‘जुआगढ़’ की भूमिका एवं उपन्यास को पढ़ने के पश्चात ऐसा प्रतीत होता है कि मानो लेखक  भुवनेश्वर उपाध्याय इस क्षेत्र के या तो जानकार हैं या फिर नामी खिलाड़ी। भूमिका एवं पहले अंक में लेखक ने इस पर प्रकाश डाला है। संभव है अपने इर्द-गिर्द जुआ खेलने वाले नामी खिलाड़ियों को देखकर उनके मन में इस प्रकार की रचना के सृजन का विचार आया हो।और आज वही ‘जुआ गढ़’ के नाम से पाठकों के हाथों में है। जुआ और जुआरी हर स्थान और हर समाज में बड़े पैमाने पर हैं।
समूचे उपन्यास में लगभग 14 (सर्ग) अंक हैं। पहला अंक इस क्षेत्र एवं इससे जुड़े तमाम खिलाड़ियों आदि की विस्तृत जानकारी प्रदान करता है। उपन्यास के दूसरे सर्ग में केवल पांच पृष्ठ हैं किंतु कथ्य एवं सहज और सरल भाषा ने इसे जानदार बनाया है। इस अंक में लगभग 7 पात्रों की चर्चा की गई है, जो रोचक एवं पठनीय है। 
‘सुख्खन’ नामक पात्र के बारे में लेखक का कथन है – “सुख्खन अब खेलता नहीं था। सुना है पहले नामी जुआरी हुआ करता था। पत्ता पलटा तो ऐसे पलटा कि लौटा ही नहीं; बर्तन भांडे तक बिक गए। तब उसे यह सहानुभूतिजन्य काम मिल गया। जिसे वह पूरी ईमानदारी से चुटकियों में कर देता है। गुटखा,बीड़ी, सिगरेट,शराब से लेकर जो भी खिलाड़ी मांगते हैं वह उपलब्ध करा देता। इससे भी उसे कुछ आमदनी हो जाती थी और कुछ जीतने वाले खुशी-खुशी दे जाते थे। जिसने हजारों,लाखों के दांव खेले हो उसे यह सब भाएगा तो नहीं, परंतु पेट कराए सो सब ठीक ही है।” स्पष्ट है कि जुए की लत इंसान को क्या से क्या बनाएं देती है। जिसके पास सदैव पैसे रहा करते थे वही व्यक्ति आज दो-चार पैसों के लिए लोगों की ओर आशा भरी दृष्टि से देखता है। जुआ खेलना समाज में प्रतिष्ठा का लक्षण नहीं माना जाता साथ ही इसमें पुलिस का डर हमेशा बना ही रहता है। पुलिस पकड़ कर ले जाती है और उनकी भी आमदनी हो जाती है। कुछ ले देकर बात को रफा-दफा किया जाता है। और इसके बाद एक गढ़ बंद होकर दूसरा गढ़ कहीं और खुल जाता है। इन स्थितियों के बावजूद -“जुआ न कभी बंद हुआ है और ना कभी बंद होगा। ढहाये गए गढों को बनाने में कितनी देर लगती है। ये वह स्थान है जहां पर कईयों की तकदीरें में लिखी जाती हैं और लिखने वाले वह स्वयं ही होते हैं।” वैसे देखा जाए तो जीवन एक दांव या जुआ ही है। जिसकी किस्मत चमकी उसका जीवन चमक उठा। इसी कारण लोगों का जमावड़ा इस क्षेत्र में सदा लगा रहता है। केशुभाई पंडित की अवस्था भी कुछ इसी प्रकार की है। लेखक के कथन से इस बात का पता चलता है-“असल में सरकारी नौकरी को छोड़ दें तो यह कमबख्त जिंदगी ही एक जुआ है। जहां भी देखो रिस्क तो होती ही है। कोई बिजनेस करो तो वह चल ही जाए यह जरूरी तो नहीं? बस ट्रक खरीदो तो चले ना चले ? इसलिए महीनों के काम और इंतजार के बाद लौट कर के बुद्धू घर को आए तो क्या आए? जब जुआ खेलना ही है और सफलता असफलता को देखना ही है तो क्यों ना दो चार या दस घंटों में ही देख लिया जाए। कम से कम समय तो बचेगा इसी दर्शन को आत्मसात