Friday, October 4, 2024
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शिक्षक से संवाद : साहित्य वही उत्तम होता है जो मानवीय संवेदनाओं को झकझोर कर रख दे – प्रो. नीलम सराफ

प्रो. नीलम सराफ

‘शिक्षक से संवाद’ साक्षात्कार शृंखला की आठवीं कड़ी में आज पिछले लगभग चार दशक से अकादमिक जगत में सक्रिय प्रो. नीलम सराफ से हमारे प्रतिनिधि पीयूष कुमार दुबे ने बातचीत की है। प्रो. नीलम जम्मू विश्वविद्यालय में कई वरिष्ठ पदों पर अपनी सेवाएं दे चुकी हैं। शिक्षा से संबंधित अनेक बोर्डों की सदस्य हैं। साथ ही, आपकी दस पुस्तकें भी प्रकाशित हो चुकी हैं। इस साक्षात्कार में नीलम जी ने भाषा-साहित्य, नई शिक्षा नीति सहित जम्मू-कश्मीर की परिस्थितियों पर बेबाक ढंग से अपनी बात रखी है। प्रस्तुत है।     

प्रश्न –  नमस्कार नीलम सराफ जी, ‘पुरवाई’ से बातचीत में आपका स्वागत है। बातचीत की शुरूआत से पूर्व हमारे पाठकों को अपने बचपन से लेकर जम्मू विश्वविद्यालय तक की जीवन यात्रा के विषय में कुछ बताइये।
नीलम सराफ – बचपन से आज तक की जीवन-यात्रा की बात करूं तो जम्मू मेरा जन्म स्थान है। इस शहर में जीवन बीता। एम.ए की पढ़ाई के बाद पीएच.डी कर रही थी कि इस शहर में शादी हो गई। मेरे पति डॉक्टर हैं। शादी के बाद पढ़ाई की और इसी विश्वविद्यालय में 1983 से 2020 तक विभिन्न पदों पर कार्यरत रही। अब मैं सेवानिवृत होने के बाद परिवार के साथ सुखपूर्वक रहते हुए साहित्यिक लेखन में कार्यरत हूं। जम्मू शहर वास्तव में मुझे बहुत प्रिय है क्योंकि मेरी बचपन से आज तक सभी यादें यहां से जुड़ी हैं।
प्रश्न – हमारी जानकारी में आया है कि आपने उपन्यासों पर काफी काम किया है। विश्व के उपन्यासों की तुलना में भारत के उपन्यास साहित्य को आप किस रूप में देखती हैं?
नीलम सराफ – साहित्य की विधाओं में से उपन्यास मेरी रूचि का विषय है। मेरी दस पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं। सभी समाज और संस्कृति के विभिन्न पक्षों को लेकर उपन्यासों के माध्यम से ही चर्चित हैं। साहित्य चाहे भारतीय हो या विश्व के किसी दूसरे देश का हो। साहित्य वही उत्तम होता है जो मानवीय संवेदनाओं को झकझोर कर रख दे। इसमें संदेह नहीं कि आज ‘बोल्ड’ लेखन के नाम पर अश्लील साहित्य भी लिखा जाता है परन्तु हिंदी में ऐसे उपन्यासों की कमी नहीं है जो समाज के पिछड़े वर्गों की व्यथा को उकेर रहे हैं। हाशिये पर स्थापित लोगों की पीड़ा के प्रति मानवीय संवेदना जागृत करते हुए मानवीय मूल्यों को स्थापित करते हैं।
प्रश्न – राजभाषा हिंदी की आज जम्मू कश्मीर में कैसी स्थिति है?
