Wednesday, October 16, 2024
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विवेक सत्यांशु की कलम से – देशकाल में व्याप्त यथास्थिति को तोड़ने का एक विनम्र प्रयास : नौ रुपये बीस पैसे के लिए

कविता संग्रह : नौ रुपये बीस पैसे के लिए कवि : शैलेन्द्र चौहान मूल्य : रु 249/-
प्रकाशक : दृष्टि प्रकाशन, जयपुर
काव्य सूजन की प्रक्रिया नैतिक मूल्यों के दर्शन में निहित है। कविता वास्तविक रूप में उन नैतिक मूल्यों की पड़ताल है जिसकी जरूरत जन-चेतना को नसों में बोलती है कविता उस उदात्त संस्कृति का जीवन्त दस्तावेज है। कविता की मूल सत्ता ही ईमानदारी की अंतरआत्मा में जीती है। यह जीवित यथार्थ है कि समकालीन कविता की नयी प्रक्रिया अछूते संदर्भो की नयी जमीन तोड़ती है लेकिन इसके साथ ही यह सत्य भी जीवित है कि वह किसी तरह नारों एवं आन्दोलनों से मुक्त नहीं है।
इस संदर्भ में जुझारू चेतना के विनम्र कवि शैलेन्द्र चौहान का कविता संग्रह ‘नौ रुपये बीस पैसे के लिए’ एक महत्वपूर्ण सृजन है। यह संग्रह बहुत संजीदा ढंग से जीवन में बिखरे जंजालों, तकलीफों का जीवन्त चित्र प्रस्तुत करता है। यह अपेक्षाकृत नारों एवं आंदोलनों से मुक्त सहज एवं चेतना से लेस है । झकझोरती हुई ये कवितायें सीधे जीवन से उठते बिम्बों, प्रतीकों के माध्यम से अव्यक्त यथार्थवादी दर्शन को जन्म देती हैं भावबोध की तेजस्विता लिये हुए। वैचारिक मूल्यदृष्टि को जीवित प्रत्यय में ढालते हुए हर शब्द की सार्थकता से भारतीय काव्य शास्त्र के मशीनीकरण से मुक्त एवं बोधगम्य जीवित यथार्थ को मूर्त एवं जीवित करती हैं।
कविता की रसानुभूति एवं रागात्मकता काव्य के नये सौंदर्य बोध को जीवित रखते हुए यथार्थ के नये प्रतिमानों से वैचारिक अर्थवत्ता को उत्पन्न करती हैं, सूक्ष्म प्रक्रिया से तमाम अंतर्विरोधों को खोलते हुए नयी दृष्टि देतो हैं। कविता के स्वभाव को बिम्बों से अर्थ देना नया प्रयोग है किन्तु बार- बार एक ही आस्वादन को दुहराना पुराना प्रतीत होने के साथ बासी एवं मृत भी हो जाता है। इस संदर्भ में शैलेन्द्र चौहान की कवितायें नयी भावभंगिमा के खोैलते चित्र देने के साथ सृजन की नवीनता कायम रखती हैं। सहज मानवीय संवेदना के नए धरातल देती हैं, यह शैलेन्द्र चौहान की कविताओं का स्वभाव है।
इस संग्रह की एक कविता ‘सम्मोहन’ है जो यथार्थ की नयी संवेदना की क्रियात्मक संकल्पना में जवाबदेही उत्पन्न करती है। यह प्रगतिशील अर्थ है –
भीड़ के बीच
तालियों का शोर
पैसे दो पैसे पाँच पैसे
देकर जाओ बाबू
नहीं तो बच्चे का पेट
कैसे भरेगा ?
