एक बात तो तय है कि इस ऐतिहासिक घटना ने भारत के हिन्दी प्रकाशकों को नींद से अवश्य जगाया होगा। अब तमाम लेखक एवं प्रकाशक इस बात पर विचार करना शुरू करेंगे कि अब तक क्या ग़लत होता रहा कि हिन्दी साहित्य का अनुवाद वैश्विक स्तर पर पुरस्कार समितियों तक नहीं पहुंच पाया। अब अनुवाद का भारत में भी सम्मान बढ़ेगा और स्तरीय अनुवादक परिदृश्य में दिखाई देने लगेंगे। यह भी सोचा जाएगा कि भला अमरीका में रहने वाली अनुवादक गीतांजलि श्री की भाषा, लोकेल, चरित्रों को कैसे समझ पाई होगी जबकि भारत में उन्हीं मुद्दों पर सवाल उठाए जा रहे हैं। हिन्दी साहित्य के लिये एक नयी सुबह का सूत्रपात तो हो चुका है।
पिछले कुछ समय से सोशल मीडिया पर ‘गीतांजलि श्री’, ‘रेत समाधि’, ‘बुकर अवार्ड’ और ‘राजकमल प्रकाशन’ की बात हो रही है। भारत का हर दूसरा मित्र मुझ से निजी तौर पर पूछ रहा है कि मेरी क्या राय है… या फिर क्या मैं उस समारोह में शामिल हुआ… वगैरह वगैरह…
सोशल मीडिया पर दो तरह की प्रतिक्रियाएं चल रही हैं। कुछ लोग इस अवार्ड पर सवाल उठा रहे हैं तो दूसरे लोग सवाल उठाने वालों पर सवाल उठा रहे हैं। मगर एक बात दोनों गुटों में समान है – अधिकांश लोगों ने उपन्यास पढ़ा नहीं है… न तो हिन्दी में और न ही अंग्रेज़ी में।
फिर भी तमाम लोग या तो गीतांजलि श्री को महान बनाने में लगे हैं और कुछ उसे महत्वहीन घोषित करने में लगे हैं।
ब्रिटेन के बहुत से लेखक तो गीतांजलि श्री और गीताश्री के नामों में भ्रमित हो रहे हैं। मुझ से पूछा जा रहा है, “यह गीतांजलि श्री वही हैं न जो कुछ साल पहले पद्मेश जी के प्रोग्राम में आईं थीं?” इन दिनों यह भी एक ज़रूरी काम बन गया है कि मैं उन्हें दोनों के बारे में समझाऊं।
हम भूल जाते हैं कि दिल्ली की साहित्य अकादमी भी अनुवाद पर पुरस्कार देती है। साहित्य अकादमी के नियमों में यह लिखा है कि – “मूल लेखक की प्रतिष्ठा तथा कृति विशेष की उत्कृष्टता को भी ध्यान में रखा जाएगा।” यहां तक कि संयुक्त रूप से अनूदित पुस्तक भी पुरस्कार की पात्र होगी।
यानी कि हर पुरस्कार के कुछ कायदे कुछ नियम होते हैं जिनके तहत यह सम्मान दिया जाता है। अब तक का रचा गया सारा साहित्य इसलिये कचरा नहीं हो जाता क्योंकि उसे बुकर अवार्ड नहीं मिला। गीतांजलि श्री और उनकी अनुवादक डेज़ी रॉकवेल ने बुकर अवार्ड की शर्तों को पूरा करते हुए अपने उपन्यास को जमा करवा दिया होगा…
मगर यहां भी एक ट्विस्ट है… बुकर अवार्ड के नियमों के अनुसार – “केवल प्रकाशक ही पुरस्कारों के लिए प्रविष्टियां जमा कर सकते हैं; लेखकों और एजेंटों को सीधे पुरस्कारों में प्रवेश करने की अनुमति नहीं है।”
नियमों के अनुसार अंग्रेजी में अनुवादित कथा साहित्य के लिए अंतर्राष्ट्रीय बुकर पुरस्कार प्रति वर्ष सर्वश्रेष्ठ उपन्यास या लघु कथाओं के संग्रह के लेखक और अनुवादक (निर्णायकों की राय में) को प्रदान किया जाता है।
यहां ध्यान देने लायक बात यह है कि प्रविष्टि अंग्रेज़ी अनुवाद की होती है। यह अनुवाद विश्व की तमाम भाषाओं से होता है। और उस पर भी शर्त यह लागू होती है कि अनूदित पुस्तक का प्रकाशन यू.के. या फिर आयरलैण्ड में ही हुआ हो।
