Monday, May 20, 2024
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डा. देवेंद्र गुप्ता की कलम से – यथार्थ की यात्रा में चेतना जगाते व्यंग्य

पुस्तक का नाम : कबाड़ी का सिक्का, लेखक : अनिल सोनी प्रकाशक : इंद्रप्रस्थ प्रकाशन, दिल्ली-51
मूल्य : 495  पृष्ठ :168
अनिल सोनी पत्रकारिता जगत का जाना  पहचाना चेहरा हैं | वे कहते हैं कि ‘’जिस संपादक पद को समीक्षक निरर्थक अप्रासंगिक कहते हैं उसी के दायित्व में खुद को सेंकते हुए चार दशक गुजर गए है’’ | वे हरियाणा, दिल्ली ,महाराष्ट्र के बाद अपने प्रदेश हिमाचल के पहले समाचार पत्र “दिव्य हिमाचल” के साथ पिछले 25 वर्षों से जुड़े हैं | आज जब साहित्य की सेठाश्रयी, बड़े घरानों की रंगीन पत्रिकाएँ साहित्य से विलग हुई हैं और अच्छे कहलाये जाने वाले कथित बुद्धिजीवी अख़बारों ने भी साहित्य के लिए समर्पित  पृष्ठों से किनारा कर लिया है ; ऐसे में अनिल सोनी के संपादकत्व में ‘’दिव्य हिमाचल’’ में साप्ताहिक “प्रतिबिम्ब’’ साहित्य पेज का जिन्दा रहना राहत और सकून प्रदान करता है | यह इसलिए कि अनिल सोनी ने बतौर संपादक महाराष्ट्र में रहते हुए दो अख़बारों तरुण भारत ग्रुप के ‘देवगिरी समाचार’ और ‘लोकमत’ समाचार पत्रों में बहुत कुछ लिखा लेकिन ‘’आखिरी तीर’’ स्तम्भ के अंतर्गत करीब ढाई हजार व्यंग्यों की मार्फ़त अनेक विषयों पर लेखनी चलायी और हिमाचल आने के बाद भी दिव्य हिमाचल में हर दिन व्यंग्य स्तम्भ के लिए निर्धारित किया और हफ्ते में एक दिन स्वयं भी स्तम्भ लेखन करते आ रहे हैं |
‘’कबाड़ी का सिक्का’’ सोनी के व्यंग्य लेखों का संकलन है और इसी वर्ष छप कर पाठकों के सम्मुख आया है | “दो शब्द’’ में उन्होंने ने व्यंग्य के बारे में स्पष्ट राय रखते हुए लिखा है कि ‘’व्यंग्य की गंभीरता किसी भी गंभीर विधा से ऊपर और जीवन की हर पराजय की असाधारण समीक्षा है |’’ व्यंग्यकार की यह दृष्टि उसका लक्ष्य निर्धारित करते है | इस बात को ध्यान में रखते हुए उन्होंने अनेक  विषयों पर आज तक जो भी लिखा उस में से लगभग 73 व्यंग्य लेखों को समाहित करते हुए पुस्तकाकार रूप में प्रस्तुत किया है | आतंक, अलगाववाद, साम्प्रदायिकता, अशिक्षा, अज्ञानता, नफरत, व्यवस्था, धर्म, राजनीती आदि अनेक विषयों और मुद्दों पर व्यंग्य के माध्यम से प्रहार किये गए है | लेखक ने इन प्रवृतियों पर जोखिम उठा कर देखा है जो समाज को ,व्यवस्था को खोखला कर रही है | इन मुद्दों पर लेखक ने प्राक्कथन में लिखा है “मेरे लिए व्यंग्य का सबसे बड़ा पात्र मेरा देश, देश की व्यवस्था ,स्वयं मैं, समाज के अंतिम छोर पर खड़े मेरे अपने व बहुत आगे निकल गए  मेरे सपने जब विचलित करते हैं तो कलम व्यंग्य की शरण में व्यंग्य हो जाती है’’ | पुस्तक में कहीं भी इन मुद्दों और विषयों पर  अयथार्थवादी दृष्टिकोण और बनावटीपन हावी नही हो पाया है | यही इस किताब की सबसे बड़ी सफलता है | अनिल सोनी ने जिस दक्षता के साथ सामाजिक समस्याओं की और संकेत करते हुए विसंगतियों पर ऊँगली रखी है उस पर गौर करने की जरुरत है |
