समीक्षक
विजय कुमार तिवारी
कविता सुखानुभूति से अधिक पीड़ित मन से जुड़ती है,तब उसका आलोक कहीं अधिक प्रकाशित होता है,प्रकाशित करता है और लोगों को,पाठकों को झकझोरता है। कविता में अभिव्यक्त हुई पीड़ा सबको अपनी ओर खींचती है,स्वयं से जोड़ती है और मुक्ति का मार्ग दिखाती है। मुक्ति ना भी मिले,तो भी जीने का सम्बल देती है। कविता और बड़ा-बडा काम करती है तथा मानवता को ऊर्ध्व का ज्ञान देती है। कविता प्रश्न करना बताती है,उत्तर की तलाश करती है और संघर्ष करती,करवाती है। कविता के प्रश्न सनातन या पौराणिक काल से लेकर समकालीन तक की समस्याओं,संघर्षों और यातनाओं से जुड़ते हैं। नारी पीड़ा,नारी प्रताड़ना के हर स्वरुप को कविता पूरी जीवन्तता से उठाती है। इतिहास गवाह है,ऐसे प्रश्नों के उत्तर ना तो तत्कालीन समाज ने दिया होता है और ना परवर्ती काल में खोजा जा सका है। यह बहुत बडी विडम्बना है,हम तमाम तरीकों से उन्नत होते गये हैं परन्तु नारी सम्बन्धी बुनियादी चिन्ताएं ज्यों की त्यों हैं या नित्य प्रति उलझती गयी हैं। समाजशास्त्रियों,अर्थशास्त्रियोंया मनोवैज्ञानिकों ने खूब चिन्तन मनन किया है,फिर भी समाधान नहीं दिखता। यह काम साहित्यकारों द्वारा सहजता से होता है और दुनिया भर के कवि,लेखक लगे हुए हैं। जीवन की समस्याओं के उत्तर बहुत हद तक साहित्य में मिलते हैं,यही कारण है कि हर काल में साहित्यिकों ने दुनिया को दिशा दी है,मार्गदर्शन किया है।
डा० प्रतिभा सिंह एक ऐसी ही कवयित्री हैं जिनके मन-चिन्तन में बहुतायत प्रश्न हैं,बेचैनी और छटपटाहट है। उनके द्वारा रचित नवीनतम काव्य संग्रह “पंचकन्या” ने नये सिरे से पौराणिक आधार लेकर दुनिया के सामने प्रश्न खड़ा किया है। ये वही अनुत्तरित प्रश्न हैं जिन्हें सदियों से टाला जाता रहा है और अब ये कवयित्री के मन में तीखे और तीक्ष्ण हो चुके हैं। कविता की धार देखिए,आप चमत्कृत होकर रह जायेंगे,सोचने के लिए मजबूर होंगे और प्रतिभा सिंह की कविता के साथ खड़े होते जायेंगे। किसी कवि या कवयित्री के लिए यह गौरव की बात है।
राजस्थान के कवि आलोचक डा० संदीप अवस्थी जी ने इस काव्य संग्रह की सारगर्भित भूमिका लिखी है। उन्हें मैं बधाई देता हूँ,उनकी भूमिका ने मेरा काम बहुत सरल कर दिया है। उन्होंने नारी मन के अन्तर्द्वन्द की प्रमुखता से चर्चा की है,सब अपने हैं,पिता हैं,भाई या पुत्र हैं,प्रश्न करें या ना करें,उत्तर मिल भी पायेगा या नहीं,उत्तर सम्यक या सत्य के धरातल पर होगा या नहीं। नारी डरती रहती है, संकोच करती है,इस उत्तर के चक्कर में सब कुछ उजड़ तो नहीं जायेगा। हमारे समाज की विडम्बना देखिए,जिसे सृष्टि में सृजन का दायित्व मिला है,वही कटघरे में खड़ी है,वही