भारत जैसे देश में बहुत से भारत बसते हैं। मुंबई, दिल्ली, बंगलुरू, हैदराबाद और पुणे वाला भारत इंटरनेट के मामले में बाकी भारत से अलग है। ई-शिक्षा के लिये सबसे महत्वपूर्ण औज़ार हैं इंटरनेट, लैपटॉप या फिर स्मार्ट फ़ोन। यानी कि लैपटॉप या स्मार्ट फ़ोन में से तो आप चुनाव कर सकते हैं मगर इंटरनेट के बिना सब बेकार है। मगर इन सबसे भी अधिक महत्वपूर्ण है बिजली। यदि हर शहर में बिजली की कटौती होती है या फिर वहां तक अभी बिजली पहुंची ही नहीं तो भला ऑनलाइन शिक्षा बेचारी क्या करेगी।

कोरोना वायरस ने भारत जैसे विकासशील देश में ऑनलाइन शिक्षा को आवश्यक बना दिया है। आजकल बच्चे ‘वर्किंग फ़्रॉम होम’ की तर्ज़ पर घर से ही ऑनलाइन पढ़ाई कर रहे हैं। स्कूल वीरान पड़े हैं… बच्चों की आवाज़ें सुनने को बेक़रार। 
बहुत बार देखने को मिला है कि सरकारें बिना किसी प्रकार की मूलभूत सुविधाओं का इंतज़ाम किये, नियम लागू कर देती हैं। डॉ. विदुषी शर्मा इस विषय में एक सवाल भी खड़ा करती हैं, “वस्तुतः अभी भारत में ई-शिक्षा अपने शुरुआती दौर में है; तो फिर वो कौन सी चुनौतियां हैं जिससे शिक्षक और विद्यार्थी दोनों प्रभावित हैं? क्या स्कूली शिक्षा से जुड़े करीब 25 करोड़ और उच्च शिक्षा से जुड़े करीब आठ करोड़ विद्यार्थी ऑनलाइन शिक्षा का लाभ उठा पा रहे हैं?
भारत जैसे देश में बहुत से भारत बसते हैं। मुंबई, दिल्ली, बंगलुरू, हैदराबाद और पुणे वाला भारत इंटरनेट के मामले में बाकी भारत से अलग है। ई-शिक्षा के लिये सबसे महत्वपूर्ण औज़ार हैं इंटरनेट, लैपटॉप या फिर स्मार्ट फ़ोन। यानी कि लैपटॉप या स्मार्ट फ़ोन में से तो आप चुनाव कर सकते हैं मगर इंटरनेट के बिना सब बेकार है। मगर इन सबसे भी अधिक महत्वपूर्ण है बिजली। यदि हर शहर में बिजली की कटौती होती है या फिर वहां तक अभी बिजली पहुंची ही नहीं तो भला ऑनलाइन शिक्षा बेचारी क्या करेगी।
और याद रहे कि बिजली विद्यार्थियों के घरों से भी ग़ायब हो सकती है और अध्यापक के घर से भी… इंटरनेट भी परवाह नहीं करता कि कौन विद्यार्थी है और कौन अध्यापक… उसे ग़ायब होना है तो होना ही है… 
अब समस्या एक कदम आगे बढ़ती है। एक परिवार में तीन बच्चे हैं जो अलग स्कूलों में पढ़ रहे हैं। क्या उनके माता पिता को प्रत्येक बच्चे के लिये लैपटॉप या स्मार्ट फ़ोन ख़रीदना ज़रूरी होगा? और क्या घर का वाई-फ़ाई सब के लिये काफ़ी रहेगा या उन्हें अपने-अपने स्मार्ट फ़ोन के लिये अलग से इंटरनेट पैक ख़रीदना होगा।
वैसे कुछ सरकारों ने विद्यार्थियों को लैपटॉप/मोबाइल/टैबलेट उपहार स्वरूप दिये हैं, मगर वो सब आटे में नमक के बराबर कहा जा सकता है। 
