Saturday, July 27, 2024
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हरियश राय की कलम से – परमाणु विस्फोट के एक बड़े काल खंड को अपने में समेटता अवधेश प्रीत का उपन्‍यास : रूई लपेटी आग

अवधेश प्रीत का उपन्यास ‘रूई लपेटी आग’ हमें उस समय में ले जाता है, जब भारत ने सामरिक रणनीति के तहत राजस्थान के पोखरण में परमाणु विस्फोट किया था. उस समय किये गये परमाणु विस्फोट से पूरा देश गर्वित और उल्लसित था. अवधेश प्रीत ने उस समय की कथा को अपने उपन्यास में पिरोकर एक ऐतिहासिक यथार्थ की तस्वीर हमारे सामने कुछ इस तरह पेश की है कि इस यथार्थ में छिपी तबाही भी उजागर हो गई है.
हावर्ड फास्ट ने लिटरेचर एंड रियलिटी में लिखा है ‘’ जो कलाकार आज कला- सृजन का दावा करता है , उसे पड़ताल के हर क्षेत्र में सच उजागर करना चाहिए और हर क्षेत्र की पड़ताल में उसे तात्कालिक क्षण को ऐतिहासिक संपूर्णता के संदर्भ में देखना चाहिए और उसे सिर्फ सच ही नहीं बताना चाहिए, उसे झूठ को ध्वस्त करना चाहिए और जब यह बात समझ में आती है कि हमारे माहौल के कितने स्वीकृत रेशे झूठ से बुने हुए है , तब इस समस्या की विकरालता का अनुभव होता है.’’
भारत ने 1974 में पहला परमाणु परीक्षण किया था. उस समय केन्द्र में इंदिरा गांधी की सरकार थी. उस समय भारत सरकार ने यह घोषणा की थी कि परमाणु कार्यक्रम का उपयोग शांतिपूर्ण कायों के लिए होगा और यह परीक्षण भारत को ऊर्जा के क्षेत्र में आत्मनिर्भर बनाने के लिए किया गया. इस परमाणु परीक्षण को बुद्धा स्माइलिंग (बुद्ध मुस्करा रहे हैं) का नाम दिया गया. इसी क्रम में दूसरा परमाणु परीक्षण 11 मई 1998 को किया गया उस समय केन्द्र में अटल बिहारी बाजपेई की सरकार थी. इस परमाणु परीक्षण से भारत का नाम विश्व के परमाणु क्षमता वाले देशों की सूची में शामिल हुआ. भारत द्वारा किए गए परमाणु विस्फोट की एक तरफ पूरे विश्व में चर्चा हुई, वहीं दूसरी तरफ अमेरिका, जापान, कनाडा जैसे देशों ने भारत की कड़ी आलोचना की.
परमाणु विस्फोट व इससे उत्पन्न कई स्थितियों, संदर्भों व सरोकारों को अवधेश प्रीत ने अपने उपन्यास रूई लपेटी आग का प्रमुख विषय बनाया है. उपन्यास में अवधेश प्रीत परमाणु विस्फोट के चेहरे को विभिन्न कोणों से और वैज्ञानिक दृष्टि से देखते हैं. उपन्यास का कथानक बहुत ही कलात्मक तरीके से परमाणु विस्फोट और पंडित रामरतन रामायणी के परिवार की बेटी अरुंधति से जुड़ा है जिसमें कहीं कोई भटकाव नज़र नहीं आता. उपन्यास की कथा की शुरुआत अरुंधति के पखावज सीखने से होती है अरुंधति चाहती है कि वह पखावज बजाने में पारंगत हो और उसकी अपनी एक अलग पहचान बने, लेकिन उसकी मां उसका यह कहकर विरोध करती है कि ‘ पखावज मिरदंग बजाने का काम लड़की लोग का ना है.’  लेकिन उसके पिता पंडित रामरतन रामायणी इसका विरोध करते हुए कहते हैं कि ‘ऐसा किसी शास्त्र में नहीं लिखा है कि पखावज पुरुषों का वाद्य है. बाबा अपनी बेटी अरुंधति को सीख देते है कि ‘मेरी एक बात गांठ बाँध लो लड़की होने के नाते तो कभी किसी के सामने सर झुकाकर मत रहना, यह एक पिता की इच्छा नहीं यह एक गुरु का गुरुमंत्र है.’ इस गुरुमंत्र को अपनी चेतना का एक अभिन्न हिस्सा बनाकर अरुंधति पितृसत्तात्मक सोच से बाहर जाकर पखावज बजाना सीखती है और ख्याति प्राप्त पखावज- वादक के रुप में जानी पहचानी जाती है.