करते हुए केशुभाई पंडित ने भी 52 पत्तों से दिल लगा लिया था।” किसी क्षेत्र को छोड़ना या अपनाना, इसके कई कारण हो सकते हैं। केशुभाई ने इसे व्यवसाय के रूप में अपनाना चाहा। अब उनकी किस्मत कहां तक उनका साथ देती है, यह तो समय ही बताएगा। वैसे भी जुआ अनिश्चितताओं का खेल है। यहां कई लोग अपनी किस्मत आजमाते रहते हैं। केवल इस उपन्यास के हद तक की बात की जाए तो पचासों नाम मिलेंगे जो जुए की लत में लीन हैं। जिसमें बच्चू, सुख्खन, शिब्बू ,धीरू, भीखू, कोमल, रामजस ऐसे कई नाम हैं, जो जुए की लत में है। और जिसके कारण वे आए दिन परेशानियों का सामना करते रहते हैं। यहां पल भर में किसी की भी तकदीर का पासा पलट सकता है क्योंकि यह खेल ही कुछ इस प्रकार का है! जो किसी को पल भर में रंक से राजा तो किसी को राजा से रंक बना देता है। 
संभावनाएं एवं महत्त्वकांक्षा जुआरियों के जीवन का अहम पहलू है।स्वयं लेखक ने इस पर प्रकाश डालते हुए कहा है-“वैसे जब खिलाड़ी पर पत्ते मेहरबान हो तो उसके सामने राजे महाराजे भी पानी मांगते हैं। शौक बड़ी चीज है, मगर बच्चू के परिवार के लिए शौक ही सब कुछ था। पत्तों ने मुंह फेर लिया मगर शौक जस का तस ही बना रहा। सभी माल छानते रहे मगर किसी ने यह नहीं सोचा कि यह कहां से आ रहा है भेद तो तब खुला जब कई फाइनेंसर द्वार पर धरना दिया बैठ गए थे जिन्होंने समय-समय पर बच्चू की कई रातें फाइनेंस की थी। नतीजा यह हुआ कि उन्होंने उंगली टेढ़ी की और इधर जमीन गई।” जुआरियों का जीवन राजा और रंक के समान है। सब कुछ 52 पत्तों की मेहरबानी पर चलता है। पत्ता चला तो इनकी किस्मत चमकी। वरना सब कुछ नीलाम हो जाता है। बच्चू की अवस्था कुछ इसी प्रकार की है।
जुआ खेलने वालों का एक निश्चित स्थान होता है जिसे ‘जुआ गढ़’ या आज की भाषा में क्लब कह सकते हैं। जुआ गढ़ के वातावरण को देखकर ही आम आदमी उल्टी कर लेगा-“तीनों तरफ से खुली गलियों से घिरे एक दस बाई बारह के कमरे में भीड़ जुटने लगी थी जिसे धीरुभाई अपने कार्यस्थल के रूप में इस्तेमाल करते आ रहे थे। जो किसी किले की तरह सुरक्षा की दृष्टि से उपयुक्त स्थान था…..कभी-कभी तो संख्या बीस पच्चीस के पार तक पहुंच जाती थी तब थोड़ी असुविधा जरूर होती थी, परंतु खेलते समय इन सब बातों का ध्यान ही किसे रहता है। गुटखा थूकने के लिए रखी रेत से भरी बाल्टी अक्सर ही दुरुह लक्ष्य साबित होती थी जिसके परिणाम स्वरुप उसके आसपास का एक मीटर का एरिया रक्ताभ हो गया था। धुँये से गंधाते माहौल में जब बेगम फंसती तो सत्ता पलट जाती है,  राजा रंक हो जाता और रंक राजा!”जिस तरह का पर्यावरण जुआगढ़ का बनता है, लोगों की भाषा एवं शब्द चयन से वातावरण में भी चार चांद लग जाते हैं-“मैं अच्छी तरह जानता हूं तुझे और तेरे छद्दन को और फिर जो अपने मताई-बाप का ना हुआ वह किसी और का कैसे होगा? पैसा तो रंडियाँ भी कमाती हैं, मगर रहती रंडियाँ ही हैं। भलमनसाहत भी कुछ होती है। और फिर दुनिया इतनी बेवकूफ नहीं है!.. मीठे बोल बगल में छुरियाँ।” इस प्रकार के गाली गलौज वाले शब्द एक जुआरी दूसरे जुआरी पर दागता रहता है। इनके व्यवहार और वर्तन से ऐसा ही लगता है कि मानो सारी की सारी खराबियां इन्हीं लोगों में होती हैं।