एक प्रश्न यह भी है कि एक ओर जहां कोरोना काल में लोगों की नौकरियां छूट रही हैं, मज़दूर गाँव वापिस जा रहे हैं क्या लैपटॉप और स्मार्ट फ़ोन की सेल बढ़ रही है? भारत को विश्व की सबसे बड़ी मार्केट कहा जाता है, तो क्या उस मार्केट में रहने वाले अपने बच्चों को ख़ुश करने के लिये ये तकनीकी हथियारों की अतिरिक्त ख़रीद कर रहे हैं? 
विचित्र स्थिति यह भी है कि न तो स्कूलों ने फ़ीस कम की है और न ही कॉलेजों या विश्वविद्यालयों ने।  प्रश्न यह उठता है कि जब स्कूल चल नहीं रहे, विद्यार्थी स्कूल जा नहीं रहे, वहां आमने-सामने पढ़ाई का लाभ उठा नहीं पा रहे , तो फिर स्कूल या कॉलेज की आसमान सी ऊंची फ़ीस का भुगतान क्यों करें?
स्कूल कॉलेजों की एक समस्या और है। पूरे स्कूल में इंटरनेट सुविधा मौजूद नहीं है। यदि स्टाफ़ रूम में इंटरनेट सुविधा है तो तमाम अध्यापक या प्रोफ़ेसर वहां ऑनलाइन क्लास लेना शुरू कर दें तो वहां तो एक मछली बाज़ार सा बन जाएगा। इसलिये बहुत से अध्यापक या प्रोफ़ेसर घर से ही क्लासें ले रहे हैं।
अब समस्या है उन अध्यापकों की जो कि क्लास में कभी-कभार ही जाते थे और बहुत मुश्किल से विद्यार्थियों को पढ़ाते थे। उनको ऑनलाइन पढ़ाना ही होगा। और कॉलेज के प्रिंसिपल या फिर एडमिनिस्ट्रेटर इस बात पर निगाह भी रखेंगे कि अमुक क्लास सुचारु रूप से चल रही है या नहीं। जो बेचारा बिना काम किये हज़ारों लाखों कमा रहा था अब उसे काम भी करना पड़ेगा।
मगर जिन की खाल गैंडे जैसी होती है, वे परवाह नहीं करते। ये महाशय भी बीच-बीच में टुल्ला लगा जाते हैं। जब-जब लगता है कि कालेज के प्रिंसिपल की निगाह हटी, तो वे चुपके से अपना वीडियो भी ऑफ़ कर लेते हैं। 
वहीं दूसरी ओर कुछ ऐसे छात्र भी हैं जो क्लास से भाग कर फ़िल्म देखने वाले ग्रुप के सदस्य हैं। उनके लिये ऑनलाइन क्लास किसी गंभीर सज़ा से कम नहीं है। मगर वे भी चोरी-चोरी लॉग-इन करने के बाद वीडियो गेम खेलते रहते हैं। मज़ेदार बात यह है कि यह वीडियो गेम वे अकेले नहीं खेलते। बहुत से छात्र मिल कर ऑनलाइन गेम का आनंद उठाते हैं। जबकि माँ-बाप समझते हैं कि बच्चे अपने कमरे में पढ़ रहे हैं।
कहीं ऐसा भी महसूस होता है कि ऑनलाइन शिक्षा ने भारत में अमीर और ग़रीब के बीच की खाई को और बड़ा कर दिया है। जिनके पास सुविधाएं मौजूद हैं, और जो महानगरों में रहते हैं उनके मुकाबले छोटे शहरों, कस्बों और गाँव में रहने वाले बच्चे सुविधाओं के अभाव में कहीं पीछे रह जाते हैं। यहां तो यह भी नहीं किया जा सकता कि ग़रीब का बेटा स्ट्रीट लाइट के नीचे बैठ कर पढ़ ले। यह तो सीधा-सीधा एक हथियारबंद सिपाही का मुकाबला एक निहत्थे सिपाही से है। भारत में पब्लिक स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों के सामने भला सरकारी स्कूलों के बच्चे कैसे खड़े रह सकते हैं।
