पुस्तक – बातों बातों में; विधा – जीवनी बासु चटर्जी (बासु दा); लेखिका – अनिता पाध्ये
प्रकाशक – अमन प्रकाशन; समीक्षक – तेजस पूनियां; मूल्य – 250/-
भारतीय सिनेमा में सार्थक सिनेमा बनाने वाले निर्देशकों में सत्यजित रे, बासु भट्टाचार्य आदि जैसे बंगाली फिल्म निर्देशकों का स्थान हमेशा अव्वल रहा है। लेकिन इन्हीं लोगों की पंक्ति में एक ओर नाम था ‘बासु दा’ यानी ‘बासु चटर्जी’ का। सिने लेखिका तथा कई सिनेकारों पर प्रमाणिक लेखन करने वाली लेखिका ‘अनिता पाध्ये’ की नई कृति ‘अमन प्रकाशन’ कानपुर से आई है। इस बार उन्होंने बासु दा की जीवनी को लिखा है। एक ऐसे सिनेकार जो सार्थक सिनेमा गढ़ते थे। अपने समग्र जीवन काल में करीबन पैंतीस फिल्मों और आधा दर्जन से अधिक धारावाहिकों एवं टेली फिल्म बनाने तथा उन्हें लिखने वाले बासु दा ने कुछ बंगाली फिल्मों का भी निर्माण किया था। उनके सिनेमाई योगदान को देखते हुए उन्हें कई सम्मानों से भी नवाजा गया था। 
पहले बात करें उन्हें मिलने सम्मानों की तो फिल्म ‘सारा आकाश’ के लिए साल 1972 में सर्वश्रेष्ठ पटकथा हेतु मिला। इसके अलावा फिल्म ‘रजनीगंधा’ (1991), ‘छोटी सी बात’ (1976), ‘चितचोर’ (1977), ‘स्वामी’ (1978), ‘जीना यहाँ’ (1980), कमला की मौत’ (1991), ‘दुर्गा’ (1992) के लिए क्रमशः ‘फिल्म फेयर क्रिटिक्स’, फिल्म फेयर सर्वश्रेष्ठ पटकथा’, फिल्म फेयर सर्वश्रेष्ठ निर्देशन’, राष्ट्रीय फिल्म पुरूस्कार (परिवार कल्याण) तथा ‘लाइफ टाइम अचीवमेंट’ (2007) से नवाजा गया। अब बात उनकी जीवनीपरक इस पुस्तक पर शुरू करने से पहले ‘बासु दा’ के सिनेकर्म को समझने के जरूरी इरादे से फिल्मों पर बात हो ‘बातों बातों में’। सारा आकाश, पिया का घर, उस पार, रजनीगंधा, छोटी सी बात, चितचोर, स्वामी, सफेद झूठ, प्रियतमा, खट्टा-मीठा, चक्रव्यूह, दिल्लगी, तुम्हारे लिए, दो लड़के दोनों कड़के जैसी लीक से हटकर और सिनेमा को नये स्तर पर ले जाने वाली समझ भरी फिल्मों की पटकथाएं लिखीं तथा उन्हें फिल्माया।   
जैसा कि इस किताब के बारे में लिखते हुए फिल्म दुनिया से जुड़े चर्चित चेहरे ‘कमलेश पांडे’ लिखते हैं ‘बिमल दा’ के बाद शायद ‘बासु दा’ पहले निर्देशक थे जिन्होंने साहित्य को सिनेमा में लाने का सफल प्रयास किया। बासु दा अपनी फिल्मों के पटकथा और संवाद खुद लिखते थे। जितनी देर में शरद जी एक सीन लिखते थे उतनी देर में बासु दा बारह सीन लिख चुके होते थे। संवादों का चुटीलापन शरद जोशी की विशेषता थी मगर बासु दा के संवादों में उनके कार्टूनिस्ट का अलग रंग होता था। संवादों में ही नहीं, शूटिंग में भी बासु दा ने अपनी फिल्मों को सेट के बंधन से मुक्त किया और उन्हें आउटडोर की ताज़ी हवा में सांस लेने दिया। कमलेश पांडे की लिखी बातें बासु दा के बनाये सिनेमा को एक अलग पुष्टि इस तरह प्रदान करती ही है साथ ही ‘बातों बातों में’ जीवनी की लेखिका ‘अनिता पाध्ये’ के सिने लेखन को भी पुष्टि प्रदान करती है। 
