‘तीसरी कसम’ भारतीय सिनेमा की सेल्युलाइड पर उकेरी एक बेहद भावना प्रधान कविता है। हिंदी साहित्य की एक लोकप्रिय आंचलिक कहानी ‘तीसरी कसम उर्फ मारे गए गुलफाम’ प्रमाणिक सामाजिक फ़िल्म है। साहित्य में रचित प्रेम संबंधों की मार्मिक और अबोली कथा को बहुत ही सार्थकता और पूरे पैमाने के साथ ‘तीसरी कसम’ के रूप में परदे पर प्रस्तुत किया गया है। ‘तीसरी कसम’ वस्तुतः जीवन के छोटे से टुकड़े में निहित अंतर्विरोध, द्वंद्व, संक्रांति को पकड़ने का ऐसा विलक्षण प्रयास करती है कि जिंदगी की सार्थकता का रूपक बन जाती है।
बासु भट्टाचार्य द्वारा निर्देशित यह फ़िल्म दरअसल कवि शैलेंद्र का सपना बन गया था। फणीश्वर नाथ रेणु की कहानी की पटकथा तथा संवाद भी फ़िल्म के लिए फणीश्वर नाथ रेणु ने ही लिखे और उनका साथ दिया हिंदी फिल्मों के पटकथा लेखक नवेंदु घोष ने। 
नवेन्दु घोष लेखक के साथ-साथ एक कुशल अभिनेता भी थे। इस फ़िल्म में हीराबाई की नौटंकी देखने वाले रईस शराबी का किरदार भी उन्होंने ही निभाया है। ‘तीसरी कसम’ की कहानी पढ़कर शैलेंद्र को देश की माटी की खुशबू बसी इस फ़िल्म को बनाने की धुन सवार हुई। 

राज कपूर ने शेलेन्द्र को पहले ही चेताया था कि यह फ़िल्म परिपाटी से अलग की चीज़ है। लेकिन धुन तो धुन होती है। तड़क-भड़क की फिल्मी दुनिया को शैलेन्द्र लोकजीवन की खुशबू देना चाहते थे। लोक जीवन ही मूल है जिससे सारी दुनिया प्रभावित होती है। भारत तो वैसे भी ग्रामीण परिवेश का बड़ा हिस्सा है। गांव में जन्म लेते उदात्त प्रेम, राग द्वेष से दूर प्रीति, सच्चे प्रेम की विहंसता को वो सारी दुनिया के सामने लाना चाहते थे। 
इस फ़िल्म को बनाने में उन को आर्थिक नुकसान का सामना हो सकता है इस बात को भी शैलेंद्र बखूबी जानते थे। लेकिन वह यह भी मानते थे कि इस मायानगरी से यदि नुकसान भी होगा तो उसकी भरपाई भी यही मायानगरी ही करेगी। उन्हें अपनी कलम की ताकत पर यकीन था और हुआ भी यही जब शुरुआत मैं फ़िल्म नहीं चली तो इसके नुकसान की भरपाई बहुत जल्दी उन्होंने और फिल्मों में गीत लिखकर कर ली। लेकिन जब यह फ़िल्म चली तो खूब चली और राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित भी हुई।
स्त्री-पुरुष का प्रेम तो दुनिया के रंगमंच की सबसे खूबसूरत इबारत है। यह प्रेम किसी कैफे में बैठकर, समुद्र किनारे की रेत पर बैठकर या फिर एक लंबी कार ड्राइव में ही नहीं होता। यह प्रेम तो टपरी वाली बैलगाड़ी की रुनक-झुनक, मध्यम लयबद्ध चाल के संगीत के बीच भी हो सकता है। देसी भाषा, देसी लहजा प्रेम में आड़े नहीं आता और हीरामन के रूप में राज कपूर और हीरा बाई की भूमिका में वहीदा रहमान ने जैसे इन किरदारों को पूरा जी लिया हो। 
इस फ़िल्म में राज कपूर ने अपने जीवन की सर्वश्रेष्ठ भूमिकाओं में से एक को निभाया है और वहीदा रहमान ने भी इस फ़िल्म में अपनी अविस्मरणीय भूमिका को अदा किया है। वह जब बैलगाड़ी में बैठी है तो कहानी का लेखक भी कहता है अरे गाड़ी में यह कैसा चंपा का फूल है। दरअसल हीराबाई की भूमिका के लिए पहले नूतन का नाम सामने आया था लेकिन आखिर में फाइनल मोहर वहीदा जी के नाम पर लगी।
राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित ‘तीसरी कसम’ ग्रामीण अंचल पर केंद्रित पहली प्रमाणित और सफल फ़िल्म है। देशज बोली भाषा, उसी भाषा में रचे गीत, देसी मेलों के दृश्य, नदी, रास्ते, गांव, टप्पर वाली बैलगाड़ी, कोचवानो के संवाद, आम के बागों की धूप छाव, महुआ घटवारिन का घाट, नौटंकी की बाई की छोलदारी, सिंगार का पिटारा, कसमें खाने की आदत यह सब हमारे गांव की आत्मा का हिस्सा है जिसे शैलेंद्र सिल्वर स्क्रीन पर लाये। रेणु ने निम्न वर्ग के दुखों को, उनके सच्चेपन को, जीवन की वृत्तियों को बड़े ही भावपूर्ण तरीके से उकेरा है। लेकिन जैसे छोटे से फूल में भी रस होता है तो इस जीवन में भी जीवन रस को बहुत बारीकी से दिखाया है। देहाती भुच्च कहीं के, कान चुनियाकर गप सुनने से ही तीस कोस मंजिल कटेगी क्या, कसम अब जो कभी बांस की लदनी लादूं तो जैसी देशज भाषा में बतकही है, रस है, जीवन है।
हीरामन के रूप में राज कपूर की भाव प्रवणता देखते ही बनती है। वे अपनी इमेज से बाहर निकल कर आते हैं। चोर-बाजारी का माल गाड़ी पर लदा है और पुलिस पकड़ती है तो बचकर भागते हुए हीरामन के चेहरे के भाव, कसम खाते हुए चेहरे पर ख़ौफ़ और पक्की कसम की लकीरें… हीराबाई को स्टेशन से गाड़ी में बैठ जाने पर और रास्ते में झांझर की आवाज से पैदा हुआ डर कि कोई चुड़ैल, पिशाचन रूप बदलकर गाड़ी में ना बैठ गई हो। 
गाड़ी से उड़ती आती खुशबू जैसे इस दावे को पुख्ता कर रही हो। गाड़ी रोककर महादेव की शरण में जा कर कहना जाने कौन हो, रह-रहकर पीठ में गुदगुदी लगती है। रक्षा करो भोलेनाथ, हे महादेव रक्षा करो। सवा रुपए का प्रसाद चढ़ाऊँगा। रास्ते में उल्लू सियार की आवाजों से चेहरे की बनती बिगड़ती भाव रेखाएं या फिर तब जब हीरामन हीराबाई के पास अपने पैसों को रखवाने आता है तो कहता है कि मेले में चोर, पाकेटमार बहुत हैं तो आप संभाल लो और हीराबाई कहती है कि अगर यह मैं ही मार लूं तो तब हीरामन का ‘हिस्स’ करके मुंह फेर लेना राज कपूर को उनकी अदायगी से बहुत आगे ले जाता है।
हीराबाई और हीरामन के बीच प्रेम का अंकुर कब फूटता है पता ही नहीं चलता। वह एक दूसरे की कद्र चिंता कब करने लगते हैं पता ही नहीं चलता, एक दूसरे पर अधिकार समझना भी और बगैर अधिकार के एक दूसरे के साथ रहना चलना कैसा होता है समझ ही नहीं आता। मानवीय रिश्तोX की गूँथ किस कदर कब परवान चढ़ती है वो अपनी सहजता में ही अपना सफर कर रही होती है। 
हीराबाई हीरामन से पूछती है तुम्हारे घर में कौन है तो हीरामन अपनी गाय और उसके बछड़े का भी नाम लेता है हीराबाई समझती है यह उसके बीवी बच्चों का नाम है तब हीरामन सहज मजाकिया अंदाज में हंसता है और हीराबाई की कमअक्ली पर मुग्ध होता है। और जब हीरामन पूछता है कि तुम्हारे घर में कौन हैं तो हीराबाई कहती है सारी दुनिया और हीराबाई की आंखें खाली होने लगती है। घर में सारी दुनिया और खाली आंखें किस तरह से दृश्यों को रचा गया है। जब हीरामन बीच में गाड़ी रोकता है तो हीराबाई को महुआ घटवारिन के घाट पर नहाने से रोक देता है कि कुंवारी लड़कियां यहां नहीं नहातीं। तब कंपनी की बाई हीराबाई की भावकृति अदायगी के पैमानों को ऊँचा करती है।