आज अमृतसर की डॉ. किरण खन्ना से इस विषय में बात हो रही थी, तो उन्होंने कहा कि सबसे कठिन समस्या तो परीक्षा पत्रों को जांचने की है। बच्चे अपनी उत्तर पुस्तिका का पीडीएफ़ बना कर ई-मेल कर देते हैं। बीस पन्नों का वो ईमेल डाउनलोड करने में बहुत कठिनाइयां सामने आती हैं। यह काम तकनीकी विभाग वाले करते हैं। मगर अध्यापक या प्राध्यापक तब तक घर नहीं जा सकता जब तक कि तमाम उत्तर पुस्तिकाएं डाउनलोड न हो जाएं। उसके बाद इन उत्तर-पुस्तिकाओं के प्रिंट-आउट निकाले जाते हैं। तब होती है इनकी जांच।
जब हम इन कॉपियों को जांचते हैं तो पाते हैं कि अधिकांश बच्चों ने किताब सामने रख कर नकल मारी है। मगर करीब 30% बच्चे ऐसे होते हैं जो कि अक्ल से नकल मारते हैं। उन्हें इस बात की समझ है कि परीक्षा में प्रश्न क्या पूछा गया है। ऐसा नहीं कि हम सवाल तो गोबर के बारे में पूछें और जवाब होरी और धनिया के बारे में लिखा जाए। 
किरण जी ने जानकारी देते हुए बताया कि ऐसी एजेंसियां बनाई जा रही हैं जो कि ऑनलाइन परीक्षा में भी निगाह रख सकेंगी कि विद्यार्थी नकल तो नहीं मार रहा। जैसे-जैसे हालात बनेंगे वैसी-वैसी नई युक्तियां सोची जाएंगी। उन्होंने हंसते हुए बताया कि आजकल मज़ाक बना हुआ है कि – “सावधान! वो डॉक्टर अब आपका इलाज करने के लिये छोड़ दिये गये हैं जिन्होंने ऑनलाइन डॉक्टरी की परीक्षा पास की है।” कुछ बड़ी कंपनियां तो ऐसी भी हैं जिन्होंने निर्देश जारी कर दिये हैं कि 2020 और 2021 में जिन विद्यार्थियों ने ऑनलाइन परीक्षा उत्तीर्ण की है, वे नौकरी के लिये आवेदन न दें।
डॉ. विदुषी शर्मा ने एक और सवाल खड़ा किया है, “औसत यदि देखा जाये तो एक विद्यार्थी और शिक्षक दोनों लगभग आठ से नौ घंटे ऑनलाइन व्यतीत कर रहे हैं। जो कि उनकी मानसिक और शारीरिक स्थिति के लिए घातक है। छोटे बच्चों के लिए और भी अधिक नुकसानदेह है। कई अभिभावकों ने फेसबुक पोस्ट के माध्यम से बताया कि उनके बच्चों की आंखों में समस्याएं पैदा हो रही हैं। इसके अलावा तकनीक का बहुतायत उपयोग अवसाद, दुश्चिंता, अकेलापन आदि की समस्याएं भी पैदा करता है।
कोरोना वर्तमान विश्व के लिये एक नई किस्म की समस्या है। इससे पहले हमने कभी ऐसी भयंकर विश्वमारी का सामना नहीं किया था। भारत में एक ऐसी समिति बनाई जाए जो आपात काल की गति से इस विषय पर विचार करे और बिना देरी के इस मसले पर अपनी सिफ़ारिश शिक्षा मंत्रालय को सौंपे। जिस तरह कोरोना के नये-नये स्वरूप सामने आ रहे हैं, उसी तेज़ी से सरकारों को कदम भी उठाने होंगे। यह स्कूल कॉलेज के बच्चों के भविष्य का सवाल है जिनके भविष्य के साथ ही देश का भविष्य भी जुड़ा हुआ है। 
लेखक वरिष्ठ साहित्यकार, कथा यूके के महासचिव और पुरवाई के संपादक हैं. लंदन में रहते हैं.

