पुस्तक – वसंत के हरकारे: कवि शैलेन्द्र चौहान संपादक: सुरेन्द्र सिंह कुशवाहा
प्रकाशक – मोनिका प्रकाशन, जयपुर मूल्य: 300 रूपये
समीक्षक – सूर्यकांत नागर
वसंत के हरकारे: कवि शैलेन्द्र चौहान’, सुरेन्द्रसिंह कुशवाह द्वारा संपादित शैलेन्द्र के व्यक्तित्व-कृतित्व पर केन्द्रित बीस आलेखों का संकलन है। इसमें सूरज पालीवाल, प्रकाश मनु, वसंत मुखोपाध्याय, अभिज्ञात, शीलचंद पालीवाल, डॉ. शंभू गुप्त जैसे विद्वानों द्वारा शैलेन्द्र चौहान की रचनात्मकता पर की गई विचारपरक समालोचनाएं संकलित हैं। वैसे तो शैलेन्द्र ने साहित्य की विविध विधाओं में लिखा है, पर काव्य में उनकी विशेष गति है। शायद इसीलिए संकलन के प्रारंभिक दस-बारह समीक्षात्मक लेख उनके काव्य-लेखन को लेकर हैं। किताब के शीर्षक में भी शैलेन्द्र के कवि-रूप को ही प्रधानता दी गई है। शैलेन्द्र की कविता के दो अंग प्रमुख हैं, एक-लोकजीवन, दूसरा शोषित-पीड़ित जन के प्रति चिंता।
कुशवाह जी ने शैलेन्द्र चौहान को वसंत के हरकारे कहा है। शैलेन्द्र सच में वसंत के वाहक हैं। वसंत के दस्तक देते ही काफी-कुछ बदल जाता है। वसंत के ठाठ निराले हैं। वसंत का नाम ही उत्कंठा है। वह ऋतु-राज है। उसके आते ही मन उत्साह-उमंग से भर आता है। आम्र बौराने लगते हैं। आम्रकुंज की मदमाती गंध मन मोह लेती है। अमराइयों के बीच कोयल कूकती है तो हवा गाने लगती है। आनंद का बधावा हा ेने लगता है। वसंत केवल ऋतु ही नहीं एक राग भी है। राग वसंत छह रागों में दूसरे क्रम का राग है। प्रेम का राग! जयदेव का काव्य ‘गीत-गोविंद’ तो वासंती रस-वृष्टि का ही काव्य है। राग और ऋतु दोनों ही दृष्टि से शैलेन्द्र वसंत के हरकारे हैं। उनके काव्य से होती रस-वर्षा मन को भिगो देती है।
कविता शैलेन्द्र चौहान की अभिव्यक्ति का मुख्य औजार है। एक दृष्टि-सम्पन्न आलोचक की मेधा उनमें है। वे ग्रामीण परिवेश और लोक संवेदना के रचनाकार हैं। उनकी प्रतिबद्धता असंदिग्ध है। उनके सामाजिक सरोकारों को उनकी रचनात्मकता में चिन्हित किया जा सकता है। संकलन के लेखों में उनके इस रूप को शिद्दत से उकेरा गया है। इन विवचनाओं से शैलेन्द्र की कविता के अंतर्जगत में प्रवेश करना आसान हो गया। वस्तुतः वे एक अन्वेषी कवि हैं। वैचारिकता और दार्शनिकता उनकी कविताओं की बड़ी ताकत है। कविताएं समय के घातों-प्रतिघाताें को व्यक्त करती हैं। शैलेन्द्र को जनवादी काव्य का प्रतिनिधि कवि कहा गया है। उनके पास गहरी जीवन-दृष्टि है। उन्हें पता है कि
जीवन-शिल्प को जाने बिना रचना-शिल्प की बात करना व्यर्थ है। इस निमित्त उनके पास सतत प्रवाही आडम्बरहीन भाषा है। शैलेन्द्र ग्राम्य जीवन के कुशल चितेरे हैं। लोक उनके अंदर गहरे तक समाया है। अपनी अनेक रचनाओं में उन्होंने अंचल को शिद्दत से उकेरा है। गाँवों की बदलती तस्वीर उन्हें बेचैन किये रहती है। रचनाओं से लुप्त हाे रहे लोक के प्रति वे चिंतित हैं। बाज़ारवाद और शहरीकरण से गाँव प्रदूषित हुए हैं। ग्राम्य-संस्कृति विकृत हो रही है। शहर बड़े वेग से गाँवों में प्रवेश कर रहे हैं।
