समीक्षित कृति – कुजात (कविता संग्रह) कवि – विनोद दास, मूल्य – रु 200/- प्रकाशक – प्रलेक प्रकाशन,मुंबई
समीक्षक – विजय कुमार तिवारी
कविताएं छोटी हों या बड़ी,कविता,कविता होती है और उसका आलोक सम्पूर्ण परिदृश्य को भर देता है। हर साहित्यिक विधा के केन्द्र में मनुष्य होता है,कविता उसके हृदय को स्पंदित करती है,छूती है और सहलाती है। कविता झकझोरती भी है और कभी-कभी हथियार की तरह काम करती है। बहुत कुछ कवि की ग्रहणशीलता से तय होता है या उसके चिन्तन,आकलन से। हमारे चिन्तन में आधार के रुप में ऐतिहासिक सन्दर्भ होते हैं,वर्तमान के संघर्ष होते हैं,आयातीत सजातीय-विजातीय विचार होते हैं और हमारा सामाजिक अन्तर्विरोध होता है। कोई न कोई एक पक्ष तो रहता ही है,कभी-कभी दो या तीन या सभी होते हैं जिससे कवि या रचनाकार सृजन कर्म या सृजन धर्म निभाता दिखता है। कवि वह चितेरा है जिसकी दृष्टि सब कुछ देखती है,उसके प्रभाव की चिन्ता करती है और मनुष्य को आगाह करती है। कवि के चिन्तन में सुख-शान्ति-सन्तुष्टि का कोई आदर्श स्वरुप रहता है और उसी के आधार पर वह साहित्य को समृद्ध करता रहता है। कविता पढ़ते हुए या साहित्य से गुजरते हुए पाठक की संवेदना जागने लगे,पाठक भीगने लगे,उसके भीतर कविता का आलोक पहुँचने लगे तो समझिए,कविता सार्थक है और कवि सफल हुआ है। वैसे हर कवि और हर कविता का अपना महत्व है,हर कवि श्रेष्ठ है क्योंकि उसके पास वह दृष्टि है जिसके द्वारा वह सम्पूर्ण मनुष्यता को मार्ग दिखाता है।
आजकल मेरे हाथों में बहुचर्चित कवि,कहानीकार विनोद दास जी का सद्यःप्रकाशित काव्य संग्रह ‘कुजात’ है। कुछ महीनों पूर्व डा० हृदयेश मयंक जी के संपादन में निकलने वाली पत्रिका ‘चिंतनदिशा’ का ‘कवि कथाकार विनोद दास पर एकाग्र’ पढ़ा और छोटी सी टिप्पणी भी की थी। विनोद दास जी बहुमुखी प्रतिभा के धनी तो हैं ही,उनकी चिन्तन-दृष्टि बहुत ही तीक्ष्ण और व्यापक है। वे स्वभाव से मृदुभाषी,मिलनसार और खूब श्रम करने वाले रचनाकार हैं। उनका पहला कविता संग्रह ‘खिलाफ हवा से गुजरते हुए’ भारतीय ज्ञानपीठ के युवा पुरस्कार योजना के अन्तर्गत प्रकाशित हुआ और उनकी कविताओं की खूब चर्चा हुई। उनका लेखन,भारतीय सिनेमा पर है, उन्होंने कहानियाँ लिखी हैं और विदेशी कहानियाँ,कविताओं का हिन्दी में अनुवाद किया है। आज भी उनकी सक्रियता देखते बनती है।