17 टिप्पणी

  1. बहुत सटीक लिखा आपने। सच है भारतीय संदर्भ में ये देखना बहुत जरूरी है कि बिजली और इनटरनेट जैसी सुविधा की पहुंच सब तक न होने की स्थिति में ऑन लाइन कंसेप्ट कितना सफल हो सकता है। बहरहाल ये भी सही है कि इस स्थिति को आपदा में अवसर बनाकर बहुत लोग इसका लाभ उठा रहे हैं, भले ही इसका सबसे अधिक दुष्प्रभाव हमारी आने वाली जनरेशन पर पड़ा रहा है जो शिक्षा को केवल औपचारिक रूप से ग्रहण कर रही है वास्तविक रूप से नहीं।
    फिलहाल आपके संपादकीय में उठाए गए बिंदु न केवल सोचने के लिए विवश करते हैं, बल्कि इस ओर ध्यान देने के लिए सरकारी उपक्रमों को भी इशारा करते नजर आते हैं। हार्दिक साधुवाद सहित तेजेन्द्र सर।

    • विरेन्द्र भाई आप निरंतर पुरवाई के संपादकीय पढ़ते हैं और अपनी टिप्पणी से हमारा उत्साह बढ़ाते हैं। हार्दिक धन्यवाद।

  2. वे ज्वलंत बातें जो ऑनलाइन शिक्षा में बच्चे और उनके मां बाप भुगत रहे हैं और सच कहें तो समाधान कुछ भी नहीं

    • नमस्कार सर ऑनलाइन शिक्षा बच्चों के लिए भी और शिक्षक के लिए भी चुनौती है। संपादकीय के माध्यम से आपने बहुत से सवालों को उजागर किया है। पर मैं यह कहना चाहती हू अमीर लोग तो अपने दो तीन बच्चों को लैपटॉप , स्मार्टफोन दिला सकते हैं पर गरीब क्या करेंगे? उनके लिए तो दो वक्त की रोटी जुटा पाना मुश्किल है तो स्मार्ट फोन कहां से लाएंगे। शिक्षा व्यवस्था खत्म हो चुकी है। कहते हैं ना अगर किसी देश की कमर तोड़नी है तो उसकी शिक्षा व्यवस्था को खत्म कर दो। आज वही हाल हमारे देश का है।

      • मुक्ति जी आपने स्थिति को सही समझा है। आप तो स्वयं अध्यापक हैं। आपको तो स्वयं परेशानियों के विषय में सही जानकारी होगी।

  3. आपदा को अवसर में बदलने का दौर चल रहा है शिक्षा भी इससे अछूती नहीं है ।स्कूल, कालेज बंद हैं फिर भी फीस का भार उस पर तो पड़ ही रहा है जो पहले से ही आर्थिक कमजोर है और अब बेरोजगार भी । तकनीकी और आधारभूत सुविधाएं अंतिम व्यक्ति के पास पहुँचने में समय लगेगा ,तब तक शिक्षा के क्षेत्र में कई विसंगतियां दिखाई देंगी ।आपदा प्रबंधन पर आपकी टिप्पणी स्वागत योग्य ।
    Dr Prabha mishra

    • प्रभा जी सही कहा आपने। एक बात हम भूल रहे हैं कि आजकल इंटरनेट पैक कितने मंहगे हो रहे हैं।

  4. ‘आपदा में अवसर’ से दो अर्थ निकलते हैं एक तो शिक्षण संस्थाओं के लिए, जिसमें शिक्षक और विद्यार्थी हो सकता है कि वे इस आपदा को चुनौती की तरह स्वीकार करें और दोनों ही अपनी तकनीकी समझ विकसित करते हुए उसका लाभ लें , लेकिन तकनीक का सम्बन्ध सुविधा से है और एक भारत में कई भारत बसते हैं, तो इसका सीधा अर्थ हैकि यह सुविधा सभी को उपलब्ध नहीं है,अनुपात में बहुत अंतर है आपने ठीक कहा खाई पहले भी कम गहरी थी न थी अब और भी गहरी हो रही है |हमारे घरों की घरेलु सहायिकाएं अक्सर टीस के साथ बताती हैं कि उनके बच्चे ऑनलाइन नहीं पढ़ा पा रहे सरकारी स्कूलों के बच्चों की स्थिति तो बद से बद्दतर हो चुकी है| ‘आमदनी अठन्नी खर्च रुपया’| डिजिटल इण्डिया का सपना कोरोना के कारण प्री मैच्योर बेबी की तरह अवतरित हो गया जिसे अब टाला ही नहीं जा सकता पर जिसकी विशेष देखभाल के लिए सुविधा नहीं है हमारे पास |दूसरा अर्थ शिक्ष्ण संस्थाओं के प्रबंधक हैं जो वास्तव में इसका लाभ ले रहें हैं फीस आसमान को छू रही है स्कूल में वे जा नहीं रहे जो काम पीडीऍफ़ से हो सकता है वे केहते कि पुस्तकें अनिवार्य खरीदो ,लेकिन नौकरियां छूटने से जिन परिवारों के लोग नेट का खर्च नहीं उठ पा रहे वे अतिरिक्त भर का वहन कैसे कर पायेंगे |राजनीति अपना खेल खेल रही है सभी कुछ खुल जाने के बावजूद शिक्षण संस्थाओं पर ताला पड़ा है | अत्यंत शोचनीय स्थिति है