संभावनाएं,महत्वाकांक्षा के साथ-साथ तनाव भी जुआरियों के जीवन का एक महत्वपूर्ण पहलू है, सब पत्तों पर आधारित। पत्ता चला तो तनाव रहित जीवन यदि पत्ते ने फंसा दिया तो तनाव ही तनाव। संभवतः इसी कारण इनकी भाषा एवं स्वभाव कभी उदार तो कभी चिड़चिड़ा बन जाता है।
जुए में बहुत कम लोगों की किस्मत बुलंदी पर होती है। उपन्यास में शिब्बू का ऐसा व्यक्तित्व है जो इस दो नंबर के धंधे में अपनी महारत धीरे-धीरे हासिल करता है। अपने घर को छोड़ वह किराए के मकान में रहने लगा था। और इसी कारण उसे कई समस्याओं का सामना करना पड़ा-“मकान मालिकों के अपने नियम कानून होते हैं जो किरायेदारों पर सशर्त लागू होते हैं। ऐसे ही कुछ नियम उनके निशाचरी कामों अर्थात रात्रि कालीन जुआ को प्रभावित कर रहे थे। क्योंकि इसमें आना-जाना तो हार-जीत और हालातों पर निर्भर करता है। यह घड़ी के मोहताज नहीं होते हैं। यही वजह थी कि वे जल्द से जल्द अपना मकान बनवाने की फिराक में थे जुगत-जुगाड़ बाकायदा जारी थी जिसमें उन्हें लगभग सफलता मिल ही गई थी।”
‘शिब्बू’ ने अपना घर छोड़ नया प्लॉट खरीद लिया एवं उस पर घर निर्माण का कार्य तेजी से चल रहा था। जुआरी मित्र एवं मिलने आनेवाले सभी की खातिरदारी जोरों शोर से हो रही थी। शिब्बू भी दिखावे का जीवन जीते थे। गृहनिर्माण कार्य तेजी से चल रहा हो और पैसों की तंगी ना हो यह असंभव ही है। किंतु अपने व्यवहार से शिब्बू अपने परिचितों को यह कभी जताया नहीं करते थे, उल्टे और अधिक खर्चा कर देते। और कोई यदि उसमें आकर इनके बड़प्पन का गुणगान करता तो यह फूले नहीं समाते। 
जुए के धंधे में एक व्यक्ति की और अहम भूमिका होती है, और वह है फाइनेंसर। जिसके बिना जुए का धंधा गति नहीं पकड़ सकता। हर डूबने वाले को यही लोग आधार देते हैं। वैसे फाइनेंसर बनना भी कोई आसान बात नहीं है। जिसकी जितनी क्षमता है और वसूलने की शक्ति वही इसमें अपना निवेश करता है। जुआरियों के घर नीलाम होते हैं, और इधर फाइनेंसरों के मंजिलों पर मंजिले चढ़ती जाती है। या यूं कहें कि जुआरी अपने आपको नीलाम करता है फाइनेंसर को धनवान बनाने के लिए ही। फाइनेंसरों में उदारता भी काफी होती है, जिसके चलते वह जुआरियों को फाइनेंस करते हैं। लेकिन वसूली सख्ति से- “फाइनेंसरों  की उदारता बिल्कुल मधुमेह की तरह ही होती है जो भीतर ही भीतर शरीर को खोखला कर देती है। और फिर जरा-सी बदपरहेजी  हुई नहीं कि बंदा खत्म। असल में यह उन बूचड़खानों के कसाईयों की तरह होते हैं, जो सिर्फ अपना लाभ देखते हैं कोई मरे या जिए इससे इन्हें कोई मतलब नहीं होता है। यह बड़े बेमुरव्वत होते हैं।” स्पष्ट है कि फाइनेंसरों की कूटनीति इस पेशे में उन्हें धनवान बना देती है। सामाजिक मान्यता इस पेशे को न होने के कारण समाज में