पुस्तक: थर्ड जेंडर: अतीत और वर्तमान (भाग 1-2-3) संपादक: डॉ. एम फी़रोज़ ख़ान
प्रकाशक: विकास प्रकाशन, कानपुर
समीक्षक
डॉ. नितिन सेठी
आलोचना किसी भी कृतित्व के गुण-दोषों का सम्यक् निर्धारण करती है। किसी भी सम्प्रत्यय, वाद या सिद्धांत के पीछे लोकमंगल की स्थापना की भावना ही मुख्य हुआ करती है। लोकमंगल की भावना के साथ-साथ उसमें जीवन दृष्टि का समावेश भी होता है। यही सब मिलकर कृतित्व की सामाजिकता का परिपोषण करते हैं। इस प्रकार प्रत्येक कृतित्व के लिए कुछ मानदंड निर्धारित किए जाते हैं जो उसकी विशेषताओं को सामने लाने के साथ-साथ सम्यक् रूप से उसका मूल्यांकन भी प्रस्तुत करते हैं। किसी सर्जन  के पीछे कृतिकार का उद्देश्य क्या है,वह उद्देश्य कितना  अधिक मंगलकारी है, उस रचना के सर्जन के उद्देश्य की परिणति में कितनी सफलता कृतिकार को प्राप्त हो पाई है; समीक्षा या आलोचना इन सब सवालों का मूल्यांकन प्रस्तुत करती है।
साहित्य में पिछले पचास वर्षों में विमर्शों का एक व्यापक दौर चला है जिसमें स्त्री विमर्श, दलित विमर्श, आदिवासी विमर्श पर्याप्त रूप से विकसित हो चुके हैं। इनका अपना विशेष समीक्षाशास्त्र भी विकसित हो चुका है। थर्ड जेंडर विमर्श पर आधारित साहित्य अभी बीस-पच्चीस वर्षों से ही मुख्यधारा में स्थापित हुआ है। इसलिए थर्ड जेंडर विमर्श की आलोचना पद्धति का यह विकास काल कहा जा सकता है। थर्ड जेंडर विमर्श पर आधारित उपन्यासों, कहानियों, कविताओं नाटकों के साथ-साथ किन्नर विमर्श सम्बंधी आलोचना साहित्य भी आज अपना स्थान सुरक्षित कर रहा है।  वर्तमान हिन्दी साहित्य के लिए यह हर्ष का विषय कहा जा सकता है कि इसने अपने आस-पास निवास कर रहे वर्षों से उपेक्षित किन्नर समुदाय या तृतीयलिंगी समुदाय की ओर ध्यान देना आरंभ किया है। किन्नर विमर्श पर आधारित पहला उपन्यास नीरजा माधव का ‘यमदीप’ है। इसके पश्चात् उपन्यासों और कहानियों के एक अनवरत क्रम का आरंभ होता है। इसी क्रम में विभिन्न महत्त्वपूर्ण उपन्यासों पर आधारित समीक्षात्मक पुस्तकें भी प्रकाशित होने लगी हैं। आज थर्ड जेंडर विमर्श एक समसामयिक और सजग विमर्श बनकर उभरा है। वर्तमान में लगभग तीस उपन्यास इस विमर्श पर पाठकों के समक्ष उपस्थित हैं। कोई भी विमर्श तब तक विमर्श की श्रेणी में नहीं माना जा सकता, जब तक उस पर उचित मनन-चिंतन न हो। किसी भी विमर्श के लिए विचार-विनिमय का विशेष महत्त्व है। डॉ. फ़ीरोज़ खान द्वारा संपादित ‘थर्ड जेंडर: अतीत और वर्तमान’ ग्रंथ के तीनों भाग किन्नर विमर्श पर आधारित कुल उनतीस उपन्यासों पर समीक्षात्मक और शोधात्मक आलेखों की उपयोगी प्रस्तुति हैं।‘थर्ड जेंडर: अतीत और वर्तमान’ के तीनों भाग इन आलेखों के माध्यम से किन्नर समाज को देखने-समझने-जानने की नवीन दृष्टि प्रदान करती है।आलोचना साहित्य को एक नया दृष्टिकोण देती है। थर्ड जेंडर विमर्श पर जो कार्य ये सभी उपलब्ध उपन्यास कर रहे हैं, उनकी तुलना में इन आलोचनात्मक पुस्तकों की उपयोगिता और महत्ता कहीं कम नहीं आंकी जा सकती। डॉ. एम फ़ीरोज़ खान इससे पूर्व भी थर्ड जेंडर विमर्श पर आधारित अनेक शोधात्मक-आलोचनात्मक कृतियों का सफल संपादन कर चुके हैं। आपके संपादन में प्रकाशित वाङ्मय पत्रिका के विशेषांक तो बहुचर्चित हुए हैं। इनमें ‘किन्नर कथा’,‘पोस्ट बॉक्स नं. 203 नाला सोपारा’,‘तीसरी ताली’ आदि उपन्यासों पर आधारित विशेषांकों ने साहित्य जगत् में विशिष्ट ख्याति प्राप्त की। ‘थर्ड जेंडर: अतीत और वर्तमान’ के तीनों भाग इस विषय पर एक सुसंगठित और समग्र अध्ययन प्रस्तुत कर इसके भविष्य की अनेक उज्ज्वल राहों की ओर लेखकों-पाठकों-आलोचकों को प्रेरित करते हैं। ये तीनों भाग विकास प्रकाशन, कानपुर से क्रमशः वर्ष 2018,2021 व 2023 में प्रकाशित हुए हैं।
‘थर्ड जेंडर: अतीत और वर्तमान’ (भाग-1) पुस्तक में कुल सत्रह आलेख और चार साक्षात्कार सम्मिलित किए गए हैं, जिनके माध्यम से संपादक डॉ. फ़ीरोज़ खान इस अनछुए और अछूते विषय पर अनेक नवीन अनुभवों से हमारा परिचय करवाते हैं। पुस्तक के प्रथम भाग में ‘यमदीप’, ‘तीसरी ताली’, ‘किन्नर कथा’, ‘मैं पायल’, ‘मैं भी औरत हूँ’, ‘गुलाम मंडी’, ‘मैं क्यों नहीं’, ‘नाला सोपारा’, ‘अस्तित्व’, ‘ज़िन्दगी 50-50’ और ‘दरमियाना’ उपन्यासों पर शोधपरक विवेचन प्रस्तुत किया गया है। ‘तीसरे लिंग की संघर्षगाथा: यमदीप’ आलेख का निष्कर्ष बहुत महत्त्वपूर्ण है,“तीसरे लिंग के सम्मिलन के बिना सम्पूर्ण एकता का दावा कितना झूठा था, कितना अधूरा! नीरजा माधव के यमदीप के माध्यम से मानो इस त्रुटि का परिमार्जन कर लिया साहित्य ने। शारीरिक विकृतियों पर विजय प्राप्ति का मोहक भाव ‘मैं भी औरत हूँ’ उपन्यास में मिलता है। ‘तीसरे लोगों की दुनिया की अन्तर्कथा’ आलेख प्रदीप सौरभ कृत ‘तीसरी ताली’ उपन्यास का विवेचन प्रस्तुत करता है। लेखक सुंदरम शांडिल्य लिखते हैं,“यहाँ तीसरी दुनिया, तीसरा मोर्चा की तर्ज पर तीसरी योनि में सत्ता की संभावनाओं को अकारण नहीं देखा गया है। इसके पीछे ठोस सामाजिक-राजनीतिक कारण हैं जो हमें आत्ममंथन के लिए प्रेरित करते हैं। ‘पुंसवादी इज़्ज़त की वेदी पर स्वाहा होता हिजड़ा जीवन’ आलेख महेंद्र भीष्म के उपन्यास के ‘किन्नरकथा’ पर केंद्रित है। जैतपुर के बुंदेला राजपरिवार की चंदा की करुणकथा इसमें है। निर्मला भुराड़िया के उपन्यास ‘गुलाम मंडी’ पर डॉ. राधेश्याम सिंह अपने आलेख ‘हाशिए से आती चीखें और गुलाम मंडी’ में, इस प्रकार के किन्नर विमर्शों के माध्यम से, समाज की सामाजिक संरचना में व्यापक बदलावों को देखते हैं। ‘मैं क्यों नहीं’ प्रख्यात मराठी लेखिका पारू मदन नाइक के मराठी उपन्यास ‘मी का नाहीं’ का हिन्दी अनुवाद है। इस उपन्यास का अनुवाद सुनीता परांजपे ने किया है। प्रस्तुत उपन्यास पर आधारित आलेख इसे सुखांत उपन्यास दर्शाता है। चित्रा मुद्गल के ‘पोस्ट बॉक्स नं. 