उपन्यास में परमाणु विस्फोट की केन्द्रीय कथा के समानान्तर अरुंधति और कल्लू उर्फ डॉ. कलीमुद्दीन अंसारी की प्रेम कथा भी है. इस प्रेम कथा में अरुंधति का पखावज के प्रति अथाह समर्पण है तो डॉ अंसारी के प्रति एक असीम राग है. इन दोनो का यह राग एक अंत:सलिला की तरह परमाणु विस्फोट की कथा में समाया रहता है. अवधेश प्रीत इस प्रेम कथा के माध्यम से परमाणु विस्फोट और संगीत को आमने-सामने रखते हुए संगीत को तवज्जो देते हैं. इसीलिए उपन्यास के अंत में जब पोखरण रेंज में आयोजित संगीत कार्यक्रम में अरुंधति के पखावज की थाप की धूम मच रही थी तो अरुंधति को टी. वी. पर देखकर, उन्हें ( कल्लू उर्फ़ डॉ. कलीमुद्दीन अंसारी ) पोखरण में परमाणु बमों के धमाके नहीं, पखावज की गूंज सुनाई दे रही थी. संगीत और बम के बीच घूमती इस कथा में प्रेम और जीवन के कई द्वंद्व मौजूद हैं. न तो अरुंधति और न ही कलीमुद्दीन अंसारी चाहकर भी अपने दिल की बात एक दूसरे को कह सके. उपन्यास के आखिर में अरुंधति को महसूस होता है कि वह कल्लू से अपने मन की बात क्यों नहीं कह पाई. क्या था जिसने उसे रोके रखा ? लड़की होने का संकोच, परिवेश का दबाव, अम्मा – अब्बा का मान सम्मान, समाज की मर्यादा क्या था जो उसे रोकता रहा ? अवधेश प्रीत बेहद कलात्मक तरीके से इस द्वंद्व को इस उपन्यास में रचा है.
कलीमुद्दीन अंसारी एअरोनोटिकल इंजीनियरिंग की पढाई पढ़ता है, नासा में ट्रेनिंग लेता है,  पोखरण में परमाणु विस्फोट कार्यक्रम को संचालित व नियंत्रित करता है और मानता है कि वह निजी तौर पर किसी भी हथियार के पक्ष में नहीं है लेकिन अगर वह यह काम नहीं करता तो कोई दूसरा वैज्ञानिक करता. और उसे राष्ट्रद्रोही करार दिया जाता. वह अपनी आत्मकथा में भारत के परमाणु कार्यक्रम पर अपनी दुविधा को व्यक्त करते हुए प्रधानमंत्री की इस बात पर अपनी सहमति जताता है कि देश की सम्प्रभुता सुरक्षा और सम्मान की रक्षा के लिए देश को न्यूक्लियर पावर बनना ही होगा. साथ ही उसे यह अफसोस होता है कि वह ऐउस मुल्क में पैदा हुआ जहां वेदों की ऋचाएं और कुरान की आयतें गलबहियां करती है. अब ये ऋचाएं और आयतें डराने लगी है .