जुआरियों तथा फाइनेंसरों का मान-सम्मान एवं इज्जत भी नहीं है। बड़े कद वाले कई जुआरी एवं फाइनेंसर अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा बनाए रखने का प्रयास करते रहते हैं जिनमें छद्दन भी है। जुआरी, फाइनेंसर का कलंक माथे पर लिए फिरने वाले लोग सदैव ही अच्छे लोगों के साथ संबंध बनाने को आतुर रहते हैं। समाज में जिनकी प्रतिष्ठा है उनसे मित्रता करना या फिर उनसे रिश्तेदारी जोड़ देना ऐसे कई प्रयास जुआरी भी करना चाहता है क्योंकि इस खेल के कारण उनकी सामाजिक अप्रतिष्ठा होती है। ‘छद्दन’ की भी सामाजिक स्थिति कुछ बेहतर नहीं थी। अपने करतूतों की काली छाया वह अपने परिवार पर पड़ने नहीं देना चाहता था, इसीलिए विवाह योग्य अपनी लड़कियों के विवाह वह कुलीन परिवारों में कराना चाहता था। और इसके लिए भरसक पैसा लगाने के लिए भी बहुत तैयार था-“उम्मीद तो है बात बन जाएगी। परिवार गरीब है, परंतु कुल खानदान में चोखा है, साथ ही लड़का खूब पढ़ा लिखा है और संस्कारित भी है। मेरी बात हुई थी तो कह रहा था कि चार लाख रिश्वत के लग रहे हैं; होते तो इसी महीने नियुक्ति हो जाती। आगे और मेहनत करूंगा शादी तभी करूंगा।” पढ़ा-लिखा संस्कारित परिवार का लड़का छद्दन को दामाद के रूप में मिल रहा था। उसके लिए भरसक पैसे खर्च करने थे इस पर भी वह राजी थे।
पैसे में अपार क्षमता होती है जिसके बलबूते कलंकित जीवन को भी लोग भूल जाते हैं। ये बात छद्दन जानते थे। समाज में अपनी साख बनाने के लिए छद्दन ने ये भी जुआ खेला। पैसे के बलबूते पर उन्हें रईस ना सही लेकिन कुलिन रिश्ता मिल गया-“आप बात कीजिए रुपए मैं दे दूंगा। इस साल शादी करनी ही है। मेरे  कुकर्मों की सजा मेरी बच्चियाँ क्यों भोगे? कहकर छद्दन ने एक लंबी सांस छोड़ी।”छद्दन अपने परिवार पर अपने  कुकर्मों की छाया पड़ने नहीं देना चाहता। इसीलिए लड़कियों को कुलीन  परिवारों में ब्याहना चाहता है। सुंदरबाबू के माध्यम से आज छद्दन की मनोकामना भी पूर्ण हो गई थी। देखते ही देखते  शादी का दिन आ गया, जहां गुड हो वहां मक्खियां मंडराती ही हैं। चंदन के लड़की के ब्याह में जुआरियों,शराबियों का बोलबाला था लेकिन सभी को हिदायत दी गई थी कि शादी में कोई एक बूंद भी नहीं पिएगा। सारे काम अपने आप होते चले गए। लड़की की शादी होकर वह अपने ससुराल गयी और इधर छद्दन ने चैन की सांस ली।  
जुआरियों को समाज में तो प्रतिष्ठा नहीं मिलती किंतु घर परिवार वाले भी उनसे नाराज ही रहते हैं। कुछ दिन पैसे आते हैं, तो परिवार वाले उतना ही खुश हो जाते हैं कि घर के काम बन रहे हैं। लेकिन जब पैसे जाते हैं और घर का ऐश-ओ- आराम भी चला जाता है। तब इन जुआरियों को घर से सहानुभूति भी नहीं मिलती। सब कुछ बर्बाद होने पर भी इनकी आंखें नहीं खुलती। जायदाद नीलामी पर चढ़ती है तो परिवार वाले भी इनसे तंग आ जाते हैं। कम्मो बुआ भी अपने पुत्र कोमल के इसी कारनामे से त्रस्त है। घर के सभी सदस्य कर्जा चुकाने के लिए अपने हाथ झटक देते हैं किंतु कम्मो आखिर मां थी, बेटे के सुख और दुख उसे बाँट लेने थे।