैण्ड जा कर अपने जीवन के कष्टों से मुक्ति पा लेते हैं।  वैसे अब तो युरोप के कई देशों से स्विटज़लैण्ड के लिये इच्छा मृत्यु पर्यटन लोकप्रिय हो रहा है। पहले इच्छा मृत्यु के लिये स्विस डॉक्टर जिन दवाइयों का इस्तेमाल करते हैं उन्हें barbiturates कहा जाता है। वे गोली और तरल रूप में उपलब्ध होती हैं।
इस नये उपकरण जिसे कि सुसाइड पॉड भी कहा जाता है… इसमें मरीज को लिटाया जाता है… इसके बाद एक बटन दबाया जाता है। ऐसा करने के बाद मशीन के अंदर नाइट्रोजन का  स्तर बढ़ना शुरू हो जाता है और 20 सेकंड के अंदर ऑक्‍सीजन का स्तर 21 प्रतिशत से 1 प्रतॉशत तक पहुंच जाता है… इसके फलस्वरूप रोगी की 5 से 10 मिनट के अंदर मौत हो जाती है।
वर्तमान में कनाडा, नीदरलैण्ड, बेल्जियम और अमरीका के कुछ राज्यों में भी इच्छा मृत्यु को मान्यता मिल चुकी है। किंतु प्रश्न बहुत से हैं जो हमारे दिमाग को मथते हैं… क्या सही है क्या ग़लत है इसे समझ पाना सरल नहीं है। जीवन की जटिलताएं बढ़ती जा रही हैं और साथ ही बढ़ रही हैं जीवन से निपटने की सच्चाइयां। रोगी को कब मरना चाहिये और कब तक जीना चाहिये इस पर सरकार और समाज की सोच में बदलाव आ रहा है। मृत्यु सम्मानजनक होनी चाहिये… इन्सान को घिसट-घिसट कर मरने को मजबूर नहीं होना चाहिये… सवाल बहुत हैं… जवाब भी मिलेंगे। 
लेखक वरिष्ठ साहित्यकार, कथा यूके के महासचिव और पुरवाई के संपादक हैं. लंदन में रहते हैं.

33 टिप्पणी

      • अभी कुछ दिन पहले मेरी एक दोस्त ऐसे बच्चों के लिए जो बच्चे शारीरिक और मानसिक रूप से अक्षम हैं और जिन्हें जीवन भर दूसरे पर निर्भर रहना पड़ता हो उन बच्चों के लिए इस तरह के विचार ही रख रही थी।उसका कहना था कि इन बच्चों की जिन्दगी उनके लिए सजा ही है जो कि सच भी है लेकिन भावात्मक रुप से मैं उससे असहमत थी।
        इच्छा मृत्यु एक ऐसी इच्छा है जिसमें व्यक्ति सम्मानित तरीक़े से अपने कष्टदाई जीवन को समाप्त करने की चाहत रखता है।
        असाध्य और ऐसे रोग जो व्यक्ति के जीवन को कष्टदायी मृत्यु की ओर ले जाते हैं उस स्थिति में ऐसी इच्छा कोई गलत नहीं।

        पर यह इतना सरल नहीं क्योंकि कष्ट से मुक्ति की आशा हमेशा बनी रहनी चाहिए।

  1. सम्पादकीय में जीवन ही नहीं मत्यु पर भी विचार है।जब व्यक्ति ऐसी स्थिति में पहुँच जाए कि ख़ुद के लिए और परिवार के लिए भार बन जाए तो इक्षामत्यु का अधिकार(कानूनी)मिलना चाहिए।पुराने और बीमार शरीर में जीने की आशा से अच्छा नए रूप में जीने का विश्वास ।
    Dr Prabha mishra

  2. इस विषय पर आपने जितनी गहराई और सकारात्मकता के साथ अपनी बात रखी है, सराहनीय है। शुभकामनाएँ भाई।

    • आदरणीय संपादक जी सादर प्रणाम।
      आपका संपादकीय तो हर बार की तरह नवीन शोधात्मक परिप्रेक्ष्य में ही प्रस्तुत हुआ है।
      आपका सर्वेक्षण अध्ययन और शोध अति प्रशंसनीय है। चमत्कारिक स्वरूप में पाठक को नित नई जानकारी प्रदान करते रहते हैं। मुझे तो यह पहली बार ज्ञात हुआ की इच्छा मृत्यु की भी मशीन होती है और इसके लिए स्वीटजरलैंड जाना होता है ब्रिटेन में इसे कानूनी मान्यता है यह भी पढ़कर ज्ञात हुआ। अति आवश्यक असहनीय परिस्थितियों में यह यदा-कदा औचित्य पूर्ण भी हो सकता है परंतु सभी देशों के लिए यह एक दुष्कर कार्य है।
      डाॅ• ‌‌‌‌‌क्षमा पाण्डेय