‘कुजात’ कविता संग्रह में कुल 32 कविताएं हैं जिनके आधार में कवि का समाज है,समाज के भीतर का अन्तर्विरोध है,भावनाएं हैं,रिश्ते हैं,मानवता आदि खूब रचे-बसे हैं। ‘देश’ कविता का विस्तार बहुत व्यापक है,आठ किलोमीटर दूर से आयी स्त्री गीली लकड़ियाँ फूँक-फूँक कर आलू-चोखा और गर्म भात खिलाती है,उसके पास कोई पक्के कागज वाला घर नहीं है,वह देशप्रेम की चर्चा नहीं करता,गुमसुम,खामोश हो जाता है राष्ट्रीय ध्वज में लिपटे,सरहद से लौटे शांत निस्तेज चेहरे को देखकर। कवि की पंक्तियाँ देखिए-“टीवी एंकरों की बहसों में/इन दिनों बेतरह आता है यह शब्द/सबका बढ़ जाता है रक्तचाप/खौलने लगता है खून।” कवि का संकेत स्पष्ट है-“यह एंकर विषैले वायरस से भी अधिक खतरनाक है/यह दुष्ट आपके पड़ोसी से बोलचाल बंद करा सकता है/घर में दीवार खड़ी करा सकता है/शहर में दंगा करा सकता है।” कवि ने अपनी कविता में उन सारी परिस्थितियों से सावधान किया है जिसमें आम आदमी पिस रहा है या शिकार होता है। कवि विचारों के साथ खड़ा है,उन लोगों की बात करता है जो प्रश्न करते हैं,कटघरे में बंद हैं। सहमत-असहमत होना संभव है। कवि कहता है-“साधो! आपको गलत लग सकता है/लेकिन सच तो यही है/नकली देश प्रेम अफीम-सा नशा है/दिमाग बन जाता है जिसका गुलाम।”
‘यातनागृह’ मन को झकझोरने वाली कविता है। कवि के सारे बिम्ब डराते से दिखते हैं,सावधान करते हैं और प्रश्न खड़ा करते हैं। चारों ओर विनाश और विध्वंस है-इश्क/यहाँ नाजनीन/मर्द से नहीं,कफन से करती हैं/जब वह आशिक से मिलती है गले/तो उन्हें लगता है कि कब्र पर/सिर रखकर रो रही हैं। कवि की बात चुभ सकती है-आपको बताने से क्या फर्क पड़ेगा/इस समय आप देख रहे होंगे/टीवी पर देश तोड़ने वाली तकरीर/फिर भी बताना मेरा धर्म है। कवि अपनी सम्पूर्ण संवेदना के साथ सबको जोड़ना चाहता है,कुछ पुरानी स्मृतियाँ उकेरता है,आतंकवादियों के मारे जाने की सूचना देता है और वहाँ से आये सेब के गुदे में उसे खून सा चमकता दिखता है।’कोख’ कामकाजी स्त्री की मार्मिक कविता है। यहाँ खुशी है,पीड़ा है,संघर्ष है,काम करते रहने की बाध्यता है। कवि को ग्लानि है-मेरी ग्लानि की कोई सीमा नहीं है/जीवन रचने के क्षण में/वह निराहार तारे गिन रही है। उसी मां को वृद्धावस्था में उसकी संतान छोड़ देती है,कवि भावुक मन से लिखता है-वह हवा में गुम उस शब्द-सा है/जो बोलने के बाद वापस नहीं लौटता/पानी का इंतजार करती/वह रेगिस्तान की खाली बाल्टी है/मौत के लिए/मांगती भीख है। उस मां की स्मृतियों में सब कुछ है- रसोई में रोटी बनाने लगती है/उस भूखे बेटे के लिए/जिसने अभी दरवाजा खटखटाया था/बस अभी कुछ देर पहले/सपने में।’खुदकुशी’ को कवि हत्या मानता है,उनका कहना है-जिंदगी विकल्पहीन है/हर कोई जिंदगी जीना चाहता है भरपूर/आदमी हो/मछली हो या तिलचट्टा। जीने के लिए आदमी तमाम कोशिशें करता है। जब मनुष्य असहाय,निरुपाय हो जाता है-जिंदगी की अंतिम गली में/उनके पास बचने के लिए सिर्फ मृत्यु की बस थी। कवि संभावनाएं तलाशता है,अगर यह होता,वह होता तो वे बच सकते थे। कुछ दिन ऐसे ही बातें होंगी और फिर जिंदगी चलने लगेगी। कवि व्यंग्य भाव में लिखता है-नहीं होगी तो बस! किसी के अन्तःकरण में/थोड़ी सी ग्लानि/न ही कोई अपराधबोध/न ही होगा कोई क्षोभ/न कोई प्रायश्चित/न ही संताप/दुनिया बदलने की बात तो एकदम न होगी।