अनादृत,तिरस्कृत है और कोई सहारा देने वाला नहीं है। उसे किसी भी काल-खण्ड में ना तो सम्यक उत्तर मिला और ना ही पर्याप्त सहारा। फिर भी वह सृजन में लगी रहती है,जुड़े लोगों का संसार बसाती है और दुनिया को अपना श्रेष्ठ प्रदान करती है। वह बदले में बहुत कुछ नहीं चाहती,उसका स्वभाव ही है संतोष करना, मितव्ययी होना,करुणा-स्नेह देते रहना और सुखद संसार देना। नारी के इस औदार्य का सम्मान होना चाहिए।
डा० अवस्थी जी लिखते हैं,”प्रस्तुत काव्य संग्रह में प्राचीन इतिहास के पन्नों की पांच कन्याएं,स्त्रियाँ अपनी सच्चाई को यथार्थता के साथ बयान दर्ज कराती हैं और इस बार उन्हें न्याय या मुंसिफ का इंतजार नहीं है बल्कि वह अपनी कारा तोड़कर,अपनी शिला को हटाकर हमारे सम्मुख केवल यथार्थ रखती हैं।” स्वयं डा० प्रतिभा सिंह ने नारी के प्रति सैद्धान्तिक व व्यावहारिक पक्षों की विवेचना की है और अन्तर्द्वन्द के मुद्दों पर अंगुली रखा है। उनके स्वर के तेवर तीखे हैं और उनके प्रश्नों से उलझना किसी के बस की बात नहीं है। भिन्न तरीके से देखा जाए तो उनका आक्रोशपूर्ण चिन्तन गलत नहीं है परन्तु यही पूर्ण सत्य नहीं है। कई बार जो दिखता है,वह सच नहीं होता और अनेकों सच हम देख नहीं पाते। इस रहस्य को समझने के लिए हर चिन्तक को संतुलित होना पड़ता है। संसार में जो कुछ हो रहा है,उससे प्रभावित होकर अक्सर हम प्रतिक्रियाएं करते हैं। इससे हम एक पक्ष हो,दूसरे के सामने खड़े दिखाई देते हैं। साहित्यकारों,चिन्तकों को इससे बचने की जरुरत है।
भगवत शरण उपाध्याय,राहुल सांकृत्यायन जैसे साहित्यकारों ने स्त्री की विकास यात्रा को समझने की कोशिशें की है। उपाध्याय जी की “खून के छींटे इतिहास के पन्नों पर” पुस्तक में ‘नारी’ शीर्षक से लेख है। आदिम समय में,पाषाण काल या उससे भी पहले नारी ही सत्ता के शीर्ष पर थी। उसी का वर्चस्व था। उसे अपदस्थ कोई नारी ही करती थी। “बोल्गा से गंगा तक” राहुल सांकृत्यायन जी के उपन्यास मे ऐसे अनेक प्रसंग हैं। प्रश्न यह है कि उसका बदलाव कैसे होता गया कि आज वह वर्तमान दशा तक पहुँच गयी। लगता है,उसने संघर्ष करना छोड़ दिया,सुविधाभोगी होती गयी। पुरुष ने उसके लिए कविताएं लिखी,उसके सौन्दर्य के प्रतिमान गढ़े,उसके लिए सुख के साधन जुटाए और प्राणों की आहुति देने की तत्परता दिखाई। नारी पिघल गयी,उसने विश्वास किया और छली गयी। साथ ही,ऐसा नहीं है कि केवल वही शिकार हुई है। पुरुष को भी हानि उठानी पड़ी है। ईश्वर ने या प्रकृति ने सृष्टि के लिए दोनों की संरचना की और जहाँ दोनों में तालमेल है,वहीं सुख है,वहीं सौन्दर्य है और शान्ति है।