इससे एक बात साफ़ हो जाती है कि भारतीय प्रकाशक का इसमें कोई किरदार नहीं है। जिस प्रकाशक ने इसे बुकर अवार्ड के लिये जमा करवाया होगा वो ब्रिटेन का अंग्रेज़ी का प्रकाशक ही होगा। वैसे इसका पेपर बैक संस्करण टिलटिड एक्सिस प्रेस ने छापा है और उसकी कीमत है 12 पाउण्ड।
याद रहे कि इस उपन्यास की अनुवादक डेज़ी रॉकवेल ने या तो स्वयं उपन्यास को चुना होगा कि वे इसका अनुवाद कर सकें या फिर गीतांजलि श्री ने उनको चुना होगा कि वे उपन्यास का अनुवाद करें। डेज़ी अमरीका में रहती हैं। ज़ाहिर है कि हिन्दी उपन्यास स्वयं तो अमरीका पहुंच नहीं जाएगा कि – “ऐ डेज़ी, तुम मेरा अनुवाद करो !” यहां भी कोई प्रक्रिया तो अपनाई ही गयी होगी।
बहुत से मित्रों ने भारत से फ़ोन करके बताया कि रेत समाधि को पढ़ पाना बहुत कठिन काम है। पठनीयता की कमी है। पढ़ने के लिये मेहनत करनी पड़ रही है। कोई चालीस पेज पढ़ कर रुक गया है तो कोई 130 पर।
यहां यह बता देना भी पुरवाई के पाठकों के लिये सही रहेगा कि गीतांजलि श्री ऐसी लेखिका नहीं है जिनके उपन्यास आप रेल यात्रा के दौरान पढ़ते चले जाएं। और इस उपन्यास में तो उन्होंने बाक़ायदा ‘स्ट्रीम ऑफ़ कॉन्श्यसनेस’ का प्रयोग किया है। इस तकनीक का ज़िक्र सबसे पहले विलियम ब्लेक ने 1890 में अपनी पुस्तक ‘दि प्रिंसिपल्स ऑफ़ साइकॉलॉजी’ में किया था। इस विधा में जेम्स जॉयस और वर्जीनिया वुल्फ़ ने महारथ हासिल की थी।
गीतांजलि श्री के लेखन को समझने के लिये धैर्य की आवश्यकता है। आप उसमें पठनीयता ढूंढने का प्रयास न करें। लेखिका अपने सत्य खोजने को अधिक महत्वपूर्ण समझती है। यह उपन्यास कथ्य के मुकाबले शिल्प में काव्यात्मक है। इस उपन्यास से साहित्य के नये कथाकारों को शिल्प की एक नई समझ पैदा हो सकती है।
वरिष्ठ कवि अशोक वाजपेयी जी ने ठीक ही कहा है कि “अगर आपको उपन्यास नहीं समझ आया तो यह आपकी समस्या है, उपन्यास की नहीं।”
गीतांजलि श्री को बुकर अवार्ड मिलना ‘कथा यूके’ के लिये विशेष गौरव का पल है क्योंकि 1995 में शुरू किया गया पहला ‘इंदु शर्मा कथा सम्मान ‘गीतांजलि श्री को उनके कहानी संग्रह ‘अनुगूंज’ के लिये दिया गया। उन्हें यह सम्मान श्रद्धेय डॉ. धर्मवीर भारती द्वारा प्रदान किया गया। भारती जी ने उस शाम करीब चालीस मिनट तक गीतांजलि श्री के कहानी संग्रह पर बात की। उस समय यह सम्मान चालीस वर्ष से कम उम्र के कहानीकारों को दिया जाता था।
भाई विश्वनाथ सचदेव, कवि विजय कुमार एवं ग़ज़लकार देवमणि पांडेय आज अपने 27 वर्ष पहले लिये गये निर्णय पर गर्व महसूस कर रहे होंगे। उस कार्यक्रम में पुष्पा भारती जी, जगदम्बा प्रसाद दीक्षित, सूर्यबाला, सुधा अरोड़ा, जितेन्द्र भाटिया, धीरेन्द्र अस्थाना, राहुल देव, और सिने कलाकार नवीन निश्चल सहित मुंबई के तमाम साहित्यकार उपस्थित रहे।
मुझे गीतांजलि श्री की हंस में प्रकाशित पहली कहानी ‘बेल-पत्र’ ने बहुत प्रभावित किया था। तभी से उनके लेखन में मेरी रुचि बढ़ने लगी थी। तब से आज तक गीतांजलि श्री ने एक लंबी साहित्यिक यात्रा तय की है। अब तक उनके पाँच उपन्यास – ‘माई`, ’हमारा शहर उस बरस`, ’तिरोहित`, ‘खाली जगह’, ‘रेत-समाधि’ प्रकाशित हो चुके हैं। साथ ही पाँच कहानी संग्रह – ‘अनुगूंज` ‘वैराग्य`, ’मार्च, माँ और साकूरा’, ‘यहाँ हाथी रहते थे’ और ‘प्रतिनिधि कहानियां’ प्रकाशित हो चुके हैं।