लोक बाज़ार में और बाजार लोक में दाखि़ल हाे रहा है। शहरों के विस्तार से गाँव और प्रकारांतर कृषि-भूमि सिकुड़ रही है। बाज़ार के धमाके ने लोक की रही-सही अस्मिता को नष्ट किया है। जैसा कि कृति में शामिल अधिकांश लेखकों ने अपनी विवेचना में बताया है, संस्मरणात्मक उपन्यास ‘पाँव ज़मीन पर’ में कवि ने ग्रामीण जीवन के सुख-दुख, संघर्ष, हास-परिहास; रहन-सहन और लोकाचार को प्रस्तुत किया है। ‘लोक परंपरा और समकालीन कविता’ लेख में लेखक ने दर्शाया है कि कविता में आज लोक कितना अल्प रहा गया है।
संकलन में शामिल लेखों से स्पष्ट है कि शैलेन्द्र की कई रचनाओं में दलित वर्ग के साथ कथित उच्च वर्ग द्वारा किए जा रहे भेदभाव के खिलाफ प्रतिरोध का स्वर है। परिवर्तन और प्रगतिशीलता की कितनी ही बातें हम कर लें, आज भी दूरस्थ गाँवों में निचली जाति के लोगों से दूरी बनाई रखी जाती है। उन्हें अछूत माना जाता है। उन्हें मंदिरों में जाने और सार्वजनिक कुवों से पानी भरने से रोका जाता है। शैलेन्द्रजी ने अपनी एक कहानी में सवर्णों की ऐसी दूषित मनोवृत्ति पर तंज कसा है। कैसी विडम्बना कि अछूत माने जाने वाले जिन दलितों-दमितों को घर से दूर रखा जाता है, उन्हीं अछूतों से सामूहिक भोजन तैयार करने के लिए लकड़ी चिरवाई जाती है और भट्टी खुदवाई जाती है। उन्हीं लकड़ियों और उसी भट्टी पर पके भोजन को सवर्ण बड़े चाव से खाते हैं।
तब उनका धर्म भ्रष्ट नही ं हा ेता। मीठा-मीठा गप्। कडुआ, कडुआ थू। इस मानसिकता पर याद पड़ती है परसाई जी की उक्ति कि दलित स्त्री के साथ व्यभिचार करने से जाति नही ं जाती, उससे विवाह करने से जाती है। सुविधाभोगियों की हीन सोच पर यह अच्छा कटाक्ष है। दरअसल शैलेन्द्र प्रतिबद्ध रचनाकार हैं। उन्हें पता है कि जीवन के संघर्ष में उन्हें किसके साथ खड़ा होना है।
शैलेन्द्र की आलोचना पुस्तक ‘कविता का जनपक्ष’ पर भी संकलन में महत्वपूर्ण टिप्पणियाँ हैं। शैलेन्द्र का एक रूप सजग आलोचक का है। उनकी छवि निष्पक्ष, दृष्टि-सम्पन्न, निडर आलोचक कीहै। शायद आलोचना ही सर्वाधिक विवादास्पद और अनुर्वर विधा है। आज आलोचना की सबसे बड़ी समस्या विष्वसनीयता की है। मित्रता निभाते हुए कई बार आलोचक सच कहने से कतराते हैं। जब कि निष्पक्ष, राग-द्वेष से मुक्त रचनात्मक आलोचना का स्वागत किया जाना चाहिए। शैलेन्द्र इसी मत के हैं।
अपने मंतव्य को पूरी ताकत से व्यक्त करने का साहस उनमें है। उनके अनुसार आलोचक को रचना में गहरे उतरकर उसके कला और भाव दोनों पक्षों को देखना चाहिए। अपनी ‘कविता का जनपक्ष’ कृति में कतिपय वरिष्ठ कवियों की विचारधारा पर उन्हाेंने गंभीर टिप्पणियाँ की हैं कि कैसे कुछ ने अपना साहित्यिक अभिजात्य जताने के लिए छद्म रूप इख्तयार किया। इन कवियों ने भाववादी दर्शन के आधिक्य की ही चर्चा की है। उनकी कविताएँ जन-विरोध में खड़ी होकर पीड़ित जन के हित-साधन में बाधक हैं। स्मरणीय है कि आलोचना साहित्येतर काम नहीं है। वह रचना का सफ़र तय करती है। वह पाठक के लिए ही नहीं लेखक के लिए भी होती है। राग-द्वेष से मुक्त आलोचना लेखक को अपने लिखे पर पुनर्विचार का अवसर देती है। वस्तुतः एक कुशल समीक्षक धूप देखकर छाता पकड़ने की कला सिखाता है।