इसीलिए वह दरबदर भटक कर फाइनेंसरों से मिलकर उनसे मिन्नतें कर ब्याज  कम करवाकर, चुकता करने की कोशिश कर रही थी। इसी संदर्भ में वह जोटीलाल और धीरुभाई से कहती है-“तुम्हारा कर्जा तो नहीं चढ़ा है कोमल पर, आज उसी को चुकाने निकली हूं। जिंदगी नरक कर दी नाशमिटे ने!”कम्मो बुआ की तरह जुआरियों के परिवार का हर सदस्य इसी तरह परेशान रहता है। यह जुआरियों के जीवन का ऐसा यथार्थ है जिसे कोई झुठला नहीं सकता। उपन्यास में चित्रित रामजस नामक भी एक ऐसा पात्र है जो ‘जुआगढ़’ का हिस्सा बनता है और सारी पूंजी दांव पर लगा देता है। जुए के साथ शराब की लत लगने लगती है। घर परिवार वाले तंग आ जाते हैं। जुआरियों का एक अलग ही विश्व होता है ,स्मग्लरों की दुनिया में जिस प्रकार के नाम होते हैं ठीक उसी प्रकार के नाम भी यहां पर रखे जाते हैं, इसी अनुसार रामजस का नामकरण आर.जे. के नाम से हुआ था। 
घर बार छोड़कर गुमनामी की जिंदगी जीने के लिए निकला हुआ आर.जे. वापस अपने गांव लौटता है। गांव, घर छोड़ने के पश्चात भी आर.जे. के जीवन में कोई परिवर्तन नहीं आया। इस संदर्भ में स्वयं लेखक का कथन है-“रोज-रोज की  चीथाचाथी से बचने के लिए वे बाहर काम करने के लिए करने चले गए थे ।इसी आशा के साथ कि अब उनका समय बदल जाएगा परंतु नहीं बदला क्योंकि दुनिया में ऐसी कोई जगह नहीं है जहां शराब, जुआ और स्त्री  देह की तलब न लगे और वह उपलब्ध न हो। परिणाम यही हुआ कि ‘सौ दिन चले अढ़ाई कोस’।” गांव लौटने के पश्चात फाइनेंसरों ने उनके घर धावा बोल दिया। जिससे सभी तंग आ गए। वैसे भी आर.जे. पहले बड़े भाई उसके पश्चात छोटे भाई पर आश्रित थे। आर.जे. का यह व्यवहार भाइयों तथा उनकी पत्नियों को खटकने लगा और फिर रिश्तो में दरारें पड़ने लगी। फिर छोटे भाई का विरोध और विद्रोह उबल पड़ा-“तुमने सारे पैसे जुए में उड़ा दिए। यह भी नहीं सोचा कि तुम्हारा भाई इन्हें कैसे कमाता है? सुना है तुम पर कर्ज भी है। मेरी नौकरी बहुत जोखिम वाली है; और मैं अपने बच्चों के बेहतर भविष्य के लिए कमाता हूं, जुए के लिए नहीं। मैं इस तरह के तनाव या फिक्र नहीं पाल सकता। तुम नहीं सुधर सकते तो अलग हो जाओ और जहां अच्छा लगे रहो।”फिल्मी दुनिया में कहा जाता है कि अंडरवर्ल्ड में जाना तो आसान है लेकिन वहां से बाहर निकलना मुमकिन नहीं। जुआरियों का भी हाल ठीक इसी तरह से है।इस क्षेत्र में जाना तो आसान है किंतु यहां से बाहर निकलना बड़ा कठिन। और यदि कोई निकलने की कोशिश करता भी है तो समाज उसके किए कराए पर पानी फेर देता है। आर.जे.सबकुछ हारने के पश्चात अध्यात्म की चादर ओढ़ बैठता है। जीवन की आपाधापी में जिनके हाथ निराशा लग जाती है वे अनायास धार्मिकता की ओर झुक जाते हैं। रामजस उनसे अलग नहीं। मंदिर में पुजारी बन बैठते हैं, जिससे दो वक्त की रोटी का जुगाड़ हो जाता है। किंतु फिर भी दुनिया यह टिप्पणी कर देती है की ‘सौ चूहे खाकर बिल्ली चली हज को’।
