• डॉ अरुणा अजितसरिया (एम बी ई)

डायरी साहित्य की एक ऐसी विधा है जिसमें लेखक बिना किसी लाग लपेट के अपनी बात कहने को स्वतंत्र होता है क्योंकि उसका सर्वोपरि पाठक वह स्वयं होता है। पर उसे प्रकाशित करना अपने व्यक्तिगत विचारों को अपने से इतर पाठक तक पहुँचाना है। साहित्य की सभी विधाओं में से डायरी एक ऐसी विधा है जिसमें लेखक को उसके व्यक्तित्व से अलग करना संभव नहीं। डायरी की इस विधागत विशेषता का शिखा ने भरपूर उपयोग किया है।
वर्षों से लन्दन में बसी शिखा वार्ष्णेय ने लन्दन की डायरी में लन्दन में होने वाली गतिविधियों को अपनी पैनी दृष्टि से देखा और उकेरा है। अपने दैनिक जीवन के साधारण से लगने वाले अनुभवों और प्रसंगों के बारे में लिखते समय शिखा का ध्यान घटना विशेष तक सीमित न रह कर उसके भीतर की परतों को उधेड़ कर उसके भीतर किसी न किसी सामाजिक मुद्दे को उद्घाटित करता है। डायरी पढ़ते समय मुझे लगा कि इसके पाठक कई अलग-अलग स्तर के होंगे। कुछ लन्दन के जीवन की जानकारी लेने के लिए एक के बाद एक प्रसंग सरसरी निगाह से पढ़ कर आगे बढ़ जाएंगे, लेकिन एक दूसरा वर्ग उन पाठकों का होगा जो हर एक प्रसंग के भीतर छिपे प्रश्नों को अनावृत कर उसपर देर तक सोचना चाहेंगे।
लन्दन के जीवन के ये विवरण यहाँ के जीवन का विवरण मात्र न होकर उसकी पूरी पड़ताल करते हैं। प्रसंग पूरा पढ़ने के बाद उन मुद्दों पर सोचने को विवश करते हैं जिनका वे संकेत मात्र करके आगे बढ़ जाती हैं और वहीं से पाठक का विचार मंथन शुरू होता है।
अपने शीर्षक को सार्थक करती हुई यह डायरी लन्दन के जीवन के कुछ परिदृश्यों की झांकी देती है। शिखा ने उन्हें अपनी देशी निगाह से देखा, उनके भीतर के सामाजिक सरोकारों का संकेत भर करके छोड़ देना डायरी को साधारण पाठक के लिए रोचक बनाता है और चिंतक को अपनी तरह से उसका विश्लेषण करने का मौका देता है।
रानी ऐलिज़ाबेथ की हीरक जयंती का प्रसंग, ‘अपनी जनता से मिलने का दौरा (जुबली टूर) पिछले दिनों रेडब्रिज नाम के इलाके से शुरू किया। इस इलाके में उस दिने करीब 1 किलोमीटर तक सुबह 7 बजे से ही लगभग 10,000 लोग जमा हो गए थे। इलाके के सभी प्राईमरी और सेकेंडरी स्कूलों के कुछ चुनिंदा बच्चों को रानी से मिलने का गौरव प्रदान करने के लिए वहीं सड़क पर धूप में पहले जमा कर दिया गया था।    माँएं अपने नवजात बच्चों को लिए रानी के दुर्लभ दर्शनों के लिए घंटों सड़क पर खड़ी इंतज़ार करती रहीं। निर्धारित समय पर रानी की सवारी आई साथ में एडिनबरा के राजकुमार भी। कार से उतरकर दोनों तरफ लोगों की भीड़ से घिरी एक सड़क पर कुछ दूर चलीं। जो लोग सड़क के निकट थे उन्हें एक झलक नसीब हुई। …फिर वह अपनी कार में स्कूली बच्चों के बीच से निकलीं। बच्चों को कार से एक हाथ हिलता दिखाई दिया और कुछ बड़े बच्चों को एक झलक चेहरे की भी दिख गई और बस हो गया रानी का गौरवपूर्ण दर्शन समारोह संपन्न।’
पूरे विवरण के पीछे छिपा व्यंग्य राज परिवार के जन साधारण से संपर्क करने के कृत्रिम प्रयास को बिना किसी लाग लपेट के सामने ले आता है। इतना ही नहीं, भारत में जन्मे ईस्ट इंडिया कंपनी के चीफ एक्ज़ीक्यूटिव संजीव मेहता का इस उपलक्ष्य में 125,000 के सोने के सिक्कों पर हीरों का मुकुट पहने रानी की छवि बनाना जबकि यूरोप आर्थिक मंदी और बेरोज़गारी से गुज़र रहा है। वैभव के इस अशोभन प्रदर्शन की विसंगति पर विचार करने का काम पाठक पर छोड़ कर शिखा प्रसंग को यही समाप्त कर देती हैं।
इस युग में बुढ़ापा और अकेलापन समानार्थी होते जा रहे हैं। यह समस्या किसी एक देश की न होकर कमबेशी रूप से सर्वदेशीय है। बेटा-बेटी, पोता-पोती से भरा पूरा परिवार रहते हुए भी आज के वृद्ध अपने अकेलेपन से आक्रांत हैं। वे जीवन के शेष दिन पिक्चर गैलरी में फोटोफ्रम में जड़े पारिवारिक चित्रों को देखकर ही अपने परिवार के अस्तित्व का अहसास करते हैं। शिखा का प्रश्न है, ‘क्या प्यार और अपनेपन की ज़रूरत सिर्फ बच्चों और जवानों को होती है?’
दूसरी तरफ नई पीढ़ी के सरोकार हैं। मकानों के बढ़ते हुए भाड़े और मूल्य चुकाने में असमर्थ युवा पीढ़ी अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद स्वतंत्र रूप से रहने के बदले अपने माता पिता के पास लौटने को विवश हो रहे हैं। इस निर्णय के पीछे मातापिता का प्यार न होकर उनकी आर्थिक सीमा के यथार्थ से शिखा पूरी तरह से परिचित हैं।
‘लुढ़कने वाले बच्चे’ नामक प्रसंग में उनकी यथार्थवादी दृष्टि के दर्शन होते हैं। लंदन की सड़कों पर बढ़ते हुए जघन्य, हिंसक अपराध, नेशनल हेल्थ सर्विस की वेटिंग लिस्ट, स्त्रियों के प्रति आए दिन होने वाले यौन अपराध आदि के प्रसंग नर्सरी राइम्स में वर्णित लन्दन की सुन्दर छवि पर एक प्रश्न चिन्ह लगाते हैं। इस प्रकार के विषयों की विविधता और दृष्टि का पैनापन इस डायरी को पठनीय बनाता है। यह डायरी लन्दन घूमने आने वालों के लिए गाइडबुक नहीं यहाँ के कुछ सामाजिक मुद्दों को अत्यंत सरल भाषा में निष्पक्ष रूप से प्रस्तुत करने का एक सराहनीय प्रयास है।
देशी चश्मे से लन्दन डायरी,
लेखिकाः शिखा वार्ष्णेय,
प्रथम संस्करणः 2019,
प्रकाशकः समय साक्ष्य, देहरादून-248001,
पृष्ठ संख्याः 183, मूल्यः रु.200/- मात्र
Aruna Ajitsaria MBE, Email: arunaajitsaria@yahoo.co.uk

कोई जवाब दें

कृपया अपनी टिप्पणी दर्ज करें!
कृपया अपना नाम यहाँ दर्ज करें

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.