समीक्षित कृति : प्रियतमा (काव्य संग्रह) साहित्यकार : डॉ. फनी महांति मूल्य : रु 200/- प्रकाशक : नमस्कार बुक्स, नई दिल्ली
समीक्षक
विजय कुमार तिवारी
साहित्य सुख देता है,जीवन की उलझनों को सुलझाता है और पाठक के मन को किसी गहन आलोक से भर देता है। काव्य,दीर्घ काव्य या प्रबंध काव्य चरम रसानुभूति देते हैं और कवि,श्रोता व पाठक सभी आनंद की अनुभूति करते हैं। काव्य संसार में डूब कर ही कवि अपनी अनुभूतियों को मूर्त करते हैं। यह सहज भी है और जटिल भी। कवि अपने समाज को,अपना व अपने समाज के जीवन को, प्रकृति को,जीव-जन्तुओं को, भीतरी-बाहरी सौन्दर्य और मन की बेचैनी को काव्य के माध्यम से प्रस्तुत करता है। वह अपनी खुशी,अपनी पीड़ा,अपनी व्यथा दुनिया के सामने परोस देता है और इस तरह स्वयं में सहजता की अनुभूति करता है। सहज होना, शांत होना और भीतर की उड़ान को सामने ला देना हर किसी का वांछित उद्देश्य होता है। जिसकी जितनी गहरी अनुभूति,उतना ही गहन चिन्तन और उतना ही व्यापक सृजन। करुणा, संवेदना,प्रेम और मानवता के हित में साहित्य लेखन रचनाकार को गौरवान्वित करता है। कवि अक्सर चौंकाते हैं,जीवन की छोटी से छोटी सामान्य वस्तु से जुड़कर कोई बड़ा परिदृश्य रच देते हैं।
साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित,उड़िया भाषा के बड़े कवि डा० फनी महांति जी का बहुचर्चित काव्य संग्रह “प्रियतमा” मेरे सामने है। मूल रुप से इसका सृजन उड़िया भाषा में हुआ है जिसका हिन्दी में अनुवाद देश के जाने-माने लोक-संस्कृतिविद् डा० महेंद्र कुमार मिश्र ने किया है। डा० महांति जी से परिचय और भेंट मेरे भुवनेश्वर आने के बाद ही हुआ है। मेरी सीमा है,मैं उड़िया पढ़ नहीं पाता, फिर भी यहाँ के अनेक लेखकों,साहित्यकारों से जुड़ा हुआ हूँ और हिन्दी में उपलब्ध उनके मूल साहित्य या अनुवाद को पढ़ता रहता हूँ। मैंने डा० विजय कुमार महारना,अनिमा दास,पारमिता सारंगी जैसे चर्चित कवि-कवयित्रियों के काव्य संग्रहों की समीक्षाएं की है। प्रथम मुलाकात में ही डा० महांति ने अपना प्रबंध काव्य ‘अहल्या’ और काव्य संग्रह ‘प्रियतमा’ मुझे सहर्ष भेंट स्वरुप प्रदान किया। ‘अहल्या’ पर लिखी मेरी समीक्षा कनाडा की पत्रिका साहित्य-कुंज में प्रकाशित हुई।
‘प्रियतमा’ के भीतरी आवरण पर लिखा है-“लगभग पचास साल से ओड़िया कवि फनी महांति जीवन और जिज्ञासा के बीच एक मधुर समता बनाए हुए काव्य साधना में मग्न हैं। महांति का विश्वास है कि प्रेम के पूर्ण समर्पण से कविता का जन्म होता है। शब्द चुनते हुए नवीनता,अनुभव की व्याप्ति और गहराई को मान्यता देते हुए वे कविता रचते हैं। अन्नमय कोष से आनंदमय कोष तक उनकी कविता की महायात्रा प्रसारित है।” ‘प्रियतमा’ उनका एक अनोखा कविता संग्रह है। उन्हें केन्द्रीय साहित्य अकादमी व ओड़िया साहित्य अकादमी सहित साहित्य के अनेकों पुरस्कार/सम्मान मिले हैं। 83-84 वर्ष की उम्र होते हुए भी उनकी सक्रियता और साहित्य साधना हम सभी के लिए अनुकरणीय है।