203: नालासोपारा’ में एक किन्नर के प्रति उसकी माता का वात्सल्य भाव चिट्ठियों के माध्यम से अभिव्यक्त किया गया है। ‘अधूरी देह के जीवन संघर्ष का सच: मैं पायल’ नामक आलेख में प्रो. शर्मिला सक्सेना पायल नामक हिजड़े की जिंदगी के साथ-साथ उनके जीवन की विषम परिस्थितियों को सामने लाती हैं। भगवंत अनमोल के उपन्यास ‘ज़िंदगी 50-50’, गिरिजा भारती के ‘अस्तित्व’, सुभाष अखिल के ‘दरमियाना’ पर भी महत्त्वपूर्ण आलेखों का संकलन प्रस्तुत पुस्तक में है। अमित मिश्रा का यह कथन इस सम्बंध में उल्लेखनीय है,“तीसरी दुनिया के लगभग हर इंसान की कहानी एक जैसी है। बचपन में संजोये सपने ताश के पत्तों की तरह बिखर गए। तिरस्कार के कारण घर छूटा, अपने छूटे और फिर एक ऐसे चौराहे पर आकर खड़ा हुआ, जो कहने को तो चौराहा था लेकिन रास्ता इनके लिए कहीं नहीं था। 
पुस्तक के दूसरे खंड में चार साक्षात्कार हैं जो क्रमशः सुभाष अखिल, महेंद्र भीष्म, नीरजा माधव और भगवंत अनमोल से लिए गए हैं। इन चारों कथाकारों ने किन्नर विमर्श को अपने उपन्यासों के माध्यम से चर्चित किया है। अपने प्रश्नों में डॉ. फ़ीरोज़ खान, डॉ. शमीम और प्रताप दीक्षित इन उपन्यासों से सम्बंधित अनेक मूलभूत तथ्यों को सामने लाने का प्रयास करते हैं। किसी विशिष्ट विषय पर केंद्रित उपन्यासों की रचना प्रक्रिया, तथ्य संग्रहण और विश्लेषण पद्धति जानना पाठकों के लिए उपयोगी भी है और ज्ञानवर्धक भी। लेखकों का अपना गहन परिश्रम भी इनमें सामने आता है।
डॉ. एम. फी़रोज़ ख़ान द्वारा संपादित ‘थर्ड जेंडर: अतीत और वर्तमान’ (भाग-2) ग्रंथ में किन्नर विमर्श पर केन्द्रित कुल ग्यारह उपन्यासों पर सोलह लेखकों द्वारा लिखित आलोचनात्मक आलेख रखे गए हैं। प्रस्तुत द्वितीय खंड में जिन उपन्यासों को सम्मिलित किया गया है उनके नाम हैं– ‘आधा आदमी’, ‘किन्नर मुनिया मौसी’, ‘अस्तित्व की तलाश में सिमरन’, ‘श्रापित किन्नर’, ‘शिखंडी’, ‘ऐ ज़िंदगी तुझे सलाम’, ‘मेरे होने में क्या बुराई है’, ‘मंगलामुखी’, ‘मेरे हिस्से की धूप’, ‘वह’ और ‘देह कुठरिया’।थर्ड जेंडर विमर्श पर आधारित इन सभी उपन्यासों पर केन्द्रित प्रस्तुत पुस्तक इस विमर्श पर अध्ययन-मनन-चिंतन को एक नवीन गति और आयाम देती है। पुस्तक का प्रथम आलेख राजेश मलिक के ‘आधा आदमी’ उपन्यास पर डॉ. रमेश कुमार द्वारा लिखा गया है। प्रस्तुत आलेख में हाशिए के समाज को स्पष्ट करते हुए डॉ. रमेश कुमार ने ‘आधा आदमी’ उपन्यास को डायरी शैली में लिखित उपन्यास दर्शाया है,“आधा आदमी उपन्यास की डायरी एक महत्त्वपूर्ण पक्ष है। उपन्यासकार ने दीपिका माई की डायरी लिखी है जो किन्नर समुदाय की अस्मिता और त्रासदी को उद्घाटित करती है।उपन्यास में दीपिका माई की आत्मकथा उसके शब्दों में डायरी रूप में अंकित हुई है।” डॉ. विमला मल्होत्रा के उपन्यास ‘किन्नर मुनिया मौसी’ पर श्यामसुंदर पांडेय का आलेख इसे वैचारिक बदलाव की मांग के रूप में देखता है। लेखक के शब्द हैं,“यह पूरा उपन्यास इसी बात की मांग करता है कि लैंगिक दोष के नाम पर किसी भी व्यक्ति के साथ किसी भी प्रकार का भेदभाव नहीं होना चाहिए। जिस लिंग निर्धारण में माता पिता और बच्चे किसी का कोई अधिकार नहीं होता, उसकी सजा किसी को आजीवन क्यों मिले? आवश्यकता है हमें अपनी मानसिकता में बदलाव की।” मोनिका देवी कृत ‘अस्तित्व की तलाश में सिमरन’ उपन्यास पर लिखते हुए आलोचक अभिनव के विचार द्रष्टव्य हैं,“उपन्यास अस्तित्व की तलाश में सिमरन किन्नर वर्ग की जिजीविषा और उनकी अस्मिता को लेकर प्रश्न करता मार्मिक दस्तावेज है। जिसकी जीवंतता और प्रासंगिकता अद्यतन समय में विशेषरूपेण दर्शनीय है। किन्नर समाज में पहले की तुलना में अधुनातन विचारों व जागृति का संचार हुआ है परंतु यह संचार बहुत धीमा है। राजनैतिक-सामाजिक स्तरों के प्रयासों व आम जनमानस के सतत् योगों से ही किन्नर वर्ग समाज की मुख्यधारा में सम्मिलित हो पाएगा। अतः किन्नर वर्ग सामाजिक सहयोग से अपने अस्तित्व वह अधिकारों को क्या शीघ्र प्राप्त कर पाएगा, यह विचार का विषय है तथा प्रस्तुत उपन्यास इस परिप्रेक्ष्य में महत्त्वपूर्ण स्रोत कृति के रूप में पाठक वर्ग के सम्मुख दृष्टिगोचर है।” डॉ. मुक्ति शर्मा द्वारा लिखित ‘श्रापित किन्नर’ उपन्यास में किन्नर विमर्श के साथ-साथ कश्मीरीजनों की विस्थापन की पीड़ा भी दर्शाई गई है। राखी काम्बोज ‘श्रापित किन्नर’ उपन्यास पर लिखते हुए उपन्यास के नामकरण की सार्थकता पर विचार करती हैं,“उपन्यास के नामकरण की सार्थकता तीनों मुख्य पात्रों के द्वारा साबित की गई है क्योंकि तीनों पात्र श्रापित हूँ वाली दशा में जीते हुए नज़र आते हैं। जब तक वे अपने लिए संघर्ष के लिए संघर्ष नहीं करते, समाज से नहीं लड़ते, तब तक वे अपना एक मुकाम भी हासिल नहीं कर पाते और तीनों पात्र संघर्ष करते हैं, अपना एक स्थान समाज के मध्य बनाते हैं और उपन्यास के अंत में श्रापित हूँ का दाग धो लेते हैं। श्रापित किन्नर उपन्यास समाज को एक नवीन दृष्टि देने में भी सार्थक प्रतीत होता है क्योंकि अभी तक किन्नरों के प्रति सामान्य मानव की संवेदना शून्यता का वर्णन करते आए हैं लेकिन किन्नर खुद अपने ऊपर लगे दाग को मिटा रहे हैं, यह श्रापित किन्नर उपन्यास की सार्थकता है।”