’’अपने समय की श्रेष्ठ पुस्तक एक भय, एक अस्वीकृति अथवा साहसिक स्वीकारोक्ति होती है |अपने समय में वह जैसे एक शुभ अथवा अशुभ कर्म होती है,धीरे धीरे जब वह मृत समय के साथ जुड़ने लगती है तो सापेक्षता ग्रहण कर लेती है और एक सन्देश, एक मैसेज हो जाती है |…हमें अपने ही समय के लिए लिखना चाहिए…इसका अभिप्राय यह है कि या तो हम उस काल की स्थिति पूर्ववत बनाये रखने के लिए प्रयत्नशील हैं या हम उसे परिवर्तित करना चाहते है’ ’(ज्यां पाल सार्त्र ) | निश्चय ही प्रस्तुत व्यंग्य संकलन समाज में उत्पन्न गतिरोध को तोड़ कर बदलाव की कामना करता है | पुस्तक में वरिष्ठ समीक्षक लिखते है कि यह व्यंग्य सुधारवादी परिणिति की और ले जाते हैं | बरक्स मेरा यह मत है कि वर्तमान व्यवस्था पर करारी चोट करते यह व्यंग्य रचनाएं साहसिक अस्वीकृति की स्वीकरोक्ति है जो वास्तव में बदलाव चाहती है | पुस्तक को पढ़ते हुए मेरा अनुभव बिलकुल अनूठा रहा | इस किताब को मैंने एक बैठक में पढ़ डाला था बिलकुल वैसे ही जैसे ओ.टी.टी.पर आप एक शो के 35 -40 मिनट के  आठ या दस एपिसोड एक बार में देख डालते है | यह इस किताब की विशेषता कही जाएगी क्योंकि लेखों की विभिन्न  विषयवस्तु और व्यंग्य शैली आपको अंत तक बांधे रखने में कामयाब होती है | चूँकि किताब में 73 व्यंग्य रचनायें है और स्थानाभाव में सब की विस्तृत समीक्षा के लिए अवकाश भी नहीं तथापि कुछ एक के शीर्षक उधृत करते हुए कुछ पंक्तियाँ भी दे रहा हूँ ताकि आप स्वयं जायजा लगा सकें कि अनिल सोनी का कहन और तेवर कैसे  उनको वैशिष्ट्य प्रदान करता है | यथा ;  
‘नज्म में आग ‘…कल एक लेखक मिल गए और मंहगाई, बेरोजगारी पर कविता सुनाने लगे |एक दम फूहड़ विचार | इस तरह की जानकारी से तो देश का मूड बिगड़ जायेगा |मैंने उन्हें अपने मोहल्ले के मंदिर पर कविता सुनाई और बताया की किस तरह हम इस युग में आये और वानर से मनुष्य हुए |…आई.आई.टी कानपूर के छात्रों को एक पाकिस्तानी की नज्म पर भरोसा क्यों हुआ ? यह सरासर देशद्रोह है क्योंकि अब इंजीनियरिंग में रामायण भी पढ़ी होनी चाहिए …कोई वेद  निकाल कर इनको विद्वान बनाओ ‘’…
डी सी ऑफिस की गाय : “…इसलिए मैं अपने गोबर को अक्सर प्रधानमंत्री के स्वच्छता अभियान में लीप कर इतराती फिरती हूँ…मुझे पता है कि किस सीजन में मुख्यमंत्री या वी. आई.पी. को आकर मेरी जैसी गऊ माता को हटाना है ,सो बीच बीच में खिसक जाती हूँ यह मैंने अफसर शाही से सीखा है कि किस तरह मंत्रियों की मौजूदगी के बीच अपने दायित्व को खिसका देना चाहिए ताकि उन्हें पता न लगे की दफ्तर में कितना गोबर है’’ |