आज की नारी मुखरित है,अपना निर्णय लेती है,फिर भी उसकी समस्यायें कम नहीं हो रही हैं। हमें उन कारणों को समझने की कोशिश करनी चाहिए जो इनकी जड़ में हैं। प्रकृति ने पुरुष और स्त्री के संयोग से संसार की संभावना की है। पूरी सृष्टि में यह युगल स्वरुप आनंद में दिखाई देता है। वनस्पति,जीव-जन्तु,चिड़िया या जानवरों को देखिए,सर्वत्र एक सामंजस्य है। ऐसी समस्यायें मनुष्यों में ही हैं। हमें नये सिरे से इन बिन्दुओं पर विचार करना चाहिए। मनुष्य यानी स्त्री-पुरुष के जीवन में जटिलता है,वह सहज हो नहीं पाता और हार-जीत का खेल करता है। इसके पीछे जाने-अनजाने बहुत से कारण हैं परन्तु कोई पक्ष स्वयं को दोषी नहीं मानता,स्वयं में सुधार करना नहीं चाहता और स्वयं को बदलना नहीं चाहता।
डा० प्रतिभा सिंह ने पंच कन्याओं को जिन आधारों पर समझने की कोशिश की है,अपनी जगह वे  महत्वपूर्ण हैं और सहानुभूति जगाते हैं। उनके जीवन में उन्हें वह आदर और सम्मान नहीं मिला जो मिलना चाहिए था और विडम्बना देखिए,उनके प्रातः स्मरण मात्र से हमारे पाप कर्मों से मुक्ति मिलती है। यह अद्भुत अन्तर्विरोध है,एक तरह का आवरण है जिसके पीछे उनके दुखों को, उनपर हुए अत्याचारों को ढकने का निर्लज्ज प्रयास है। यह भी संयोग ही है कि सभी महिलाएं बड़े-बड़े कुल-खानदान से,राजघरानों से सम्बद्ध हैं,सब की शादी हुई है,सबके जीवन में विचित्र घटनाएं हुई और उनके अपनों ने प्रश्न खड़े किए। फिर भी उन्हें कन्या माना गया और चिर-कन्या के रुप मे पूजित हुई।
डा० प्रतिभा सिंह ईश्वरीय विधान को शायद स्वीकार नहीं करती,इसलिए उनके तर्क लहूलुहान करते हैं और दैवीय विधि-व्यवस्था पर उनकी गहरी चोट होती है। उनसे सहमत-असहमत हुआ जा सकता है परन्तु उनके प्रश्नों से भागा नहीं जा सकता। चाहे रामायण काल हो,महाभारत काल हो या वर्तमान समय हो,कोई व्यवस्था तो है ही जिसके अधीन यह सृष्टि संचालित हो रही है। सहज ही लोग कहते रहते हैं,हमारे पूर्वकृत कर्म ही वर्तमान के सुख-दुख के कारण होते हैं। उस ईश्वरीय व्यवस्था से कोई वंचित नहीं होता,सबको प्रतिफल भोगना पड़ता है। इसका आशय यह नहीं है कि प्रतिभा सिंह जी के चिन्तन को नकारा जा रहा है,बस संकेत है कि यह भी हमारे सनातन चिन्तन का ही एक हिस्सा है।
डा० प्रतिभा सिंह की पंच कन्याएं मौन नहीं हैं,वे प्रश्न करती हैं और समाधान चाहती हैं। आज के नारी-चिन्तन का यह अत्यन्त मजबूत पक्ष है और सुखद है कि आज की नारी दीवारों को तोड़ रही है,अपना आसमान तलाश रही है और मुकाम हासिल कर रही है। सबसे बड़ी बात है उनका निर्णय लेना और जिम्मेदारी उठाना। आज की नारी संघर्ष कर रही है,जरुरत पड़ने पर विरोध करती है और हानि उठाने के लिए भी तैयार रहती है। स्वयं को आज की नारी कमजोर नहीं मानती और हादसों से उबरना सीख रही है। वह आत्मनिर्भर हो रही है,शिक्षित हो रही है और पुरुष के साथ हर क्षेत्र में कदम से कदम मिलाकर चल रही है। आज नारी हार-जीत का खेल खेलना नहीं चाहती बल्कि मिल-जुलकर जीवन चलाना चाहती है।