काव्य संग्रह के शुरु में ‘शिरोनामा” शीर्षक के अन्तर्गत उन्होंने स्वयं लिखा है-”ओड़िशा में कला,प्रस्तर शिल्प,पट्टचित्र,संगीत,नृत्य,भजन और कीर्तन,लोक में प्रचलित सर्जनशीलता के लिए यह भूखंड देश-विदेश में बहुचर्चित रहा है। उसी कला संपदा का प्रत्यक्ष और परोक्ष प्रभाव बाल्यावस्था से मुझपर पड़ा है। इस कारण साहित्य की अन्य विधाओं में भी कुछ लिखने की अपेक्षा, मैं कविता के प्यार में अंधा हूँ। अब तक प्रकाशित 25 कविता की पुस्तकों में से ”प्रियतमा” मेरी आत्मा की आवाज है। ”प्रियतमा” ऐहिक प्रेम का विज्ञापन नहीं है। अलौकिक प्रेम का यह एक प्रतिदर्श है। प्रियतमा की मानव नायिका का पर्यवसान अलौकिकता की भूमि में हुआ है। निर्मल और निविड़ प्रेम से ही मेरी कविता का जन्म हुआ।” उन्होंने आगे लिखा है-“सचराचर विश्व प्रेम से बँधा हुआ है। प्रेम कवि के लिए एक मधुर पीड़ा और मधुर मृत्यु है। मेरे लिए प्रेम ही आध्यात्मिक महानंद है।”
डा० महेंद्र कुमार मिश्र ने अपने सारगर्भित लेख ”अनुवाद के अन्तर्लोक में” लिखा है-“प्रेम,नारी,श्रृंगार, सौंदर्य,समर्पण और समाधि कविता के कल्पलोक में सदा विद्यमान रहे हैं। प्रेम को परिभाषित इसलिए नहीं किया जा सकता कि वह शब्दातीत है, अनुभूति गम्य है। प्रेम ही हृदय में आनंद का उत्स है। यही प्रेम अध्यात्म का प्रवेश द्वार भी है।” उन्होंने आगे लिखा है-”दुनिया भर में विकसित विभिन्न काव्य विधाओं में प्रेम-कविता आम है। प्रेम -कविता को पढ़ने का मतलब है- अपने प्रेम की अनुभूति, जिसे नकारा नहीं जा सकता।” अपने अनुवाद को लेकर उनका कहना है-“अनुवाद वास्तव में अनुसृजन है-दो भाषाओं और दो संस्कृतियों का। हालांकि प्रियतमा और नारी,प्रेम और छल,प्रताड़ना और व्यर्थता सार्वजनीन है तथा किस संस्कृति में इसका कैसा वर्णन होता है,केवल दृष्टिकोण पर निर्भर होता है। भाषा विशेष किस प्रकार उसकी संस्कृति से उपजती है,कैसे उस शाश्वत प्रेम को भाषा में लक्षणा,व्यंजना से अभिव्यक्त किया जाता है,उसे दूसरी भाषा में यथावत व्यक्त करना कठिन है क्योंकि प्रत्येक भाषा उसकी संस्कृति की आँख होती है।”
डा० फनी महांति ने अपने काव्य संग्रह ”प्रियतमा” को छोटी-बडी 42 काव्य खंडों मे विस्तार दिया है और प्रेम को समझने-समझाने की कोशिश की है। प्रेम की यह यात्रा अद्भुत है। लौकिक-अलौकिक व पारलौकिक प्रेम का दिग्दर्शन करवाता सचमुच यह कवि का अद्भुत सृजन है।