‘शिखंडी: स्त्री अस्मिता का आख्यान’ नामक आलेख में आनंदप्रकाश त्रिपाठी डॉ. शरद सिंह द्वारा रचित ‘शिखंडी’ उपन्यास पर बात करते हुए लिखते हैं,“शरद सिंह ने शिखंडी के माध्यम से स्त्री देह से परे का जो ताना-बाना बुना है वह ज्यादा प्रभावी है। पुरुषवादी सत्ता की चूलें हिला देने की तकरार भी स्त्री विमर्श को नया संदर्भ प्रदान करती है। एक स्त्री का शिखंडी के चरित्र का अवलोकन का अपना नज़रिया है। स्त्रीवादी चिंतन के सूत्रों को खोलते हुए शरद सिंह ने शिखंडी के जटिल और लगभग अनअभिव्यक्त चरित्र को रचने का जो साहस दिखाया है, वह उनकी लेखकीय क्षमता और जीवन दृष्टि का परिचायक है। बहुत ही रोचक और हर कदम पर बढ़ती हुई कथा में तनाव, जिज्ञासा, उत्सुकता और नई-नई घटनाओं का संयोजन एक सहज संवेदनशील पाठक को बाँधे ही नहीं रखता, वरन् बेचैन और चैतन्य भी बनाए रखता है।” ज्ञातव्य है कि शिखंडी महाभारत का एक पात्र है जो काशीनरेश की तीन पुत्रियों अंबा,अंबिका और अंबालिका में से अंबा के जीवन की कथा है। भीष्म पितामह से अपने अपमान का बदला लेने के लिए अंबा अगले जन्म में शिखंडी बन जाती है। इसी क्रम में डॉ. विमलेश शर्मा शिखंडी उपन्यास को ‘स्त्री देह से परे स्त्री देह का आख्यान’ के रूप में शब्दायित करती हैं। डॉ. विमलेश शर्मा के शब्दों में,“शरद सिंह का यह उपन्यास प्राचीन इबारत पर अनेक प्रश्नचिह्न लगाकर इतिहास की उन त्रुटियों को रेखांकित करता है जो स्त्री अस्मिता की अवहेलना करता है, सत्ता के लिए सब कुछ जायज मानता है और भीष्म प्रतिज्ञाओं की आड़ में कुत्सित अपराधों का साक्षी बनता है। शरद सिंह इस उपन्यास में ईश्वर के निरीश्वर स्वरूप को और सत् की आड़ में छिपे छद्म को सामने लाने के लिए सतत् प्रयासरत दिखाई देती हैं और इस कार्य में वे सफल भी होती दिखाई देती हैं। शिखंडी चरित्र देहों से पार उतरता हुआ समाज की जड़ मानसिकता पर सतत् प्रहार करता और राजचिह्नों की चमकदार प्रशस्तियों के पीछे छिपे उन तीक्ष्ण नोक वाले नखों को सामने लाता है, जिनमें सिर्फ और सिर्फ अनाधिकृत चेष्टाएँ हैं, बलात कामनाएँ हैं और अपना अधिकार प्राप्त करने के लिए पुरुष देह धारण करती अंबाएँ हैं; क्योंकि यह समाज स्त्री को उसके अधिकार देने में सकुचाता है।” हरभजन सिंह मेहरोत्रा के उपन्यास ‘ऐ ज़िंदगी तुझे सलाम’ पर लिखते हुए डॉ. लवलेश दत्त का विचार है,“हरभजन सिंह मेहरोत्रा ने ऐ ज़िंदगी तुझे सलाम उपन्यास के माध्यम से न केवल किन्नर जीवन बल्कि आज के समय और समाज को अभिव्यक्त किया है। उन्होंने समाज में व्याप्त कुरीतियों और समस्याओं की ओर भी इशारा किया है तो उसके समाधान के लिए एक कर्तव्यनिष्ठ अधिकारी की परिकल्पना भी की है। हरभजन सिंह ने माना है कि यदि समाज की दशा सुधारनी है तो प्रशासन को अपनी कमर कसनी होगी और अपने कर्तव्य का निर्वाह बहुत ईमानदारी के साथ करना होगा।” डॉ. जितेश कुमार भी ‘ऐ ज़िंदगी तुझे सलाम’ को एक सकारात्मक सोच और मार्मिकता से पूर्ण उपन्यास मानते हैं। वह इस उपन्यास के माध्यम से एक नये संदेश की सफलता भी देखते हैं।  रेनू बहल कृत ‘मेरे होने में क्या बुराई है’ उपन्यास को डॉ. कुलभूषण मौर्य किन्नर जीवन में सकारात्मक बदलाव की कथा कहकर पुकारते हैं। इस उपन्यास की सफलता पर प्रश्नचिह्न लगाते हुए डॉ. कुलभूषण मौर्य का कहना है,“उपन्यास में अनुभव की कमी तो दिखाई ही देती है, कथा को समेटने का उतावलापन भी साफ दिखाई देता है। किन्नर समाज एक बन्द दुनिया है, जिसमें बाहरी व्यक्ति का प्रवेश पूर्णतया वर्जित है। इस वर्जित क्षेत्र में वे हर किसी को दाखिल नहीं होने देते। किन्नर जीवन के कटु यथार्थ को झेलने या उनके निकट संपर्क में रहकर ही उनके जीवन के संघर्ष, घर से निष्कासन और जड़ से कटने की पीड़ा को महसूस किया जा सकता है। उपन्यास का अंत पाठक को उपन्यास और आत्मकथा के भ्रम में डाल देता है।” डॉ. लता अग्रवाल के उपन्यास ‘मंगलामुखी’ को डॉ. वंदना शर्मा ‘अर्द्धनारीश्वर की भूमिका को सिद्ध करता उपन्यास’ कहकर पुकारती हैं। उनका कहना है,“मंगलामुखी उपन्यास में लता जी ने किन्नर समाज की वेदना, समाज द्वारा मिले तिरस्कार के साथ उनके जीवन संघर्ष को तो समाज के समक्ष रखा ही है, किंतु इस हताशा और निराशा के क्षण में उनके ये पात्र कभी निराश हो जीवनक्षय नहीं करते बल्कि तमाम समस्याओं से टकराते हुए चट्टान बन एक नई दिशा चुनते हैं; ऐसी दिशा जो तथाकथित सम्पूर्ण समाज के समक्ष यह साबित कर देती है कि महज शरीर का एक अंग कम होने से दुनिया समाप्त नहीं हो