पुस्तक – भोजपुरी फिल्मों का इतिहास लेखक – राजेंद्र संजय प्रकाशक – संस्कार साहित्य माला,मुंबई
मूल्य – 1800 रूपये
समीक्षक – शिशिर मिश्रा
आकाशवाणी मुम्बई के सेवानिवृत्त अधिकारी राजेंद्र संजय की किताब ‘भोजपुरी फ़िल्मों का इतिहास’ एक संग्रहणीय दस्तावेज़ है। इससे पहले मैंने भोजपुरी सिनेमा के बारे में छिटपुट आलेख ही पढ़े थे। पहली बार इस किताब के ज़रिए भोजपुरी फ़िल्मों के भूत, वर्तमान और भविष्य को बहुत सुरुचिपूर्ण और व्यवस्थित ढंग से पेश करने की सराहनीय कोशिश हुई है। मूल विषय वस्तु के अलावा इसमें कुछ और भी महत्वपूर्ण चीज़ें शामिल की गई हैं। मसलन- चलचित्र के जन्म, भारत में इसके आगमन और मूक फ़िल्मों के निर्माण से लेकर बोलती फ़िल्मों का एक महत्वपूर्ण ख़ाका इस किताब के ज़रिए प्रस्तुत किया गया है।
लेखक राजेंद्र संजय ने भोजपुरी फ़िल्मों के जन्म और विकास को तीन दौर में समेटा है। इसमें 1962 से लेकर सन् 2000 और उससे आगे का कालखंड शामिल है। यह एक ग़ौरतलब तथ्य है कि पहली बोलती फ़िल्म ‘आलमआरा’ (हिंदी) के 31 वर्षों के बाद सन् 1962 में भोजपुरी की पहली फ़िल्म बनी- ‘गंगा मइया तोहे पियरी चढ़इबो’। भोजपुरी फ़िल्म का यह सपना साकार करने में अभिनेता नज़ीर हुसैन और निर्माता विश्वनाथ प्रसाद शाहाबादी का विशिष्ट योगदान रहा। यह फ़िल्म रिकॉर्ड तोड़ सफलता के साथ कई सिनेमा हॉल में हाउसफुल चलती रही। ‘गंगा मइया तोहे पियरी चढ़इबो’ फ़िल्म के गीतकार शैलेंद्र और संगीतकार चित्रगुप्त हैं। कथा, पटकथा और संवाद लेखन चरित्र अभिनेता नज़ीर हुसैन ने किया।
‘गंगा मइया तोहे पियरी चढ़इबो’ फ़िल्म एक ऐसी लड़की की कहानी है जो शादी के तुरंत बाद विधवा हो जाती है और लोग उसे कुलक्षणी मान लेते हैं। आगे चलकर सबको झूठा साबित करती हुई वह गांव वालों के दकियानूसी विचारों को बदल देती है। इस फ़िल्म में कई सामाजिक समस्याओं को दर्शाया गया था। लोक धुनों पर आधारित इसके गीतों ने पूरे देश में धूम मचा दी थी। दर्शकों ने इस फ़िल्म के कलाकार असीम कुमार, कुमकुम और पदमा खन्ना को स्टार बना दिया। उषा और लता मंगेशकर की आवाज़ में ‘हे गंगा मैया तोहे पियरी चढ़इबो’ शीर्षक गीत घर घर में गाया जाने लगा। “काहे बंसुरिया बजवले, कि सुध बिसरवले, गईल सुखचैन हमार” गीत में लता की आवाज़ ने कमाल किया। मो. रफ़ी के स्वर में एक दर्दीला गीत था- सोनवा के पिंजरा में बंद भईल हाय राम, चिरई के जियरा उदास…यह गीत लोगों को बहुत पसंद आया। इतने सालों बाद भी ऐसे गीतों की लोकप्रियता क़ायम है। ‘बिदेशिया’ और ‘लागी नहीं छूटे राम’ फ़िल्मों ने भोजपुरी फ़िल्मों की कामयाबी के इस सिलसिले को आगे बढ़ाया।
इन तीन फ़िल्मों की कामयाबी के बाद भोजपुरी फ़िल्म निर्माण में बहुत लोग टूट पड़े। लेकिन बहुत सारी फ़िल्मों को जनता का प्यार नहीं मिला क्योंकि उनमें भोजपुरी जनजीवन अनुपस्थित था। लेखक राजेंद्र संजय ने सालाना आंकड़े जुटाकर भोजपुरी फ़िल्मों की सूची पेश की है। दूसरे दौर में दंगल, बलम परदेसिया, जागल भाग हमार, रूस गइले सैंया हमार, चनवा को ताके चकोर, धरती मैया, गंगा घाट आदि उल्लेखनीय फ़िल्में रहीं। तीसरे दौर में सईंया हमार, ससुरा बड़ा पइसा वाला, गंगा, कब होई गवनवा हमार, भोले शंकर, जैसी भोजपुरी फ़िल्मों ने दर्शकों का मनोरंजन किया।
यह भी उल्लेखनीय बात है कि लेखक ने सभी महत्वपूर्ण फ़िल्मों का कथा सार प्रस्तुत किया है। साथ ही उनके गीत संगीत पर बात की है और जनता का इनके साथ क्या प्रतिसाद रहा उसका भी आकलन किया है। बीच-बीच में ऐसी भी भोजपुरी फ़िल्में आईं जिनके द्विअर्थी संवादों और फूहड़ गीतों ने सिने प्रेमियों को निराश किया। लेखक के अनुसार नई सदी की फ़िल्मों से उम्मीद बंधी है कि भविष्य की भोजपुरी फ़िल्मों में भोजपुरिया संस्कृति, कला, रहन-सहन और रीति-रिवाज का सही और मर्यादित चित्रण होगा। सेक्सी दृश्यों के फिल्मांकन में अतिरेक पर अंकुश लगाया जाएगा। गीतों में फूहड़ता और सस्तेपन का निषेध होगा। इस किताब में भोजपुरिया कला संस्कृति और जीवन शैली पर महत्वपूर्ण आलेख हैं साथ ही हिंदी फ़िल्मों में भोजपुरी गीतों के सफ़र को बहुत प्रमाणिक तरीके से पेश किया गया है।

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