हीरामन को पता ही नहीं कि प्रेम का अंकुर फूट गया है वह जानता है यह कंपनी की हीरोइन है लेकिन गाड़ी चलाते हुए गाड़ी का पर्दा डाल देता है जो किसी भले घर की बहू बेटियों के लिए होता है। रास्ते में उससे कोई पूछता है गाड़ी में कौन है तो झुंझला उठता है कि तुमसे क्या मतलब कौन है। वह हीराबाई को सुरक्षित रखना चाहता है। 
जब नौटंकी में हीराबाई के नृत्य के बाद शराबी रईस उसे रंडी कह बैठता है तो हो जाती है मारपीट। हीरामन पिल जाता है उस पर। जब हीराबाई उसको भीतर बुलाकर मार पिटाई के बारे में पूछताछ करती है तो हीरामन अटक-अटक कर बता पाता है कि हीराबाई को कि उसे रंडी के भड़वे कहा गया था। 
तो हीराबाई कहती है तुम क्या दुनिया वालों के मुंह पर ताले लगाते रहोगे। क्या हक है तुम्हें। मेरे लिए मारपीट करने वाले तुम कौन होते हो, तुम कौन होते हो?… तो हीरामन कहता है सचमुच कौन होता हूं कुल तीस घंटे की तो जान पहचान है और वह चला जाता है। वह दूसरी सवारी लेकर दूर चला जाता है लेकिन प्रेम का अंकुर फिर उसे वापस खींच लाता है। हीराबाई का मन भी रिहर्सल, नौटंकी में नहीं लगता वह हीरामन की पूछताछ में लग जाती है।
हीरामन और हीराबाई के बीच परस्पर गढ़ते प्रेम के अनकहे लम्हे, आंखों की अबोली भाषा, पता है प्रेम है लेकिन हदें भी हैं, सरोकार जैसे छूट ही नहीं रहे हैं। हीराबाई का मन है कि हीरामन को अपने हाथ से बनाकर खिलाए। हीरामन हीराबाई के लिए गांव का सबसे अच्छा दही लेकर आता है। हीरामन अपने दोस्तों और हीराबाई अपनी नौटंकी की साथिनों के साथ होकर भी जैसे वहां नहीं है।
फ़िल्म अपने चरम पर पहुंच रही है। हीराबाई फैसला कर लेती है लेकिन उससे पहले वह खुद को समझा रही है वह अपनी सहेली नजमा से कहती है यह सब क्या हो गया। कैसा मिलना है यह। ऐसे भोले भाले इंसान को धोखा देना अच्छी बात नहीं। जिंदगी भर का नाटक कर पाना संभव नहीं। लैला का नाटक करने वाली खुद लैला बनने चली थी लेकिन बन ना पाई। हीरामन को उसके पास रहकर नहीं पाया जा सकता। 
जब नगमा कहती है वह एक बार हीरामन से कह कर तो देखें तब हीराबाई निर्णय लेती हुई कहती है जब कहना था तो खामोश रहकर एक गलती की और अब जब खामोश रहना चाहिए तो कह कर दूसरी गलती नहीं करूंगी। इस निर्णय को लेने में उसकी मदद बिरजू दलाल करता है जब वह कहता है कि बाई जी उसका भरम तोड़ दोगी तो वो बेचारा बर्बाद हो जाएगा, नौटंकी छोड़ दोगी तो तुम खुद बर्बाद हो जाओगी… बेचारे की जान जाएगी हमारा धंधा और तुम्हें खुद भी कुछ हासिल ना होगा। 
नौटंकी देखने आए जमींदार इफ्तिखार जब हीराबाई से उसके डेरे पर मिलने आते हैं और हीराबाई को नौटंकी के बाद फूल बाग में रुकने का प्रस्ताव देते हैं तब हीराबाई के चेहरे के भाव बताते हैं कि इस तरह के प्रस्तावों की वो आदी है लेकिन जमीदारों और रईसों को नाराज करना उसके पैशे के खिलाफ है और प्रस्ताव को नजरअंदाज भी करना है तो यह प्रोफेशनल भाव वहीदा रहमान ने बड़ी ही खूबसूरती से अपनी अदायगी से उकेरे हैं।
हीराबाई जाने लगती है हीरामन उड़ते पंछी की तरह पहुंचता है। रेलगाड़ी आ चुकी है। रेल की पटरीयों को लाँघता हुआ हीराबाई के पास पहुंचता है। खाली आंखों से उसे देखता है कुछ कह नहीं पा रहा। बिरजू हीराबाई को बार-बार गाड़ी में चढ़ने को कह रहा है। हीराबाई हीरामन को उसके पैसे वापस कर रही है अपना शॉल उसके कंधे पर रख रही है। लेकिन हीराबाई निर्णय कर चुकी है तो उसे जाना ही है। हीरामन उससे रिश्ता बना कर भी कुछ नहीं कह पा रहा। यह जो दोनों के बीच मौन है यही उनकी प्राप्ति भी है। 
हीराबाई हीरामन के मन में बसी हीराबाई की छवि नहीं तोड़ना चाहती क्योंकि हीरामन तो स्त्री को घर गृहस्थी चलाने में, बहु बनने में ही देखना चाहता है और हीरामन भी अब हीराबाई से गांव मेले में नहीं मिलना चाहता। वह कभी हीराबाई से कहीं मिलेगा यह सोचना भी नहीं चाहता। वह हीराबाई से जब चाहे अपनी निजता में उससे मिल सकता है। वह हीराबाई के साथ बात करना चाहता है, हंसना चाहता है, रोना चाहता है लेकिन केवल अपनी निजता में। यही उसे सुरक्षित भी लगता है। 

तब वो वापसी पर अपने बैलों को चाबुक से फटकारना चाहता है तो हीराबाई की आवाज उसके कानों में पड़ती है वह हाथ नहीं चाबुक के साथ वहीं थम जाते हैं। हीरामन बैलों से कहता है और ‘तीसरी कसम’ खाता है कि मुड़-मुड़ कर क्या देखते हो अब खाओ कसम कि किसी नौटंकी की बाई को गाड़ी में नहीं बिठाएंगे।
इस फ़िल्म को ज्यादातर कमाल स्टूडियो में ही शूट किया गया। कमाल स्टूडियो में ही बिहार के उन गाँवो का सेट लगाया गया जो निर्देशक फणीश्वरनाथ रेणु के गाँव मे देख कर आये थे। मध्यप्रदेश के बीना और ललितपुर के पास खिमलासा में भी इसको शूट किया गया। इसकी शूटिंग पर फणीश्वरनाथ रेणु जब कमाल स्टूडियो गये तो धूल, गोबर, मिट्टी और गाँव का वातावरण, टप्पर वाली बैलगाड़ी देखकर मुग्ध हो गए। तीन दिन वहाँ बैठकर उन्होंने शूटिंग देखी। और इसकी रिपोर्ट भी लिखी। उनती यह रिपोर्ट उस समय धर्मयुग पत्रिका में छपी भी थी।
इस फ़िल्म के लगभग सभी गीत शैलेंद्र ने ही लिखे हैं सिर्फ एक गीत हसरत जयपुरी ने लिखा है वह भी कमाल का गीत लिखा। दुनिया बनाने वाले क्या तेरे मन में समाई काहे को दुनिया बनाई। 
शैलेंद्र के गीत जैसे इस आंचलिक कहानी के संग संग चल रहे हो। पान खाए सैयां हमारा और मारे गए गुलफाम नौटंकी की विधा के सर्वश्रेष्ठ गीत हैं। ‘हाय गज़ब एक तारा टूटा’ मन की फूट की कथा कहानी या फिर ‘लाली लाली डोलिया में लाली लाली रे दुल्हनिया’ गांव की भोली लड़कियों का गाया गीत जिसमें वह अपनी ही किसी साथी को विदाई दे रही है या स्वागत कर रही है। ‘सजनवा बैरी हो गए हमार’ तो जैसे दिल की बात को दिल को ही सुनाते हैं। नायक की गुहार है ‘सजन रे झूठ मत बोलो खुदा के पास जाना है’ जैसे अपनी सच्चाई को ही नहीं अपनी भोली भाली छवि को ही उकेरना है, मन की बात कह देना है। गांव के भोले मानुष और स्त्री मन की कोमलता को भाषा दी है शैलेंद्र ने अपने गीतों में। संगीत भी इन गीतों का उनके अनुरूप देशज है। शंकर जयकिशन का संगीत मधुर धुनों के साथ उभर कर आया है। गांव के कच्चे रास्ते पर चलने का संगीत हो या नौटंकी के स्टेज पर लांगुरिया धमक का संगीत या फिर फिलासफी से भरे बोलो को समेटते हुए एक विराना संगीत। सभी में जय शंकर जयकिशन पूर्णता भरते हैं।