बुकर अवार्ड मिलने पर गीतांजलि श्री ने मंच से कहा, “मैंने कभी इंटरनेशनल बुकर प्राइज़ जीतने की कल्पना नहीं की थी। कभी सोचा ही नहीं कि मैं ये कर सकती हूँ। ये एक बड़ा पुरस्कार है। मैं हैरान, प्रसन्न, सम्मानित और विनम्र महसूस कर रही हूँ।”
उन्होंने आगे कहा, “मैं और ये पुस्तक दक्षिण एशियाई भाषाओं में एक समृद्ध साहित्यिक परंपरा से जुड़े हैं। विश्व साहित्य इन भाषाओं के कुछ बेहतरीन लेखकों से परिचित होकर समृद्ध होगा।”
ज़ाहिर है कि राजकमल प्रकाशन के अशोक माहेश्वरी भी इस साहित्यिक उपलब्धि से आनंदित हुए होंगे। उन्होंने बीबीसी से बात करते हुए कहा, कि इस पुस्तक के इंटरनेशनल बुकर तक पहुंचने के बाद प्रकाशकों का ध्यान पॉपुलर साहित्य की जगह गंभीर साहित्य की ओर बढ़ेगा। वो कहते हैं कि ऐसे लेखक जो दिखने और बिकने में ज्यादा यकीन रखते हैं, वे अब टिकने पर ध्यान देंगे. भाषा और भाव की महत्ता समझेंगे।
उनका मानना है कि इससे न केवल हिंदी से अंग्रेज़ी भाषा के अनुवाद को बढ़ावा मिलेगा बल्कि अंग्रेज़ी से हिंदी भाषा की ओर भी लोगों का रूझान बढ़ेगा। यहां तक कि भारतीय भाषाओं से भी लोग हिंदी में अब अनुवाद कराने पर ज़ोर देंगे।
एक बात तो तय है कि इस ऐतिहासिक घटना ने भारत के हिन्दी प्रकाशकों को नींद से अवश्य जगाया होगा। अब तमाम लेखक एवं प्रकाशक इस बात पर विचार करना शुरू करेंगे कि अब तक क्या ग़लत होता रहा कि हिन्दी साहित्य का अनुवाद वैश्विक स्तर पर पुरस्कार समितियों तक नहीं पहुंच पाया। अब अनुवाद का भारत में भी सम्मान बढ़ेगा और स्तरीय अनुवादक परिदृश्य में दिखाई देने लगेंगे। यह भी सोचा जाएगा कि भला अमरीका में रहने वाली अनुवादक गीतांजलि श्री की भाषा, लोकेल, चरित्रों को कैसे समझ पाई होगी जबकि भारत में उन्हीं मुद्दों पर सवाल उठाए जा रहे हैं। हिन्दी साहित्य के लिये एक नयी सुबह का सूत्रपात तो हो चुका है।
मेट्रो में हूँ और आपका संपादकीय पढ़ा।इस विषय पर वाद विवाद और प्रत्यारोप को देखकर समझ नहीं आ रहा था कि विरोध हो रहा है या उत्सव! लेखन में प्रयोग और विधा को परिष्कृत करना सबके बस का नहीं है।गीतांजलि श्री जी के लेखन को समझने के लिए पहले खुद के मस्तिष्क को समझना आवश्यक है।
आपका संपादकीय हर बार की तरह निष्पक्ष है और सटीक है।
गीतांजलि श्री को बुकर हिंदी साहित्य का टर्निंग पॉइंट है, किसी भी विचार धारा का पोषण 3 अवस्था मे होता हसि चाहे वह साहित्य हो या सिनेम या सोच। भारतीय परम्परा के लिए मैं इसे इन 3 दशाओं में कहूंगा, 1. मुख्य धारा का साहित्य main stream, 2. जरा हट कर दृश्यात्मक न होकर बिम्बात्मक , off beat, 3.वाम विचार धारा, leftist. जिसमे नकारात्मक सोच को पोषित किया जाता है।
काव्य साहित्य में अज्ञेय जी ने ऑफ बीट यानी प्रगतिशील , आधुनिक कविता प्रारम्भ किंजो 80 के दशक में आते आते नकारात्मक हो गयी ।मुख्य धारा में बताए गए काव्य के कोई भी गुण नहीं रहे।
यही स्थिति गद्य साहित्य की हो रही है। मैं गीतांजलि जी के लेखन का विरोधी नही क्योंकि मैंने पढा नहीं, बल्कि चिंतित हूँ मुख्य धारा की अकस्मात मौत से जो प्रारम्भ हो चुकी है।