नीलम सराफ – हिंदी एकमात्र ऐसी भाषा है जिसे जम्मू कश्मीर का प्रत्येक व्यक्ति बोलता एवं समझता है। 2020 में हिन्दी, डोगरी और कश्मीरी को अधिकारिक भाषा के रूप में मान्यता मिली। इससे पहले उर्दू और अंग्रेज़ी को आधिकारिक व्यवहार के लिए प्रयोग किया जाता था। जम्मू-कश्मीर में दो संभाग हैं – जम्मू व कश्मीर। दोनों ही क्षेत्र भाषा व बोली व संस्कृति के रूप में एक दूसरे से अलग हैं। कश्मीर में कश्मीरी बोली जाती है और जम्मू संभाग में डोगरी भाषा में आदान-प्रदान होता है। इन दो भाषाओं के अतिरिक्त कई क्षेत्रीय भाषाएं यहां बोली जाती हैं। किन्तु प्रदेश में हिंदी एक ऐसी भाषा के रूप में हमारे सामने आती है जो इन भाषाओं और बोलियों के लोगों के बीच एक सेतु का काम करती है। हिंदी ही वह भाषा है जिसे प्रदेश के सभी लोग समझते व बोलते हैं, इस तरह से वह यहां की सम्पर्क भाषा भी है। इसके अतिरिक्त यहां के स्कूल, कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में हिंदी में पठन-पाठन हो रहा है। कुल मिलाकर यहाँ हिंदी का विकास दिन-प्रतिदिन हो रहा है और एक आवाम की भाषा के रूप में विकसित हो रही है।
प्रश्न – 1990 में कश्मीरी पंडितों के पलायन से पूर्व जम्मू-कश्मीर में हिंदी की स्थिति और उसके बाद हिंदी की स्थिति में आप कोई अंतर देखती हैं?
नीलम सराफ – डोगरा शासकों के समय से ही जम्मू कश्मीर राज्य की सरकारी ज़बान उर्दू रही है, जिसे सन 1947 के बाद की आवामी सरकार ने उर्दू को राजभाषा के रूप में राज्य के संविधान में भी स्वीकृत किया। जम्मू-कश्मीर में प्राचीनकाल से ही देश के कोने-कोने से लोग यहां के प्राकृतिक सौंदर्य के साथ-साथ अमरनाथ की यात्रा, क्षीर भवानी की यात्रा आदि पर्यटन स्थलों पर आते हैं। जम्मू-कश्मीर प्राचीन शिक्षा का केन्द्र भी रहा है। इसके अतिरिक्त आर्थिक अभावों के कारण यहां के स्थानीय निवासी देश के विभिन्न प्रांतों में चले जाते हैं। इस आदान-प्रदान की प्रक्रिया के फलस्वरूप भी हिंदी का विकास यहां हुआ है। नब्बे के दशक में उग्रवाद के उदय के साथ ही जनवरी 1990 में कश्मीर घाटी से कश्मीरी पंडितों के रूप में बहुत बड़ी आबादी का पलायन यहां से होता है। वह जम्मू के अतिरिक्त देश के कई कोनों में अपना बसेरा बनाते हैं। हिंदी की दृष्टि से यद्यपि देखा जाए तो हिंदी कश्मीरी पंडितों के पलायन से पूर्व भी प्रचलित थी और पलायन के बाद भी हिंदी  यहां बोली, समझी और व्यवहार में लाई जाती है। नब्बे के दशक के बाद के इतने लंबे समय के बाद स्थितियां बदली हैं, समय बदला है और हिंदी यहां के जीवन के साथ जुड़ने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही है। फिल्मों, आकाशवाणी, पत्र-पत्रिकाओं ने भी यहां हिंदी का वातावरण निर्मित करने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है और हिंदी  ने कई साहित्य लेखकों की पौध भी तैयार की है। आशा है कि आने वाले समय में यह यहां के जनजीवन के साथ जुड़कर यहां की आवामी भाषा के रूप में उभरकर सामने आये क्योंकि इसे राजभाषा के रूप में भी यहां मान्यता प्राप्त है।
प्रश्न – हिंदी में शोध की गुणवत्ता को लेकर अक्सर सवाल उठाए जाते हैं, आपकी इस विषय में क्या राय है।
नीलम सराफ – सवाल तो किसी भी विषय को लेकर उठाये जा सकते हैं। चर्चा-परिचर्चा स्वस्थ साहित्य की रचना में सहायक है। शोध की गुणवत्ता की बात करें तो मैं आपके सवाल से सहमत नहीं हूं। पुस्तकों की बात करें तो सभी पुस्तकें एक जैसी नहीं होती वैसे ही शोध उच्च स्तरीय हो रहा है; अगर बीच में कोई कार्य निम्नस्तरीय हो तो उससे पूरी तरह से हम शोधकार्य को गुणहीन नहीं कह सकते।
प्रश्न – जम्मू कश्मीर का इतिहास अलग रहा है और वर्तमान उससे अलग है। इस स्थिति को लेकर क्या वहां के शिक्षण संस्थानों और छात्रों में शोध की कोई दृष्टि दिखाई देती है।