भारतीय सिने उद्योग आज विश्व का सबसे बड़ा उद्योग बन चुका है और इसके बनने के पीछे बासु दा जैसे सिनेकारों का ही हाथ है, कहा जाए तो भी कोई बड़ी बात नहीं होगी। फिल्मों की सारगर्भित लम्बाई, उन्हें बनाने की समझ और उसमें निहित साहित्य जो आज लगभग नदारद नजर आता है वह तब के सिने शैदाईयों के सर चढ़कर बोलता था। समीक्षित पुस्तक ‘बातों बातों में’ सिनेकार बासु को करीब से जानने समझने का एकमात्र अवसर देती है। बासु पर इससे अधिक प्रमाणिक शायद ही लिखा गया होगा तथा शायद ही लिखा जा सकेगा। यह पुस्तक बताती है बासु दा के हवाले से ही कि वे एक सच्चे, सृजनशील लेखक, निर्देशक थे। साथ ही वे उससे कहीं ज्यादा मानवीय धरातल से जुड़े हुए संवेदनशील इंसान भी थे, जो आज के अतिभौतिकवादी युग में माया नगरी मुम्बई में तो क्या कहीं भी मिलने जैसे दीया लेकर ढूंढने निकलने वाली बात हो। कोई इंसान जब अपनी कला तथा अपनी क्षमताओं को जानते हुए उस दिशा में समर्पित भाव से संवेदनशीलता लिए हुए आगे बढ़ता है तो एक न एक दिन उसे वह सम्मान अवश्य मिलता है जिसका वह अधिकारी होता है। फिर यहाँ बशर्ते यह जुड़ जाना भी लाजमी सा प्रतीत होता है कि उसे वह सम्मान उसके जीते जी उसे मिले तो वह भी उससे ओर अधिक प्रेरित हो सके। 
सिनेमा, साहित्य, समाज में ऐसे हजारों उदाहरण आपको-हमें मिल जायेंगे जिसमें उन महान लोगों को दुनिया ने महान तब बनाया या समझा जब वे इस फानी दुनिया से कूच कर गये। इस बात में बासु दा अवश्य सौभाग्यशाली कहे जा सकते हैं। लेकिन जब वे इस जीवनी को लिखे जाने की प्रक्रिया में बताते हैं कि – “विनोद मेहरा, मौसमी चटर्जी, जलाल आग़ा, सचिन दा, सबसे बात पक्की हो चुकी थी। अब सुरेशचन्द्र धनराशि देने के लिए आनाकानी करने लगे…. आखिर मैंने पांच हजार रूपये हुंडी से ऋण के रूप में लिए और फिल्म शुरू की। मेरी आर्थिक स्थिति सामान्य थी। पैसा न होने की वजह से पूरी फिल्म मुझे कर्ज लेकर बनानी पड़ी। शूटिंग करते हुए पूरे समय कर्ज चुकाने की चिंता मन पर हावी रहती। किस तरह फिल्म जल्द से जल्द पूरी करके प्रदर्शित करूँ, पैसा बचे और कर्ज से मुक्ति पाऊं इसी विचार के चलते मैं फिल्म की ओर ठीक से ध्यान भी न दे पाया। शायद यही वजह है कि मैं यह फिल्म अच्छी तरह नहीं बना सका, इस बात का मुझे आज भी मलाल है।” बासु दा का यह कहना माया नगरी मुम्बई का ही नहीं बल्कि इस दुनिया में विचरण कर रहे इस तरह की मानसिकता के हर व्यक्ति की ओर इशारा है। जिसके चलते बहुधा सृजनात्मक, सजृनशील अथवा सृजनधर्मी लोगों को भी मलाल ही नहीं गहरा दुःख भी होने लगता है। हालांकि ऐसे कई वाकये बासु दा के साथ गुजरे जिनका जिक्र उनकी इस जीवनी में मिलता है।