प्रियतमा छोड़कर चली गई है,कवि अकेला है और स्वयं को समुद्र के अतल जल में डूबता हुआ महसूस करता है। दुख की नीली नदी के किनारे बैठकर वह प्रियतमा की फीकी सूरत देखता है जो उसके किस्मत में गहन काली साया सी है। गला सूख रहा है,आसमान में बारूद की बू फैली है,उनकी अनुभूति देखिए-उठती-गिरती मेरी छाती,प्रियतमा,/हर पल मधुर और कोमल शब्दों से/हर पल जीता हूँ और मरता भी हूँ/किसी अपूज्या अभिशप्ता योगिनी के/अरमान से। वह विह्वल हो पूछता है-धूल में सनी हुई मेरी सलवट/हरे रंग के झरझरे पतले बदन को/गंभीर संवेग में आलिंगन करोगे?/कपाल से टपकते हुए पसीने को तुम अपने/सफेद शंख जैसे पल्लू से साफ करोगे? कवि हर पल शब्द जोड़ता और तोड़ता है। ऐसे ही भाव-चिन्तन में मैंने भी कभी लिखा था-जोड़ता हूँ जिंदगी से एक नाता/तोड़ती है जिंदगी भी एक नाता/फिर विकल क्यूँ? प्रथम और आखिरी वादे के बाद प्रियतमा चली गई है। वह पूछता है-क्या प्यार किसी निषिद्ध पेड़ का फल है? उनके पास प्रेम और प्रकृति के नाना बिंब हैं, चकित करते हैं और चमत्कृत भी। प्रश्न वाली शैली संवाद में गहन रोचकता के साथ पीड़ित मन में उम्मीद जगाती है। कविता में उनके शब्द संगीत पैदा करते हैं,प्रश्न मन के भाव उजागर करते हैं और आभूषण प्रियतमा का मोहिनी रुप दिखाते हैं। कवि रंगों को लेकर आह्लादित है और कोई मनोहर दृश्य रच देता है। वह प्रियतमा को धीरे-धीरे आते हुए महसूस करता है और देर नहीं करने की गुहार लगाता है। वह सहजता से कहता है-आखिरी वादे के बाद तुम चली गई और मैं तुम्हें नाना कल्पनाओं में चित्रित करता हूँ,तुम्हारे पवित्र बदन की स्मृति में खोया रहता हूँ। वह अपनी पीड़ा दिखाता है,बिंब देखिए-अनजाने भय और आतंक में/जैसे टूटता हुआ एक सूखा पेड़। तुम्हें गए सदियाँ बीत गई हैं,हर पल तुम्हारी परछाई देखता रहता हूँ,गला सूख गया है,तुम तो अभिमानी चंद्रमुखी हो,यहाँ पल-पल मेरी आपदाएं बढ़ती जा रही हैं। कवि की प्रश्न वाली शैली देखिए-कौन सी नारी शर्म छोड़कर/चुंबन देती है/कौन सी नारी मद और मात्सर्य में/होती उन्मत्त? इसका आशय है,तुमने स्वयं यह सब किया है और अब मेरा मन नहीं लगता है विषय वासना में। ऐसी अनुभूतियाँ कवि के भीतर के बदलाव का संकेत दे रही हैं।