साहित्य लावण्य, अलंकार, दृश्य चित्रण, लालित्य अब कहाँ मिलेंगे।गंभीर रूप से मुख्य धारा के साहित्य को जीवित रखने के लिए सोचना होगा। आज लघु कथा का स्वरूप भी लंबाई में लघु नहीं कथ्य में बिल्कुल अलग हैं।
अब आईये बूकर की बात करें। हिंदी के अंग्रेज़ी उपन्यास को बूकर मिला मैं तो इसे बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवाना वाली बात मानता हूं। अंग्रेजों ने अंग्रेजों के लिए एक पुरस्कार दिया वह हमारी बात अंग्रेज़ी में कहने से जिसने अंग्रेज़ी में कहा उसे मिला और हम खुश हो नाच रहे हैं यह गोरी चमड़ी के अभी भी लगाव को बिम्बित करता है। ऑस्कर हो या नोबल हो या कोई भी अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार सभी मे हमारी यही स्थिति है।
कई लोग लिखते है 100 साल बाद हिंदी ने अंग्रेज़ी की सीलिंग को हिट किया, मुझे कोई बताए क्या हिट कीट क्या इससे हिंदी का प्रसार होगा?,
अगर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हम कोई ऐसा करें कि विदेश साहित्य जो उच्च कोटि का है वश हिंदी में अनुदित हो उसे सम्मानित किया जाय तो अवश्य हिंदी का प्रसार होगा पूरा विश्व इस ओर देखेगा .
कल राहुल देव जी के एक लेख में उन्होंने बार बार लिखा लेस्स नोन भाषा को मान मिला पढ़ कर शर्म से आंखे नीची हो ग्यो आज सही गणना करें तो मंडारिन के बाद सर्वाधिक बोली जाने वाली भाषा हिंदी है और अंग्रेज़ो कि दासता में यह लेस्स नोन हो गयी।
एक तरफ बूकर को लेकर खुशी तो है पर दूसरी तरफ इसके झूठे गुणगान को लेकर बहुत दुखी हूं।
नमस्कार संपादक जी. आपके उत्तम संपादकीय के लिए साधुवाद. दो बातें समझ आयीं- अंग्रेजी में अनूदित और प्रकाशक द्वारा प्रस्तुत. बुकर के लिए ये दो पूर्वापेक्षाएं हैं. यानी महत्वपूर्ण हैं सामग्री का अंग्रेजी में होना और प्रकाशक की दख़ल.
यानी खुद लेखक अपनी हिन्दी कृति भेजे तो वह स्वीकार ही न होगी.
न हिन्दी की कद्र है न लेखक की.
हम क्यों खुश हैं, समझ नहीं आता.
अब अनुवाद की बात.
अनुवाद हमेशा एक पुनर्सृजन होता है.
क्या बुकर- समिति ने मूल हिन्दी पाठ को भी पढ़ा और अंग्रेज़ी पाठ से उसका मिलान किया? अंग्रेजी रचना एक नयी कृति है, वह हिन्दी कृति तो कतई नहीं है.
पठनीयता का मुद्दा भी विचारणीय है. भारतीय काव्य शास्त्र में भाविक के मन में रस निष्पत्ति का होना बहुत ही महत्वपूर्ण कारक है. यदि कोई साहित्य रस निष्पत्ति में ही सफल नहीं, पाठक, दर्शक या श्रोता उससे किसी तरह जुड़ ही नहीं पाता, भाव ग्रहण नहीं कर पाता, तो वह किस पैमाने पर साहित्य में परिगणित हो, यह अपने आप में एक बड़ा सवाल है.
साहित्य का हेतु स्वयं साहित्य नहीं है. और उपन्यास की आत्मा तो कथानक है. वही नहीं तो कैसा उपन्यास?
मैंने यह कृति पढ़ी नहीं है. इस लिहाज़ से मैं भारत के उस वर्ग का सदस्य हूँ जो पढ़ने से अधिक लिखने में और बेसिरपैर की हांकने में विश्वास करता है. बुकर न मिलता तो भारत में इस हिन्दी उपन्यास को कौन जान पाता? कुछ विश्व विद्यालयीन शिक्षक, राजकमल, लेखिका के मित्र और कुछ चुनिंदा पत्रकार! पठनीयता ही न हो तो और क्या होगा!