और कोई शैतान जादूगर कहेगा
भरी जेब पैसा नहीं दोगे तो
काले खूंटे से बंधी चुड़ेल
रात में सतायेगी
इस कविता की अन्तिम पंक्तियों में जीवन की हाहाकार करती, भूख और लूट के चेहरे को बेनकाब करती हुईं उस सारे बाजीगरी के तमाशे का विरोध करती हैं। और उन्हें तोडने की कोशिश बड़ी शिद्दत से करती हैं। अपने आप में एक नया अर्थ देने के साथ-साथ मानव की विराट सत्ता को जीवित करती हैं। अन्तिम पंक्तियाँ कविता को चेतना सम्पन्न एवं साकार बनाती है-
असली बाजीगर तो
वो तमाशा दिखाते हैं
कि लोगों की जेबें
अपने आप खाली हो जाती हैं
फिर तब्दील होने लगती हैं झुर्रियों में
चीथड़ों और लोथड़ों से पटने लगता है सारा शहर
बदबू देने लगते हैं जिस्म
और एक पॉश सभ्यता का जन्म होता है
जिसका सम्मोहन अब हमें
तोड़ना है। (सम्मोहन : पृष्ठ : 14-15)
शैलेन्द्र चौहान इसी तरह की निर्दोष एवं विश्वसनीय कविता के सृजन में विश्वास करते हैं। सहज कविता का स्वभाव आन्तरिक अनुशासन से मुक्त, सहज भाषा के संगीत को निर्मित एवं अनुभूतिजन्य बनाते हुए, लयहीन होते हुए भी अपने में लय देना है। एक अमूर्त दर्शन, शैलेन्द्र चौहान की कविताओं में एक प्रकार का अतीन्द्रिय अनुभव है जो उनके सत्य का भान कराता है। सौन्दर्य के खिलते हुए स्वरूप का रागात्मक तादाम्य पाठक से स्थापित करता है। मानवीय अनुभूतिजन्य तर्को एवं सामाजिक यथार्थ के नये पक्ष को जगाता है।
शैलेन्द्र चौहान एक संवेदनशील कवि होने के साथ जागरूक एवं वास्तविक जीवन्त यथार्थ में विश्वास करने वाले कवि हैं।यह जागरूक चेतना वैज्ञानिक दृष्टि एवं स्वाभाविक मूल्यवत्ता को ही स्वीकारती है। भाषा की सच्चाई काव्य की सृजनात्मक प्रक्रिया की पहली शर्त है। क्योंकि यही चिन्तन एवं तर्क हमें विराट जनपक्ष से जोड़ता है। साहित्य में हम व्यापक संदर्भों से जुड़ते हैं। जहाँ समग्रता एवं जागरूकता की ईमानदारी जरूरी होती है। इस तरह से साहित्य प्रगतिशील मूल्यों की स्थापना करता है। साहित्य के मूल्य जीवन की समता में ही संभव हैं और इस दृष्टि एवं तर्क से साहित्य अध्यात्म है। क्योंकि संपूर्णता में ही हम समाधि अवस्था में होते हैं और इस चिन्तन की गहराई में हम यदि जायें तो वास्तविक रूप में हम यही पाते हैं कि साहित्य योग है। संदर्भ से कटे होने के बावजूद हम ईमानदार और प्रासंगिक है।
सामाजिक अंतर्विरोधों की सत्यता शैलेन्द्र चौहान की कविताओं में जहाँ मुखर और तेज होती है वहीं कलात्मक सौंदर्य की गहरी पहचान शैलेन्द्र चौहान में है। यह वैचारिक सौंदर्यबोध की ईमानदारी एवं प्रासंगिकता है। इस संग्रह की पहली कविता ‘संकल्प’ है जिसमें भूख की तेजस्विता एवं दर्शन की अटूट प्रतिबद्धता है।
सुबह हो चुकी है-
सूरज तपने लगा है-
सर पर लकड़ी का गट्ठर लादे हुए एक औरत
बढ़ रही है शहर की ओर
खेतों के किनारे-किनारे उसके नंगे पैरों के निशान
उभर रहे हैं इस विश्वास के साथ
कि कल की रोटी उसकी मुट्ठी में है
रोटी जो सिर्फ रोटी और कुछ नहीं है
न संवेदन न फ्रस्ट्रेशन न उच्छवास
सब कुछ रोटी में समा गया है
इस कविता में रोटी का जीवंत यथार्थ है जो सहज ही पाठक के मर्म को गहराई से छूता है। शैलेन्द्र चौहान की कविताओं में वैचारिक प्रतिबद्धता है जो उनकी मौलिक संकल्पबद्धता को टटोलती और खोलती है। उनकी कविताएं वर्तमान व्यवस्था की विसंगतियों, भेदभाव और शोषण का विरोध करती हैं। ज्यादातर लोग इन स्थितियों का विरोध नहीं करते इसी कारण विडंबनापूर्ण स्थितियों को जीते हैं। वे परंपराभंजक नहीं बन पाते।