कवि विनोद दास जी अपनी कविता में वर्तमान से शुरु करते हैं,फिर स्मृतियों में से कुछ सुन्दर,मधुर चित्र खोज लाते हैं और अंत में विसंगतियों से भरा विद्रुप दृश्य उकेरते हैं। इस बीच कर्तव्यनिष्ठा,संघर्ष,प्रेम की ललक,जीवन की लाचारी,वेदना,संवेदना,सुख-दुख,अंत बिल्कुल निरीह,स्याह सफेद और बन जाती है खूबसूरत, मार्मिक,भावनाओं से भरी यथार्थ कविता। यह उनकी अपनी शैली है,किसी को अच्छी लगे या न लगे। ‘सिपाही’ कविता को ही देखिए-शायद ही कोई इनसे खुश हो/खुद इनकी अपनी आत्मा भी नहीं/घर में पत्नी नाखुश/और बाहर पंसारी/जो उनकी बीवी को उधार देते-देते/आ गया है आजिज। आगे देखिए-संसार की कोई भी राजसत्ता/इनकी भुजाओं के बिना नहीं चलती/चाहे बीते समय की राजशाही हो/या आज का कथित लोकतंत्र। विनोद जी ने ‘सिपाही’ के जीवन का,स्थितियों का और सम्पूर्ण मनोविज्ञान का सजीव चित्रण किया है।
‘दूसरी दुनिया’ कविता में मनोविज्ञान है जिसे कवि पूरी दुनिया को समझाना चाहता है-मुसाफिरों के लिए/वह सिर्फ प्रार्थना थी/कुछ के लिए आने-जाने की बाधा/कुछ के लिए और कुछ। आगे लिखते हैं-लेकिन इस क्रूर दुनिया में/चलती ट्रेन के भीतर/दरअसल उसके लिए/यह एक अपनी सृष्टि थी। कवि ने पक्ष में बहुत कुछ कहा है,हम-आप सहमत-असहमत हो सकते हैं। किसी के द्वारा देश,काल,परिस्थिति के वैज्ञानिक चिन्तन से इतर का मामला है, सब समझते हैं और कवि भी। इसी क्रम में ‘ईद मुबारक’ में कवि की पीड़ा समझना सहज नहीं है। कवि की खुशी सराबोर कर रही है। तुलसी दास जी ने कहीं लिखा है-” जाकी रही भावना जैसी”,हम अपनी भावनाओं और अनुभवों के आधार पर दुनिया के बारे में चिन्तन करते हैं। ‘साध्वी’ कविता में कवि की भावनाएं चकित करती हैं। साधु या साध्वी होना भीतरी संकल्प से तय होता है,वहाँ ऐसा चिन्तन नहीं होता। आश्चर्य है,एक की ट्रेन में प्रार्थना कवि को महत की ओर ले जाता दिखता है और दूसरी कविता में वह स्त्री देह में खोया हुआ है। दुनिया जैसी भी हो,हमें वही दिखाई देता है,जैसा हमारा भीतरी होता है। ‘गाना’ व ‘आशा’ दो भिन्न परिस्थितियों की कविताएं हैं और कवि एक ही है। ऐसा ही हमारा जीवन है। महत्वपूर्ण है,कवि के भीतर की संवेदना,कवि का चिन्तन और कवि की पक्षधरता। एक में कवि “आजादी की मस्ती” अनुभव करता है और दूसरी में उसकी “आशा बच गयी है।”