प्रतिभा सिंह में संवेदना है,करुणा व आक्रोश है और पंच कन्याओं के प्रति अद्भुत सहानुभूति है। उसके द्वारा प्रयुक्त विम्ब चमत्कृत करते हैं। काव्य संग्रह अलग आलोक फैलाता दिखाई देता है। सच तो यह है,प्रतिभा सम्पूर्ण नारी जाति की आवाज बनना चाहती है। उसके पास ज्ञान है,समझ है,भाषा-शैली है और जुझारूपन है। उसने अपने आसपास बहुत करीब से समाज के दोहरे चरित्र को देखा और अनुभव किया है। वह मौन नहीं रह सकती,आवाज बुलंद करती है और सम्पूर्ण नारी समाज को प्रेरित करना चाहती है।
‘पंचकन्या’ काव्य संग्रह में पाँच खण्ड हैं और हर खण्ड में एक-एक कन्या से जुड़ी लम्बी कविता है। यह भी एक तरह का प्रयोग है और प्रतिभा सिंह प्रयोगधर्मी कवयित्री हैं। पाँच में से तीन कन्याएं, अहल्या,तारा व मन्दोदरी राम या रामायण काल की हैं तथा शेष दो कन्याएं कुंती और द्रोपदी महाभारत काल की। प्रथम खण्ड में अहल्या हैं,ऋषि गौतम की धर्मपत्नी। यह पौराणिक कथा हम सबने पढ़ी और सुनी है परन्तु शायद ही किसी ने ऐसे प्रश्न उठाए हैं। प्रतिभा सिंह की काव्य-शैली प्रभावित करती है क्योंकि यहाँ कोरी कल्पना नहीं है,तर्क है,चिन्तन है और सारे सन्दर्भों की सटीक व्याख्या है। हिन्दी साहित्य में इस काव्य को नये तरीके से समझा जाना चाहिए। अहल्या हर प्रसंग में राम को श्रद्धा से,आदर से,आक्रोश से और प्रेम से सम्बोधित करती है,प्रश्न पूछती है। किसी भी नारी द्वारा ऐसी परिस्थिति के बाद अपना मूल्यांकन इससे अच्छा हो नहीं सकता। प्रतिभा सिंह ने हर तरह से अहल्या के भूत,वर्तमान,भविष्य का चिन्तन किया है और पुरुष समाज व पितृ सत्ता को चुनौती दी है। एक भी प्रश्न ऐसा नहीं है जो अवांक्षित या गलत हो। अहल्या के चरित्र में वह सब कुछ है जिसे हमारे धर्मों ने गढ़ा है,आदर्श माना है। वह सामान्य स्त्री नहीं है,अपना धर्म निभा रही है,सृष्टि के कल्याण के लिए सब कुछ सहन करती है,चाहती है कि गौतम तप में सफल हों और मानवता का कल्याण करें। यह अत्यन्त उदात्त पक्ष है अहल्या का। अपनी पुत्री अंजना को लेकर उसकी करुणा किसी भी नारी के लिए अनुकरणीय है। वह इन्द्र की पत्नी शची के लिए भी दुखी होती है,वह सम्पूर्ण नारी जाति की चिन्ता करती है और पुरुष की सत्ता पर प्रश्न पूछती है। वह हर मौसम की पीड़ा झेलती है,स्वयं को जीवित रखना चाहती है ताकि राम से अपने पत्थर बनाये जाने का कारण पूछ सके। अहल्या कहती है-“मैं ब्रह्मपुत्री/त्रिलोक सुन्दरी/चाहती तो/स्वर्ग पर राज कर सकती थी/मृत्यु लोक का/हर वैभव प्राप्त कर सकती थी/आकाश को रौंद सकती थी/पाताल को मुट्ठी में समेट सकती थी/अपने सौन्दर्य के बल पर। किन्तु मैंने/भौतिक सुख वैभव का मोह छोड़/जिस ज्ञानी का वरण किया/उसने ही मेरे विश्वास का हरण किया।