अगले खण्ड में वह तनिक तल्खी दिखाता है और अपनी भावनाएं व्यक्त करता है-सन्यासी बनना भी नहीं/दूसरे कोई लावण्यमयी के प्यार में फँसना भी नहीं/मेरा कविता लिखना भी प्रतिबंधित है। वह उलाहनाओं के साथ पूछता है-स्नेह,श्रद्धा, सहानुभूति से/बाँधकर दो बाहुओं के बंधन में/क्या एक नारी कर सकती है उसकी हत्या। कवि सब कुछ किस्मत मानता है-कवि होकर जन्म लेना/कवि जैसा जीना और मरना/और सुंदरी नारी से प्यार करके/सारा जीवन हैरान होना। वह सजाना-सँवारना चाहता है अपनी प्रियतमा को,मन विह्वल है, आमंत्रित करता है-जकड़ जाओ मेरे बदन में/छोड़कर भय और लाज। वह पूछता है-गहन घोर जंगल में आँधी और/इस ठंडी रात में/क्या बदन समझ सकता है लोकाचार/और नीति और नियम?/बदन के संपर्क के बिना। वह अकेलापन अनुभव कर रहा है,तमाल वन में भयभीत है और विह्वल हो पूछता है-कब आओगी तुम? प्रेम की इन अनुभूतियों को समझना सहज नहीं है। फनी महांति प्रेम की सम्पूर्ण स्थितियों-परिस्थितियों,भाव-संवेदनाओं और संवेगों को खुलकर चित्रित करते हैं। प्रेम की यात्राएं ऐसी ही होती हैं। कवि अपनी प्रियतमा को कोई नाम से पुकारना चाहता है, भाव देखिए-चाहे जिस नाम से पुकारूँ,तुम्हारा ही नाम प्रतिध्वनित होता है। कविता बिंबों के सहारे आगे बढ़ती है,उम्र चौंसठ साल हो गई है,कभी तुम मां जैसी,कभी पत्नी जैसी लगती हो और तुम्हारे प्यार में मेरा अपाहिज जीवन बँधा हुआ है। कवि कुछ भी छिपाना नहीं चाहता,पत्नी की माँगें,मां की तबीयत,गाँव की तीन पीढ़ियों की जमीन, घर,आँगन,आम के बगीचे,उजड़ा हुआ मछली का तालाब,उत्सव-महोत्सव, और समाज के चुभते प्रश्न सब कुछ सुनाना चाहता है, पर रुँधी हुई सांसों द्वारा कुछ भी कह नहीं पाता। उनके मन का भाव देखिए-मैं इंतजार करता रहूँगा/इस उम्मीद के साथ/कि तुम गलती से भी राह भटककर/आ जाओगी यहाँ। प्रियतमा की सोच में दिन-रात मन जर्जर रहता है,चौदहों भुवन अंधेरा लगता है,लगता है किसी जोगिनी ने पकड़ रखा है,याद में मंदार की माला पहनकर नाचता रहता है, स्मृतियाँ सालती रहती हैं,वह किससे अपनी पीड़ा कहे? कवि परिचय लिखता है-धरती में हिल जाता है मेरा पैर/मैं तुम्हारे प्यार में बाँधा हुआ/एक जाति,गोत्र,कुलहीन उदास प्रेमिक।
प्रेम रह-रह कर स्मृतियों में खींच ले जाता है। एक पल के वार्तालाप के लिए एक जीवनकाल भी कम है और मन विकल है,लाखों-करोड़ो युग साथ-साथ जीने के लिए। तुम्हें समझने के लिए/एक जीवनकाल पर्याप्त नहीं है/मरते-मरते मैं जिंदा हूँ,खास तुम्हारे लिए। कवि की उलाहना देखिए-तुम्हारे पास अभिशप्त प्रेमी की तरह सारा बंधन तोड़ कर आया था। कवि याद करता है-पाटली फूल का जूड़ा,उसी के रंग जैसी साड़ी। वह पास बुलाता है-आओ,पास बैठो/खुले मन से कुछ बात करो।