आर.जे. की तरह ही छद्दन भी इस माया जाल से निकलना चाहते थे। दोनों की अवस्था बिल्कुल विपरीत है किंतु परिणाम लगभग एक सा। आर.जे. ने समूचा धन इस खेल में व्यय किया था किंतु इसी खेल के सहारे छद्दन ने काफी माया बटोरी थी। माया बटोर कर छद्दन प्रतिष्ठा का जीवन जीना चाहता था इसीलिए वह जुआरी एवं उनके जीवन को छोड़ना चाहता था। बेटी का ब्याह भी इज्जतदार परिवार में करवाया था। और अब जनपद का चुनाव लड़कर समाज में अपनी प्रतिष्ठा बढ़ाना चाहता था। भरसक पैसा राजनीति के क्षेत्र में उसने लगाया। किंतु यह दुनिया बिगड़े हुए को सुधारने का मौका नहीं देती, मात्र तिहत्तर वोटों से छद्दन हार जाता है। फिर भी छद्दन के आंखों में चमक थी क्योंकि उसे करारी हार नहीं मिली बल्कि दुनिया ने उसे सुधरने का एक अवसर दिया था।
‘रतन’ वैसे तो व्यापारी था किंतु उसे भी जुए की लत लग गई थी। फिर भी समाज में उसकी प्रतिष्ठा थी क्योंकि कुछ ही लोग जानते थे कि वह ‘जुआरी’है। लेकिन इस क्षेत्र में उसका पत्ता ठीक से चल नहीं पाया। दुकान की रजिस्ट्री करनी पड़ी। और फाइनेंसर ‘जोटीलाल’ के सात कहासुनी हो गई। इस पर जोटीलाल ने रतन के गाल के नीचे तमाचा रसीद किया। जिससे रतन का मन आहत हुआ। समाज में जो बची कुची प्रतिष्ठा थी वह भी चली गई। इस घटना से रतन निराशा में चला गया। परिवार के लिए कुछ भी ना कर सकने की पीड़ा उसे व्याकुल बना रही थी। परिवार को सोया देख रतन के मन में अलग प्रकार के भाव जग रहे थे। लेखक भुवनेश्वर उपाध्याय ने रतन की मनोदशा को भावनिक धरातल पर पिरोया है-“मैं तुम्हें कभी खुश नहीं रख पाया और जो दे सकता था वह भी नहीं  दिया। सचमुच मैं बहुत बुरा हूं। पूरा परिवार मेरी जुए की लत से आज कहां खड़ा हुआ है। मुझे माफ कर देना तुम सब। कह कर वो फिर लेटना चाहता था मगर उसे गला सूखता हुआ लगा। उसने जग उठा कर गले को तर कर किया। बदन में सिहरन सी दौड़ गई। ठंडे पानी में भीतर के ताप को छेड़ दिया था। उसने कंबल ओढ़ लिया और अपने कमरे से बाहर निकल के बैठक में आ गया।”जोटी लाल के दिए हुए तमाचे ने रतन की मनोदशा बिगाड़ दी थी। वह पुनः वापसी भी नहीं कर सका। और ना ही अपने आप को समझाने का मादा उसके अंदर था।-“सुबह होने में अब कुछ ही देर थी रतन जुए में हारा सो हारा;जीवन की जंग भी हार चुका था। अपराध बोध और आत्मग्लानि ने उसे जीने नहीं दिया था।”रतन ने आत्महत्या की थी। रतन का जीवन पट उन सारे जुआरियों के लिए एक संदेश है। स्वयं लेखक का कथन है – “जुआ असल में मानसिक हीनता बोध हो और कुंठाओं से उपजी रिस्क लेने की ऐसी क्षमता है जो मूर्खतापूर्ण निर्णयों से स्वयं के ही विनाश पर समाप्त होती है। और फिर जब तक जुआ खिलता रहेगा तब तक ऐसे उत्थान पतन के किस्से तो चलते ही रहेंगे, बदलेंगे तो सिर्फ नाम… मुहल्ले में गुपचुप चर्चा थी कि बच्चू, शिब्बू, डॉक्टर आदि के बच्चे भी कुछ नई संभावनाओं के साथ दो,पांच इधर-से-उधर करने लगे हैं। कोई कह रहा था कि चूहों के जाए बिल ही खोदते हैं।” माता-पिता का दायित्व होता है कि अपने बच्चों को संस्कार दें। प्रश्न यह है कि जुआरियों के बच्चे जुआरियों से क्या सीखेंगे? बल्कि जो रेखा बाप ने खींची है उसी ताक पर यह भी चलते रहेंगे। अपना जीवन तो दांव पर लगा ही देंगे और साथ में अपने परिवार की खुशी का गला भी घोट देंगे। यही प्रक्रिया निरंतर चलती रहेगी।