“ अहल्या राम को भी नहीं छोड़ती, उनके पिता पर प्रश्न उठाती है और बताती है कि सारा दोष तुम्हारी पत्नी पर मढ़ा जायेगा। वह पूछती है, कुकृत्य के लिए इन्द्र को दण्ड क्यों नहीं दिया गया,उसे पदच्युत क्यों नहीं किया गया? स्वयं ऋषि गौतम क्यों नहीं जान पाये यह षड्यन्त्र? चन्द्रमा को थोड़ा सा दण्डित करके क्यों छोड़ दिया गया? अहल्या अपने सौन्दर्य से दुखी होती है और कहती है-“नहीं चाहिए मुझे रुप यह/आजीवन षोडशी सवरुपा/मैं तजना चाह रही यह यौवन/जो पुरुष काम का साधन है।“ अंत में डा० प्रतिभा सिंह अहल्या के मुख से कुछ समाधान सुझाती हैं और नारियों के लिए संदेश देती हैं। अहल्या केवल अपनी पीड़ा ही नहीं दिखाती, सम्पूर्ण परिस्थितियों की सम्यक विवेचना करती है और सार्थक उत्तर खोजती है। वह कहती है कि पुरुष की तरह नारी को भी तप और ध्यान में जाकर जीवन का उदात्त प्राप्त करना चाहिए। उसे भोग्या बनना स्वीकार नहीं है और इसके विरुद्ध आवाज उठाती है।
तारा किष्किंधा के राजा बालि की धर्मपत्नी है। वह राम से प्रश्न करती है और उनके पुरुषोत्तम होने को चुनौती देती है। वह सहज सुग्रीव को स्वीकार करना नहीं चाहती और अपने पति बालि का गौरव सुनाती है। उसे पति के लिए पापी शब्द स्वीकार नहीं है और अनेक तर्कों से राम की धारणा को काटती है। तारा पूछती है-“किन्तु कहो मेरी पीड़ा पर/लेपन कर सकते हो क्या? अंगद पिता विहीन हुआ है/रिक्त को भर सकते हो क्या?” तारा बालि का अपराध स्वीकार करती है-“हाँ सच है बालि अधम-पापी था/अनुज पत्नि पर कामातुर।” वह आगे कहती है-“यदि रुमा थी/कन्या सम/मैं भी तो माँ सम ही थी।” तारा तीखा प्रश्न करती है-“क्या स्त्री देह मात्र ही है/जो बाँट-बाँट कर भोगी जाए/रुमा,तारा बनकर वो/कामुकता से रौंदी जाए।” प्रतिभा सिंह तारा के माध्यम से सम्पूर्ण नारी जाति के लिए खड़ी होती हैं और प्रश्नों के उत्तर तलाशती है। नारी विमर्श के हर पहलू की विवेचना करते हुए कहती है-“किन्तु सुनो हे राम!/यदि धरती पर स्त्री को/सम्मान नहीं मिल पायेगा/सच कहती है यह तारा/सृष्टि का मूल नष्ट हो जायेगा।”