नीलम सराफ – इतिहास की यद्यपि बात की जाए तो कल्हण की राजतरंगिणी से ही जम्मू कश्मीर का विधिवत लिखित इतिहास हमें मिलता है। यहां समय-समय पर कई राजवंशों ने राज किया। प्राचीन काल में यहां हिन्दू राजाओं और बौद्ध राजाओं ने राज किया। इस्लाम के आगमन के साथ मुगलों व अफगानों ने राज किया, इसके बाद सिख व डोगरा शासन काल हमें देखने को मिलता है। आज़ादी के बाद स्थितियां बदली और लोकतंत्र का आगमन हुआ राजनीति सक्रिय हुई। 1990 के दशक से उग्रवाद का उदय हुआ और कश्मीरी पंडितों का पलायन हुआ। सत्ता के गलियारों में चहलकदमी हुई जम्मू-कश्मीर डिकोर्स के रूप में हमारे सामने आया। 2019 में ही अनुच्छेद 370 के तहत मिलने वाले स्पेशल स्टेटस को निष्क्रिय किया गया और राज्य से केन्द्र अनुशासित प्रदेश के रूप में इसे मान्यता मिली। ऐसा नहीं है कि इन सभी परिस्थितयों को लेकर शिक्षा संस्थानों में शोध नहीं हो रहे हैं। कई शिक्षण संस्थानों से शोधार्थी कश्मीर से संबंधित अलग-अलग विषयों पर शोध हो रहे हैं।
प्रश्न – अनुच्छेद 370 के हटने के बाद जम्मू कश्मीर की स्थिति में किस तरह के परिवर्तन आए हैं… विशेषकर शिक्षा के क्षेत्र में।
नीलम सराफ – अनुच्छेद 370 के हटने के बाद कोई विशेष परिवर्तन नहीं दिखाई देता। यद्यपि शिक्षा की बात की जाए तो राष्ट्रीय शिक्षा नीति भारत के अन्य क्षेत्रों की भांति यहां भी व्यवहार में लाई गई है जिसका उद्देश्य भारत को एक वैश्विक महाशक्ति बनाना है।
प्रश्न – 2020 में ‘जम्मू कश्मीर आधिकारिक भाषा बिल’ पारित कर प्रदेश के लिए नई भाषा नीति की योजना की गई थी, जिसके तहत हिन्दी, कश्मीरी और डोगरी को भी जम्मू कश्मीर की आधिकारिक भाषा का दर्जा दिया गया, क्या शिक्षा के क्षेत्र में इसका कुछ असर दिखाई देता है?
नीलम सराफ – आधिकारिक भाषा बिल से पारित होने पूर्व भी हिंदी यहां की सम्पर्क भाषा होने के साथ साथ यहां के स्कूल, कॉलेजों व विश्वविद्यालयों में पढ़ाई जाती थी। हिंदी का बहुत बड़ा पाठक वर्ग यहां आज भी है। डोगरा शासन काल के दौरान उर्दू दरबारी भाषा के रूप में व्यवहृत थी। स्वतंत्रता के पश्चात राजभाषा के रूप में उर्दू के साथ अंग्रेज़ी का भी प्रावधान था। हिंदी के साथ-साथ इस बिल में डोगरी और कश्मीरी को भी स्थान दिया गया जो यहां के दो संभागों की मुख्य भाषाएं हैं। व्यवहारिक रूप से हिंदी, डोगरी और कश्मीरी का प्रयोग अभी भी कार्यालयों में नहीं हो रहा है। शिक्षा के क्षेत्र में इससे पूर्व भी हिंदी का पठन-पाठन हो रहा था और आज भी हो रहा है।
प्रश्न – दशकों बाद देश को नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति मिली है। इससे आप किस तरह के बदलावों की संभावना देखती हैं? और जम्मू विश्वविद्यालय में नई शिक्षा नीति को लागू करने की दिशा में क्या कुछ तैयारियां चल रही हैं?
नीलम सराफ – आधुनिक समय की ज़रूरतों के अनुरूप भारतीय शिक्षा प्रणाली में अपेक्षित बदलाव लाने के लिए केन्द्र सरकार द्वारा ‘राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020’ के लागू किया गया है। जिसका उद्देश्य शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार के साथ शिक्षा में नवाचार तथा और अनुसंधान को बढ़ावा देना है। जिससे भारत वैश्विक प्रतिस्पर्द्धा के योग्य बन सके। इस शिक्षा नीति को नए भारत के बदलाव भी बुनियाद के रूप में देखा जा रहा है। इस शिक्षा नीति में कई महत्वपूर्ण बिंदु हैं जिनसे बदलाव तथा शिक्षा में गुणवत्ता की संभावनाएं देखी जा सकती हैं। जम्मू विश्वविद्यालय के सभी कॉलेजों में इसे पिछले वर्ष लागू किया गया है और व्यावहारिक रूप देने के लिए विश्वविद्यालय में प्रयास किये जा रहे हैं।
प्रश्न – विश्व हिंदी सम्मेलनों में जम्मू कश्मीर की कितनी भागीदारी रही है? इन योजनाओं से भारत और विश्व में हिंदी भाषा एवं साहित्य की स्थिति में आप कोई विशेष अंतर देख पाती हैं?
