व्यंग्यकार अर्चना चतुर्वेदी की कहानीकार सुधांशु गुप्त से बातचीत

सवाल – आप साहित्य की दुनिया में कब आये? इसके पहले क्या कुछ करते रहे?
सुधांशु गुप्त – मुझे यह सवाल हमेशा गलत लगता है। साहित्य की दुनिया में आना किसी नये मकान में आना नहीं होता। जिसकी तारीख़ और साल मुकर्रर हो। साहित्य में आने की एक लंबी प्रक्रिया होती है। मेरी पारिवारिक पृष्ठभूमि साहित्यिक थी। घर में पहली प्राथमिकता पुस्तकें रहीं। पिता ने यही सिखाया कि खाना बेशक मत खाओ लेकिन किताब जरूर पढ़ो। घर में साहित्यकारों का आना जाना था। लिहाजा पढ़ने के प्रति एक पैशन पैदा हुआ। 20साल की उम्र तक पहुंचते पहुंचते मैंने बहुत सा विदेशी साहित्य पढ़ लिया था। रूसी, चीनी, जापानी, अफ्रीकी, अमेरीकी, ब्रिटिश, फ्रैंच और जर्मनी का साहित्य पढ़ा। मुझे लगता था कि यही बात हमें दूसरों से अलग कर सकती है। लिखना तय करके नहीं होता। पता नहीं कौन से पल में मैंने कहानी लिखना शुरू किया। मेरी पहली कहानी जनयुग अखबार में छपी, इसके बाद मेरी अनेक कहानियां रेडियो से प्रसारित हुईं। मुझे कभी नहीं लगा कि मैं कोई लेखक बन गया हूं। बस कहानियां लिखता रहा और किताबें पढ़ता रहा।
सवाल – आप पहले पत्रकारिता से जुड़े रहे, पत्रकारिता छोड़कर साहित्य की तरफ रुझान कैसे और कब हुआ?
सुधांशु गुप्त – पत्रकारिता मेरे लिए कभी चुनाव नहीं था। बहुत सी छोटी मोटी नौकरियां करने के बाद मैंने दिल्ली प्रेस, साहिबाबाद में मशीन पर काम किया। मेरे लिए नौकरी करना जरूरी था, वह किस फील्ड में होगी, यह चुनाव मेरा नहीं था। इसी दौरान दिल्ली प्रेस में मेरी नौकरी लग गई। वहीं जाकर यह अहसास हुआ कि पत्रकारिता में आ गया हूं। एक बार जो सिलसिला चला तो चलता ही चला गया। लेकिन पत्रकारिता में मैंने हमेशा खुद को मिसफिट पाया। इसलिए पत्रकारिता के समानांतर में किताबें पढ़ता रहा और कहानियां लिखता रहा। मुझे लगता था कि पत्रकारिता से पैदा हुआ स्ट्रेंजर(अजनबीयत) का बोध साहित्य ही खत्म कर सकता है। लेकिन साहित्य आपको और भी ज्यादा स्ट्रेंजर बनाता है। यह अब समझ आ रहा है। पत्रकारिता में अब भी करता रहता हूं विभिन्न अखबारों के लिए लिखता हूं। लेकिन पत्रकारिता मेरी प्राथमिकता कभी नहीं रही।
सवाल – यदि हिंदी कहानी के इतिहास को देखें तो कहानी अपने 100 वर्ष पूरे कर चुकी है, आप को इसमें क्या बदलाव दिखते हैं?
सुधांशु गुप्त – यह बहुत बड़ा सवाल है। इन सौ सालों में, अगर भारतीय संदर्भों में बात करें तो, भारतीय राजनीति, समाज, उसके मूल्य, उसकी सोचने की शक्ति बहुत बदल गई है। यही वह दौर है जिसमें हमने अनेक युद्ध और उसके परिणाम देखे। 90के दशक में वैश्वीकरण, उदारीकरण और तकनीक ने भारतीय समाज में दस्तक दी। जाहिर है इन सारे बदलावों को झेल रहे साहित्यकि समाज में भी बदलाव हुआ। नयी नयी विधाएं सामने आईं, शिल्प ने नया स्वरूप हासिल किया, कहानी में तकनीक दिखाई पड़ने लगी। प्रेमचंद ने कहानी को राजा रानियों की कहानी से निकाल कर यथार्थ की जमीन मुहैया कराई थी तो बाद के कथाकारों ने थथार्थ को ठोस चीज न मानते हुए पाया कि यथार्थ हर समय, हर पल बदलता है। रचनाकारों ने इस बदलते यथार्थ को चित्रित किया। सूचना क्रांति ने लेखकों की जिम्मेदारी और बढ़ा दी है। आज लेखकों के पास इतनी सूचनाएं हैं, जो उसकी कल्पना की परिधि से बाहर जा रही हैं। लेखक के लिए आने वाले समय में यह बड़ा सवाल होगा कि वे किस तरह की सूचनाओं और कल्पनाओं को अपनी कहानी का विषय बनाते हैं। कहानीकार के लिए तेजी से हो रहे बदलावों से तालमेल बिठाना एक कठिन काम होगा। इस तालमेल के अभाव में ही यह कहा जा रहा है कि कहानी का स्तर गिर रहा है। यह एक चिंता की बात है।
सवाल आजकल के कहानीकारों में किस से प्रभावित हैं?