1966 में भी शंकर जयकिशन अपने जीवन के सर्वश्रेष्ठ गीतों से भरी फिल्में प्रस्तुत कर रहे थे। ‘तीसरी कसम’ में बिहार के लोक संगीत पर आधारित गीतों में उन्होंने देशज भाषा और भावों का सटीक निरूपण किया है। एक तरफ भैरवी में यदि मुकेश ‘सजन रे झूठ मत बोलो’ के द्वारा वे पुनः 1966 की वार्षिक बिनाका की चोटी पर थे तो दूसरी तरफ खमाज आधारित लोक शैली के ‘सजनवा बैरी हो गए हमार’ और भैरवी पर आधारित ‘दुनिया बनाने वाले क्या तेरे मन में समाई’ के साथ अपनी संगीतात्मकता की ऊंचाइयों पर थे। ग्रामीणों की रात्रि कालीन बैठकों का समां बांधते हुए मन्ना डे से उन्होंने ‘चलत मुसाफिर मोह लियो रे पिंजरे वाली मुनिया’ को क्या शानदार गवा लिया है। नौटंकी शैली में ‘मारे गए गुलफाम’ लता से और ‘पान खाए सैयां हमार’ आशा भोसले से गवाते वक्त इस बात का ध्यान रखते हैं कि आशा के स्वर की चंचलता, रसिकता और शोखी बनी रहे। इस गीत में वो खनक, मुरकियां और अदायगी तो विलक्षण है ।
‘तीसरी कसम’ के कई गीतों का तो रिकॉर्ड ही नहीं बना वरना लोगों को ‘किस्सा होता है शुरू’ (शंकर शंभू) ‘मैं सुनाती हूं’ (मुबारक बेग़म – शंकर शंभू) ‘तेरी बांकी अदा पे’ ( शंकर शंभू) और मुकेश के स्वर में ‘जियरा अब तो तनिको ना माने’ भी सुनने को मिलता।
’तीसरी कसम’ चूँकि गांव मेलों की कहानी कहती है तो बैलगाड़ी चलते हुए जो पेड़ों की धूप छांव छनकर आ रही है, पगडंडियों पर गाड़ी के चलने के दृश्य जिसमें धूल, गर्दो-गुबार उड़ रहा है या फिर मेले की रौनक, गुड़ियों चूड़ियों की कतार या फिर अंधेरों के दृश्य सबको बहुत ही कलात्मकता से उतारा है सुब्रत मित्र ने। हीरामन और हीराबाई की आंखें, उनके चेहरे के भाव क्लोजअप का भी उन्होंने भाव प्रवण तरीके से उभारा है। सुब्रत मित्र सत्यजीत राय की फिल्मों के छायाकार रहे हैं।
वैसे तो ‘तीसरी कसम’ हीरामन और हीराबाई की ही कहानी है फ़िल्म के दूसरे पात्र नेपथ्य में है। ज़मींदार की भूमिका में इफ्तिखार, बिरजू दलाल की भूमिका में सी एस दुबे, नौटंकी के विदूषक के रूप में असित सेन, लाल मोहर के रूप में कृष्ण धवन, पंडित के रूप में विश्व मेहरा, पुराने शराबी रईस की भूमिका में नवेंदु घोष ने भी शानदार अभिनय किया है। नवेंदु घोष को इस फ़िल्म की पटकथा लिखने के लिए भी 1966 में पहली बार घोषित पटकथा के लिए फ़िल्मफेयर अवार्ड मिला था। नवेंदु बिमल रॉय के प्रिय पटकथा लेखक थे।
ऐसा बहुत कम होता है किसी साहित्यिक कृति को उसकी पूरी संवेदना भावनाओं के साथ सेल्युलाइड पर उतार लिया जाए। ’तीसरी कसम’ उन फिल्मों में अपना स्थान रखती है जहां साहित्य और सिनेमा एकाकार, एक रूप हो जाते हैं। प्रेम का अलौकिक स्वरूप जो धरती पर कहीं भी प्रस्फुटित हो सकता है और अपना जीवनगीत भी सुना सकता है उसके रागों की तान को दूर तक फैला सकता है। उस पर बना सिनेमा दर्शकों को भी प्रेम के भोले सात्विक स्वरूप का दीदार कराता है। उस छटा तक ले जाता है जहां प्रेम की महत्ता और प्रेम का दर्शन अलौकिक हो उठता है। ‘तीसरी कसम’ बॉक्स ऑफिस पर पिट गई और इसी गम ने शैलेन्द्र को असामयिक मृत्यु की गोद में धकेल दिया वरना संगीत, कथा, निर्देशन, अभिनय सभी दृष्टिकोण से ‘तीसरी कसम’ सातवें दशक की सर्वश्रेष्ठ फ़िल्मों में से एक थी।

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