पुस्तक – तुम्हीं से ज़िया है; ग़ज़लकार – सुभाष पाठक ‘ज़िया’; प्रकाशन – अभिधा प्रकाशन मुज़फ़्फ़रपुर; वर्ष – 2022; मूल्य- 300
समीक्षक
डॉ.रमाकांत शर्मा
अग़र आपको मेरी ही तरह पारंपरिक शाइरी से ज़रा अलग हट कर शाइरी की नई ज़मीन और नये आसमां के बीच आवाजाही का लुत्फ़ उठाना है तो एक बार गुज़र जाइये युवा शाइर सुभाष पाठक ‘ ज़िया ‘ के ग़ज़ल – संग्रह ‘तुम्हीं से ज़िया है ‘ की गज़लों से ।
ज़िया इस दर्द से गुज़र रहे हैं कि आजकल की शाइरी में कुछ भी नयापन नहीं है । ऐसा लगता है मानो ताज़गी ग़ायब होती जा रही है ।
इसी बात को लेकर युवा शाइर ज़िया अपने एक शेर में कहते हैं :
कुछ नया होता नहीं अब शाइरी में
तो वही रुख़सार , आँखें , लब कहूँ क्या!
इक ज़रा सी बात है यूँ ही समझ लो
इक ज़रा सी बात को अब सब कहूँ क्या!
इसीलिए अपने अहसास को ज़िया ने जिस खूबसूरती से अल्फ़ाज़ के लिबास पहनाए हैं कि ग़ज़ल के अशआर रंगीन रोशनी में मानो जगमगा उट्ठे हों।
ज़िया इस बात को अच्छे से जानते हैं कि अग़र कुछ हटकर कहना है तो बरसों से बंद पड़ी दिल और दिमाग़ की साँकल को खोलना ज़रूरी है।
अपनी एक ग़ज़ल में वे कहते हैं :
तू चाहता है जो मंज़िल की दीद साँकल खोल
सदायें देने लगी है उम्मीद साँकल खोल।
जब तक बंद पड़ी यह साँकल खुलेगी नहीं तब तक कुछ नया होना मुश्किल है।
यह शाइर अनकहे को सुन सकता है, अनदेखे को देख सकता है और अबोले को बोल सकता है । इस बाबत यह शेर देखिए :
जो कहा नहीं जो सुना नहीं वो समझ लिया वही कर दिया
कि ख़ामोशियाँ हुई हैं ज़ुबाँ यही ज़िन्दगी का सूकून है।
ज़िया अपनी ग़ज़ल को मुक़म्मल रूप देने के लिए अपनी चाहत यानी कि जाने ज़िगर से बस यही चाहता है कि :
मिसरे मेरे नसीब के हो जाएंगे ग़ज़ल
बस तू रदीफ़ बनके निभा काफ़िया का साथ।
तू माँगना ख़ुदा से मुझे इस यक़ीन से
बाती ने जिस यक़ीन से माँगा दिया का साथ।
सबसे बड़ी बात तो यह है कि शाइर ज़िया के हौसले बुलंद हैं । दुनियावाले कुछ भी कहते – करते रहें , ज़िया को इसकी तनिक भी परवाह नहीं। उसकी उड़ान हौसलों से होती है :
हमारे पर कतरने से न होगा कुछ
हमारे हौसले परवाज़ करते हैं ।
ज़िया की गज़लों से गुज़र कर ये दुनिया वाले ईर्ष्या करने लगे तो शाइर ने बहुत शालीनता से जवाब दिया :
वही मुझको नज़रंदाज़ करते हैं
जो कहते थे कि तुझ पर नाज़ करते हैं।
ज़िया की शाइरी को ऊँचाइयाँ उनके कथ्य ने ही नहीं बख़्शी , बल्कि यह सब तो उनकी कहन – कला का नतीजा है ।
इनके अश‘आर में प्रयुक्त क्रियाशील बिम्ब बहुत ही जबरदस्त बन पड़े हैं । मिसाल के तौर पर इस शेर को देखिए :
सूरज जब दिन की बातों से ऊब गया
परबत से उतरा दरिया में डूब गया ।
फूल न थे गुलशन में तितली क्यों आती
दीवाना क्या करता जब मेहबूब गया ।
दुनिया के बदले हुए हालात , मनुष्य , नेचर और जीवन को देखकर शाइर ज़िया को ऐसा अहसास होने लगता है कि कुछ नये अश‘आर शब्दों में ढलने वाले हैं ।
और उनका यह सोचना ग़ैर वाज़िब भी नहीं।
ज़िया कहते हैं :
नये ख़याल की आमद से ज़ेहन है रौशन
कि होंगे कुछ नये अश‘आर , दिल धड़कता है।
अपने तख़ल्लुस ‘ ज़िया ‘ का इस युवा शाइर ने बहुत ही खूबसूरत ढंग से इस्तेमाल किया है :
चाँद मत भूल इस हक़ीक़त को
तूने सूरज से ही ‘ ज़िया ‘ ली है।
आख़िर में , अपनी बात को विराम देने से पहले ज़िया के दो शेर आपकी ख़िदमत में पेश करने की मुझे इजाज़त दीजिए :
है अग़र तमन्ना उजालों की
तो हिफाज़त करो चरागों की
भूल मत जाना तुम ज़मीं अपनी
बात करते हुए सितारों की ।
मुझे पूरा यक़ीन है कि अदब की दुनिया में ‘ तुम्हीं से ज़िया है ‘ का खुले दिल से स्वागत होगा।