इस पुस्तक की भूमिका में लेखिका स्वयं जब यह कहती है कि “बासु दा… बासु चटर्जी…. फिल्म जगत के एक सृजनशील लेखक और निर्देशक, जिन्होंने बरसों बरस सुरुचिपूर्ण, खूबसूरत, सीधी-सादी फिल्मों का निर्माण किया… उनकी जीवन यात्रा के विषय में पुस्तक लिखने की जरूरत ही क्या है? क्यों है?” यह सवाल तो वाजिब ठहरता है लेखिका किन्तु साथ ही पाठक यह भी इस जीवनी को पढ़ते हुए भली प्रकार समझ पाता है कि आखिर क्यों इसकी जरूरत थी। यह पुस्तक बहुत से ऐसे बासु दा के जीवन से जुड़े, उनके साथ फ़िल्मी जगत से जुड़े राज भी सामने लाती है जिनके बारे में अभी भी बहुत कम लोगों को मालूम है।
यह सच है कि जैसा लेखिका कहती है कि उन्होंने (बासु दा) ने – “मनोरंजन के नाम पर कभी अश्लीलता का सहारा नहीं लिया। सस्ते, फूहड़, शारीरिक स्तर के हास्य-विनोद को अपनी फिल्मों में स्थान न दिया। लेकिन बोल्ड और प्रगल्भ विचारों की ओर इंगित अवश्य किया। अपनी पहली फिल्म ‘सारा आकाश’ से ही उन्होंने यह राह अपनाई।” यह सच है कि वे अपने समय से कहीं आगे की सोच रखते थे और वही उनके जीवन तथा सिनेमा में नजर भी आता है। यही वजह है कि उनकी फ़िल्में आज भी देखीं, समझी, सराहीं जाती हैं तथा सामाजिकता, परम्पराओं के मामले में भी नयी सोच प्रदान करती है। सिनेमा जगत में आने से पूर्व  ‘ब्लिट्ज’ नामक समाचार पत्र में बासु बतौर फ्रीलांसर कार्टूनिस्ट काम करके करीब दो हजार रूपये तक की कमाई किया करते थे। लेकिन जब एक फ्रांसीसी फिल्म ‘अ मैन एंड अ वूमन’ नामक एक प्रेमकथा पर बनी फिल्म ने उन्हें भीतर से प्रेरित किया तो उसी समय कायदे से उनके भीतर का सिनेकार जन्म ले चुका था। इसके बाद उन्होंने तकनीकी ज्ञान हासिल किया और इस राह-ए-सफर की मंजिल में उन्हें कई तरह के लोगों से साबका पड़ा।  जीवन को धरातल से जुड़े हुए वे जीते गये और उसी धरातल से जुड़े रहकर उन्होंने जो फिल्म निर्माण किया वह आज दर्शक देख ही रहे हैं। 