काव्य में अनुवाद की अपनी सीमा है और फनी महांति के मूल काव्य का प्रवाह, उनकी धार को अनुवाद में ला पाना सहज नहीं है। उन्होंने भारतीय प्राचीन साहित्य को पढ़ा,समझा है और महान कवियों की भाव-संवेदनाओं से अनुप्राणित होते रहे हैं। उनकी कविताओं में सारे दृश्य सहज हैं,बिंब जाने-पहचाने हैं,प्रेम-जनित वियोग की पीड़ा के भाव अपरिचित नहीं हैं परन्तु उनकी करुण पुकार, उनका आर्त-क्रंदन और बार-बार विचलित होना पाठकों को विह्वल कर देने वाला है। वे संकोच नहीं करते, लोक-लाज की चिंता नहीं करते बल्कि भीतर की पीड़ा उड़ेल देते हैं। यथार्थ चित्रण हो तो साहित्य चमकदार होता है और हृदय को छूता-सहलाता है। आसमान में बादल सी उड़ती तुम कोई अनजान सी अकेली चिड़िया और नीचे पृथ्वी पर अकेला कवि तुम्हारे बिना बेसहारा। प्रियतमा का स्वाभाविक चित्र देखिए-यादों के फूल के बगीचे में/तुम मेरी फूलों की रानी/जूड़ा में खोंसे हो फूल लाल रंग की/बिंब लाल अलक्तक में/हल्दी के गुरु-गुरु सुबास में/बिन सावन की बादल जैसी/तुम दिखती हो शांत और उदार। कवि जूड़ा खोल देने का आग्रह करता है,पहले आषाढ़ में,मन और उम्र दोनों उत्तेजित हैं,वह प्रियतमा के खुले जूड़े में फूल पहनाना चाहता है और उनकी यादों की नदी में दुख का जहाज तैर रहा है।
यादें घने काले बादलों जैसी हैं,रक्तचाप बढ़ा देती हैं, पंक्तियाँ देखिए-किसी प्राण-पखेरु सा/जला हुआ प्राण को छोड़कर उड़ जाता है/पंख टूटता है,पंख उगता है/राह खत्म नहीं होती/एक आसमान से दूसरे आसमान एक/महाकाश में तुम्हारी याद,लहराती हवा में। चन्द्रालोक तुम्हारी पहनी हुई साड़ी जैसी है,तुम खूब गोरी दिखती हो/चन्द्रालोक में मोहिनी वेश में। कवि सोचते हुए मन ही मन हँसता है,रोता है,अनजाने दुख के भय से डरता है और थक जाता है ढू़ँढते-ढू़ँढते। फनी महांति के एक-एक शब्द उनकी गहन पीड़ा दिखलाते हैं और प्रेम का अद्भुत संसार रचते हैं। यह भाव-प्रश्न देखिए-किसके शरीर में आत्मा में/तुम साया-जैसी छिपकर/रही हो,प्रियतमा? दुख से भरा हुआ कवि यमुना के तट पर बैठा प्रतीक्षा कर रहा है-आओ,आओ,देर मत करो। विरही मन याद दिलाता है-तुमने वादा किया था साथ-साथ रहने का साया जैसा। कवि का पाँच फीट सात इंच का लंबा साँवला बेसहारा शरीर सूखकर कांटे की तरह हो गया है,इसकी हिफाजत करने के लिए तुम्हारे अलावा कोई नहीं है। नाना तरह की सार्थक-निरर्थक कल्पनाएं वियोगी-प्रेमी करता ही है और पूछता है-प्रियतमा/गेरुआ रंग की शांत शीत में/बुद्ध की मूरत जैसी तुम वरद मुद्रा में/किसी कल्पित पुरुष की बाहु-बंधनों में/या किसी युगल मूरत की चाँद में चित्रार्पित/किसी भग्न मंदिर में/कहाँ हो प्रियतमा? प्रेम की दुःसह अवस्था देखिए-बोलो प्रियतमा,/कौन हो तुम और कौन हूँ मैं?/अब हम दोनों कौन कहाँ?