संस्मरणात्मक उपन्यास ‘पाँव ज़मीन पर’ में लेखक के बचपन से लेकर कॉलेज जीवन तक के अनुभव संग्रहीत हैं। इस संदर्भ मंे महेन्द्र नेह और अर्जुनप्रसाद सिंह के लेख महत्वपूर्ण हैं। बचपन के अनुभवों के सहारे शैलेन्द्र ने ग्राम्य जीवन की तस्वीर पेश की है। उल्लेखनीय है कि पूर्वापेक्षा अब संस्मरण लेखन विपुल मात्रा में हाे रहा है। संस्मरण साहित्य को साहित्य-मूल्यांकन का महत्वपूर्ण अंग माना जाने लगा है। रमेषचन्द्र शाह, काशीनाथ सिंह, खुशवंत सिंह, विश्वनाथ प्रसाद तिवारी, मन्नू भंडारी, कांतिकुमार जैन आदि के संस्मरणों ने नए कीर्तिमान रचे हैं। आत्मकथात्मक संस्मरण लिखना जोखि़म भरा काम है। एक अत्यंत संवेदनषील मुद्दा। यहाँ एक ओर स्वयं को महिमा-मंडित करने के अवसर हैं तो दूसरी ओर दूसरों की पगड़ी उछालने के भी।
कई बार आत्म कथाकार अपनी कमजोरियों और कागुज़ारियों को छिपा जाता है। मन्नू भंडारी का ‘एक कहानी यह भी’ संतुलित, ईमानदार, मर्या दित आत्मकथ्य है, यद्यपि वहां भी कुछ चीजों का खुलासा नहीं किया गया। वस्तुतः आत्मकथात्मक संस्मरण लिखना तनी हुई रस्सी पर चलने के समान है। संतोष का विषय है कि शैलेन्द्र चौहान ने अपने संस्मरणात्मक उपन्यास में स्वयं को किशोरावस्था और युवावस्था तक सीमित रखा है। इस बहाने लेखक ने लोक-जीवन और निम्न मध्यवर्गीय व्यक्ति के संघर्ष कों बयाँ करने के अवसर जुटा लिए। कुछ समीक्षकाें ने ‘पाँव ज़मीन पर’ को रिपोर्ताज शैली में लिखा आत्मकथ्य कहा है। जो भी हो, इससे कृतित्व का महत्व नहीं घटता।
कुल मिलाकर ‘वसंत के हरकारे-कवि शैलेन्द्र चौहान’ शैलेन्द्र जी के व्यक्तित्व-कृतित्व को समग्रता में जानने-समझने का श्रेष्ठ उपक्रम है। पूरी किताब पर संपादकीय दृष्टि अंकित है। भरोसा है, संपादक का प्रयास अकारथ नहीं जाएगा।
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वसंत के हरकारे-कवि शैलेन्द्र चौहान पर सूर्यकांत नागर जी की समीक्षा पढ़ी।
समीक्षा एक दर्पण की तरह होती है जो, अगर समीक्षक निष्पक्ष होकर पुस्तक की विवेचना करता है तो एक पुस्तक परीक्षित होकर उस दर्पण पर प्रतिबिम्बित होती है।साथ ही समीक्षक के माध्यम से समीक्षा एक बेहतरीन रचना को पाठकों को पढ़ने के लिये प्रेरित भी करती है।
इस समीक्षा के माध्यम से शैलेन्द्र चौहान जी की लेखकीय और कृतित्व की गुणवत्ता से भी रूबरू हुए।
सवर्ण जो कट्टर हैं, उनकी प्रवृत्तियों का बदलना सहज नहीं । शिक्षा पर ही इस क्षेत्र में परिवर्तन का दारोमदार है।और मानवता के प्रति सजग भाव। सामन्तवादी सोच के चलते सवर्णों ने सारे अधिकार अपने पास पहले से ही सुरक्षित रखे।हालांकि अब परिवर्तन नजर आ रहा है।कुछ सवर्ण भी इसके विरोध में निदान की ओर प्रयासरत हैं। इसका एक बड़ा नुकसान धर्म परिवर्तन के रूप में नजर आया।
आपकी इस समीक्षा को पढ़कर लेखक के संस्मरणात्मक उपन्यास,”पाँव जमीन पर” पढ़ने की इच्छा जाग्रत हुई।
आत्मकथात्मक संस्मरण अगर कोई लिखना चाहें उसके लिये यह समीक्षा प्रेरणा के श्रोत की तरह है।
आपकी समीक्षा को पढ़कर समीक्षा कैसे लिखी जाती है यह भी समझ पाए।
आज आपको पढ़कर बहुत समृद्ध हुए ,इस हेतु पुरवाई का आभार।