1 – धीरे-धीरे
धीरे-धीरे प्रेमभाव समाप्त हो जाएगा,
प्रेम की दबी-कुची इच्छा तो होगी
लेकिन वह अर्थशास्त्र के तिलिस्मी ग्राफों में फंसकर
शारीरिक सुख की चाहत को ही अपना ध्येय मान लेगी,
लोभ और इर्ष्या के मकड़जाल में उलझकर
लोग एक दूसरे को
घृणा और हिकारत की नजर से देखेंगे,
कुटिलता मुस्कान के पीछे नहीं छुपेगी
वह चेहरों पर साफ पढ़ी जाने लगेगी
और उसे निष्कपटता का सिंहासन मिलेगा,
लाज और शर्म अपना घूंघट चीर कर
आधुनिकता के नाम पर बीच चौराहे नंगा नृत्य करेंगे,
बचे-खुचे बुजुर्ग जिनके कंधों पर
सभ्यता और संस्कृति का कांवर रहेगा
और जिनके स्वरों में प्रेम की अमरता का पाठ होगा
यथास्थितिवादी और पागल सिद्ध कर दिए जाएंगे
उन्हें आधुनिकता और विकास विरोधी साबित कर
देशद्रोह के लिए आजीवन कारावास की सजा मुकर्रर की जाएगी,
धीरे-धीरे खत्म हो जाएगा
आशीर्वचन पाने की आतुरता
और स्नेहिल आलिंगन की व्याकुलता
हर मस्तिष्क पर छा जाएगी निराशा की बदली
आशा की किरण कहीं अंधकार में विलीन हो जाएगी
साहित्य को समाज से बहिष्कृत कर दिया जाएगा
और वह इतिहास की कब्र में कहीं दफन हो जाएगा।
2 – रहने दो नहीं सोना
रहने दो नहीं सोना, नहीं सोना दुपहरिया में,
कहीं दूर-बहुत दूर किसी गाँव में कोई माँ
भर दुपहरिया फटी धोती साड़ी से
सीलती होगी मोटी-मोटी कथरी
ताकि उसके बच्चे मुलायम बिस्तर पर सो सके।
रहने दो नहीं सोना, नहीं सोना दुपहरिया में,
कहीं दूर-बहुत दूर किसी गाँव में कोई माँ
भर दुपहरिया जांता में गेहूं पीसते-पीसते
खुद भी पिस गई होगी
ताकि रात में उसके बच्चे की थाली में हरियाली हो।
रहने दो नहीं सोना, नहीं सोना दुपहरिया में,
कहीं दूर-बहुत दूर किसी गाँव में कोई माँ
सड़क किनारे अपने बच्चे को ठोक सुला कर
ठेकेदार की कामलिप्सित नेत्र को
अपनी उघरी पीठ पर चुहचुहाई पसीने की बूंदों में
तैरती-महसूसती और-और जोर से कुदाल चलाकर
खोद रही होगी मिट्टी
ताकि उसके बच्चे भूख से मिट्टी न हो जाए,
और तुम कह रही हो मुझे सोने के लिए
रहने दो नहीं सोना, नहीं सोना दुपहरिया में।
3 – नए समाज में
आजकल सिर्फ चेहरा देखकर
लोग समझ लेते हैं इंसान
इसलिए पीता हूँ जूस भी
शराब की बोतल में ढ़ालकर
और गालों पर रगड़ लेता हूँ लिपस्टिक
खुद से ही
दो चार भद्दी गालियाँ तो होठों पर सजा रखी है
पान की लाली की तरह
और चढ़ा रक्खा है आँखों पर कामुकता का लेंस,
अजूबा लग रहा होगा आपको
अचानक यह रूपांतरण
लग रहा था कि वास्तव में
हो गया हूँ अप्रवासी
इस नए समाज में
अतः खुद को बदल लिया ऐसे
मानो फूलों के राजकुमार के सर सेहरा हो कांटों का,
हजम नहीं हो रहा है ये समाज
बची नहीं है ताकत मुझमें
कि बदल दूँ इस समाज को
कर दूँ अपने जैसा-अपने अनुकूल
पढ़ा था कहीं- पलायन निशानी है कायरता की
नहीं चाहता पुता दिखूं
अपने चेहरे पर कालिख