कवि की इन पंक्तियों में प्रेमी मन की सम्पूर्ण भावनाएं,प्रेम,वियोग,संयोग की चाह, शोक,पीड़ा, उलाहनाएं,पुकार,तड़प,बेचैनी और बेचारगी सब कुछ उभरता है। प्रेम की एक अवस्था यह भी होती है-तुम मुझे भूल जाओ तो प्रियतमा/सच बोलता हूँ,आज से बात खत्म। यह अनुभूति देखिए-जीवन और मृत्यु से/कितने नजदीक हैं हम प्रियतमा/हमारा प्यार/शरद के आकाश जैसा शांत और निर्मल/पान के पत्ते में मणि मुक्त जैसी तुम्हारी याद/हृदयाकाश में विराजमान। जीवन और मृत्यु की स्थितियों के बीच नाना बिंब झकझोरते और चमत्कृत करते हैं,कवि की उम्मीद देखिए-यह जन्म आखिरी जन्म नहीं है/मृत्यु के बाद हमारा मिलना होगा एक दिन/आदि-अंत ही हमारे प्रेम,हमारे पहचान। जन्म-मृत्यु का चिंतन करता हुआ वह प्रतीकों को साधता है,उसे अपनी प्रियतमा की सूरत भयानक दिखती है और स्वयं को कवि चित्रित करता है-मैं भद्र द्वारपाल/सोलह हजार वंशी का वादक/संभोगी पुरुष जैसा । उनकी पंक्ति देखिए-किस प्यार में पागल किया है तुमने/टूट चुकी है मेरे पैर और घुटने की हड्डी। वह बारिश में भीग रही प्रियतमा के घने काले केश और हर श्वास-निःश्वास के साथ उठते-गिरते पयोधराग्र में खोया हुआ है। उसे इस महा घोर दुर्दिन वेला में लोकाचार,रीति-नीति,शास्त्र-पुराण आदि में भूल होने की संभावना दिखाई दे रही है। समझने की जरुरत है,यहाँ कवि विषाद योग की बात कर रहा है।
अक्सर प्रेम में प्रेमी-प्रेमिका रूठकर एक-दूसरे से संवाद न करने की बात करते हैं,कवि का कथन देखिए-आज से बात खत्म/तुम जाओ तुम्हारी राह में/और मैं अपनी राह में। कवि से रहा नहीं जाता,कोई परछाई देख डरता है,कहता है-पलाश के वन में अपने हाथों सजाओ मेरी चिता। बात खत्म,बात खत्म मेरी प्रियतमा। खण्ड-24 की पूरी कविता मानो जीवन व्यामोह का रहस्य खोलती है-लेकिन मरा नहीं तुम्हारे लिए/मानो तुम अकेली हो जाओगी/दुख में टूट जाओगी और सम्पूर्ण पुरुष जाति को दोषी मानोगी। कवि मृत्यु का,चिता का,हाथ में घी लेकर हूत-हूत अग्नि जलाने का नाना दृश्य चित्रित करता है और जन-भावना के प्रश्न लिखता है-सब लोग पूछ रहे हैं,बोलो कवि/कौन है तुम्हारी प्रियतमा। वह कुछ भी छिपाता नहीं,अपनी प्रेम-गाथा का हर दृश्य खुलकर चित्रित करता है-डूबता हूँ मैं तुम्हारे प्यार के/प्रवाल द्वीप में। कवि मृत्यु की विभीषिका का वीभत्स दृश्य देखता है मानो सब कुछ जलकर नष्ट हो रहा है और यह अन्तर्विरोध देखिए-मैं देख रहा हूँ तुम्हारा विश्वरूप। प्रेमी की करुण पुकार देखिए-अगर तुम प्यार करती हो मुझे इस जीवन में/मत करो अविश्वास,मत समझो भूल/कलंक का प्रचार करके मेरा/ पवित्र प्रेम को भूल मत समझो। प्रेमी कवि की याचना देखिए-जन्म-जन्मांतर तक मुझसे/ईर्ष्या मत करो,न छोड़ो मेरा हाथ। कवि विह्वल हो मृत्यु की कल्पना करते हुए पूछता है-पुष्पक विमान चढ़कर सावधानी से/छुप-छुपकर मेरी लाश को/एक प्रेमिका की नजर में देखने के लिए/क्या तुम आओगी? प्रेमी हमेशा अपनी प्रियतमा के लिए शुभ की सोच रखता है-तारा बनकर दिक्-दिक् जलती रहो/नीलगगन में/फूल जैसी महकती रहो/यादों के बगीचे में। कवि की गहन भावना देखिए-जहाँ हो,जैसी भी हो/त्रिकाल संध्या में एक बार/मुझे याद करो/सूखे होंठ में एक बार मुस्कराकर एक चुंबन दे दो। वह प्रेम की कोई ऊँची कल्पना करता है-श्यामल प्यार के बंधन में स्पर्श करो,छुओ/मेरी अमृत आत्मा को/माया से मोहग्रस्त न करो। कवि की चरम भावना देखिए-परम प्रेमिका जैसी/मुझे एक चुंबन दो,पंचभूत को, चलती हुई निःश्वास को/सूँघो,आह्वान करो,स्पर्श करो/सम्मोहित करो,निविड़ आलिंगन के/आह्लाद में प्रियतमा!