फटी जींस में लोकतंत्र : “सुबह उठा ही था कि  बाहर लोकतंत्र टहलता हुआ मिल गया| फटी हुए जींस पहने उसके घुटने दिखाई दे रहे थे | जींस ने घुटनों में छेद कर दिए थे इसलिए घिसट रहा था” |
मनी प्लांट कैसे उगा : “आजादी मिलने के बाद से आज तक उसकी स्थिति में केवल एक ही अंतर आया की उसने अब झोंपड़ी के बाहर मनी प्लांट लगा दिया है | उसे उम्मीद है की कोई तो ऐसा दिन आएगा जब मनी प्लांट के बहाने कुछ मनी भी आ जाएगी | उसके पडौसी इर्ष्या करने लगे है कि अब गरीब भी अमीरों के चोंचले कैसे कर सकता है “| 
 ‘’ कोरोना की आफर में राष्ट्रवाद’’ ,’’सरकार से मत पूछना’’ ‘’कबाड़ी का सिक्का’’ ‘’मुर्गी की शिकायत’’,’’बंदर के सामने संयम’’, ‘’शोक सभा के सलाहकार’’ आदि व्यंग्य लेख भी विसंगतियों और विरूपताओं पर पैने तेवरों के साथ आक्रोश को व्यक्त करती हैं |  
आज हिंदी व्यंग्य में प्रचुरता में लेखन हो रहा है | और यह मेरे लिए अचंभित कर देने वाली बात है कि यह लेखक का  पहला संग्रह है | इस आधिक्य के बावजूद व्यंग्य  मात्र उत्कृष्टता के लिए पहचाना व सराहा  जाता है | अनिल सोनी ने सम्पादन और व्यंग्य लेखन दोनों इलाकों में समान रूप से लेखन किया है  | कुछ लेखक अपने लिखे व्यंग्य को अधिक लोकप्रिय और रोचक बनाने के लिए इस में हास्य विनोद का तड़का लगाते हैं जिस कारण  रचना का, व्यंग्य का गाम्भीर्य जाता रहता है | याद रहे कि व्यंग्य मनोरंजन का साधन नहीं है …यह अपने समय के सवालों से मुठभेड़ करता है और उन स्थितियों का खुलासा करता है जिस की वजह से आमजन बदहाली का शिकार हैं |लेकिन “कबाड़ी का सिक्का” में निहित हास्यबोध व्यंग्य को पठनीय भी बनाता है यह हिंदी व्यंग्य के लिए आश्वस्तिपरक बात है | …अच्छा और उत्कृष्ट व्यंग्य पढने के लिए यह जरूरी किताब है | इस का सर्वत्र स्वागत होना चाहिए | 
समीक्षक
डा देवेंद्र गुप्ता
पूर्व प्रशासनिक अधिकारी एवम सम्पादक ‘सेतु’ पत्रिका
आश्रय – अपर खलीनी चौक,शिमला-2 हि.प्र. 171002
मोबाईल : 94184 73675
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1 टिप्पणी

  1. इतनी अच्छी समीक्षा के लिए आभार देवेन्द्र सर! सच में पुस्तक पढ़ने का मन हो गया !
    “फटी जींस में लोकतंत्र : “सुबह उठा ही था कि बाहर लोकतंत्र टहलता हुआ मिल गया| फटी हुए जींस पहने उसके घुटने दिखाई दे रहे थे | जींस ने घुटनों में छेद कर दिए थे इसलिए घिसट रहा था” | पढ़कर अनायास ही ‘वाह’ निकल गया ! व्यंग्यकार को सफल लेखन की बधाई !

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