संभवतः यह पहला उपन्यास है जिसमें जुए पर और उसके दुष्परिणामों पर विस्तृत चर्चा की गई है। और शायद इसीलिए पहले से लेकर अंत तक इसका कथ्य एक घटना में नहीं पिरोया गया। उपन्यास में पात्रों की संख्या भी काफी विस्तृत है।लगभग पैंतालीस से पचास पात्र होंगे। शायद इसके पीछे लेखक का यह दृष्टिकोण होगा कि जुए के क्षेत्र में किसी को भी स्थायित्व प्राप्त नहीं है। यहां हमेशा चेहरे बदलते रहते हैं। इसीलिए भी पात्रों की संख्या अधिक हो सकती है। और कथ्य एक सूत्र में ना होना इसके पीछे मैं अपनी समझ से यह कहना चाहता हूं कि यह किसी एक जुआरी की दास्तान नहीं है बल्कि समूचे जुआरियों को केंद्र में रखकर इसका सृजन हुआ है। विश्व के किसी भी स्थान में बैठा हुआ वह जुआरी इस रचना में अपने आपको केंद्र में पाएगा। जुए से तात्पर्य केवल ताश के वे पत्ते नहीं हैं बल्कि इसको कई आधुनिक अर्थ भी प्राप्त हुए हैं। लेखक ने उस पर भी चर्चा की है। और उसकी लत में पड़े उन सारे जुआरियों की चर्चा भी बड़े पैमाने पर हुई है। इन नए और आधुनिक जुए में पपलू, लूडो और आईपीएल क्रिकेट मैच पर लगा सट्टा भी है।
अंतत: यही कहा जा सकता है कि मँझे हुए साहित्यकार भुवनेश्वर उपाध्याय ने अपनी कलम की शक्ति तथा ज्ञान का परिचय पाठकों को करवाया है। अपनी पूरी क्षमता से वह पाठकों के सामने मुखर हुए हैं। और एक नए कलेवर में उक्त रचना को प्रस्तुत किया है। तीखे एवं चुटीले संवादों ने उपन्यास में जान डाल दी है। उपन्यास पढ़ने के पश्चात यही प्रतीत होता है कि लेखक ने शब्द एवं भाषा के साथ न्याय किया हुआ है। पाठक को भी यह हर बार लगेगा कि वह रचना पढ़ते हुए किसी क्लब में ही बैठा है। क्योंकि इसका भाषाई सौंदर्य जुए के क्लबों के अनुसार ही है। वहीं के शब्द और भाषा लेखक ने उठाकर इस रचना को परिवेशीय स्तर पर वास्तविक और  मजेदार बना दिया है। उपन्यास में कई जगह गालियों का प्रयोग हुआ है किंतु ये सारी गालियां ‘जुआगढ़’ की हीं गालियां हैं। जिसे हर जुआरी अपनी जिव्हा पर लाकर सामने वाले का यथोचित सम्मान करता है। कुल मिलाकर पूरी रचना पठनीय भी है और सजग  संदेशों से सराबोर भी।
कृति : जुआगढ़ – उपन्यास (दांव पर दुनिया); लेखक : भुवनेश्वर उपाध्याय; प्रकाशक : डायमंड बुक्स, नई दिल्ली; मूल्य : ₹150/- मात्र।
विभिन्न राष्ट्रीय,अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठियों में सहभागिता एवं आलेखों का प्रस्तुतीकरण। लगभग एक दर्जन शोधालेख एवं एक समीक्षा ग्रंथ प्रकाशित। संप्रति:-हिंदी विभाग शिवजागृति महाविद्यालय नलेगाँव, जिला लातूर।

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