पूरे विश्व में जब कभी कोई आतंकवादी घटना होती है तो आतंकवादी – अल्लाह-हो-अकबर – का नारा लगाते हैं। मगर, हमारे वामहस्त मित्र और विश्व भर के नेता कहते हैं कि आतंकवाद का कोई मज़हब नहीं होता। मगर भारत में फुटकर हादसों को लेकर जय श्रीराम लिंचिंग पर चिन्ता व्यक्त की जा रही है।

पहले 49 लोगों ने भारत में “जय श्रीराम लिंचिंग” को लेकर प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी को एक सार्वजनिक पत्र लिखा। ज़ाहिर है कि उन्हें इस बात से कोई वास्ता नहीं कि प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी इस पर कोई एक्शन लेते हैं या नहीं। उन्हें इस पत्र के ज़रिये राजनीतिक फ़ायदा उठाना है, वो उठा लिया है। हर दूसरे टीवी चैनल पर उनमें से कुछ से सवाल जवाब किये जा रहे हैं तो बहुतों के नाम लिये जा रहे हैं।
इसे पुरस्कार वापसी सीन-2 कहा जाए तो अनुचित नहीं होगा। पहले हमले में साहित्यकार भी शामिल थे, जिन्होंने साहित्य अकादमी को सकते में डाल दिया था, क्योंकि उनके संविधान में पुरस्कार वापसी का कोई प्रावधान नहीं था।
यानि कि श्रीकृष्ण की प्रिय गाय से बात आगे बढ़ कर भारतीय मन में बसे राम तक पहुंच गयी है। इन 49 लोगों ने पश्चिम बंगाल की मुख्यमन्त्री ममता बनर्जी को कोई पत्र नहीं लिखा कि आपके राज में जय श्रीराम कहने वालों की गिरफ़्तारी से लेकर पिटाई तक क्यों हो रही है।
पूरे विश्व में जब कभी कोई आतंकवादी घटना होती है तो आतंकवादी – अल्लाह-हो-अकबर – का नारा लगाते हैं। मगर, हमारे वामहस्त मित्र और विश्व भर के नेता कहते हैं कि आतंकवाद का कोई मज़हब नहीं होता। मगर भारत में फुटकर हादसों को लेकर जय श्रीराम लिंचिंग पर चिन्ता व्यक्त की जा रही है।
सबसे मज़ेदार पोस्ट तो हिन्दी के कवि मंगलेश डबराल ने फ़ेसबुक पर डाली है। उनका कहना है, “हिंदी में कविता, कहानी, उपन्यास बहुत लिखे जा रहे हैं, लेकिन सच यह है कि इन सबकी मृत्यु हो चुकी है हालांकि ऐसी घोषणा नहीं हुई है और शायद होगी भी नहीं क्योंकि उन्हें खूब लिखा जा रहा है.लेकिन हिंदी में अब सिर्फ ‘जय श्रीराम’ और ‘बन्दे मातरम्’ और ‘मुसलमान का एक ही स्थान, पाकिस्तान या कब्रिस्तान’ जैसी चीज़ें जीवित हैं. इस भाषा में लिखने की मुझे बहुत ग्लानि है. काश, मैं इस भाषा में न जन्मा होता!”
मैं यह कहना चाहूंगा कि बहुत से अन्य लेखकों की तरह मुझे हिन्दी भाषा में लिखने के बारे में न तो कोई ग्लानि है और न ही कोई अफ़सोस। मैं कहना चाहूंगा कि मेरा जन्म एक पंजाबी परिवार में हुआ। मेरी शिक्षा अंग्रेज़ी माध्यम से हुई और मैंने दिल्ली विश्वविद्यालय से बी.ए. ऑनर्स अंग्रेज़ी और एम. ए. अग्रेज़ी की डिग्री हासिल की।
मगर मैं एअर इंडिया का एकमात्र फ़्लाइट परसर था जो अपनी फ़्लाइट रिपोर्ट हिन्दी में लिखता था। मेरा मज़ाक भी उड़ाया जाता था और दबाव भी डाला जाता था कि मैं अपनी रिपोर्ट अंग्रेज़ी में लिखूं। मेरे मैनेजर जो अपने समय की दसवीं पास थे, वे समझते थे कि मुझे शायद अंग्रेज़ी लिखनी नहीं आती। और मेरा कहना था कि यदि आप चाहते हैं कि मैं अपनी रिपोर्ट हिन्दी में ना लिखूं तो आप मुझे लिखित आदेश दे दें।… मेरे एअर इंडिया छोड़ने के इक्कीस साल बाद भी मुझे ऐसा कोई पत्र नहीं मिला है।
मैं 1980 से हिन्दी में कहानियां लिख रहा हूं और फ़िलहाल मेरा लेखन बंद करने का कोई विचार नहीं है। यदि समय ने साथ दिया तो उपन्यास भी लिखूंगा। मंगलेश डबराल को हिन्दी परिवार में जन्म लेने का अफ़सोस है और वे कहते हैं कि – “काश मैं इस भाषा में ना जन्मा होता।” मैं तो हिन्दी परिवार में पैदा नहीं हुआ मगर मुझे गर्व है कि हिन्दी साहित्यिक परिवार ने मुझे अपनापन, स्नेह और आदर दिया है। मेरी पिछली सात पुश्तों में किसी ने हिन्दी में नहीं लिखा था।
मैं मंगलेश डबराल जी को बताना चाहता हूं कि हिन्दी कहानी और उपन्यास कभी नहीं मरेगा। हमारी युवा पीढ़ी इतनी सक्षम है कि इन विधाओं को जीवित रख सके। हाँ, जहां तक हिन्दी कविता का सवाल है तो मुझे आपसे जनसत्ता के दफ़्तर में एक मुलाक़ात याद है। मैंने आपसे पूछा था, “मंगलेश भाई आपकी कविताओं में इतनी प्रोज़ क्यों होती है?” आपके जवाब ने मुझे आश्चर्यचकित कर दिया था। आपने काउन्टर प्रश्न किया था, “मेरी कविताओं में प्रोज़ क्यों न हो?” मेरा जवाब बहुत सीधा था… क्योंकि कविता कविता है और प्रोज़ प्रोज़ है।
भाई मंगलेश डबराल जी आपने और आप के साथी कवियों ने हिन्दी कविता की मौत में एक महत्वपूर्ण किरदार निभाया है। मगर आप कतई चिन्ता ना करियेगा हिन्दी कहानी और उपन्यास हमारे बाद और हमारी कई पीढ़ियों के बाद भी ज़िन्दा रहेंगे।
लेखक वरिष्ठ साहित्यकार, कथा यूके के महासचिव और पुरवाई के संपादक हैं. लंदन में रहते हैं.

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