लंका-नरेश रावण की धर्मपत्नी मन्दोदरी,एक विदुषी महिला थी। उसने बार-बार रावण को राम से युद्ध न करने की सलाह दी और सीता के प्रति करुणा, प्रेम का भाव रखा। उनमें उदारता है,समन्वय है,कहती है-“सुर्पनखा  को शांत चित्त से/यदि समझा लेते तुम/और लखन सदृश भाई को/स्नेह अंक भर लेते तुम/तो सीता का हरण न होता/और मेरे कुलवंशों का/ये दुखदाई क्षरण न होता।” मन्दोदरी प्रेम की महत्ता बताती है और बहन के लिए रावण के क्रोध को स्वाभाविक मानती है। कोई भी भाई ऐसा ही करता। वह आगे कहती है-“ना दोषी थी सुर्पनखा/ना दोषी सीता ही थी/स्त्री सर्वस्व समर्पित करती/ प्रेमातुर मन जिस पर मोहित।” मन्दोदरी भी नारी के पक्ष में खडी है और राम पर प्रश्न करती है। वह सहज नहीं है विभीषण के अधीन रहने पर। मन्दोदरी के प्रश्नों का ना तब कोई उत्तर था और न आज है। वह देश हित के लिए अधीन होना स्वीकार करती है,राम के सामने वचनबद्ध होती है और नाना उदात्त भावों के साथ संकल्पित होती है।
कुंती महाभारत में प्रमुख चरित्र है,पंच कन्याओं में एक है,उन्हें भी चिर-कुँआरी माना गया है और वे श्रीकृष्ण की बुआ थीं। उनका विवाह महाराज पाण्डु के साथ हुआ। उनका चरित्र अत्यन्त उदात्त रहा है और समय-समय पर उन्होंने धैर्य,साहस,विद्वता का परिचय दिया है। प्रतिभा सिंह ने बेबाकी से, कठोरता से,साहस पूर्वक उनका चित्रण किया है। कुंती-कर्ण संवाद हमारे सनातन की धरोहर है और प्रतिभा सिंह ने पूरी गरिमा से इस प्रसंग को अपने काव्य में उतारा है। वे कहती हैं-“पाण्डु पुत्रों से भी अधिक/तड़पी हूँ तुम्हारे लिए/मुझको आजीवन सजा मिली/बचपन में जो अपराध किया/पर अपराध कहूँ भी कैसे?” प्रतिभा नारी की दुर्दशा को परिभाषित करती है-“स्त्री का सम्मान काँच सा/ठेस लगी और बिखर गया।” कुंती पितृ सत्ता की दुहाई देती है और लोक लाज की भी,कहती है-“ना मर सकती/ना जी सकती थी/क्योंकि मैं स्त्री थी।” कुंती कर्ण को स्वतन्त्रता देती है और कहती है-“जब-जब स्त्री अपमानित होगी/बीच सभा में/और पुत्र ठुकरायेगी वह/मोह त्याग कर/इस समाज के भय से/तब-तब होगा/बिल्कुल ऐसा ही धर्म-युद्ध/कि स्त्री कोई खेल नहीं।”
द्रोपदी महाभारत के धर्म-युद्ध में महत्वपूर्ण चरित्र है,कहती है-“सुनो फागुन!/तुम बता सकते हो/प्रेम की पीड़ा क्या होती है?/क्या होता है जलना?” अर्जुन से कहती है-‘मैंने प्रेम किया था तुमसे/तुमने मुझको जीता था/और मेरा भी जीवन अर्जुन/के स्वप्नों में बीता था।” वह अपने सौन्दर्य व गौरव को याद करते हुए अर्जुन से कहती है-“किन्तु उसी यज्ञसेनी को/तुमने भिक्षा-वस्तु समझकर/बँटने दिया पंच खण्ड में।“ आगे पूछती है द्रोपदी-“प्रेमातुर स्त्री के मन की/थाह लगा सकते हो अर्जुन?