सुधांशु गुप्त – बहुत से कहानीकार हैं जिनकी कहानियां मुझे पसंद हैं। जो स्थापित नाम हैं वे तो हैं हीं।  यहां ये नाम देना किसी क्रम को निर्धारित करना नहीं है। लेकिन मुझे संजय खाती,  मधुसूदन आनंद, सुरेश उनियाल ,संजय कुंदन, महेश दर्पण, की कहानियां पसंद हैं। एक अन्य कहानीकार थे नवीन सागर जिनकी कई दशकों पहले मृत्यु हो चुकी है। अब तो लोग उनका नाम भी लगभग भूल गये। उनका एक संग्रह आया था, उसका स्कूल। इसमें बेपनाह खूबसूरत कहानियां थीं। और भी बहुत से नाम हैं जिन्हें गिनवाया जा सकता है। लेकिन आज के दौर में जिस तरह लेखकों की बाढ़ आ रही है वह दो तरह के संकेत देती है। पहला संकेत यह है कि अभिव्यक्त करने के लिए लोगों के पास बहुत कुछ है  जिसे वे अपनी रचनाओं के माध्यम से सामने ला रहे हैं। दूसरा, लोगों(लेखकों) को लगता है कि अपनी आसपास कोई भी घटना देखो और उस पर “सबसे पहले” कहानी लिख डालो। ऐसे लेखकों की संख्या बहुत अधिक है। वे सूचनाओं या घटनाओं पर कहानियां लिख रहे हैं। मुझे लगता है ये कहानी के साथ अन्याय करना है। संयोग से मैं युवा रचनाकारों को आजकल खूब पढ़ रहा हूं। बहुत से रचनाकार बहुत अच्छा लिख रहे हैं, योगेंद्र आहूजा, मनोज रुपड़ा, अनिल यादव, प्रियदर्शन, जया जाधवानी, उपासना, आकांक्षा पारे काशिव, दिव्या विजय, अनुकृति उपाध्याय, तसनीम खान, सबाहत आफरीन, और भी कई नाम हो सकते हैं। प्रदीप जिल्वाने (प्रार्थना समय) और पराग मांदले भी अच्छी कहानियां लिख रहे हैं। ये कुछ नाम है बस, इसका आशय छूट गए कहानीकारों को अनदेखा करना कतई नहीं है। ये नाम इसलिए लिए हैं कि इनकी रचनाएं पढ़ते हुए इनके नाम मेरे जेहन में दर्ज हो गये। लेकिन यह दुखद है कि मुझे बहुत कम लेख ऐसे दिखाई पड़ते हैं जिनके पास लेखन में अपने सिग्नेचर हों।
सवाल किसी ऐसे लेखक के बारे में बताएं जिन्हें पढ़कर आप लिखना सीखे हों?
सुधांशु गुप्त – किसी दूसरे लेखक की किताबें पढ़कर कोई लिखना नहीं सीख सकता। मैंने इतनी किताबें पढ़ीं लेकिन कभी यह नहीं लगा कि मुझे फलां लेखक की तरह लिखना चाहिए, मेरा शिल्प उस लेखक की तरह होना चाहिए। लेखन अपने भीतर की दुनिया में परिपक्व होता है। लेखक अपनी ही दुनिया को लिखता है। बाहरी दुनिया के विषय में सूचनाएं बनाकर लिखना दरअसल एक अलग तरह की पत्रकारिता ही है-कहानी नहीं।
सवाल आपकी कहानियों में यथार्थ में प्रेम नही होता, प्रेमिका कल्पनाओं में ही होती है, इसका कोई विशेष कारण?