शैलेन्द्र चौहान की कविताओं में इस व्यवस्था की चरित्रगत कमजोरियों के प्रति आक्रोश है, उत्तेजना है लेकिन एक विवेक और संकल्प के साथ। वे जीवन के प्रति अनास्था नहीं प्रकट करते बल्कि संघर्ष के लिए प्रेरित करते हैं। यही उनकी कविता की कसौटी है। उनकी कविताओं की सच्चाई कहती है- फाईट टू द लास्ट, बी अ सोल्जर। कवि नरेन्द्र जैन उनकी कविताओं के बारे में लिखते हैं – ‘शैलेन्द्र चौहान की कविताएं आज और अभी के समस्याग्रस्त भारत की ऐसी कविताएं हैं जो जबाबतलब करती हैं, अपराधी तत्वों की तरफ साफ-साफ इंगित करती हैं और शोषितों के पक्ष में उनका एक सुविचारित बयान होती हैं। हमारे देशकाल में व्याप्त यथास्थिति को पूरी शिद्दत से तोड़ने का एक विनम्र प्रयास हैं।’
शैलेन्द्र चौहान की कविताओं का एक अलग तेवर है जो जनजीवन के धड़कती लय से पाठकों का तादात्म्य स्थापित करता है। यह उनकी खूबी है कि सर्वहारा वर्ग के शोषण, अपमान, उपेक्षा, उनकी फटेहाल दयनीयता से शैलेन्द्र चौहान की सहानुभूति है और वे उनके श्रम की मूल्यगत तटस्थता से विरोधी ताकतों को उभारते हैं। शैलेन्द्र चौहान की कवितायें आम आदमी की टूटन, अपमान, कुंठा को सशक्त ढंग से खोलती हैं।
कविता अनुभव और विचार की अभिव्यक्ति की रचना होती है। कविता में वैचारिक सौंदर्य का दर्शन जानबूझ कर प्रमाणित नहीं किया जाता, बल्कि वह अपने सहज और स्वाभाविक संवेग से प्रमाणित होता है। शेली, मायकोवस्की की कविताओं में यह ‘इमोशन’ सहज ढंग से देखी जा सकती है, इनकी कविताओं का व्यक्तित्व ही यह है। उसी तरह संवेदशील कवि शैलेन्द्र चौहान की कविताओं में भी एक सहज मूर्त दर्शन मिलता है, उनकी एक कविता ‘नौ रुपये बीस पैसे के लिए’ है जिसके नाम पर इस संग्रह का नामकरण हुआ है –
मैंने देखा है उन्हें बियावान जंगलों में
बिजली के तार फैलाकर इंतजार करते हुए
कितनी जल्दी कसेंगे ये तार खंभों पर
कब आयेगी हरित क्रांति
उनके चेहरे कुम्हलाये हुए हैं
धूप से तमतमाये वे मांग रहे हैं दो जून रोटी
( पृ० 20, नौ रुपये बीस पैसे के लिए)

इस संग्रह में एक कविता है ‘उसे सोचना चाहिए’। इस पूरी कविता में इतनी मार्मिक और सहज संवेदना है जिसे पढ़कर ही समझा जा सकता है। इसमें एक महरिन का जीवन चरित्र एकदम जीवंत ढंग से चित्रित किया गया है। चंद्रकांता को अपनी विद्रूप जीवनशैली पर गुस्सा आता है क्योंकि उसका जीवन शारीरिक कष्टों और मानसिक वेदना से लबरेज है। उसके पति और मालिक द्वारा उसका और उसके श्रम का शोषण किया जाता है। यह संपूर्ण कविता बहुत यथार्थवादी ढंग से लिखी गयी है। इस कविता का अन्तिम काव्यांश-

उसकी प्रसव वेदना तेज हो जाती है
वह जिंदगी की तुलना इस वेदना से करती है
सारी जिंदगी वह इसी पीड़ा से ही तो गुजरती है
उसे आपरेशन करा लेना चाहिए
उसे अपनी गरीबी पर गुस्सा आता है
इस बारे में सोचती है
सोचना चाहती है
वह सोचती है
पर अस्पताल, डाक्टर
उसे सब यमराज जैसे नजर आते हैं
पैसे चाहिए सबको, पैसा चाहिए
उसे लगता है
गरीबी अमीरी का फर्क मिटना चाहिए
(पृष्ठ 47, उसे सोचना चाहिए)
जार्ज लुकाच, पाब्लो नेरूवा, मायकोवस्की या गेटे या टाइम्स कालाइन ने आदमी के इसी दुखांत यथार्थ की प्रामाणिकता को ही ग्लोरीफाइ किया। क्योंकि इस यथार्थ की प्रामाणिकता ही यथार्थ की तेज नसों को चाकू की तरह धारदार बनाती है। इस संग्रह से संभावनाओं की आहट को जाना जा सकता है । और इस पर भी विश्वास किया जा सकता है कि शैलेन्द्र चौहान एक संवेदनशील और यथार्थवादी कवि हैं।
समीक्षक
विवेक सत्यांशु,
14/12, शिवनगर कालोनी, अल्लापुर, इलाहबाद -211006
मो. 8957804144
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