  5. आपने सम्पादकीय में एक बार फिर ज्वलंत मुद्दे को उठाया है। शिक्षा किसी भी समाज के विकास की रीढ़ होती है। हमारे देश में पहले से ही विभिन्न प्रकार के स्कूलों के शिक्षा स्तर के बीच बड़ी खाई थी, अब तो अल्लाह ही मालिक है कि किसको कैसी और कितनी शिक्षा मिल रही है। शिक्षा के साथ खिलवाड़ के दीर्घकालिक दुष्प्रभाव होंगे, इस लिए सुधार की तात्कालिक आवश्यकता है। माना हमारा देश विकासशील है, इसकी अपनी कई बड़ी समस्याएं जैसे जनसँख्या आदि हैं, लेकिन राजनीतियों में शिक्षा को प्राथमिकता के अनुसार ऊपर का स्थान मिलना चाहिए।

  6. जान बड़ी चीज़ है, जान है तो ही जहान है. दौर ये भी गुजर रहा है, गुज़र जाएगा, हम नाहक परेशान होते हैं. समस्या ज्वलंत है, बात सही है। लेकिन मेरा मानना है कि पहले भी शिक्षा बच्चों का बहुत ज़्यादा भला नहीं कर रही थी ।गांवों की स्थिति बिजली और नेट के नजर से उतनी बुरी नहीं है… कम से कम 10 गांवों से मैं जुड़ी हूँ। बाकायदा 10 घंटे बिजली मिलती है। वहाँ भी इनवर्टर और जनरेटर हैं। अभी कुछ दिन पहले ही गांवों में गई थी, वहाँ internet की speed और बिजली देखी थी। अति निर्धन परिवार अगर छोड़ दें, तो लगभग सभी बच्चे पढ़ रहे हैं. बच्चे में प्रतिभा होती है, तो वो आसाम छू लेता है, स्कूल का नाम या पढ़ाई मुलम्मा भर होता है। बाकी सभी का भारत अलग अलग होता है, मेरा भारत ऐसा नहीं जो सिर्फ़ रोता है. गुस्ताख़ी माफ़. बाकी लोगों के तजुर्बे मैं नहीं जानती पर मैं गाँव और भारत की सोंधी मिट्टी से यथार्थतः जुड़ी हुई हूँ. मैं सरकारी प्रायमरी स्कूल में पढ़ी हूँ.

    • शैली जी मैं भारत के अधिकांश शहरों, कस्बों के लोगों से जुड़ा हूं। वे बेचारे तो इंटरनेट पैक के दामों से ही त्रस्त हैं। जान कर अच्छा लगा कि भारत में किसी प्रकार की कोई समस्या नहीं है और मुझे भारत से मित्र नाहक ही परेशान कर रहे हैं।