उपन्यास पोखरण विस्फोट के साथ- साथ हमारे समय के व्यापक सच का बयान भी करता है और यह बयान मूल कथा के साथ -साथ कई अनुषंगिक कथाओं के माध्यम से करता है. इन सभी कथाओं में हमारे समय का विस्तृत समाज अपने अंतर्विरोधों के साथ मौजूद है. इन कथाओं में एक कथा कलीमुद्दीन अंसारी के पिता अबुल की है, जो अरुंधति के पिता पंडित रामरतन रामायणी के मित्र थे और जो बंटवारे के बाद अपनी मर्जी से पाकिस्तान नहीं गये. वह यहीं हिन्दुस्तान में रह गये क्योंकि वे इस देश को ही अपना घर समझते थे. इसी देश में उनके पुरखों की नाल गड़ी है उनके पुरखे इस देश की माटी में दफन है. बाबा को उसका कहा हुआ याद आने लगता है. कभी उन्होंने कहा था  ‘’ मैं कहीं नहीं जाऊंगा. मैं चला गया तो उनकी कब्रो पर फातिहा कौन पढ़ेगा.मां हो या मादरे वतन मैं नहीं बदल सकता.’’   वे अपने देश के प्रति इस आत्मीय लगाव  के कारण पाकिस्तान नहीं गये और इसी देश में रह गये.  कहने को तो उनकी मौत टीबी से हुई,  लेकिन हकीकत में उनकी मौत देश में बुनकरों की बर्बादी और तबाही के चलते हुई.  इस कथा के माध्यम से अवधेश प्रीत एक ओर राष्ट्रवाद के नये उभारों को समझते हुए हमारे समय में हो रहे बदलावों की शिनाख्त करते हैं तो दूसरी ओर बुनकरों की तबाही के कारकों पर ऊंगली रखते है.
उपन्यास में एक कथा गुनी की भी है जिसका पति पंजाब में मजदूरी के लिए जाता है और आतंकवादियों की गिरफ्त में आ जाता है. उसकी मौत के बाद मिलने वाले दो लाख का मुआवाज़ा गांव का मुखिया परमेसर हड़प जाता है. वह उसका दैहिक शोषण भी करता है और उसके बेटे राजन को भदोही के कालीन के कारखाने में भेज कर उसे तरह-तरह से प्रताडि़त करता है. एक दिन गुनी उसकी प्रताड़ना से मुक्त होकर अरुंधति के पास पहुंच जाती है. अवधेश प्रीत ने गुनी की कथा के माध्यम से हमारे समाज में स्त्रियों के दैहिक और मानसिक शोषण की दास्तां भी कही है.
बया और दीप जोशी की कथा पोखरण में परमाणु विस्फोट की कथा को एक नया विस्तार देती है. दीप का यह मानना कि चीन और पाकिस्तान परमाणु परीक्षण कर चुके हैं तो यदि हमने किया तो क्या गलत किया लेकिन अरुंधति उसके इस तर्क को खारिज करती हुई कहती है ‘’ अमेरिका की गुस्ताखी से जापान की कितनी नस्ले तबाह हो गई है, लेकिन जापान ने अपनी सुरक्षा के नाम पर कभी परमाणु बम बनाने की पहल नहीं की. वह परमाणु विस्फोट के पक्ष में दीप की हर दलील को खारिज करती है उसका मानना है कि देश – भक्ति और जातीय श्रेष्ठता सियासत के लिए सबसे ज्यादा मुफ़ीद हैं और परमाणु परीक्षण तो इसके लिए सोने पर सुहागा है जिससे भूख गरीबी शिक्षा स्वास्थ्य जैसे मुद्दे दरकिनार रहे. अवधेश प्रीत राष्ट्रवाद को केन्द्र में रखकर पोखरण विस्फोट के फैसले पर विचार करते है. राष्ट्रवाद के इस दौर में सफलता और ताकत हासिल कर अपनी पहचान विश्व स्तर पर दर्ज करना एक बड़ा मूल्य है. इस प्रवृति की पहचान अवधेश इस उपन्यास में करते हुए दिखाई देते हैं. उपन्यास  में अवधेश प्रीत परमाणु विस्फोट के जरिए झूठे राष्ट्रवाद की भावना को पोषित और पल्लवित  करने की सोच को भी खारिज कर देते है.
बया संगीत में अपने शोध के सिलसिले में दीप के साथ उदयपुर से नाथद्वारा मंदिर की यात्रा करती हैं. वहां उनकी मुलाकात ध्रुपद ,धमार और ख्याल गायकी के संगीत गुरु आचार्य राघवेन्द्र जी से होती है जो उन्हें बताते है कि नाथद्वारा घराने के पखावज वादन में ऊर्जा और ताकत का भाव है.  वे उन्हें नाथद्वारा परम्परा पर खेमलाल की लुप्तप्राय पुस्तक मृदंग सागर की पांडुलिपि देते हैं.