/स्त्री जिसके प्रेम में हो/सर्वस्व उसी को अर्पित करती।” द्रोपदी स्त्री के मन का रहस्य समझाती है-“मन का मन से/जबतक हो संयोग नहीं/तबतक इस निर्मूल्य देह का/है कोई उपयोग नहीं।” वह आगे कहती है-“किन्तु स्त्री का/एक हृदय और एक देह है/एक ही पति-प्रेमी है/जिसका है अधिकार हृदय पर/तन उसको ही देती है।” द्रोपदी दुखी रहती है,जिसे वह प्रेम करती है,जो साथ ही रहता है परन्तु वह केवल उसकी नहीं हो सकी। आने वाली पीढ़ियाँ पूछेंगी,मैंने क्यों बँटना स्वीकार किया,क्यों पाँच पुरुषों की अंकशायिनी बनी? क्यों नहीं उस कायर पति को छोड़ दिया जिसने मुझे बँटने दिया। यह प्रेम की रीति है,वह हठीला होता है और तिरस्कार सहकर भी प्रिय से घृणा नहीं कर पाता। प्रतिभा सिंह प्रेम की मजबूरी समझती हैं,लिखती हैं-“आह! यह प्रेम बड़ा निर्दयी है/कितना विवश कर देता है/पूर्ण ज्ञान छीनकर/बुद्धि विवेक हर लेता है।”  उन्होंने द्रोपदी की पीड़ा का जीवन्त और यथार्थ चित्रण किया है,जब पिता समान युधिष्ठिर के बाहु पाश में होती है। भीम की विशालता के आगे वह तिनके की तरह है। उनके पूछने पर वह कह भी नहीं पाती,मन-तन का संयोग नहीं हो पाता। वह उनके प्रेम को समझती है और कहती है-“उनके इस भोलेपन पर/उन्हें नेह जरा दे सकती हूँ/किन्तु हृदय से व्याकुल होकर/प्रेम नहीं कर सकती हूँ।” द्रोपदी नकुल-सहदेव को योग-भोग की साधना में अपरिपक्व मानती है और कहती है-पति कहाँ वे लगते हैं/दो अबोध से बालक हैं वे/हठ करते ही रहते हैं/तुम्हीं कहो उनका आलिंगन/कैसे मुझे सुहाए।”
प्रतिभा सिंह ने काव्य प्रतिभा के साथ-साथ स्त्री मन की,विशेष रुप से पति या पुरुष संयोग के समय का अद्भुत चित्रण किया है। द्रोपदी का मन और तन तथा पाँच पतियों के साथ अंकशायिनी होने की पीड़ा का इससे सटीक और व्यापक उल्लेख शायद ही कभी हुआ हो। द्रोपदी का परिणय-ज्ञान और मिलन के पीछे की असंतुष्टि के कारणों की चर्चा अद्भुत और बेजोड़ है। वह कुछ भी छिपाती नहीं,सब कुछ तर्क,गम्भीरता और हास्यपूर्ण तरीके से बताती है। प्रतिभा सिंह में भी अतीव साहस है,भाव,भाषा,शैली और अनुभव-जन्य ज्ञान है। उनके चित्रण में गरिमा है और वस्तु-स्थिति की सच्चाई भी। द्रोपदी को अपराध बोध है कि वह सबको उनका हक दे नहीं पाती। वह अर्जुन से पूछती है,तुमने भी तो चार स्त्रियों को उपलब्ध किया है,कैसे बाँट पाते हो मन को,जीवन को?
पौराणिक काल की इन पंच कन्याओं को आधार बनाकर प्रतिभा सिंह ने सम्पूर्ण नारी जाति की पीड़ा,उनके संघर्ष,उनकी संवेदनाएं और कारुणिक जीवन का चित्रण किया है। उन्होंने पौराणिक आख्यानों को पढ़ा व शोध किया है और नारी मनोविज्ञान को समझा है। साहित्य के,काव्य के सारे तत्व यहाँ हैं और प्रतिभा सिंह ने महत कार्य किया है। बधाई के साथ-साथ उन्हें हृदय पूर्वक शुभकामनाएं देता हूँ कि इसी तरह हिन्दी साहित्य को समृद्ध करें और उनका भी विकास हो।
समीक्षित कृति : पंचकन्या (कविता संग्रह)
कवयित्री         : डा० प्रतिभा सिंह
मूल्य              : रु 130/-
प्रकाशक        : कीकट प्रकाशन,पटना

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