गौर कीजिए, क्या ही प्रवाहमयी भाषा है। ऐसा विकट प्रवाह है कि लगभग सारे इराम विराम चिन्ह बह गये दिख रहे हैं।
सबसे ऊपर की पंक्ति से पाठक निकलता है, सबसे नीचे की पंक्ति तक पहुँचने के लिए
और ” जाना था जापान, पहुँच गये चीन ” की रमणीक स्थिति को प्राप्त हो जाता है।
आज अगर राजा विक्रम से वेताल पूछ लेता कि, ” हे विक्रम, इस पूरे पृष्ठ को पढ जा और बता कि यहाँ चर्चा आयुर्वेद की है, योग की है, शालिहोत्र की है या है असली इंद्रजाल की!”
तो यकीन जानिए कि विक्रम पिटा मुँह ले कर रह जाते।
अति सुन्दर विवेचना, पाठक की दयनीय स्थिति का ऐसा सटीक विवरण, मन प्रसन्न हो गया, अपनी पाठकीय बुद्धि पर लगे हुए प्रश्न चिह्न धुँधले हुए, सुकून मिला कि मेरी समझ के ही बाहर नहीं है ये पुस्तक बहुतों का हाल मेरे जैसा है… एक बेहद जटिल रचना की जटिलता को इतने सहज ढंग से बताने के लिए आभार… विक्रम बेताल प्रसंग तो सोने में सुगंध है.
मैं किताब अभी पढ़ रही हूं इसलिए उसकी बाबत तो बहुत कुछ नहीं कह सकूँगी हां लेकिन आपके संपादकीय से बहुत सी बातों की जानकारी ज़रूर हुई ।पर जैसे ही पढना शुरूकिया शुरूआत में ही मेरी आँखें भर आईं, जैसे दीवार हो जाना उनका, निसंदेहबहुत ही गहरी बात कहना इतना सह्ल नहीं होता, आफ़रीन है राइटर को । और आपके नस्र को, ख़ूब ख़ूब
उर्मिला माधव
Your Editorial describes the arduous procedure that has to be followed before a book reaches the panel of the International Booker Prize.
And the preparation n labour that accompanies it.
At the same time,here, you also speak of the high literary merit of Geetanjali that attracted you to her writings as early as 1995 compelling you to bestow the first Indu Sharma Katha Award to her.
A happy find!
Congratulations n regards.
Deepak Sharma
साहित्य संसार में चर्चित सामयिक विषय पर सूत्र वाक्य कह दिए हैं आपने ,सचमुच यह लेखकों और प्रकाशकों के लिए पुनः चिंतन का दौर है ,सभी जरा ठहर कर खोजेंगे मंज़िल तक पहुँचने के नए रास्ते ।नई साहित्य क्रांति का आव्हान है यह सम्पादकीय
साधुवाद
DrPrabha mishra
तटस्थ और स्पष्ट सम्पादकीय के लिए धन्यवाद और बधाई ।किस्सा कोताह यही कि जब कोई चीज़ समझ न आये, तो दो स्थितियाँ बनती हैं, या तो चीज़ इतनी अच्छी कि हमारी बुद्धि के आगे बहुत उन्नत है और उसे महान घोषित कर दो, या उसे बेवकूफ़ी और अपनी समझ को अच्छा समझ उसे रद्दी की टोकरी में डाल दो, यहां स्थिति यही थी, निर्णय पहली सम्भावना के हक में हुआ और बुकर मिल गया. भारत को मिले सम्मान के लिए मन प्रसन्न है।
परन्तु पुस्तक के विषय में मेरा विचार है कि, अब बुकर ऐसा पुरस्कार मिलने के बाद, सामन्य पाठक की विडम्बना ये है कि, “राजा नंगा है” – कहने का जोखिम कौन उठाये, अपनी नासमझी के सर्टिफिकेट को कौन ख़ुद साइन कर दे? खैर मैं अपनी बुद्धि पर प्रश्न चिन्ह के लिए तैयार रही, इसे पढ़ने के दिन से ही, यह रचना देवकी नन्दन खत्री के तिलिस्म जैसी है, सभी को समझ में नहीं आयेगी, सिर्फ़ वो chosen one इसे समझ सकेगा, जिसके हाथों तिलिस्म टूटना लिखा है… तो अनुवादक और बुकर के निर्णायक मंडल को तिलिस्म समझ में आया, तिलिस्म का खजाना उनके हाथ लगा, बाकी पाठकों के लिए अब यह चुनार गढ़ का एक खण्डहर मात्र रह गया है… क्योंकि तिलिस्म टूट चुका है…