पोखरण विस्फोट का असर किस तरह वहां के सामाजिक जीवन पर पड़ा और इस दौर में राष्ट्रवाद की कैसी लहर उठी और किस तरह के विचारों को आगे बढ़ाया गया अवधेश प्रीत ने अपने इस उपन्यास के माध्यम से उनका समाजशास्त्रीय पाठ पाठकों के सामने रखा है.
अवधेश प्रीत अपने उपन्यास में  पोखरण विस्फोट की उन विषमताओं की ओर भी संकेत करते हैं जो इस विस्फोट से पैदा हुईं. बया और दीप राजस्थान के पोखरण का दौरा भी करते हैं जहां उन्हें चंदन बिश्नोई नाम का गाइड मिलता है जो उन्हें पोखरण विस्फोट स्थल से महज तीन किलोमीटर दूर खेतोलाई गांव में ले जाता है और वहां वह उन्हें ऐसे बच्चों से मिलवाता  है, जिन्हें परमाणु विस्फोट के कारण या तो ब्रेन टयूमर हो गया या ब्लड कैंसर हो गया. बया और दीप खेतोलाई गांव में  ऐसे लोगों के परिजनों से मिलते है, जिन्हें रेडिएशन के कारण कई तरह की बीमारियां हुई और जो असमय ही काल कवलित हो गये. उन्‍हें यह भी पता चलता है कि इन परमाणु विस्फोटों के कारण गायों के या तो मरे हुए बच्चे पैदा हुए या अंधे.  दोनो यह जानकर हैरान रह जाते है कि इलाके के पेड़ों पर भी रेडिएशन का असर हुआ और जो जानवर पेड़ के पत्ते खाते थे उनका दूध जहरीला हो गया, खेतों में खड़ी फसले सफेद हो गई, कुओं का पानी जहरीला हो गया, ऊँटों के बाल उड़ गये. वे नंगी देह को पेड़ों पर रगड़ते तो जगह-जगह घाव हो जाते और कई ऊँट तो खड़े-खड़े ही मर गये  और कई लोग विकलांग हो गये.
उपन्यास बहुत गहराई से यह सवाल सामने रखता है कि परमाणु विस्फोट के धमाके से जिन पर रेडिएशन का असर हुआ, जो मर गये, जो छूट गये जो पीछे रह गये और जो कैंसर जैसी जानलेवा बीमारी की चपेट में आ गये, उनकी चिंता कौन करेगा और उन पशुओं की चिंता कौन करेगा जिनके शरीर पर खून की धाराएं हैं जो पशु अंधे या मरे हुए पैदा हुए?
उपन्यास में अवधेश प्रीत ने राजस्थान के पोखरण और पाकिस्तान के बलोचिस्तान प्रांत के चगाई जिले में कोहे पहाडि़यों के बीच परमाणु विस्फोट के कई विवरण कलात्मकता के साथ दिये है. जिससे उपन्यास की गहरी विश्वसनीयता का एहसास होता है. अवधेश प्रीत ने अपने इस उपन्यास के लिए प्रामाणिक जानकारी कई स्त्रोतों से हासिल की है. उपन्यास में इस जानकारी को जिस तरह पिरोया गया है, उससे काल्पनिक घटनाएं भी ऐतिहासिक प्रतीत हाने लगती हैं. उपन्यास पढ़ते वक्त पोखरण में किये गये परमाणु विस्फोट के कई संदर्भ और घटनाएं हमारे समक्ष सजीव हो उठती हैं.