नीलम सराफ – विश्व हिंदी सम्मेलन हिंदी भाषा का सबसे बड़ा कार्यक्रम है, जिसमें दुनियाभर के हिंदी प्रेमी, शोधार्थी, साहित्यकार, भाषा विज्ञानी, विषय विशेषज्ञ और पत्रकार आदि शामिल होते हैं। यह हर तीन साल में आयोजित होता है। जम्मू कश्मीर की यदि बात की जाए तो यहाँ के हिंदी प्रेमी सक्रिय रूप से इसमें भाग लेते हैं। स्वयं मैंने दो बार इस सम्मेलन में सक्रिय रूप से भाग लेते हुए पत्रवाचन किया है। आज हम वैश्विक ग्राम में जी रहे हैं; विभिन्न सोश्ल साइट्स के माध्यम से पूरे विश्व के साथ जुड़े हुए हैं और उनसे संवाद भी कर रहे हैं। संवाद का पहला सोपान भाषा है। हिंदी आज वैश्विक भाषा के रूप में उभरकर हमारे सामने आई है। हिंदी साहित्य पिछले बारह सौ वर्षों की परम्परा को अपने में समेटे हुए है। आज का हिंदी साहित्य पूरे विश्व में पढ़ा जा रहा है। वैश्विक स्तर पर भी कई ऐसे साहित्यकार हैं जो भारतीय भाषा में साहित्य-सर्जन कर उसे वैश्विक धरातल पर स्थापित करते हुए हिंदी भाषा का परचम लहरा रहे हैं।
प्रश्न – हिंदी में रोज़गार की कमी की बात की जाती है, आपके विचार में इसमें कितनी सत्यता है?
नीलम सराफ – भाषा का रोज़गार से गहन संबंध है। जिस भाषा में रोज़गार की अपार संभावनाएं होंगी सम्भवतः उसका वर्ग उसी के अुनरूप फैलता जाएगा। जहां तक हिंदी में रोज़गार की बात है तो इसमें गिरावट ज़रूर हो सकती है किन्तु हिंदी में रोज़गार की अपार संभावनाएं हैं। प्रिंट मीडिया, इलेक्ट्रानिक मीडिया, रेडियो, टीवी, फिल्में, धारावाहिक, सम्पादक, एंकर, अनुवादक, कहानीकार, गीतकार, हिंदी अधिकारी, प्रूफ रीडर, शिक्षक आदि कई क्षेत्र हैं जहां से हिंदी अवसरों की भाषा के रूप में हमारे सामने उभरकर आती है।
पीयूष – हमसे बातचीत के लिए समय देने हेतु धन्यवाद।
नीलम सराफ – धन्यवाद।   
पीयूष कुमार दुबे
पीयूष कुमार दुबे
उत्तर प्रदेश के देवरिया जिला स्थित ग्राम सजांव में जन्मे पीयूष कुमार दुबे हिंदी के युवा लेखक एवं समीक्षक हैं। दैनिक जागरण, जनसत्ता, राष्ट्रीय सहारा, अमर उजाला, नवभारत टाइम्स, पाञ्चजन्य, योजना, नया ज्ञानोदय आदि देश के प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में समसामयिक व साहित्यिक विषयों पर इनके पांच सौ से अधिक आलेख और पचास से अधिक पुस्तक समीक्षाएं प्रकाशित हो चुकी हैं। पुरवाई ई-पत्रिका से संपादक मंडल सदस्य के रूप में जुड़े हुए हैं। सम्मान : हिंदी की अग्रणी वेबसाइट प्रवक्ता डॉट कॉम द्वारा 'अटल पत्रकारिता सम्मान' तथा भारतीय राष्ट्रीय साहित्य उत्थान समिति द्वारा श्रेष्ठ लेखन के लिए 'शंखनाद सम्मान' से सम्मानित। संप्रति - शोधार्थी, दिल्ली विश्वविद्यालय। ईमेल एवं मोबाइल - [email protected] एवं 8750960603
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