  3. 1981 की मूवी है ‘Whose Life Is It Anyway’, जब देखी थी, उम्र कम थी, फिर भी इच्छा मृत्यु की सख्त जरुरत और लालसा को बताने में ये फिल्म सफल हुई थी। कानूनी तौर पर इच्छा मृत्यु मिल सकती है, जानकर उस समय से पैदा हुई दिमागी घुटन से मुक्ति मिली, इस जानकारी के लिए धन्यवाद। सम्मान से मरने का हक शायद किसी भी मूलाधिकार से बड़ा है। आशा बनी कि शायद भविष्य में भारत में भी यह न्याय बन सके। वैसे अब ये पता चल गया है कि स्विट्जरलैंड में यह सुविधा है तो मरने के लिए एक बचत खाता शुरू करती हूँ। चैन की मौत सम्भवतः सबसे बड़ा वरदान है।

  4. तेजिंदर जी,
    कमाल का शोध कर आपने यह लेख लिखा हैं।
    घुट घुट कर बीमारी की हालत में रहकर घर वालो पर बोझ बने रहने से तो इच्छा मृत्य कई गुना अच्छी ही हैं। परन्तु संभवतः यह कानून सभी देशों में लागू होना एक बहुत बड़ी चुनौती होगी। यह विषय जितना सरल है उससे कई ज्यादा गंभीर है परन्तु आपके लेख में सकारात्मकता अधिक मायने में दिख रही है जो कि शायद भविष्य में इसका कानून सर्वसम्मति से पारित हों जाय।
    आपकी मेहनत और लेख सराहनीय है। हार्दिक शुभकामनाएं आपको।

    — सूर्यकान्त सुतार ‘सूर्या’
    दार ए सलाम, तंजानिया

  5. iicइच्छा मृत्यु का फैसला कठिन है पर किसी अपने को तड़प -तड़प के देखना और भी कठिन | अगर असाध्य तकलीफ दायक रोग है तो व्यक्ति को इसका अधिकार मिलना चाहिए | जयदातार लोग किसी चमत्कार की आशा में जीते हैं | आपने काफी शोध करके लेख लिखा है | जो इसके सकारात्मक पक्ष पर गंभीरता से सोचने को विवश कर रहा है |

  6. मेरी बेटी हमेशा सवाल करती है कि मां भारत में इच्छा मृत्यु का कानून क्यों नहीं लागू होता ?क्योंकि उसके अनुसार तड़प तड़प कैसा जीना है। ऐसे में अपने शरीर को तो कष्ट होता ही है दूसरों को भी उसके साथ पीसना पड़ता है। यह आलेख विचारणीय आलेख है।

  7. मान्यवर तेजेन्द्र भाई
    इच्छा मृत्य कितनी सही कितनी ग़लत, एक अति अति अति गहन शोध,अध्ययन, विचार विमर्श, वादविवाद, आध्यात्म और विधि विधान मानवीय संस्कृति का प्रशन है। इस विषय पर जितने विद्वानों से बात करेंगे उतने ही विकल्प मिलेंगे। मानव सभ्यता और परंपराओं के साथ अनेक देशों में अलग अलग विधि विधान और कानून हैं। जब कोई भी देश हत्या और आत्म हत्या को क़ानून से मान्य नही करता अनुमति नहीं देता तो इच्छा मृत्यु का क़ानून बनाना, उसे अनुमति या स्वीकृति देना एक विडम्बनापूर्ण अपराध नहीं है! एक डॉक्टर कैसे ऐसी दवा दे सकते हैं, तो फिर ज़हर खाना अपराध क्यों। जब आत्म हत्या पर परिवार के सदस्यों, इष्ट मित्रों या सहकर्मियों पर मुक़दमा क्यों। दुर्घटना में ग़ैर इरादतन हत्या का प्रावधान क्यों ।
    डॉक्टर जब मुर्दे में जान नहीं डाल सकता , जन्म मृत्यु किसी के वश में नहीं तो इच्छा मृत्यु कौनसे मानवाधिकार, अध्यात्म अथवा परम्परा से उचित है। अमीर ग़रीब के क़ानून में भेदभाव जग ज़ाहिर है। रात के दो बजे अदालत खुल सकती है या ग्रीष्म कालीन अवकाश में गरिब को दो महीने इंसाफ़ के लिए इन्तेज़ार करना पड़ सकता है।
    मेरे विरुद्ध विचार रखने वाले मित्रों से क्षमा याचना के साथ
    मेरा मत है इच्छा मृत्यु सही नहीं, बिल्कुल ग़लत है।
    जिसने जीवन दिया वही मृत्यु देगा …. !!!