आजकल कवि विनोद दास को पढ़ रहा हूँ। ‘कुजात’ कविता संग्रह की कविताएं कवि के भीतर की हलचल को खोलकर दिखा रही हैं,भीतर की बेचैनी,खोयी चीज खोजने की बेचैनी और वह सब कुछ जो केवल कवि ही कर सकता है। थोड़ी निराशा हो रही है,अब तक कवि को पढ़ने से वंचित जो रहा। मतभेद अपनी जगह है,कवि का संदेश अपनी जगह और मेरा आनन्द अपनी जगह। उनकी कविताओं में रचना-प्रक्रिया खींचती है अपनी ओर और चमत्कृत करती है। ‘मूँगफली का दाना’ व ‘कवि का काम’ दोनों उनके दो धरातलों पर पाठक को खड़ी करती हैं परन्तु अन्तर्धारा एक ही है-खोना क्या होता है/उसे बताना मुश्किल है/खोयी चीज खोजने की बेचैनी/अपने को खोजने-सी लगती है। उसी तरह दूसरी कविता की पंक्तियाँ देखिए-तस्वीर में उसकी हँसी आयी/पीछे का पेड़ आया/उसका हरापन भी/उड़ता सफेद मटमैला बादल भी/लेकिन वह नहीं आया जो मैं चाहता था। ‘चोरी’ कविता के बिम्ब और विस्तार को देखिए,यह जीवन्त कवि की उड़ान है। कविता बहुत सी वर्जनाओं को तोड़ती दिखती है और कवि का साहस दिखाती है। असली विनोद दास यहीं हैं,जिन्हें शुरु के दिनों में मिला था। व्यक्ति कितना भी आसमान घेर ले,कुछ महत्वपूर्ण मूल चीजें कभी नहीं बदलती। सहजता से बड़ी-बड़ी बातें कह देने का हुनर विनोद दास जी में है। ‘जीने की खुशी’ व ‘आवाजें’ कविताएं देखिए। अन्तर्विरोध और मार्मिकता पाठकों के मन को स्पंदित करते हैं-समस्त चराचर की तमाम आवाजें/मेरे लिए नहीं है/फिर भी अभिशप्त हूँ/सुनने के लिए/कुछ आवाजें/मेरे लिए होती हैं/सुनता है उसे कोई और। विडम्बना देखिए-वह मेरे पास नहीं है/जहाँ है,वहाँ मैं नहीं हूँ। कुछ और देखिए-प्यार/एक रोशन खिड़की है/जिसे देखते हुए एक आदमी उम्र गुजार देता है/जीवन की अंतिम हिचकी लेते हुए। कवि के भीतर प्यार की भूख है परन्तु जहाँ,जिस रुप में,जिस तरह खोजता है,उसे नहीं मिलता और अचानक, अनायास नींद में मिल जाता है उसका प्यार।
विनोद दास जी के इस संग्रह में बहुत ही भयानक शीर्षक “बलात्कृता का हलफनामा” वाली कविता है। शीर्षक से ही धड़कन तेज हो जा रही है,पता नहीं,जीवन का कौन सा वीभत्स स्वरुप उभरने वाला है,कौन सा सत्य उजागर होने वाला है और मानवता का कौन सा क्रूर चेहरा नुमाया होने वाला है। उस पीड़ित चरित्र और कवि दोनों के लिए साहस की बात है,इस विषय को दुनिया के सामने लाना। कवि की अनुभूत दुनिया या चरित्रों तक पहुँचना महत्वपूर्ण है,जोखिम भरा और मानवता पर कलंक का उद्भेदन है। इस कविता में प्रयुक्त शब्द और सारे बिम्ब दुखी करेंगे,आक्रोशित करेंगे,झकझोरेंगे और रिश्तों के आवरण धराशाई होते जायेंगे। बलात्कार पर इससे बड़ी और यथार्थ कविता शायद ही कभी लिखी गयी हो। उसे सब कुछ पता है,सारा रहस्य समझती है,इसलिए आत्म दाह करने वाली