पोखरण में हुए परमाणु विस्फोट का जैसा विरोध भारत में हुआ था  वैसा ही विरोध पाकिस्तान के चगाई इलाके में हुए परमाणु विस्फोट का हुआ. उपन्यास में शकील बलोच एक ऐसा पात्र है जो पाकिस्तान के परमाणु विस्फोट कार्यक्रम का विरोध करता है. बया अपने शोध के सिलसिले में जब एक संगीत समारोह में जाती है तो उसका परिचय पाकिस्तान की शायरा फहमीदा रियाज से होता है. फहमीदा रियाज उसे बताती हैं कि ‘पाकिस्तान में ह्यूमन राइट एक्टिविस्ट शकील बलोच है, जो परमाणु धमाके के खिलाफ आवाज उठा रहे है. बया की उससे खतो- किताबत होती है और एक दिन उसे पता चलता है कि शकील बलोच की स्यालकोट जेल में मृत्यु हो गई. मृत्यु से पहले वह बया के नाम परमाणु विस्फोट के विरोध में अपनी एक नज्म  लिखकर भेजता है, जिसमें युद्ध के कारण शर्मसार होती इंसानियत के कई दृश्य है. इस नज्म को बंया  डॉ सुजन सिंह के सहयोग से पोखरण में पखावज के उत्सव कार्यक्रम में सुनाती है. इसी कार्यक्रम में अरुंधति बया द्वारा नाथद्वारा से लाई  खेमलाल की  मृदंग सागर  की पांडुलिपि को पुस्तक के रुप में प्रकाशित कर, उसका लोकार्पण करती है. वह बेहद क्षोभ और दुःख के साथ कहती है कि ‘’ जिस नाथद्वारा में पखावज परम्परा समृद्ध हुई, जहां सृजन की जड़े मजबूत हुई, उसी राजस्थान के इस पोखरण में विनाश को सरंजाम दिया गया और परमाणु बमों का परीक्षण किया गया. ‘’  वह दुनिया को अपने पखावज के माध्यम से यह संदेश देना चाहती हैं कि हमे बम नहीं, सृजन चाहिए.’
. अवधेश प्रीत परमाणु विस्फोट के यथार्थ के कई पक्षों को बहुत सहजता से पाठकों के सामने रखते है. उन्होंने अपने इस उपन्यास में परमाणु विस्फोट, उसके प्रभाव, राष्ट्रवाद, संगीत, प्रेम के आपसी संबंधों को केन्द्र में रखा है. उन्होंने बेहद गंभीरता और अंतर्दृष्टि के साथ इसके सभी पहलुओं को जानने और समझने की कोशिश की है. यह उपन्यास पोखरण में किए गये परमाणु विस्फोट पर ही नहीं है, बल्कि परमाणु विस्फोट के बहाने उस सोच को हमारे सामने रखता है जो अपने नतीजों में विस्फोटक से कम घातक नहीं है और जिनकी पहचान के लिए कोई कारक व्यवस्थित रुप से नहीं बनाए गए है
अवधेश प्रीत का यह उपन्यास परमाणु विस्फोट को लेकर हुई तमाम बहसों, विमशों, विचारों , अवधारणाओं को केन्द्र में रखता हुआ अंतत: कई सवाल हमारे सामने खड़ा करता है. उपन्यास का केन्द्रीय पात्र डॉ अंसारी देश में परमाणु अस्त्रों की जरुरत की वकालत करता है तो अरुंधति, बया दीप  परमाणु विस्फोट के बजाए  शांति और संगीत को तवज्जो देते हुए परमाणु युद्ध से होने वाली भयानक विभिषिकाओं को सामने रखते है और मानते है कि ‘हमें बम नहीं, सृजन चाहिए.’  परमाणु विस्फोटों से होने वाली तबाही और सृजन के बीच में खड़ा अवधेश प्रीत का यह उपन्यास रुई लपेटी आग हमारे समय की एक अनकही दास्तां को बयां करता है और बेहद तार्किकता के साथ परमाणु विस्फोट से जुड़े उन सभी  सवालों से भी टकराता है जो मनुष्यता और मानवीयता के लिए खतरा बन कर हमारे सामने हैं. उपन्यास परमाणु विस्फोटों के प्रभाव में आये उन लोगों की आवाज़ को भी उठाता है जो  असाध्य बीमारियों की चपेट में अनायास ही आ गये और जिनका जीवन कई आपदाओं के भँवर में फंस कर रह गया. अवधेश प्रीत का यह उपन्यास परमाणु विस्फोट के एक बड़े काल खंड को अपने में समेटता हुआ इक्कीसवीं सदी के दो दशकों में लिखे हुए उपन्यासों की श्रृंखला में एक मील के पत्थर की तरह हमारे सामने है.

हरियश राय
ईमेल : [email protected]
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