काव्याकृति; मूल्य : 250 रुपये; अक्स प्रकाशन, नई दिल्ली

प्रेम और सौंदर्य जब काव्यात्मक संवेदना का आकार ग्रहण करते हैं तो काव्‍याकृति जैसे काव्यसंग्रह का निर्माण होता है। काव्याकृति जानेमाने उद्योगपति और साहित्यकार श्री बी. एल. गौड़ का दूसरा काव्य संग्रह है जो उनके प्रथम काव्‍य संग्रह “थोड़ी से रोशनी” (2005) के प्रकाशन के लगभग एक वर्ष के अंतराल बाद ही प्रकाश में आया था। पेशे से इंजीनियर श्री गौड़ जितने बड़े उद्योगपति हैं उतने ही सहृदय और संवेदनशील कवि तथा रचनाकार भी हैं। अब तक उनके सात काव्‍य संग्रह और कई कहानी संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं।
कविता का कवि के जीवन के साथ गहरा संबंध होता है। कवि के लिए कविता महज कविता नहीं होती, जीवन की यात्रा होती है। इस यात्रा में पड़ाव होते हैं, प्रेम होता है, दर्द होता है, खुशी होती है, आंसू होते हैं, राग होता है। इन सभी में जीवन के विविध रूप, रंग और गंध हाते हैं। बी एल गौड़ के काव्यसंग्रह काव्याकृति में संगृहीत कविताओं में जीवन के विविध रंग अपनी पूरी भंगिमा के साथ उपस्थित होते हैं। परंतु अधिकाश कविताओं में प्रेम ही प्रधान विषय-वस्तु है। इसके इर्द-गिर्द उनकी सारी प्रकृति चेतना, स्मृतियां, मांसलता, उदासियां और अनुभव की यात्राएं हैं। इसलिए सही अर्थों में बीएल गौड़ प्रेम और सौंदर्य के कवि हैं। इस सौंदर्य में एक दर्द है। प्रेम की पीड़ा और अकेलेपन का अवसाद ही नहीं बल्कि कुछ और भी। इसमें जीवन की विडम्‍बना और जगत की विषमता के साथ-साथ और भी बहुत कुछ है।
यह काव्‍य-संग्रह बीएल गौड़ के विशाल जीवन अनुभवों और संवेदनाओं का कोलाज प्रस्तुत करता है। उनका अनुभव लोक अत्‍यंत व्यापक है और इसलिए उनकी कविता का फलक गांव से लेकर शहर तक, ग्रामीण किसान एवं खेत मजदूर से लेकर निर्माण मजदूर और निम्‍न वर्ग तक फैला है। उनकी कविताएं अतीत की सुखद स्मृतियों से लेकर वर्तमान हालात, व्यवस्था के खिलाफभ आक्रोश व निजी जीवन की पीड़ा, प्रेम, जीवन- दर्शन, गांवों की स्थिति, मजदूरों की दशा, बुजुर्ग विमर्श इत्यादि भी व्यक्त करती हैं। इसलिए उनकी कविताएं अपने पाठकों से संवेदना का विस्‍तार मांगती है।
काव्याकृति काव्‍य-वस्‍तु ही नहीं बल्कि रूप विचार की दृष्टि से भी विविधधर्मी है जिसमें कहीं गीत, कहीं कविता, कहीं गद्यात्‍मक स्‍वरूप लिए मुक्‍त छंद काव्‍य संगृहीत हैं। लोक संस्कृति और लोक तत्वों की छाया से भरे बी.एल गौड़ के गीतों और कविताओं में प्रकृति, विरह और सच्ची संवेदना का सच्चा रूप दिखाई देता है।
संग्रह का पहला ही गीत ‘हिमखंड’ उनकी काव्‍यात्‍मक संवेदना और सृजनशीलता का परिचय देता है। वह अपनी बीतती उम्र की तुलना गलते हिमखंड से करते हुए अपना क्षोभ प्रकट करते हैं कि गलते हिमखंड को तो नदी मिलती है और उसका जीवन सागर में मिलकर सार्थक हो जाता है परंतु मेरा जीवन क्षण-क्षण बीत रहा है और अभी मैंने ऐसा कोई बड़ा कार्य नहीं किया जिससे जीवन में संतुष्टि की प्राप्ति हो सके। गौड़ प्राकृतिक सौंदर्यवादियों के समान प्राकृतिक तत्वों के साथ सीधा संवाद करते हैं। इस गीत में प्रशांत महासागर में एक हिमखंड को संबोधित करते हुए वह कहते हैं:
“ऐ हिमखंड गलो मत ऐसे जैसे मेरी उम्र गली”।
इस पंक्ति में गलना शब्द उनकी उस पीड़ा को गहरा कर देता है जो उम्र बीत जाने पर किसी सपने के अधूरे रह जाने के कारण उत्पन्न हुआ हो। गीत की प्रथम पंक्ति से ही यह स्‍पष्‍ट है कि अनुभव की किस गहराई से यह रचना उद्भूत हुई है। गीत की विभिन्‍न अंतराओं में क्रम है और ऐसा लगता है कि गीतकार अपने अस्तित्‍व और व्यक्तित्‍व की भीतरी रचना को कई तहों में क्रमश: खोल रहा हो। गीत के आरंभ में कुतूहल और विस्‍मय तथा प्रकृति और मनुष्‍य के बीच द्वंदात्‍मक संबंध उनके गीत चित्रों और ध्‍वनियों दोनों को वहन करते हैं। इस गीत में आत्‍माभिव्यंजना का पुट अधिक प्रतीत होता है लेकिन साथ ही आत्‍मा के साथ प्रकृति का अनोखा तादाम्‍य भी दिखाई पड़ता है।