नहीं है। उसे पता है,”जीवन बहुत सुन्दर है।” अंत में अपना अन्तर्विरोध समझाती है-मेरा मन एक किले जैसा दुर्भेद्य है/जो किसी भी आक्रमण से नहीं जीता जा सकता/लेकिन मासूम है इतना/कि एक सुन्दर फूल पेश करने पर भी हार देता है/अपना सर्वस्व। ‘कुजात’ कविता के नाम पर ही संग्रह का नामकरण हुआ है। कवि ने उन सभी मार्मिक परिस्थितियों का उल्लेख किया है जिसका शिकार हमारे बीच का एक वर्ग होता है। यह विभाजन दुखदायी है। कवि ने अनेक हृदयस्पर्शी दृश्यों को दिखाया है,अपना मत व आक्रोश व्यक्त किया है और इस तरह कवि की प्रतिक्रिया ध्यान खींचती है। उसके द्वारा प्रयुक्त बिम्बों से लोगों में सामाजिक चेतना जागनी चाहिए,जागती भी है और बदलाव भी हो रहे हैं।
आजकल अधिकांश लोग प्रतिक्रियाएं करते हैं,कभी किसी के उकसावे पर या कभी स्वतःस्फूर्त होकर। साहित्यकार को इससे बचना चाहिए। हमारा चिन्तन सम्पूर्ण मानवता के लिए हो और हमें कमजोर के पक्ष में खड़ा होना चाहिए। ‘सड़क पर मोर्चा’ में कवि के भीतर की भावनाएं हैं,अन्तर्विरोध है और संघर्ष है। यह अनेक विसंगतियों वाले उदाहरणों से भरी हुई है,कवि उत्साहित है, दुनिया के सामने ऊँची-ऊँची आवाज में पढ़ते हुए और लोग तालियाँ बजा रहे हैं। कवि जो समझाना चाहता है,लोग समझते हैं और डटे हुए हैं। शेष लोगों को खारिज कर दिया जाता है। सबके अपने-अपने सरोकार हैं। कवि के भी हैं जिसके लिए हर कवि लगा हुआ है और यहाँ बहुत कुछ स्पष्ट हुआ है। सही क्या है, गलत क्या है,पाठक समझते हैं और समय आने पर बता भी देते हैं। तभी यह दुनिया चल रही है वरना कब कि खत्म हो गयी होती।
कवि विनोद दास जी की विशेषताएं देखिए ‘मंगलगान’ कविता में,ढोल की थाप पर पृथ्वी हुलस रही है। खामोश हिचकियाँ/लाल-पीली चूड़ियों का हास-परिहास सुनते हुए कहते हैं-सिर्फ मंगलगान नहीं/यह टूटे पंखों की उड़ान है/आधी पृथ्वी की पुकार है/लामबंद होने के लिए/इसमें दुख की चिट्ठियाँ हैं/जो कभी अपने पते पर नहीं पहुँची। यहाँ संवेदनाएं हैं और अन्तर्विरोध भी,कवि को सब दिखाई दे रहा है,पसीना पोंछते हुए एक स्त्री गायन दल में शामिल होती है,मिला लेती है सबकी आवाज के साथ अपनी आवाज जैसे विदाई के समय पड़ोस की लड़की को भर लेती है अपने आगोश में। हैं न अद्भुत सारे बिम्ब और कवि की छलांग लगाता मन एक विचार से दूसरी परिस्थिति तक? ‘दूसरी तरफ’ में या ऐसी अनेक कविताओं में विपरीत परिस्थितियाँ खूब उकेरते हैं विनोद दास जी। मोबाइल की काॅलर ट्यून बजती है,हर बार कोई परिदृश्य उभरता है,कवि को झकझोरता है-वह मुझसे कोई मदद नहीं मांगती/उसके पर्स में रखे मुड़े-तुड़े अखबार सा भी मैं नहीं/जिससे वह ढंक ले बूंदाबांदी में अपना सिर/फिर