कभी सोचा नहीं था घर ये मेरा घर नहीं होगा
बनाने में जिसे दिन रात सारी जिंदगी गुजरी।
हमारी बागवानी देखकर दुनिया तरसती थी
तृषा की सीपियों में स्वाति की बूंदें बरसती थी
कमल की चाह में हमने गुलाबों को सँजोया यों
कि कांटे चुभ रहे थे जब उंगलियां तब भी हंसती थी ।
हमारी भूल थी या भूल पुरखों की विरासत थी
कहूँ किससे कि किस दुख में हमारी जिंदगी गुजरी।
बड़े अरमान से साहब बनाया अपने बेटे को
भरोसा आनेवाले कल पे इतना था , बिना सोचे
रखा गिरवी कटोरा धान का, गहने सभी घर के
उड़ाने को उसे घन पार अपने पंख तक नोचे
उड़ा था शौक से, लेकिन बला लिपटी गले ऐसी
कि हर दिन घर की यादों में दुधारी जिंदगी गुजरी।
गया वह दूर इतना, भूल बैठा, किसका बेटा है
नहीं है याद, किसकी गोद में पलकर बढ़ा इतना
मवेशी मानता है पोस, लेकिन आदमी है वह
खुली है छूट, कर लो भोग दुनिया को जहाँ जितना
कभी सोचा नहीं, मैं भी जिऊँ दो-चार पल सुख से
कभी देखा नहीं, किस पथ से प्यारी जिंदगी गुजरी।
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डॉ. बुद्धिनाथ मिश्र
देहरादून
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