ऐसा नहीं है कि बासु दा अपनी इस जीवनी में केवल अपने बनाये सिनेमा से जुड़े ही किस्से सुनाते-बताते हैं बल्कि साथ ही इसके वे निर्देशन की कला की समझ भी सिने पाठकों के भीतर भरते जाते हैं। उनका मानना था कि – “मेरा व्यक्तिगत विचार है कि निर्देशन कोई किसी को सीखा नहीं सकता। अत: बासु (भट्टाचार्य) से कुछ सीखने की मुझे जरूरत ही नहीं पड़ी। मुझे केवल तकनीकी जानकारी चाहिए थी, जो मैंने इस फिल्म के निर्माण के दौरान धीरे-धीरे हासिल कर ली।”  शैलेन्द्र से जुड़े किस्से, लेखक राजेन्द्र यादव से जुड़े किस्से, मन्नू भंडारी से जुड़े किस्से, कमलेश्वर, राज श्री प्रोड्क्शन, सलिल चौधरी, राजन यादव, नंदिता ठाकुर, दीना पाठक, लक्ष्मीकांत प्यारेलाल, जया भादुड़ी, मौसमी चटर्जी, अमोल पालेकर, विद्या सिन्हा, जरीना वहाब, शबाना आजमी, अशोक कुमार, राजेश रोशन, अमिताभ बच्चन, बिंदिया गोस्वामी, राजेश खन्ना, नीतू सिंह, धर्मेन्द्र, हेमामालिनी, विक्रम, सूरज बड़जात्या, अजित कुमार बड़जात्या आदि जैसे सैंकड़ों चर्चित चेहरों से जुड़े किस्से भी इस जीवन में अपनी जरूरत के अनुसार सही मौकों पर पाठकों के समक्ष खुलते जाते हैं।
पहली रंगीन सिनेमास्कोप फिल्म से लेकर, फिल्मों के हिट होने उनकी जुबली बनाये जाने तथा उनके पर्दे पर ख़ास कमाल न कर पाने के भी भरपूर किस्से इस जीवनी में उसी ईमानदारी से पन्ने-दर-पन्ने खुलते जाते हैं जिस ईमानदारी से सिनेमा के परदे पर बासु दा का बनाया सिनेमा खुलता जाता है। अपने आप में सिनेमा जीने वाले निर्देशक की यह जीवनी हालांकि प्रूफ रीडिंग की कुछ कमियों के चलते आपका ध्यान दूसरी तरफ भी मोड़ती है बावजूद इसके इसे पढ़ा जाना चाहिए हर उस  सिने प्रिय को, हर उस सिने शैदाई को जो बासु दा जैसा सिनेमा बनाने की ख्वाहिश रखता है। यह जीवनी बासु की जुबानी एक कड़वा और जरूरी सच भी सिनेमा बनाने वालों को दे जाती है जब बासु कहते हैं – “मैंने कभी फिल्म का मुहूर्त नहीं किया। मेरा इन बातों में विश्वास न था यदि फिल्म में दम हो तो फिल्म किसी भी दिन शुरू की जाए, जरूर चलेगी भारतीय फिल्म जगत में मुहूर्त और मुहूर्त के शॉर्ट का आयोजन बहुत जोर शोर से, उत्साह से किया जाता है। मानों दीपावली का त्यौहार हो। मेरा विचार है कि फिल्म पूरे मनोयोग से बनाई जाए, मेहनत और ईमानदारी से बनाई जाए।फिल्म की सफलता-असफलता के बारे में कोई भी अनुमान नहीं लगा सकता। भगवद्गीता का कथन ‘मेहनत करो, फल की इच्छा मत करो’ फिल्म जगत पर पूरी तरह लागू होता है। शुभ मुहूर्त, शुभ दिवस, होम-हवन के बाद भी फिल्म बॉक्स ऑफिस पर सफल हो, यह निश्चित नहीं होता। फिर इस चक्कर में क्यों पड़ा जाए?” बासु दा यह कहा हुआ फलसफा जीवन को अलग तरह से देखने, जीने का भी फलसफा प्रदान करता है साथ ही सिनेमा जैसी विधा जिसमें हर निर्देशक कम से कम समाज, देश के नागरिकों की सोच बदलने तथा उसे प्रगतिशील बनाने का काम करता है उन्हें भी खुद के भीतर वे बदलाव लाने की बात भी करते नजर आते हैं।   

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