कवि ने स्वप्न में प्रियतमा को मंदिर के पास नंगे,मृत शरीर के रुप में देखा,उसकी नींद गायब हो गई,वह भयभीत हुआ मानो कोई सर्प कुंडली मारकर बैठा हो,जिह्वा लप-लपा रहा हो,कवि को उसके मुँह में अलौकिक जगत का विश्वरूप दिखाई दिया जिसमें ब्रह्माण्ड,नक्षत्र,तारे,नद-नदी,दुर्गम पहाड़, कंदराएं,नाना लोक दिखाई दे रहे हैं,कवि के पास भाषा नहीं है,उस दृश्य के वर्णन के लिए। कोई काले बदन का कापालिक तुम्हारे मृत शरीर के साथ रमण करने के लिए आया और वह तांत्रिक पुरुष कार्य में लिप्त हो गया। कवि का भाव देखिए-अनासक्त देवी प्रतिमा की तरह प्रियतमा/लेकिन तुम थी निर्लिप्त और उदास। तुमने कोई विरोध भी नहीं किया और न शोर करके किसी को जगाया। उनका प्रश्न देखिए-क्या तुम सचमुच रति में थकी हुई/एक विमुग्धा नारी जैसी खुद को बिसारकर/लेट रही थी एक मधुर अथक थकान भरे/वह वीभत्स दृश्य में? यहाँ कवि ने संवाद के साथ रोचक और सहज दृश्य रचना की है। कवि तैयार बैठा है,उसने आने का वादा किया है। यह काव्य का मोहक कोई ऐन्द्रजालिक प्रसंग है,कवि की तैयारी अद्भुत है और वह दरवाजा खुला छोड़कर प्रतीक्षा कर रहा है। प्रियतमा के नहीं आने पर वह मार्मिक भाव से सम्पूर्ण परिस्थितियों का विह्वलता के साथ चित्रण करता है। उसके लिए प्रियतमा जिगर की कविता,आत्मा की आत्मा, प्रतिबिंब और एक अनिर्वाण दीपक है। यहाँ वह नाना बिंबों में अपने प्यार को रेखांकित करता है, अन्तर्विरोध दिखलाता है और प्रश्न पूछता है। वह जिद्द करते हुए पूछता है-परम स्पर्श में/हरे-भरे प्यार में/निविड़ आलिंगन में/अपनेपन के निविड़ बंधन में/आखिरी बार क्या एक/चुंबन नहीं दोगे? कवि ईश्वर से कहता है-ऐसा दुख किसी को न मिले। यहाँ वह अनेक बिंबों का सहारा लेता हुआ अपनी पीड़ा व्यक्त करता है-यह दुख मृत्यु से भी ज्यादा/ खतरनाक और मारात्मक प्रियतमा। खण्ड-37 के सारे दृश्य किसी दुर्घटना के समय के हैं,ऐसा ही होता है और कवि वह मधुर आवाज सुनने को तरस रहा है जो कभी रिक्शे में साथ चलते हुए सुनी है।