जाती। निश्चय ही शीघ्र मानव समाज उनकी इस विशेषता के कारण उन्हें अपने दिल में स्थान देगा।” डॉ. चुम्मन प्रसाद श्रीवास्तव ‘मंगलामुखी’ उपन्यास की भाषा-शैली और शिल्प विधान पर विस्तार से अपने आलेख में प्रकाश डालते हैं। डॉ. सुधांशु कुमार शुक्ला नीना शर्मा ‘हरेश’ द्वारा रचित ‘मेरे हिस्से की धूप’ उपन्यास में मानवतावादी सोच और दृष्टि को महसूस करते हैं। श्रीगोपाल सिंह सिसोदिया के उपन्यास ‘वह’ पर लिखते हुए डॉ. लता अग्रवाल उपन्यास के शीर्षक पर महत्त्वपूर्ण निष्कर्ष देती हैं। वे लिखती हैं,“प्रथम दृष्टि में उपन्यास का शीर्षक जिज्ञासा पैदा करता है। आखिर ये ‘वह’ कौन है…! दो शब्दों का यह अनूठा शीर्षक पाठकों को अपनी ओर आकर्षित करता है। पाठक जानने को उत्सुक हैं कि वह कौन है उसे जाना जाए अर्थात् शीर्षक की दृष्टि से उपन्यास की यह प्रथम सार्थकता सिद्ध करता है। एक और दृष्टि, जो मैं समझती हूँ, इस शीर्षक से जाने-अनजाने जुड़ती है, कि आज तक इस वर्ग को कोई उपयुक्त नाम नहीं मिल पाया है। वह उचित संज्ञा के आज भी अभिलाषी हैं। अगर हमारे समाज की परिकल्पना के अनुसार शीर्षक की व्याख्या की जाए तो ‘मैं’ अर्थात् प्रथम समाज (नर), ‘तुम’ से आशय समाज के दूसरे वर्ग (नारी) से है। अब यह ‘वह’ शब्द ही पाठक को सोचने पर विवश करता है, जिससे लेखक का आशय वह जो न नर है, न नारी है अर्थात् किन्नर है। लेखक ने सम्भवतः इसी बात को दृष्टि में रखकर इस शीर्षक को चुना है। सर्वनाम शीर्षक से युक्त यह उपन्यास के पात्र को आधार में रखकर लिखा गया है।” प्रसिद्ध कथा लेखिका जया जादवानी के उपन्यास ‘देह कुठरिया’ को डॉ. ज्वाला सिंह ‘अस्तित्व के सवाल और संघर्ष’ के नाम से अभिहित करते हुए उपन्यास के शीर्षक पर लिखती हैं,“देह कुठरिया पढ़ते समय हमारा ध्यान बार-बार इसके नामकरण (शीर्षक) पर अटक जाता है।कुठरिया शब्द कोठरी का तद्भव है। उसे देह से जोड़ने पर यह भाव-चित्र मन में उभरता है कि हिजड़ों का जीवन उनकी देहरूपी कोठरी में बंद है।वे उस कोठरी से निकलना चाहते हैं परंतु निकलकर कहाँ जाएं।”
पुस्तक के दूसरे भाग में तीन साक्षात्कार हैं जो क्रमशः हरभजन सिंह मेहरोत्रा, डॉ. रेनू बहल और डॉ. लता अग्रवाल से पुस्तक के संपादक डॉ. एम. फ़ीरोज़ ख़ान द्वारा लिए गए हैं। इन तीनों साक्षात्कारों में डॉ. फ़ीरोज़ ख़ान ने इन साहित्यकारों से उनके पारिवारिक जीवन, रचना-प्रक्रिया, किन्नर विमर्श पर लिखने के कारणों और उद्देश्यों आदि पर विस्तार से बात की है। प्रस्तुत पुस्तक की भूमिका में डॉ. फ़ीरोज़ ख़ान लिखते हैं,“यह कहना गलत नहीं होगा कि हिंदी साहित्य में इक्कीसवीं सदी किन्नर विमर्श की है। देर से ही सही किंतु इस अछूते विषय पर कई उपन्यास और कहानी संग्रह प्रकाशित हुए हैं जिनमें उनके सामाजिक,आर्थिक,राजनीतिक और सांस्कृतिक पहलुओं का बखूबी वर्णन किया गया है। जिन किन्नरों को दिव्यांग और अछूतों से भी बदतर समझा जाता था, जिनके जीवन और संस्कृति के बारे में कई मनगढ़ंत कहानियां बनाई गईं, जिनकी जीवनशैली के बारे में लोग पूर्वाग्रह से ग्रसित हैं, जो गूढ़ और अबूझ समझे जाते थे, आज उन्हीं के बारे में न केवल साहित्य अपितु देश के सर्वोच्च न्यायालय एवं संसद में बहस हो रही है।” डॉ. फ़ीरोज़ के ये शब्द थर्ड जेंडर विमर्श के प्रति उनकी सदाशयता दर्शाते हैं और यह विश्वास भी दिलाते हैं कि वह थर्ड जेंडर विमर्श को केवल साहित्यिक वाद और प्रतिवाद के रूप में नहीं देखते अपितु इसके माध्यम से समाज में एक सार्थक संवाद की स्थापना करके किन्नर जीवन की करुणा को पाठकों के सामने लाना चाहते हैं।
‘थर्ड जेंडर: अतीत और वर्तमान’ (भाग-3) ग्रंथ वर्ष 2023 में प्रकाशित हुआ है जिसमें कुल नौ उपन्यासों पर विद्वान समीक्षकों के आलेख हैं। यह पुस्तक भी ‘थर्ड जेंडर: अतीत और वर्तमान’ भाग 1 व 2 के क्रम में प्रकाशित की गई है। इस पुस्तक में ‘दर्द न जाने कोई’, ‘किन्नर कथा- एक अंतहीन सफ़र’, ‘समय से आगे’, ‘द डार्केस्ट डेस्टिनी’, ‘हाफमैन’, ‘किन्नर गाथा’, ‘मंजरी’, ‘आदम ग्रहण’ और ‘मैं शिखंडी नहीं’ उपन्यास सम्मिलित हैं। प्रथम दो भागों के समान ही यह पुस्तक भी थर्ड जेंडर विमर्श पर आधारित उपन्यासों के आलोचनात्मक पहलुओं, उनकी रचना प्रक्रिया, उनके कथानक के अभिप्राय और रचनाकार के अनुभव संसार को पाठकों के समक्ष लाती है।  किन्नर विमर्श का अगला प्रस्थान ‘दर्द न जाने कोई’ आलेख में प्रो. राधेश्याम सिंह लिखते हैं,“किन्नर विमर्श सम्बन्धी उपन्यास लगभग उदारीकरण के दस साल बाद, व्यवस्थित श्रृंखला के रूप में प्रकाशित होने प्रारंभ हुए। दलित विमर्श के तर्ज़ पर उन सभी उपन्यासों में किन्नर जीवन के संघर्षों को वर्णित करने का उपक्रम जारी रहा। जिस तरह दलित कथाओं में एकरेखीयता लक्षित की गयी, उसी तरह विगत् बीस वर्षों में किन्नर विमर्श के कथानकों में भी कमोबेश थोड़े अंतरों के साथ उसी एकरेखीयता को लक्षित किया जाने लगा। इस समस्या का एहसास पाठकों तक तो बहुत संवेदनशीलता के साथ पहुँचा दिया गया, पर समाधान कहाँ से निकले, इसका कोई उत्स पाठकों को न मिल सका। समाधान के अभाव में, एकरूपता की उपस्थिति के कारण कथानक ऊब की लहरों में फँसने लगे। इस असमंजस को लवलेश दत्त ने लक्षित किया