श्री बी. एल. गौड़ की कविताएं कई बार उनके जीवन की अपूर्णता का अहसास कराती हैं मानो कोई पीड़ा, कोई अधूरापन, कोई अवसाद मन को घेरे हुए हो। ‘मन’ कविता में उनके मन की बेचैनी साफ झलकती है। वह कहते हैं –
मन तू इतना पागल क्‍यों है,
हर पल रंग बदलता क्‍यों है;
क्‍यों तू फिरता मारा-मारा,
पारे सा तू चंचल क्‍यों हैं?
अधूरेपन के अहसास को इन पंक्तियों में भी पूरी शिद्दत से महसूस किया जा सकता है:
ईंट, पत्‍थर, काठ, कंकड़
से बनाए घर बहुत,
पर न जाने क्‍यों स्‍वयं का
घर अधूरा ही रहा।
श्री बी. एल. गौड़ की काव्‍यानुभूति कुछ हद तक लोकधर्मी भी है। उनकी कविताओं और गीतों में मौजूद यह गुण लोक जीवन से उनके जुड़ाव के कारण है। उनके काव्यमूल्य उनके जीवन मूल्यों की ही पुनर्रचना हैं।
‘जंग’ कविता में वह शब्दों को नाप तौल कर बोलने की सलाह देते हैं। शब्द ही विद्वेष और कलह का कारण बनते हैं जिसकी परिणति कई बार जंग के रूप में होती है। शब्दों के सहारे वह अतीत में लौटते हैं। वे “शब्द जो देते हैं पीड़ा प्रसव की सी। पर ये शब्द उनके हैं जिन्होंने इस पीड़ा को जन्मा था।” वे उन्हें अब भी याद दिलाते हैं उन पलों की जिन्हें कवि ने दरख्तों के घने साये में साथ बैठकर गुजारा था।
निर्माण क्षेत्र में काम करने वाले मजदूरों की व्यथा को बीएल गौड़ ने पूरी शिद्दत के साथ महसूस किया है और उस व्यथा को अपनी कविता ‘कल्पित सुख’ में बड़े ही मार्मिक ढंग से व्यक्त किया है। ‘युद्ध’ कविता में उस व्यवस्था के खिलाफ विद्रोह का भाव है जिसमें तमाम मुश्किलों के बावजूद जीना इनसान की नियति है। ‘भीतर भी बाहर भी’ कविता क्षरण होते मानवीय मूल्यों और संवेदनशून्यता की ओर इशारा करती है।  ‘यह शहर क्या है’ शहरों की हृदयहीनता और संवेदनशून्यता को पुरजोर ढंग से व्यक्त करती है, “यह शहर क्या है, कत्लगाह के सिवा, अब देखिये आपकी बारी है कब।” ‘इस तीर से उस तीर तक’ में वह अतीत की स्मृतियों में बार-बार लौटते हैं- अपने गांव, अपने बीते दिनों में, अपने सुख के सपनों मे। बचपन को बचाने की गुहार वह ‘बच्चे’ कविता में करते हैं। ‘आज मेरे जीवन के कुछ दिन’, ‘सूना घर, सूना आंगन’,  ‘भूले बिसरे’, ‘गंध माटी की’, ‘बिंब प्रतिबिंब’ और अन्य कई कविताएं उनकी अपनी सुखद स्मृतियों में ले जाती हैं। ‘मैं और वह’ कविता में उनके अपने के खोने की मर्मांतक पीड़ा और वेदना सिक्त हृदय की कराह सुनाई पड़ती है। जीवन में धूप छांव, हर्ष विषाद, जन्म मृत्यु, सुख- दुख अनिवार्य सत्य है और यह सत्य ‘एक दीप जल रहा’ में दृष्टिगोचर है।
इस प्रकार श्री बी. एल. गौड़ ने अपने काव्‍य संग्रह काव्‍याकृति में अपने व्‍यापक जीवनानुभवों को पूरी शिद्दत के साथ प्रकट किया है। भा
सहजता उनके काव्‍य का प्राण है। परंतु अपनी कविता को बोधगम्य बनाते हुए वह अपनी अनुभूति की विशिष्टता को भी सुरक्षित रखते हैं। कविता में संगीत के साथ चित्र आए, इसका भी वह विशेष ध्यान रखते हैं और यह उनके कई गीतों में दिखता है। उनकी कविताओं की भाषा सरल और सहज है। भाषा में चित्रात्मकता है। इन कविताओं में न तो तत्सम शब्दों की बहुलता है न ही ऊर्दू लफ्ज़ों की भरमार। हर कविता में सामान्य बोलचाल की भाषा का प्रयोग हुआ है। कह सकते हैं कि काव्याकृति आमजन की ज़ुबान में लिखी प्रेम और सौंदर्य की कविताओं का संग्रह है।

समीक्षक : तरुण कुमार
सहायक निदेशक
ग्रामीण विकास मंत्रालय, नई दिल्ली

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