  7. सम्पादक महोदय
    इस बार विषय बहुत अच्छा लिया जिस पर गम्भीर विचार विमर्श अति आवश्यक एवं महत्वपूर्ण है । प्रतिदिन हम एक नई समस्या का सामना करते हैं। जब भी कोई विषय विचार के लिए आता है तो स्वाभविक है उसके सहमति और विरोध में मत व्यक्त किये जाते हैं। पिछले कई वर्षों से सुनने में आता था कि शिक्षा पद्धति का विकास किया जा रहा है। स्कूलों में कम्प्यूटर, स्मार्ट क्लास, इंटरनेट सुविधा इत्यादि की व्यवस्था का काम चल ही रहा था कि कोरोना नामक आपदा ने विकराल रूप ले लिया ! सब कुछ ठप पड़ गया, सब संस्थान बन्द कर दिए गए। कुछ दिन असमंजस में सहमे रहने के बाद विकल्प सोचे गए, वास्तविक मूल रूप में दिनचर्या लाना सम्भव नहीं हो सका अतः ऑन लाइन क्लास का तरीका सबसे सहज लगा। और आनन फानन में शुरू कर दिया गया, जब कि मूलभूत सुविधा(on line infra structure) उपलब्ध नहीं थीं। बस यूँ समझो कि बिल्डिंग तैयार नहीं थी फिर भी रहना शरू कर दिया। अब ऐसी स्थिति में समस्याओं व असुविधाओं का होना लाज़मी है। सबसे पहली शिकायत, जब स्कूल बन्द तो फ़ीस क्यों ?
    ज़रा सोचिए अगर फ़ीस न दी गई तो शिक्षक एवं अन्य स्कूल स्टाफ़ बेरोज़गार हो जाएंगे । जिन ऑन लाइन क्लास का लाभ ले रहे हैं वो क्या मुफ़्त में चलते हैं ?! उनका ख़र्च कहाँ से आएगा, उनके परिवारों का व्यय को कौंन वहन करेगा ?
    केवल हर बात का विरोध करने के बजाय यूँ समझ लें कि हम पुरानी शिक्षा पद्धति से नई की ओर अग्रसर हैं। अब इस प्रक्रिया में थोड़ी तो असुविधा होगी। जैसे पुराने मकान से नए मकान में जाते हैं।
    इंटरनेट सुविधा संवैधानिक रूप से नागरिक के मूलभूत अधिकार (Right of communication ) का हिस्सा है ! सरकार को चाहिए इसमें से भृष्टाचार हटाय, बिचौलियों को लूट से रोके और प्रत्येक नागरिक को निःशुल्क अथवा नाम मात्र ख़र्च में उपलब्ध हो।
    इस तरह के सारी समस्यओं का विवरण करनायहाँ सम्भव नही, अन्यथा टिप्पणी बहुत लम्बी और बोरिंग हो जाएगी, बहुत से मुद्दे और विकल्प हैं जिन्हें ग़ैर राजनीतिक रूप से सौहार्दपूर्ण तरीके से सुलझाया जा सकता है।
    ये सारी स्थिति एक महामारी आपदा से उतपन्न हुई है, अतः ये सबका मानवीय कर्तव्य है कि सब मिलकर सहयोग करे और इस आपदा के सामना करें औऱ इन परिस्थितियों में से एक नए रूप में विकास का विकल्प सोचें ।
    बी-पॉज़िटिव (Be +ve )

  8. भाई विकल्प सोचने से यदि सब ठीक हो जाए तो कोई समस्या ही नहीं। यहां तो अलग अलग कंपनियां जैसे कि एअरटेल, वोडाफ़ोन, आईडिया, बी.एस.एन.एल. सभी ने अपने पैक तक के दाम बढ़ा दिये हैं… यही तो इस संपादकीय का मुख्य मुद्दा है कि सरकार को पहले इंतज़ाम करना चाहिये।

  9. आदरणीय महोदय,
    इस विषय पर तो चिंता प्रतिदिन बढ़ती घटती रहती है। ऑनलाइन कक्षाएं अच्छी हैं इसमें कोई दोमत नहीं पर इससे बच्चों के स्वास्थ्य पर पड़ने वाले प्रभाव को भी नकारा नहीं जा सकता। चारदीवारी के अंदर रहकर लैपटॉप के सामने बैठे बैठे पढ़ना बच्चों में मोटापे का कारण बन गया है। बाहर जाकर खेलने संबंधी क्रियाएं भी न के बराबर ही हो रही हैं। मैं एक शिक्षिका भी हूं और अभिभावक भी अतः मुझे ऑनलाइन शिक्षा से तो ज़रा भी परहेज नहीं। यह तो सचमुच ही आपदा में अवसर है। सभी को इस अवसर का लाभ अवश्य लेना चाहिए ताकि पढ़ाई अबाध चलती रहे।
    आपके आलेख को पढ़कर बहुत अच्छा लगा।

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