और अपने पहले ही उपन्यास में समाधान सृजित कर न केवल अपने उपन्यास को पठनीय बनाया, बल्कि भविष्य में विमर्श की राह को भी मशाल दिखाया।” अर्चना कोचर के उपन्यास किन्नर कथा: एक अंतहीन सफर 2020 पर आधारित आलेख में डॉ. रमेश कुमार उपन्यास के कथ्य और भाषा शैली पर लिखते हैं,“उपन्यास के पात्र, परिवेश, कथ्य और शिल्प में नवीनता तथा सादगी व्याप्त है। यह उपन्यास किन्नर समुदाय के प्रश्नों को गंभीरता से उठाता है। उनकी असीम पीड़ा से गुजरता है। अनोखे किन्नर चरित्रों को मानवीय गरिमा प्रदान करता है। उनकी शिक्षा-दीक्षा, संस्कार, प्रथा, आचार-विचार और जीवन दर्शन को यथार्थ ढंग से उद्घाटित कर सका है। शिल्प में जन-भाषा, ग्रामीण संस्कार की देहाती बोली-भाषा, पंजाबी के लोकगीत, कविता की पंक्तियाँ, पात्रों की मानसिक स्थितियों के अन्तर्द्वद्वों का उद्घाटन, किन्नरों के जीवन रहस्यों का मार्मिक चित्रण, बहुभाषा मिश्रित शब्दावली, मानवीय रिश्तों के बनते-बिगड़ते संदर्भों की छटपटाहट और प्रकृति के नैसर्गिक चित्रों का सफल अंकन हुआ है। तृतीय लिंगी विमर्श को नये सन्दर्भों एवं प्रश्नों के साथ मानवीय भाव एवं बौद्धिक संवेदना जगाने में उपन्यास सफल हुआ है। तृतीय लिंगी समुदाय कैसे लैंगिक असमानता तथा मानवीय यातना का आजीवन सफ़र करता है? यह उपन्यास उसकी परिणति ही है।” डॉ. अनिता सिंह के उपन्यास ‘समय से आगे’ पर प्रो. श्रद्धा सिंह के विचार हैं,“सचमुच समय से आगे सोचती हैं लेखिका, जिसे उन्होंने अभिव्यक्त किया है। एक और बड़ा संदेश देती है यह कृति, कि हमें कभी भी किसी का उपहास नहीं उड़ाना चाहिए और न ही केवल शारीरिक अक्षमता के कारण किसी को बेदर्दी से त्याग नहीं देना चाहिए। इस जीवन में पता नहीं कब किसके साथ क्या घटित हो जाय।उपन्यास अपने कथात्मक रूप में पंद्रह वर्षों की यात्रा तय करता है-सन् 2020 से 2035 तक। इस दौरान तृतीय लिंगी समाज के संघर्ष, पीड़ा, नारकीय जीवन को जीने की विवशता, धंधा करने की मज़बूरी के बीच ही स्वयं को स्थापित करने और समाज की मुख्यधारा में शामिल होने की जद्दोजहद के साथ सफलता की पताका फहराते देखा जा सकता है। निश्चित ही, इस उपन्यास की लेखिका तृतीय लिंगियों के उज्ज्वल भविष्य के प्रति पूर्णतया आशान्वित हैं और इसी आशा और विश्वास को उन्होंने अपनी कृति में प्रतिफलित होते दर्शाया है। लेखिका की यह दृष्टि इस वर्ग के विषय में प्रगतिगामी है और हो भी क्यों न! जब हमारे बीच सफलता का परचम लहराने वाले तृतीय लिंगियों की एक लम्बी फेहरिस्त मौजूद है। जीवन के प्रायः सभी क्षेत्रों में अपनी शिक्षा, साहस और धैर्य के माध्यम से इस वर्ग ने अपना महत्त्वपूर्ण स्थान बनाने में कामयाबी हासिल की है और अनवरत करती चली जा रही है। आगे भी इनका जीवन ऐसे ही सम्मानजनक जीवन की राह पर बढ़ता रहे, इसके लिए रास्ता सुझाने के उद्देश्य से ही इस कृति में अस्पताल में नेग माँगने आए तृतीय लिंगियों को नेग के स्थान पर अस्पताल में योग्यतानुसार नौकरी, किन्नर बच्चों की शिक्षा-व्यवस्था और डेरे के स्थान पर आश्रम में रहने की व्यवस्था को लेखिका ने करन नामक पात्र के माध्यम से अंजाम दिया है।” ‘सकारात्मकता के बल पर जिया गया एक जीवन- हाफ मैन’ आलेख में डॉ. जितेश कुमार लिखते हैं,“कुल मिलाकर यह उपन्यास एक किन्नर के मेहनत, संघर्ष और प्रेम को आधारबनाकर एक नई परिपाटी में लिखा गया सुन्दर उपन्यास है। एक सामान्य पाठक भी इस उपन्यास को पढ़कर नया अनुभव करता है, यही इसकी सफलता है। अर्जुन का व्यक्तित्व ही ऐसा है जिससे प्रेम हो जाना स्वाभाविक है। दीपा के साथ प्रेम को एक उदात्त रूप देना अर्जुन के व्यक्तित्व को और सफल सिद्ध करता है। देह से ऊपर भी प्रेम है, इस वाक्य को लेकर जो तर्क प्रस्तुत किए जाते हैं, उसका प्रतिफल पूरे मनोयोग से इस उपन्यास में प्रस्तुत हुआ है। यही इसकी सबसे बड़ी सफलता है। नीरव के रूप में सच्चे दोस्त और प्रेरक व्यक्तित्व का होना इस उपन्यास को एक नई ऊँचाई प्रदान करता है। बहरहाल, यह उपन्यास मानव होने की तमाम संभावनाओं को अपने में समेटे हुए है।”
डॉ. मनमोहन सहगल के उपन्यास ‘किन्नर गाथा’ पर डॉ शिवचंद प्रसाद ने विस्तारपूर्वक पड़ताल की है। प्रस्तुत उपन्यास के सबल और कमजोर दोनों पक्षों पर उन्होंने प्रकाश डाला है। कथावस्तु में अतिरेक की उड़ान,असम्बद्ध दृश्यों आदि को सामने लाते हुए लेखक के विचार हैं,“सच तो यह है कि मुख्य कथा का दामन छोड़ते ही उत्तरार्द्ध की कथा बिखरने लगती है। लेखक के विचार लेखन पर भारी पड़ने लगते हैं। उसे कथा-विस्तार का डर भी है और विस्तार भी करना चाहता है। इस हड़बड़ी में नये पात्रों को जल्दी-जल्दी जन्म देता और उससे भी जल्दी मार डालता है। उपन्यास का दो तिहाई हिस्सा निस्संदेह सराहनीय और प्रशंसनीय है, जहाँ कथाकार यथार्थ की भाव-भूमि पर खड़ा है, जहाँ कल्पना की उड़ान के लिए बिलकुल अवकाश नहीं है। ऐसा लगता है कि उपन्यासकार बहुत निकटता से किन्नर-जीवन की सूक्ष्म से सूक्ष्मतर समस्याओं को न केवल देख रहा है बल्कि उन्हीं में जी भी रहा है। उनसे सम्बन्धित ऐसे-ऐसे तथ्यों और रहस्यों को प्रकाश में लाता है, जिन्हें किन्नर-गुरु भी नहीं जानते। यहाँ उसके ज्ञान और अनुभव