    • कैलाश भाई आपकी विस्तृत टिप्पणियां हमारे संपादकीय का महत्व बढ़ाती हैं। धन्यवाद।

  8. तेजेन्द्र जी, एक बहुत ही गंभीर और विवादास्पद मुद्दे के मुख़्तलिफ़ पहलुओं पर आपने बख़ूबी रौशनी डाली है। इस सवाल के बारे में लोगों के अलग-अलग ख्याल हैं और कई बार इच्छा मृत्यु का इच्छुक पीड़ित खुद न होकर दूसरे लोग हो सकते हैं जो अपने किसी फायदे के लिए उसे इच्छा मृत्यु के लिए उकसाएं। पर आपका यह कहना कि किसी भी क़ानून और सहूलियत पर अधिकार सबका बराबर का होना चाहिए पूरी तरह से वाजिब है।

    • प्रगति आप हमेशा पुरवाई के संपादकीय को गहराई से पढ़ती हैं और अपनी राय ज़ाहिर करती हैं। धन्यवाद।

  9. सल्लेखना (समाधि या सथारां) मृत्यु को निकट जानकर अपनाये जाने वाली एक जैन प्रथा है।आम जैन श्रावक संथारा तभी लेता हैं जब डॉक्टर परिजनों को बोल देता है कि अब सब उपरवाले के हाथ मैं हैं तभी यह धार्मिक प्रक्रिया अपनाई जाती हैं इस प्रक्रिया में परिजनों की सहमती और जो संथारा लेता है उसकी सहमती हो तभी यह विधि ली जाती हैं। यह विधि छोटा बालक या स्वस्थ व्यक्ति नहीं ले सकता हैं इस विधि में क्रोध और आत्महत्या के भाव नहीं पनपते हैं। समाधि और यूथेनेशिया में अति सूक्ष्म भावनिक बड़ा अन्तर है !

  10. ये प्रश्न सहज ही विचारणीय है कि इच्छा मृत्यु कितनी सही, कितनी ग़लत?
    हालांकि यह एक स्वाभाविक सी बात है कि जब भी मनुष्य किसी लाइलाज़ बीमारी में अथवा किसी अन्य असाध्य स्थिति में पहुंच जाता है तो वह जीने की अपेक्षा मृत्यु को चाहता है, लेकिन प्रश्न यह है कि किसी भी स्थिति में इसे एक कानूनी निणर्य के तहत सर्व सुलभ क्यों बनाया जाए? भले ही यह एक निश्चित सी बात है कि असाध्य बीमारी की हालत में बरसों से डॉक्टर्स द्वारा हाथ खड़े करने पर ‘मेडिकल इंस्ट्रूमेंट्स’ हटाने की प्रक्रिया चली आ रही है।
    बहरहाल इस विषय पर आपका संपादकीय न केवल सटीक वस्तुस्थिति सामने रखता है बल्कि कई सवालों पर सोचने के लिए विवश भी करता है।
    साधुवाद सहित।

  11. बहुत ही गहराई के साथ चिंतन मनन के साथ वास्तविकता को स्पष्ट किया है।बात सही कही है पर सोचकर के मन घबरा जाता है ।कैसे व्यक्ति मौत को गले लगाते होंगे।
    यथार्थ चित्रण ।

  12. आपका सम्पादकीय तथ्यात्मक भी है और भावपूर्ण भी। इस गम्भीर विषय पर सोचने को विवश करता है। मृत्यु को गले लगाना आसान नहीं है, मुझे ऐसा महसूस होता है। यह भी सही है कि रोग की असाध्यता जब घिसट घिसकर कर जीने को मजबूर कर दे तो इच्छामृत्यु का अधिकार मिलना एक तरह से उस रोगी पर उपकार है। भारतीय विचारधारा अभी इस विषय पर और भी “किन्तु-परन्तु” के साथ खड़ी हुई है। हमें इसी के बीच से रास्ता खोजना होगा।
    आपका शोधपरक सम्पादकीय भावनाओं से ऊपर उठ कर जीवन की कठोर वास्तविकता का विवेकपूर्ण लेखा-जोखा प्रस्तुत करता है।

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