कवि को अंदाजा होता तो वह आधे रास्ते से लौट आता,जैसे कल लौट आया था या ट्रैफिक का नियम मानता और दुर्घटना की वेला टल जाती। वह नियमित प्रियतमा के यूनिट में मिलने जाता है। संवाद प्रियतमा तक पहुँच ही जाता। वह पूछता है-ऐसे आपदा के काल में तुम नीली साड़ी पहनकर,गले में नीलमणि हार डालकर किस काले वर्ण के पुरुष के साथ संगम कर रही हो?ऐसे संगम के मदहोश समय में मेरी मृत्यु का समाचार पाकर क्या करोगी? क्या अपनी हीरे की अंगूठी चूसकर अपना जीवन समाप्त कर दोगी? अपने सारे आभूषण उतार कर किसी पगली-सी प्रलाप करोगी? मेरे मृत शरीर को रजनीगंधा की माला पहना कहोगी-कवि तुम कितने नटखट,दागदार,जिद्दी,लंपट नागर/एक बार भी मेरी तरफ मुड़ कर देखा नहीं। वह प्रार्थना करता है कि मुझे अभिशाप मत देना,मन को दुखी मत करना और स्वयं को कष्ट मत देना। यह प्रेम की पराकाष्ठा है। कवि की इच्छा देखिए-स्वर्ग-द्वार में/समंदर के किनारे अनगिनत लोगों की भीड़ में/मेरी चिता को सजाना/महकती हुई चंदन की लकड़ी में। देखना, दूसरे और किसी अनजाने जन्म में/ एक दिन हम जरुर मिलेंगे। कवि यह भी चाहता है कि शवदाह के बाद,अपनी कमाई के धन से अपनी सामर्थ्य के अनुसार गरीबों और ब्राह्मणों को दान देना। यह कथन देखिए-मेरी चिता भस्म को आदरता के साथ/छिड़क देना हमारे प्रिय शहर के/हर चौराहे और हर यूनिट में/गली-गली में/तुम जहाँ से भी आओ/तुम्हारे पैर में पहनी हुई नूपुर की आवाज/रुमझुम-रुमझुम गूँजता रहेगा मेरे कानों में। काव्य संग्रह का अंतिम खण्ड-42 कवि का गहन चिन्तन दिखाता है-भूल मत जाना/एक दिन तुम मेरे साथ विश्वासघात की हो/किसी को बोलना मत/ऐसे कि खुद को भी। कवि प्रियतमा को वैधव्य से रोकता है,देखिए-बचे-खुचे दिन हँसी-खुशी में/संसार करना,खुले मन से प्यार और ममता से/सभी को बाँधकर रखना। अंत में वह समझाना चाहता है कि यह मानव जीवन दुर्लभ है और इसी जन्म में प्यार,मोहब्बत, ईर्ष्या, घृणा, माया, ममता सब भोगना पड़ता है। कवि अंतिम याद दिलाता है-भूल से भी भूलना मत/प्रलय के जल में हमारे याद की नाव/टूटकर मिट जाने से भी/तुम्हारा नाम जपता रहूँगा/लाख युग,कोटि युग तक।
इस तरह ‘प्रियतमा’ उड़िया साहित्य की कोई धरोहर है जिसमें भाव-संवेदनाएं,प्रेम की भावना,पीड़ा और नाना बिंबों में उभरता सारा चिन्तन चकित करता है,पाठकों को प्रेम की चरम भावनाओं का अनुभव देता है। यहाँ प्रेम लौकिक से अलौकिक की यात्रा करता हुआ दिखाई देता है। कवि के पास भाषा और शैली है,अनुभवों को दृश्यों में चित्रित करने की अद्भुत क्षमता है।
विजय कुमार तिवारी (कवि,लेखक,कहानीकार,उपन्यासकार,समीक्षक) टाटा अरियाना हाऊसिंग,टावर-4 फ्लैट-1002 पोस्ट-महालक्ष्मी विहार-751029 भुवनेश्वर,उडीसा,भारत मो०-9102939190