की जितनी प्रशंसा की जाये कम है। जब वह समाज के तानों और व्यंग्यों से प्रसूत किन्नरों की विवशता, दैन्य और पीड़ाओं का सजीव और मर्मस्पर्शी चित्र उपस्थित करता है तो मन में एक विचित्र प्रकार का क्षोभ और आक्रोश उत्पन्न होता है।” मालती मिश्रा के ‘मंजरी’ उपन्यास पर हरभजन सिंह मेहरोत्रा लिखते हैं,“बहरहाल लेखिका ने बड़ी बहादुरी से किन्नरों की वकालत करते हुए उपन्यास को समझदारी भरा अंत दिया जिससे उपन्यास एक गरिमामयी छवि बनाते समाप्त होता है। अन्य उपन्यासों की तरह ‘मंजरी’ भी किन्नर समाज में जागरूकता लाने और नयी राहें खोलने में अपनी महती भूमिका निभाएगा, ऐसा विश्वास होता है। उपन्यास शिल्प और भाषा के प्रति अनुशासित और बेहतर दिखता है।” पंजाबी साहित्य की प्रसिद्ध कथाकार हरकीरत कौर चहल द्वारा पंजाबी भाषा में लिखे गए उपन्यास ‘आदम ग्रहण’ का हिन्दी में अनुवाद सुभाष नीरव ने किया है। प्रस्तुत उपन्यास पर डॉ. शत्रुघ्न सिंह ने लिखा है,“इस पूरे उपन्यास में किन्नर जीवन को एक नए दृष्टिकोण से देखा-परखा गया है। जिसमें जीवन भर नाचने-गाने, हँसने और दूसरों को दुआएँ बाँटने वाले किन्नरों के अभिशापित जीवन की वेदना को परत-दर-परत खोलने की कोशिश हुई है। अपनों के स्नेह और प्रेम से वंचित किन्नरों के हिस्से में अपमान, उपेक्षा, तिरस्कार और छींटाकशी ही आती है। समाज में उन्हें मनुष्य के तौर पर देखने का चलन ही नहीं है। अंत में वे भूख, बीमारी और इलाज के अभाव से बेहाल होकर गुमनामी के अँधेरे में दमतोड़ देते हैं। ‘आदम ग्रहण’ उपन्यास किन्नर-विमर्श की यात्रा में एक महत्त्वपूर्ण पड़ाव के रूप में दिखाई पड़ता है। लेखिका ने इसकी संवेदना के माध्यम से सभ्य समाज के समक्ष एक बड़ा प्रश्नचिह्न खड़ा करने का प्रयास किया है जिससे उसमें ट्रांसजेण्डर समुदाय के प्रति व्याप्त संवेदनहीनता की बर्फ पिघलाई जा सके। वह उन्हें सम्मान के साथ अपने बीच स्थान दे और जो अधिकार उन्हें कानूनन मिल चुके हैं उन्हें स्वीकृति प्रदान करे। तभी किन्नरों के नाम पर मनुष्यता पर जो ग्रहण लगा हुआ है उसे मिटाया जा सकता है।” ‘मैं शिखंडी नहीं : किन्नर समाज की मार्मिक अभिव्यंजना’ आलेख में डॉ. लवलेश दत्त लिखते हैं,“यह सुखद आश्चर्य की बात है कि जिस विमर्श को लेकर हिन्दी साहित्य जगत् में कहीं-न-कहीं उठापटक देखने को मिलती है, कई वर्ष पूर्व रामसरूप रिखी ने बहुत सहजता के साथ किन्नर विमर्श के विविध आयामों को अपने उपन्यास में अभिव्यक्त कर दिया। उन्होंने किन्नरों के अभिशप्त जीवन के साथ-साथ समाज के विकास में उनकी भागीदारी को स्पष्ट रूप से दिखाया है। उन्होंने उन्हें कोई अलग प्राणी न दिखाकर हमारी ही तरह एक सामान्य मनुष्य की तरह प्रस्तुत किया है। हालांकि उपन्यास की सबसे बड़ी विशेषता किन्नरों के जीवन के विविध पक्षों को दर्शाना है लेकिन फिर भी किन्नरों के साथ हम एक ही समाज में रहकर किस प्रकार से उनका सहयोग, उनका साथ, उनके अन्दर की मानवीयता को ग्रहण कर सकते हैं इस उपन्यास को पढ़कर स्पष्ट रूप से जाना जा सकता है। लेखक ने जिस गहराई के साथ सामाजिक यथार्थ को उपन्यास में प्रस्तुत किया है वह अत्यन्त प्रशंसनीय है।”
पुस्तक के खंड 2 में दो विस्तृत आलेख भी सम्मिलित किए गए हैं जो तृतीय लिंगी विमर्श की भाषा, उसके विकास और उसके अनुप्रयोग पर केन्द्रित हैं। ज्ञातव्य है कि गोस्वामी तुलसीदास ने ‘रामचरितमानस’ में लिखा है ‘गिरा अरथ जल बीचि सम कहिअत भिन्न न भिन्न’। किसी भी संस्कृति के निर्माण में भाषा अपना महत्त्वपूर्ण योगदान देती है। तृतीय लिंगी समाज की संस्कृति की अपनी विशिष्ट भाषा और अभिव्यक्ति है, जिसके माध्यम से यह समाज अपनी अस्मिता को बचाए और बनाए रखता है। भाषा अलग-अलग समुदायों में अपना अलग-अलग अर्थ विस्तार रखती है। प्रथम आलेख ‘एलजीबीटीक्यू इत्यादि: भाषा का संकट’ है जिसे प्रख्यात लेखक गौतम सान्याल ने लिखा है। यह आलेख जितना अधिक विस्तृत है, उतना ही तलस्पर्शी और गहन अध्ययन भी प्रस्तुत करता है। प्रस्तावना, एलजीबीटीक्यू इत्यादि: मेरे भाषा अनुभव, भाषा संकट के अन्य पहलू और बहस की शुरुआत, संबोधिकरण की हकलाहट, भाषा संकट के निवारण के लिए दिक्पूजन, विषमलैंगिक बनाम समलैंगिक यौनिकता जैसे उपखंड इस विषय को विस्तार से विवेचित करते हैं। फ्रांसीसी इतिहासकार और दार्शनिक मिशेल फूको (1926-1984) द्वारा कामुकता का चार खंडों में अध्ययन प्रस्तुत किया गया था। गौतम सान्याल फूको की कृति ‘कामुकता का इतिहास’ पर विस्तार से कलम चलाते हैं और फूको के विभिन्न निष्कर्षों के परिप्रेक्ष्य में हिन्दी और बांग्ला के साहित्य का भी अवलोकन करते हैं।