लेखक ने क्या लिखा,कैसे लिखा से परे होकर जब भी ऐसी milestone धटनाऐं हों तो उन्हें किसी भी तकनीकी दृश्टिकोण सेहटकर सिर्फ celebrate किया जाना
ज्यूरी ने अपना काम कर दिया है।अब पाठक रूप में हमारी
जवाबदारी है।आपने नियमावली से लेकर लेखक-प्रकाशक सोच तक विस्तार से लिखा है ,धन्यवाद।
मेरी पुस्तक राह में है।
मेट्रो में हूँ और आपका संपादकीय पढ़ा।इस विषय पर वाद विवाद और प्रत्यारोप को देखकर समझ नहीं आ रहा था कि विरोध हो रहा है या उत्सव! लेखन में प्रयोग और विधा को परिष्कृत करना सबके बस का नहीं है।गीतांजलि श्री जी के लेखन को समझने के लिए पहले खुद के मस्तिष्क को समझना आवश्यक है।
आपका संपादकीय हर बार की तरह निष्पक्ष है और सटीक है।
इतनी ख़ूबसूरत टिप्पणी के लिये धन्यवाद दिव्या
Very wel written with valid points Sharmaji. Just got up from the sleep 5th May at 6.30am. and read…
Thanks so much Gopi. Bless you!
गीतांजलि श्री को बुकर हिंदी साहित्य का टर्निंग पॉइंट है, किसी भी विचार धारा का पोषण 3 अवस्था मे होता हसि चाहे वह साहित्य हो या सिनेम या सोच। भारतीय परम्परा के लिए मैं इसे इन 3 दशाओं में कहूंगा, 1. मुख्य धारा का साहित्य main stream, 2. जरा हट कर दृश्यात्मक न होकर बिम्बात्मक , off beat, 3.वाम विचार धारा, leftist. जिसमे नकारात्मक सोच को पोषित किया जाता है।
काव्य साहित्य में अज्ञेय जी ने ऑफ बीट यानी प्रगतिशील , आधुनिक कविता प्रारम्भ किंजो 80 के दशक में आते आते नकारात्मक हो गयी ।मुख्य धारा में बताए गए काव्य के कोई भी गुण नहीं रहे।
यही स्थिति गद्य साहित्य की हो रही है। मैं गीतांजलि जी के लेखन का विरोधी नही क्योंकि मैंने पढा नहीं, बल्कि चिंतित हूँ मुख्य धारा की अकस्मात मौत से जो प्रारम्भ हो चुकी है।
साहित्य लावण्य, अलंकार, दृश्य चित्रण, लालित्य अब कहाँ मिलेंगे।गंभीर रूप से मुख्य धारा के साहित्य को जीवित रखने के लिए सोचना होगा। आज लघु कथा का स्वरूप भी लंबाई में लघु नहीं कथ्य में बिल्कुल अलग हैं।
अब आईये बूकर की बात करें। हिंदी के अंग्रेज़ी उपन्यास को बूकर मिला मैं तो इसे बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवाना वाली बात मानता हूं। अंग्रेजों ने अंग्रेजों के लिए एक पुरस्कार दिया वह हमारी बात अंग्रेज़ी में कहने से जिसने अंग्रेज़ी में कहा उसे मिला और हम खुश हो नाच रहे हैं यह गोरी चमड़ी के अभी भी लगाव को बिम्बित करता है। ऑस्कर हो या नोबल हो या कोई भी अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार सभी मे हमारी यही स्थिति है।
कई लोग लिखते है 100 साल बाद हिंदी ने अंग्रेज़ी की सीलिंग को हिट किया, मुझे कोई बताए क्या हिट कीट क्या इससे हिंदी का प्रसार होगा?,
अगर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हम कोई ऐसा करें कि विदेश साहित्य जो उच्च कोटि का है वश हिंदी में अनुदित हो उसे सम्मानित किया जाय तो अवश्य हिंदी का प्रसार होगा पूरा विश्व इस ओर देखेगा .