सुधांशु गुप्त – जब हम रियल में किसी किरदार को देखते हैं तो ठीक उसी समय हमारा अवचेतन उसे अलग अलग रूपों में देखता है, वह उसे अपने तर्क और नियमों के अनुसार विकसित करता है। मेरी कहानियों में जो प्रेमिकाएं आपको दिखाई दे रही हैं, वे सब बाहर दुनिया की हैं। लेकिन मेरा अवचेतन उन्हें अलग रूप में देखता है। यथार्थ और कल्पना में मैं बहुत फर्क नहीं करता। मेरी एक कहानी है यह सपना नहीं है। इस कहानी का नायक सपनों और वास्तिव दुनिया के बीच फर्क भूल चुका है। वह सपनों को रियल समझता है और रियल को सपना। दरअसल यह कहानी रियल और अनरियल के ऐसे समय में अपने अस्तित्व को साबित करने की कहानी है। मुझे हमेशा लगता है कि आज जो अनरियल है वह कल को रियल था या कल को रियल होगा। मैं अपनी कहानियों में रियल और अनरियल के बीच एक पुल बनाने की कोशिश करता हूं। आप किसी से बिन  देखे भी प्रेम कर सकते हैं, बस आपको उसे अपने भीतर परिपक्व करना होता। उस प्रेम को विकसित करना होता है। यही मैं अपनी कहानियो में करता हूं। मैं कहानियों में घटनाओं से ज्यादा परिवेश को महत्व देता हूं। कई बार ऐसा भी होता है कि परिवेश ज्यादा बेहतर ढंग से पाठक से कम्यूनिकेट करता है। प्रसिद्ध साहित्यकार इस तरह की कहानियों को डायरेक्ट कम्यूनिकेशन की कहानियां कहा करते थे। मैं ऐसी ही कहानियां लिखता हूं। मेरी कहानियां मनोरंजन के लिए नहीं हैं। वे पाठकों को सोचने के लिए बाध्य करती हैं।
सवाल कहानी के अलावा क्या लिखना पसन्द करते हैं?
सुधांशु गुप्त – पहले मैं कविताएं भी लिखा करता था। लेकिन अब वे लगभग छूट गई हैं। मैंने साहित्यिक कृतियों पर अनेक रेडियो धारावाहिक लिखे हैं। दूरदर्शन और डीडी उर्दू के लिए भी अनेक धारावाहिक लिखे हैं। अब मैं कहानियां और समीक्षाएं ही लिखता हूं।
सवाल कहानी विमर्श कहानी को कहां ले जा रहा है ?
सुधांशु गुप्त – मुझे इस संदर्भ में एक छोटी सी घटना याद आ रही है। अस्सी का दशक था। हम लोग एक नयी बस्ती में रहने आए थे। यह वह दौर था जब अधिकांश घरों में खाटों का प्रचलन था। इसलिए सुबह शाम खाट बुनने वाले साइकिल पर बाण लेकर घूमा करते थे। एक बार माता जी ने खाट बुनवाने के लिए एक व्यक्ति को बुलाया। जब वह खाट बुन रहा था तो उसके बाण खत्म हो गये। लेकिन थोड़ी सी खाट बुनने से रह गई। इसे अधूरा नहीं छोड़ा जा सकता था। उसने माता जी से कहा कोई रस्सी या बाणम प़ड़ा होगा, क्या। माता जी ने लाल रंग का रस्सी का एक टुकड़ा लाकर उसे दे दिया। यह कप़ड़े सुखाने के लिए था। उसने रस्सी के उसी टुकड़े से खाट पूरी कर दी। परिणाम यह हुआ कि खाट में वह लाल रंग की रस्सी ने एक अलग डिजाइन ले लिया। वह सुंदर लगने लगी। कहानी को दरअसल हमने खाट बुनने जैसा काम बना दिया है। इसमें आप स्त्री विमर्श, दलित विमर्श, बोल्डनेस, सेक्स, स्त्री मुक्ति किसी भी रंग के बाण लगा देते हैं और खाट(कहानी) बुनी जाती है। मेरा विमर्श से कोई विरोध नहीं है। लेकिन विमर्श या दर्शन कहानी में से स्वयं पैदा होना चाहिए। इसकी कमी अखरती है कहानियों में। सारे विमर्श इंपोस्ड लगते हैं।
सवाल – किसी चीज का अफसोस?
सुधांशु गुप्त – आज शायद ही कोई काम हो जिसे सिखाने के लिए कोचिंग इंस्टीट्यूट न चल रहे हों। सिर्फ कहानी लिखना ही ऐसा काम जिसे सिखाने या जिसकी समझ पैदा करने के लिए कोई संस्था, संगठन, क्लब या समूह नहीं है जहां आप कहानियों के विषय में संवाद कर सकें, या कहानी पढ़ने का शऊर सीख सकें। आज देश में लगभ ढाई हजार साहित्यिक उत्सव हर साल हो रहे हैं। लेकिन ये सब मंझे हुए लोगों को मंच हैं। मुझे बराबर लगता है जिस तरह आप पेंटिंग्स या संगीत की प्रशिक्षण लेते हैं उसी तरह साहित्य पढ़ने, समझने और लिखने का भी प्रशिक्षण समाज में दिया जाना चाहिए। पुरस्कार देने वाली संस्थाओं को इस दिशा में कुछ सोचना चाहिए।

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