लेखक ने फूको पर विस्तारपूर्वक लिखा है। फूको के इतिहास का प्रथम खंड ‘हिस्ट्री ऑफ सेक्सुआलिस’ सन् 1976 में प्रकाशित हुआ था। लेखक इस पुस्तक की वास्तुशिल्पमिति को आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के ‘हिंदी साहित्य के इतिहास’ के समानांतर देखते हैं। फूको ही क्यों, फूको कृत यौनिकता का इतिहास के साथ ही एलजीबीटीक्यू सम्बंधी भाषा, उसके प्रयोग, उसके परिदृश्य और उसके सिद्धांत पर समावेशी दृष्टिकोण से विवेचन प्रस्तुत किया गया है। आलेख के अंत में क्वीर थ्योरी से सम्बंधित शब्दावली पर भी लेखक ने विस्तार से बात की है। ज्ञातव्य है कि प्रस्तुत आलेख प्रथम भाग में लिखा गया है, जिसका द्वितीय भाग अभी लिखा जाना प्रस्तावित है। गे, लेस्बियन और अन्य प्रकार की यौनिकता का अवधेय, क्वियर चिंतन और सिद्धान्त, भारतीय व हिन्दी क्वियर टेक्स्ट की खोज, हिन्दी का किन्नर विमर्श (मुख्यतः उपन्यास), हिन्दी व भारतीय यौनिकता: उपलब्धियाँ, सीमाएँ और संभावनाएँ :एक फ्यूचरिष्ट अग्रलेख जैसे उपखंड अभी लेखक के अनुसार आगे लिखे जाने प्रस्तावित हैं। गौतम सान्याल एलजीबीटी समुदाय के भाषा संकट पर एक कलात्मक अभिचिंतन प्रस्तुत करते हैं जिसे उन्होंने एलजीबीटी समुदाय के जीवन के आलोक में देखा है। गौतम सान्याल भाषा संकट पर लिखते हैं,“अलबत्ता किस्सा हमारी भाषा चतुर्दिक से आक्रांत है। ये आक्रांतियाँ जितना बाहर से हैं उतना अभ्यंतर में भी हैं। दिक्भ्रांतियाँ जितना बाहर से हैं उतना अभ्यंतर में भी हैं। दिक्भ्रांतियाँ उतनी दिशाओं की नहीं जितनी मनोदशाओं की हैं, समस्या उतनी क्लिष्टता की नहीं जितनी सुस्पष्ट संश्लिष्टता की है और दुश्वारियाँ उतनी प्रायोजनमूलकता की नहीं हैं जितनी आयोजनमूलकता और परियोजनमूलकता की हैं। वस्तुस्थिति स्पष्ट है कि हाथ आई प्रत्यक्ष वस्तुओं के लिए हमारी भाषास्थिति प्रस्तुत नहीं है, हाथ लगे स्पष्ट ‘तदर्थ और तात्पर्यों’ के लिए हमारे पास कोई खास पारदर्शी और स्पष्ट शब्द भी नहीं है। जाहिर है कि भाषा के नव-निर्माण से ग्रहण तक और ग्रहण से उसके मूल्यांकन तक हमें पूर्व-भाषा के समांतराल, एक नई शब्दजीविता की परंपरा को गढ़ना होगा। इस नई प्रकार की शब्दजीविता की सबसे बड़ी समस्या नए प्रतिशब्दों (एलजीबीटीक्यू इत्यादि) को कंठस्थ करने की नहीं बल्कि उन्हें अंतस्थ करने की, उन्हें अंतराविष्ट करने की होगी…इतना तो हमें दिख ही रहा है।” पृष्ठ 96आलेख के अंत में थर्ड जेंडर विमर्श से सम्बंधित अंग्रेज़ी भाषा की उनतीस और हिंदी भाषा की नौ पुस्तकों की संदर्भ सूची लेखक के अध्ययन के विस्तारित आयामों को  दर्शाती है।
डॉ. रवीन्द्र कुमार पाठक का आलेख ‘भाषा की लिंग-संरचना और थर्ड जेंडर’ है जिसमें उन्होंने व्याकरण और भाषाविज्ञान का आधार लेकर तृतीय लिंगी समुदाय की भाषा और लिंग संरचना पर बात की है। सेक्स और जेंडर की अवधारणा में अंतर स्पष्ट करते हुए भाषा में लिंग, लिंग और जेंडर शब्दों की प्रयुक्ति, भाषा में सेक्स मूलक लिंग धारणा का विकास, द्विलिंगी ढाँचे की उलझनें, भाषिक व व्याकरणिक लिंग तथा इतरलिंगी समूह, इतरलिंगी समूह के वाचक और सम्बद्ध शब्द जैसे उपखंड विषय का अपेक्षित विस्तार करते हैं। अंत में तृतीय लिंग से सम्बंधित महत्त्वपूर्ण शब्दों की सूची भी प्रस्तुत की गई है। पुस्तक के अंत में नीरज साइमन जेम्स से संजना साइमन बनने वाली ट्रांसजेंडर वूमेन संजना की संघर्ष गाथा को ‘प्यार को प्यार ही रहने दो कोई नाम न दो’ साक्षात्कार के माध्यम से डॉ. फ़ीरोज़ खान ने कुल छत्तीस प्रश्नों में प्रस्तुत किया है।
थर्ड जेंडर विमर्श की अपनी विशिष्ट सांस्कृतिक परम्परा और ऐतिहासिक-सामाजिक चेतना है। साहित्य ने अपनी रचनात्मक संवेदना के संयोजन से इस संस्कृति शब्दांकन किया है। इसी क्रम में समालोचना इस उपलब्ध साहित्य की व्यापक सौन्दर्य चेतना से हमें जोड़ती है। एक प्रकार से समालोचना इस समुदाय पर आधारित साहित्य को आत्मसात् करने में और उसका प्रयोजनमूलक मूल्य स्थापित करने में सहायक सिद्ध होती है।इस क्रम में समकालीन रचनाशीलता के समानांतर समकालीन समालोचना भी अपना स्थान निर्धारित करती है।डॉ. एम. फ़ीरोज़ ख़ान द्वारा संपादित ये तीनों भाग थर्ड जेंडर विमर्श पर आधारित उपन्यासों से न केवल गहराई से परिचित करवाते हैं, अपितु विभिन्न विद्वान समीक्षकों के आलेखों के माध्यम से इन कृतियों के गुण-दोषों की विस्तार से विवेचना भी प्रस्तुत करते हैं।थर्ड जेंडर पर आधारित इन सभी उपन्यासों पर सम्यक् शोधात्मक और गवेषणात्मक दृष्टिकोण से संयोजित ये आलेख जेंडर विमर्श पर पुनरुत्थानवादी मानसिकता और सकारात्मक सोच दर्शाते हैं। प्रस्तुत तीनों भाग थर्ड जेंडर विमर्श के पाठकों और शोधार्थियों के लिए परम उपयोगी सिद्ध होंगे, ऐसा असीम विश्वास है। हमारे समाज में एक ओर जहाँ सामाजिक रूढ़ियों और परिपाटियों के बंधन हैं, वहीं दूसरी ओर स्थिति परिवर्तन की असाधारण गतियाँ भी हैं। सामाजिक वर्जनाएँ आज भी किन्नर जाति को लेकर एक रहस्य-सा निर्मित किए हुए हैं। समाज आज भी इनके प्रति दुराग्रह, निराशा, संदेह और संशय की दृष्टि से ही देखता है। ऐसे में इन उपन्यासों की विषयवस्तु इस रहस्यमयी दुनिया को देखने-समझने-जानने का एक नया दृष्टिकोण देती है और इनकी दुनिया से समाज को परिचित भी करवाती है।प्रस्तुत ग्रंथ में केवल व्याख्यात्मक समालोचना न प्रस्तुत करके विमर्श की विचारपरक आलोचना पर ध्यान दिया गया है। थर्ड जेंडर पर आधारित साहित्य को जिस सजगता और वैचारिकता के साथ पढ़ा-समझा जाना चाहिए, ये तीनों भाग उसी मार्ग पर अपने पाठक को साथ लेकर चलते हैं। अपनी सीमाओं में रहकर भी थर्ड जेंडर अतीत और वर्तमान के तीनों भागों की यही विशेषता है।
डॉ. नितिन सेठी
सी 231,शाहदाना कॉलोनी
बरेली (243005)
मो. 9027422306