अतः समाज के अनुकूल होने का स्वांग रचता हूँ
दिखाना चाहता हूँ कि मैं भी यहीं बसता हूँ
जिससे कि इस नए समाज में मिल सके
मुझे भी यहाँ का आधार कार्ड।
4 – तुरुप का इक्का
सड़कें बीमार है
बीमार सड़कों पर गाड़ियों की खेती लहलहा रही है
आज के परिप्रेक्ष्य में
फसल का लहलहाना इस पर निर्भर नहीं करता
कि खेत कैसा है
बल्कि आपके जांघिये की जेब में कितना पैसा है,
गौर से सुनो
एक षडयंत्र रचा जा रहा है हमारे खिलाफ
हमारी सांसें हमसे छीनी जा रही है
हमारी भूख को बाजार का गुलाम बनाकर
हमारे आहार नाल से पाचन-तंत्र तक पर
आक्रमण किया जा रहा है,
हरी सब्जियां खतरनाक केमिकल्स का पर्याय बन गई है
दूध में यूरिया मिलाकर
हमारी अंतड़ियों पर छूरियाँ चलाई जा रही है
ये वही लोग हैं जो कभी
सभ्यता के नाम पर धर्म पर लोहा बजाते हैं
तो कभी समाज के नाम पर सड़कों पर दुदुंभी फूंकते हैं,
समाज के नाम पर सड़कों पर प्रदर्शन करना
एक छलावा है
हम जनता के लिए जनता हमारी है
इसका दिखावा है
वरण, ये संसद में जाने की सत्ता पाने की
सोची समझी साजिश है,
सड़क पर आमरण अनशन करने वाले
ये वही लोग हैं- जिनके
घेवर खाते ही तेवर बदल जाते हैं,
हम देख रहे हैं
स्वतंत्रता के बाद से ही
एक षडयंत्र रचा गया
पूंजीवादी सभ्यता के नाम पर
नफरतों और इर्ष्याओं की खेती लहलहाई है
जिसमें पसीनों की बूंदों से
चेहरे पर कांति नहीं आती
चेहरे की चमक
सिक्कों के खनक की समानुपाती हो गई है
सभी इस तिकड़म में लगे हैं
कि बुढ़ापे में भी
उसकी बीबी के चेहरे पर
नवयुवती की चमक हो
और उनकी छींक का भी
शहर के नामी अखबारों के पेज थ्री तक धमक हो
सावधान रहो
चंद सिक्कों के लिए
पेन की धारदार नींव तक से
तुम्हारे गर्दन हलाक किए जा सकते हैं,
क्योंकि
आज के परिवेश में
सिक्का- तुरुप का इक्का हो गया है।
5 – सूखी हुई लीक
मासूमियत भरे चेहरे पर
दो बड़ी-बड़ी आँखें
आँखों में आंसुओं की बूंदें
पलकों का बांध तोड़कर
धीरे-धीरे सरकती है
और पीछे छोड़ जाती है
गालों पर सूखी हुई लीक,
यह लीक हरवक्त दिलाती है याद
अपने परिवार के बचपन में हत्या की
तथा अपने बचपन के हत्या की,
यह लीक दिलाती है याद
अपने बचपन को लावारिश बन जाने की
तथा लावारिश बीते अपने बचपन की,
यह लीक याद कराती है
उस हिंसक भरे वातावरण की
तथा वातावरण को हिंसक बना देने वालों की
जिनके लिए कोई भेदक रेखा नहीं थी
अमीरी-गरीबी के बीच
बच्चे, बूढों और जवानों के बीच
पुरुषों और महिलाओं के बीच
और यहाँ तक कि
जिंदा और मुर्दा के बीच,
और टूटकर बिखर गया
बचे हुए बच्चों का बचपन
धूमिल हो गए
युवकों के पलकों पर सजे स्वप्न
घुटकर रह गए
बचे हुए बूढों के अरमानों का गले,
सूखी हुई लीक
बार-बार पूछती है प्रश्न
लंबे ऊँचे उड़ान में कैसे होंगे सहायक
हमारे कुचले हुए पंख
जिसमें वेदना है असंख्य।
बहुत उम्दा विवेक बाबू
Very good keep it up