कल राहुल देव जी के एक लेख में उन्होंने बार बार लिखा लेस्स नोन भाषा को मान मिला पढ़ कर शर्म से आंखे नीची हो ग्यो आज सही गणना करें तो मंडारिन के बाद सर्वाधिक बोली जाने वाली भाषा हिंदी है और अंग्रेज़ो कि दासता में यह लेस्स नोन हो गयी।
एक तरफ बूकर को लेकर खुशी तो है पर दूसरी तरफ इसके झूठे गुणगान को लेकर बहुत दुखी हूं।
सुरेश भाई हमेशा की तरह गहरी सोच वाली टिप्पणी।
नमस्कार संपादक जी. आपके उत्तम संपादकीय के लिए साधुवाद. दो बातें समझ आयीं- अंग्रेजी में अनूदित और प्रकाशक द्वारा प्रस्तुत. बुकर के लिए ये दो पूर्वापेक्षाएं हैं. यानी महत्वपूर्ण हैं सामग्री का अंग्रेजी में होना और प्रकाशक की दख़ल.
यानी खुद लेखक अपनी हिन्दी कृति भेजे तो वह स्वीकार ही न होगी.
न हिन्दी की कद्र है न लेखक की.
हम क्यों खुश हैं, समझ नहीं आता.
अब अनुवाद की बात.
अनुवाद हमेशा एक पुनर्सृजन होता है.
क्या बुकर- समिति ने मूल हिन्दी पाठ को भी पढ़ा और अंग्रेज़ी पाठ से उसका मिलान किया? अंग्रेजी रचना एक नयी कृति है, वह हिन्दी कृति तो कतई नहीं है.
पठनीयता का मुद्दा भी विचारणीय है. भारतीय काव्य शास्त्र में भाविक के मन में रस निष्पत्ति का होना बहुत ही महत्वपूर्ण कारक है. यदि कोई साहित्य रस निष्पत्ति में ही सफल नहीं, पाठक, दर्शक या श्रोता उससे किसी तरह जुड़ ही नहीं पाता, भाव ग्रहण नहीं कर पाता, तो वह किस पैमाने पर साहित्य में परिगणित हो, यह अपने आप में एक बड़ा सवाल है.
साहित्य का हेतु स्वयं साहित्य नहीं है. और उपन्यास की आत्मा तो कथानक है. वही नहीं तो कैसा उपन्यास?
मैंने यह कृति पढ़ी नहीं है. इस लिहाज़ से मैं भारत के उस वर्ग का सदस्य हूँ जो पढ़ने से अधिक लिखने में और बेसिरपैर की हांकने में विश्वास करता है. बुकर न मिलता तो भारत में इस हिन्दी उपन्यास को कौन जान पाता? कुछ विश्व विद्यालयीन शिक्षक, राजकमल, लेखिका के मित्र और कुछ चुनिंदा पत्रकार! पठनीयता ही न हो तो और क्या होगा!
कुछ मूलभूत प्रश्न उठान के लिये धन्यवाद डॉ. सिंह।
Gajanan Raina के Facebook बुक पेज से
यह है बुकर पुरस्कार से पुरस्कृत पुस्तक का एक पृष्ठ https://scontent.fsyd10-1.fna.fbcdn.net/v/t39.30808-6/281961218_10227649277678132_3101842219255629082_n.jpg?_nc_cat=100&ccb=1-7&_nc_sid=730e14&_nc_ohc=MpK251JQQP4AX-h3Tx2&_nc_ht=scontent.fsyd10-1.fna&oh=00_AT9iV6smrKjFlmT-UJoEjmHthDbRCfR-7VowDKPdvnBbhA&oe=62A13146
पुरस्कार तो बनता ही था।
गौर कीजिए, क्या ही प्रवाहमयी भाषा है। ऐसा विकट प्रवाह है कि लगभग सारे इराम विराम चिन्ह बह गये दिख रहे हैं।
सबसे ऊपर की पंक्ति से पाठक निकलता है, सबसे नीचे की पंक्ति तक पहुँचने के लिए
और ” जाना था जापान, पहुँच गये चीन ” की रमणीक स्थिति को प्राप्त हो जाता है।
आज अगर राजा विक्रम से वेताल पूछ लेता कि, ” हे विक्रम, इस पूरे पृष्ठ को पढ जा और बता कि यहाँ चर्चा आयुर्वेद की है, योग की है, शालिहोत्र की है या है असली इंद्रजाल की!”
तो यकीन जानिए कि विक्रम पिटा मुँह ले कर रह जाते।
( रैना उवाच )
अति सुन्दर विवेचना, पाठक की दयनीय स्थिति का ऐसा सटीक विवरण, मन प्रसन्न हो गया, अपनी पाठकीय बुद्धि पर लगे हुए प्रश्न चिह्न धुँधले हुए, सुकून मिला कि मेरी समझ के ही बाहर नहीं है ये पुस्तक बहुतों का हाल मेरे जैसा है… एक बेहद जटिल रचना की जटिलता को इतने सहज ढंग से बताने के लिए आभार… विक्रम बेताल प्रसंग तो सोने में सुगंध है.