22 टिप्पणी

  1. डॉ नितिन सेठी जी को इस अथक परिश्रम के लिए शुभकामनाएं यह सामग्री शोध छात्रों के लिए बहुत उपयोगी है ।
    सन्दर्भ ग्रँथ है यह तो ,एक विषय पर अनेक दृष्टिकोण का संग्रह बधाई
    Dr Prabha mishra

  2. ही बेहतरीन समीक्षा! शोधार्थियों एवं अन्य विद्यार्थियों के लिए अत्यंत उपयोगी।

  3. डॉ. नितिन जी ने बहुत अच्छी समीक्षा लिखी है। वैसे भी अच्छा लिखते है।
    थैंक्स

  4. Universal problems of subalterns are beautifully interviewed, critically analysed and then after woven in the word of truth dippen in their felt and lived experiences…..These books are valuable and assets to Common people and Researchers…,well done for this undefeated efforts….

    Ajit
    University of Delhi

  5. Universal problems of subalterns are beautifully interviewed, critically analysed and then after woven in the word of truth dippen in their felt and lived experiences…..These books are valuable and assets to Common people and Researchers…,well done for this undefeated efforts….

    Ajit

  6. बहुत ही अच्छा और सच्चा लिखते हैं आप भाई। किसी भी पुस्तक में इतनी गहराई से उतर जाते हैं कि सारा साहित्यिक परिदृश्य ही सामने आ जाता है। और सबसे अच्छी बात यह है कि बहुत ही शांति से बिना किसी शोर-शराबे के आपको लंबे समय से मैं काम करते देखता आ रहा हूं। आपके इसी तरह के और भी आलेख आगे भी आते रहने चाहिए।
    मां शारदा आप पर कृपा बनाए रखें।

  7. डॉ. नितिन सेठी और डॉ. फिरोज़ अहमद को सालों से पढ़ती आई हूं। डॉ. नितिन सेठी किसी भी ग्रंथ या पत्रिका की तह तक जाकर उसके महत्वपूर्ण अंशों को पाठक तक पहुंचाने के लिए अक्लांत परिश्रम करते हैं । इस विस्तृत लेख में आपने कई चर्चित और महत्वपूर्ण उपन्यासों तथा पुस्तकों की सारगर्भित समीक्षा प्रस्तुत की है। डॉ. अहमद सालों से थर्ड जेंडर की समस्याओं और तकलीफों को विमर्श के रूप में पाठकों तक प्रेषित कर रहे हैं । आप अपनी इस मुहिम में उत्तरोत्तर सफल हों, यही कामना करती हूं। इस रोचक और ज्ञानवर्धक लेख के लिए डॉ. सेठी को हार्दिक शुभकामनाएं

  8. आपके द्वारा की गई अनेक पुस्तकों की समीक्षाएं मैंने पढ़ी हैं।सभी में आपका समीक्षक नजरिया उभर कर आया है।क्यों कि ये पुस्तक हमारे प्रकाशन से प्रकाशित है इस लिए एक समीक्षक का क्या नजरिया है हमारी किता के लिए ये महत्वपूर्ण हो जाता है जानना।आपने पूर्व की भांति शानदार और खुलकर अपना नजरिया कलमबद्ध किया है।आपकी समीक्षा सराहनीय है।संपादक डॉ फ़िरोज खान जी और हमारी तरफ से आपको धन्यवाद।

  9. आपके द्वारा किन्नर विमर्श पर लिखी समीक्षा शोध छात्रों के लिए नई दृष्टि प्रदान करेगी आपको ढेरो बधाई

  10. नितिन जी आपकी शानदार समीक्षा कहन के आस्वाद में हिंदी समीक्षा का प्रतिमान निर्धारित करती हैं। किताब के अंत:सूत्रों को उद्घाटित करने और सम्यक वैचारिक अंतरंगता स्थापित करने का महनीय कार्य आपने किया है। आपको और फ़िरोज सर को सादर साधुवाद। पुरवाई को विशेष आभार!

  11. बहुत ही विषद रूप और सशक्त भाषा में उत्कृष्ट समीक्षक डाक्टर नितिन सेठी ने थर्ड जेंडर अतीत और वर्तमान की समीक्षा प्रस्तुत कर न केवल समीक्षा के नए प्रतिमान प्रस्तुत किए हैं अपितु समाज से अलग थलग पड़े व्यक्तियों को स्वाभिमान की नए पायदान भी दिए है। इस महती कार्य के लिए डाक्टर सेठी को हृदयतल से बधाई। पुस्तक की संपादक जाने माने लेखक और संपादक डाक्टर फिरोज को उनके भागीरथ प्रयासों की लिए जितना भी सराहा जाए वो थोड़ा ही रहेगा। संपादक और समीक्षक के अतुलनीय प्रयासों की लिए साहित्य समाज उनका ऋणी रहेगा।
    जी. पी.वर्मा

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