भी सब कुछ बताती रहती है मुझे/उसके लिए इतना ही काफी है/कि इस बड़ी दुनिया में कोई उसका है/और सुन रहा है उधर/दूसरी तरफ। संवेदना की ऐसी अनुभूतियाँ विनोद दास जी के हृदय में ही उभर सकती हैं। कविता ‘चालीस साल’ में उसी कवि का मनोभाव समझिए। ऐसा होता ही है,समय के साथ सब बदल जाता है परन्तु मन नहीं समझता-चालीस साल पहले/उसके जिस लावण्य को देखकर/थरथराने लगते थे मेरे होंठ/चढ़ आता था वासना को बुखार/वह अब जल्दी आँख के दायरे में भी नहीं आता। उम्र के साथ बदलती परिस्थितियाँ,शरीर की दशाएं,एक-दूसरे में समर्पित मन,विश्वास और कोई कसक,कवि ने जीवन का सच खोल कर रख दिया है इस कविता में। कविता सबके हृदयों में उतरती है क्योंकि यह सबका सच है-हर क्षण/विरह का डर हमें सताता रहता है/और जिन्दगी लता-सी हमसे लिपटती रहती है। कवि की दृष्टि घर की हर वस्तु से लेकर सम्पूर्ण सृष्टि तक पहुँचती है,उसके रुप,रस,गंध के बदलाव को महसूस करती है और ‘रंग’ कविता रची जाती है। यहाँ प्रेम की भावनाएं हैं,जीवन में पसरती विसंगतियाँ भी,अंत में कवि को लगता है-सिर्फ मनुष्यता का रंग होता जा रहा है/स्याह और मलिन/मेरी आँखों के नीचे बढ़ते हुए/काले गोल धब्बों की तरह।
अपनी जमीन से दूर का प्रवास हर किसी को कचोटता है,अपनी मिट्टी और मां की थाली की याद आती है। अधिकांश लड़कियाँ अन्तर्विरोध की दुःसह पीड़ा झेलती हैं जिन्हें मायके के वापसी का रास्ता धुँधला हो गया है। पति किसी प्रेत की तरह है-वह उससे डरती है/जैसे तिलचट्टे से डरती है/जैसे छिपकली से डरती है/जैसे सांप से डरती है/वह उसकी उपस्थिति में डरती है/वह उसकी अनुपस्थिति में भी डरती है। पति किसी जासूस की तरह लगता है जो खंगालता रहता है-उसका अतीत/उसका कोई पुराना प्रेम पत्र/किसी पुरुष मित्र के साथ उसकी तस्वीर। कविता देखिए-फिर भी उसकी दीर्घायु के लिए/वह रखती है भूखी प्यासी निर्जल व्रत/जो उसके रोमांचित शरीर के संगीत से बेखबर/हर रात सोता है उसके निकट/खर्राटे भरती एक लाश की तरह/अगली सुबह उसके खुरदरे हाथ में होता है/उसके लिए गर्म चाय का प्याला/शाम को सोने के पहले वह काढ़ती है फिर अपने केश/उलझने-बिखरने की उम्मीद में। विनोद दास जी की यह ‘प्रेत’ कविता सहज भाव से व्यक्त करती है,संवेदना,पीड़ा और ऐसे हालात में जीने की मजबूरी। ‘बांग्लादेशी गीता बाई’ में अलग व्यथा की कहानी है। कवि के विचार ऐसे ही हैं,वह इससे अलग सोच ही नहीं सकता,वह जानता है देश की अवधारणा परन्तु अपनी भावुकता में कविता लिखता है। ‘युवा’ आज के पढ़े-लिखे युवा की कविता है और देश के वर्तमान हालात पर व्यंग्य भी। ऐसा ही है आज चारों ओर। ‘जोड़ों का दर्द’ मार्मिक और झकझोरने वाली कविता है। यहाँ प्रयुक्त सारे बिम्ब सोचने को बाध्य करते हैं,चिंतन की किसी खिड़की के खुलने की प्रतीक्षा में है,भले ही राजनीतिक न माने,यह कविता उस ओर इशारा तो करती ही है जहाँ सब कुछ यथार्थ भाव से चित्रित हुआ है। ‘बेटे के जन्मदिन पर’ पिता के मन में जागते भय की कविता है। जिनके बेटे बड़े हो गए हैं,जीवन में सफल होकर कहीं दूर हैं और घरों में ताले पड़े हैं-तुम्हारे जेब में सफलता की चाभियाँ/जब खनखनाती हैं/तो मुझे पूरे देश में लगा ताला डराता है। पिता अपनी मनोदशा जाहिर करता है-मृत्यु से मुझे डर नहीं लगता/डर लगता है/कि अंतिम समय में मेरी हथेली पर/अपना हाथ रख पाओगे या नहीं।
‘ईश्वर के दलाल’ कविता में कवि ने खूब तीर-तलवार चलाए हैं और मंचों पर तालियों की गड़गड़ाहट सुनी है। कविता भाव जगाती है-वह यहाँ खोजता है ईश्वर/जैसे छड़ी से टटोल कर खोजता है/अंधा बच्चा अपने पिता को/किसी विशाल मैदान में। हम संसार को जानते हैं क्योंकि वह हमारे अनुभव में होता है। जो हमारे अनुभव में नहीं है उसके लिए विश्वास पूर्वक मौन हो जाना पड़ता है। कवि का अपना तरीका है,वह प्रश्न खड़ा करता है और अपने अनुभवों के आधार पर सारी परिभाषाएं गढ़ता है। कवि की बात से सहमत हुआ जा सकता है-शायद ईश्वर बेरोजगार होता/और ऐसी विभूतियाँ भी/यदि हमारा घर,पास-पड़ोस प्यार से भरा होता/हमने दुखियों की भाषा पढ़ ली होती। संसार के तथाकथित कलाकारों के आधार पर उसने प्रतिक्रियाएं की हैं और ईश्वर को कटघरे में ला खड़ा किया है। किसी को दलाल ना भी कहो, यहाँ सभी लोग अपने-अपने तरीके से ईश्वर को मूर्त करते हैं,ईश्वर इसमें नहीं आता,वह मुस्कराता रहता है। ‘झूठ’ में जो लिखा गया है,झूठ पर इससे बेहतर कविता शायद ही कभी लिखी गयी हो। इसकी हर पंक्ति सच का बयान करती है-कुछ झूठ बच्चों की तरह निर्मल होते हैं/और औचक पकड़ लिए जाते हैं/कुछ झूठ पेशेवर शातिर/अफीम की तरह इतने खतरनाक/कि राज मुकुट पहनकर देश को नींद में सुला देते हैं। कवि की अंतिम पंक्ति पाठकों को लाजवाब करती है-निष्कर्ष यही है/झूठ की अकाल मृत्यु तय है/जबकि सच बचा रहता है/गल्प में भी/अल्पमत में रहने के बावजूद।
‘प्रेम के शुक्राणु’ आधुनिकता की चासनी में पुरानी परंपराओं पर व्यंग्य करती कविता है। कवि के मत से सहमत-असहमत हुआ जा सकता है परन्तु तय तो करना पड़ेगा कि विवाह संस्था की जरुरत है या नहीं। यदि नहीं है तो कोर्ट-कचहरी के प्रमाणपत्र की भी जरुरत नहीं होगी। गवाहों की भी आवश्यकता नहीं है? यह सरल और सहज मामला नहीं है। कवि इन्हें ‘परिणय की आजादी के रणयोद्धा’ कहता है जिन्हें सामाजिक-पारिवारिक ढांचे के बिना जीना है,प्रेम करना है,विवाह करना है,बच्चे पैदा करना है और