संजय भाई, शैली जी… लोकतंत्र में हमें किसी भी विषय पर अपनी राय रखने का पूरा हक़ होता है। स्वागत है।
मैं किताब अभी पढ़ रही हूं इसलिए उसकी बाबत तो बहुत कुछ नहीं कह सकूँगी हां लेकिन आपके संपादकीय से बहुत सी बातों की जानकारी ज़रूर हुई ।पर जैसे ही पढना शुरूकिया शुरूआत में ही मेरी आँखें भर आईं, जैसे दीवार हो जाना उनका, निसंदेहबहुत ही गहरी बात कहना इतना सह्ल नहीं होता, आफ़रीन है राइटर को । और आपके नस्र को, ख़ूब ख़ूब
उर्मिला माधव
धन्यवाद उर्मिला जी। आप उपन्यास पढ़ रही हैं। पढ़ने के बाद अवश्य प्रतिक्रिया दीजियेगा।
Your Editorial describes the arduous procedure that has to be followed before a book reaches the panel of the International Booker Prize.
And the preparation n labour that accompanies it.
At the same time,here, you also speak of the high literary merit of Geetanjali that attracted you to her writings as early as 1995 compelling you to bestow the first Indu Sharma Katha Award to her.
A happy find!
Congratulations n regards.
Deepak Sharma
Deepak ji you are always so kind and appreciative. Thanks so much.
साहित्य संसार में चर्चित सामयिक विषय पर सूत्र वाक्य कह दिए हैं आपने ,सचमुच यह लेखकों और प्रकाशकों के लिए पुनः चिंतन का दौर है ,सभी जरा ठहर कर खोजेंगे मंज़िल तक पहुँचने के नए रास्ते ।नई साहित्य क्रांति का आव्हान है यह सम्पादकीय
साधुवाद
DrPrabha mishra
प्रभा जी इस स्नेहयुक्त टिप्पणी के लिये बहुत शुक्रिया।
तटस्थ और स्पष्ट सम्पादकीय के लिए धन्यवाद और बधाई ।किस्सा कोताह यही कि जब कोई चीज़ समझ न आये, तो दो स्थितियाँ बनती हैं, या तो चीज़ इतनी अच्छी कि हमारी बुद्धि के आगे बहुत उन्नत है और उसे महान घोषित कर दो, या उसे बेवकूफ़ी और अपनी समझ को अच्छा समझ उसे रद्दी की टोकरी में डाल दो, यहां स्थिति यही थी, निर्णय पहली सम्भावना के हक में हुआ और बुकर मिल गया. भारत को मिले सम्मान के लिए मन प्रसन्न है।
परन्तु पुस्तक के विषय में मेरा विचार है कि, अब बुकर ऐसा पुरस्कार मिलने के बाद, सामन्य पाठक की विडम्बना ये है कि, “राजा नंगा है” – कहने का जोखिम कौन उठाये, अपनी नासमझी के सर्टिफिकेट को कौन ख़ुद साइन कर दे? खैर मैं अपनी बुद्धि पर प्रश्न चिन्ह के लिए तैयार रही, इसे पढ़ने के दिन से ही, यह रचना देवकी नन्दन खत्री के तिलिस्म जैसी है, सभी को समझ में नहीं आयेगी, सिर्फ़ वो chosen one इसे समझ सकेगा, जिसके हाथों तिलिस्म टूटना लिखा है… तो अनुवादक और बुकर के निर्णायक मंडल को तिलिस्म समझ में आया, तिलिस्म का खजाना उनके हाथ लगा, बाकी पाठकों के लिए अब यह चुनार गढ़ का एक खण्डहर मात्र रह गया है… क्योंकि तिलिस्म टूट चुका है…
शैली जी इतनी विस्तृत और गहरी टिप्पणी के लिये बहुत बहुत धन्यवाद।
लेखक ने क्या लिखा,कैसे लिखा से परे होकर जब भी ऐसी milestone धटनाऐं हों तो उन्हें किसी भी तकनीकी दृश्टिकोण सेहटकर सिर्फ celebrate किया जाना
ज्यूरी ने अपना काम कर दिया है।अब पाठक रूप में हमारी
जवाबदारी है।आपने नियमावली से लेकर लेखक-प्रकाशक सोच तक विस्तार से लिखा है ,धन्यवाद।
मेरी पुस्तक राह में है।
निहार जी… आपकी पुस्तक को राह से मंज़िल मिले…