स्वतन्त्रता-स्वच्छन्दता के साथ रहना है। कवि को सब पता है,तभी तो लिखते हैं-ये फूलों पर चमकती ओस की बात करते हैं/शाखों पर दौड़ती गिलहरियों को देखकर खुश होते हैं/ये चाँद-सितारों में पता नहीं क्या देखते रहते हैं/बियावान में भी हाथ पकड़े घंटों निःशब्द बैठे रहते हैं/असफलता से बेफिक्र/इनके जीवन का व्याकरण ही अलग है। आगे लिखते हैं-कुछ भी कर लो/इनका कोई इलाज नहीं है/ये प्रेम के शुक्राणु हैं। विनोद दास जी की कविताओं में प्रकृति है, आसमान है,चाँद है और कबूतरों के बीच प्रेम-प्रणयन की सक्रियता है।’कोरोना में चाँद’ कविता में चाँद के हवाले से वीभत्स दशाओं का मार्मिक चित्रण हुआ है-अंधेरी चादर के नीचे/मुँह दबाकर धीरे-धीरे/सुबक रहा है चाँद/छिपाने से छिपता नहीं उसका दुख/जैसे छुप नहीं पाती आंकड़ों के रूमाल में/घर में अंत्येष्टि के लिए सड़ती कोरोनाग्रस्त लाश। अंत की पंक्तियाँ उम्मीद जगाती हैं-भोर की उजास में फूलों की पंखुड़ियों पर/चाँद के चमकते हैं आँसू/जैसे मुस्काती है जिन्दगी/रो लेने के बाद।
‘उम्मीद का फूल’ में कवि के भाव देखिए-अकेलेपन की खिड़की के बाहर/खिलखिला रहा है/उम्मीद का फूल। प्रेम के क्षणों में,नायक हवा की लहर के जिह्वाग्र से,फूल के कर्ण-लौ का स्पर्श,खुशबू की तरह मादक खबर सम्पूर्ण दिगन्त तक फैल रही है। कवि के भाव देखिए,उसे कुछ भी अनुभव नहीं हो रहा है जैसे क्रूर और झूठी सरकारें अपने नागरिकों की व्यथा नहीं समझतीं। कवि बेचैन और ईर्ष्यालु है क्योंकि कोरोना कर्फ्यू में वैसा नहीं कर पा रहा है जैसे सूर्य पंखुड़ियों का अपने उष्मित अधरों से खुलेआम स्पर्श कर रहा है। यहाँ पाठक गण कवि की प्रियतमा की मनोदशा का अनुमान लगा सकते हैं। यही असली मनोभाव है जिसे वह सम्पूर्ण संसार को बताना चाहता है। मेघदूत के निष्कासित बिरही यक्ष की मनोदशा को याद कीजिए,कवि स्वयं लिखता है-मैं सुदूर बैठा उसे निरखता हूँ/घर के सींखचों से/और उदास हो जाता हूँ/मन का जिद्दी भंवरा/फूलों पर मंडराता है/लाता है अपने पंखों पर पीला पराग/गुप्त प्रेम की तरह।
कविताओं को पढ़ते हुए पाठकों को लगता है,कवि के भाव-विचार बंटे हुए हैं। कभी वह अन्याय के खिलाफ मानवता के साथ जुलूस में नारे का पक्षधर है और कभी प्रेम के लिए तड़पता दिखता है। दोनों परिस्थितियों की कविताएं अपनी भाषा-शैली,संवेदनाएं,प्रेम या आक्रामकता लिए प्रकट होती हैं और स्पष्ट पहचानी जा सकती हैं। विनोद दास जी आज एक स्थापित,बहुचर्चित कवि हैं, हिन्दी साहित्य जगत में पैठ बना चुके हैं और हिन्दी साहित्य को समृद्ध कर रहे हैं।
विजय कुमार तिवारी
(कवि,लेखक,कहानीकार,उपन्यासकार,समीक्षक)
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