पुस्तक- ईश्वर भी बस तुम्हें देखने आते थे लेखक- सर्वेश सिंह प्रकाशक – प्रलेक प्रकाशन
संस्करण –
प्रथम संस्करण 2022
‘ईश्वर भी बस तुम्हें देखने आते थे’ सर्वेश सिंह का पहला कहानी-संग्रह पाठकों के सम्मुख है। प्रस्तुत कहानी-संग्रह में कुल जमा नौ कहानियाँ संकलित हैं। यह कहानी-संग्रह लेखक ने प्रसिद्ध कथाकार निर्मल वर्मा को समर्पित किया है। निर्मल वर्मा की कथा-भाषा के प्रति लेखक का लगाव एवं प्रभाव उनकी कहानियों पर भी स्पष्ट दिखाई देता है। इनकी कहानियां समय को अपने भीतर समा लेने की कोशिश करती हुई मानवीय दुख के बहुत गहरे संदर्भों को छूती है। भाषिक सौंदर्य को गहरी अर्थवत्ता देने के लिए सर्वेश सिंह ने ताजे और अछूते प्रतीकों का प्रयोग किया है। इनकी कहानियाँ गम्भीर अध्ययन की अपील करतीहैं। ‘ईश्वर भी बस तुम्हें देखने आते थे’ में संकलित कहानियों की भाषा पर भारतीय संस्कृति और सभ्यता का अनूठापन साफ झलकता है।
सर्वेश सिंह के लेखन की सबसे बड़ी विशेषता उनकी कथा-भाषा है। जो कथानक और चरित्रचित्रण के अनुरूप परिवर्तित होती रहती है; इसी कारण एक अजीब उत्सुकता और भाषाई आकर्षण पाठक को आरंभ से‌ अंत तक बांधे रखता है। ये कहानियां परत-दर-परत खुलती हैं और इनमें आत्मानुभूति की गूंज सुनाई देती है। इनको पढ़कर ऐसा लगता है जैसे सबकुछ आंखों के सामने घटित हो रहा है या हुआ हो! भाषा की बेजोड़ संरचना और शिल्प के स्तर पर इन्होंने हिंदी साहित्य के प्रचलित दायरों को तोड़ा है। सांकेतिकता व प्रतीकात्मकता इनके कथा साहित्य की प्रमुख शैल्पिक विशिष्टता है। लेखक संकेतों के माध्यम से अपनी कहानियों में जटिल से जटिल मन:स्थिति को भी व्यक्त कर देते है और प्रतीकों के माध्यम से वे सूक्ष्म संवेदनाओं को परखने में सक्षम है। उनकी भाषा में दर्पण की सी पारदर्शिता, काव्यात्मक लय और संगीत की सी मधुरता उपस्थित है। उनमें अमूर्त को मूर्त बनाने वाली भाषा सामर्थ्य है। इस संग्रह के लगभग हर कहानी को पढ़ते समय लगता है जैसे कहानी के भीतर कविता है या कविता के भीतर कहानी! लोक गीत, संगीत, संस्कृत श्लोकों की अनुगूंज और कविताएं आदि बेलो से गुत्थी ये कहानियां आपको अंत तक बांधे रखने और जीवन के बहुतेरे दुर्लभ रंगों से साक्षात्कार कराने में सक्षम हैं। मुझे लगता है कि यही तो एक लेखक की पूंजी है।
इस कहानी-संग्रह की पहली कहानी ‘रोशनियों के प्रेत’ शीर्षक से है। कहानी पढ़ने से पहले मेरे मन में बचपन की एक स्मृति कौंध उठी कि भूत-प्रेत तो अंधेरे में होते हैं, रोशनी से उनको डर लगता है इसलिए बचपन में अंधेरे में जाने से भय लगता रहा। कहानी पढ़ने के बाद पता चला कि दिन के उजाले के प्रेत अधिक खतरनाक होते हैं और पाशविक मानसिकता के भी। इस कहानी में एक मरी हुई महिला के साथ पूरी रात बलात्कार किया जाता है। इस कुंठित मानसिकता की हमारे समाज और संविधान में कोई सजा का प्रावधान नहीं। हाल ही में कर्नाटक हाईकोर्ट ने आईपीसी की धारा 46 के मद्देनजर कहा कि बलात्कार किसी शख्स के साथ ही होना चाहिए, किसी शव के साथ नहीं। ये किसी की इच्छा के विरुद्ध होना जरूरी है तभी अपराध माना जाएगा। समाज में ऐसी पाशविक मानसिकता को रोकने के लिए संविधान में तत्काल संशोधन होने की आवश्यकता है;इसकी मांग ‘रोशनियों के प्रेत’ कहानी के माध्यम से लेखक भी कर रहा है। यह लेखक की दूरदृष्टि ही है कि वह अपने लेखन के माध्यम से ऐसे मुद्दों को आधार बना रहा है जिस पर संविधान भी मौन है! लेखक इस संग्रह में ऐसे बहुत से मुद्दों को पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करता है। 
इसी क्रम में अगली कहानी ‘ज्ञानक्षेत्रे-कुरुक्षेत्रे’ है। यह एक लम्बी कहानी है। इसमें लेखक जिस शोधार्थी की बात कर रहा है “दोस्तों, वह हमारे समय में ज्ञान की सबसे ऊँची डिग्री, पीएच. डी. को धारण करने वाला नवयुवक है। देश के सबसे मशहूर, जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली, के भाषा केंद्र से उसने हिंदी में शोध किया है और अपने शोध में उसने साहित्त्य और समाज के कई गूढ़ प्रश्नों को सुलझाने की कोशिश की है। उसका यह शोध कार्य इतना महत्त्वपूर्ण था की विशेषज्ञों ने उसके प्रकाशन की संस्तुति की थी तथा दशकों के बाद अदब के क्षेत्र में हुए एक महत्त्वपूर्ण शोध के रूप में उसे रेखांकित किया था।” इसको पढ़कर लगता है जैसे यह लेखक की ही कहानी हो। एक बात और इस कहानी संग्रह की सभी कहानियों को पढ़ते समय ऐसा प्रतीत होता है जैसे कोई आपके बगल बैठ कहानी सुना रहा है। लेखक की इस शैली से अद्भुत दृश्य बनता है। जैसे बचपन में दादी सुनाती थी। महाप्राण निराला लिखते हैं, मैंने ‘मैं’ शैली अपनाई/देखा दुखी एक निज भाई/दुख की छाया पड़ी हृदय में मेरे। 
‘ज्ञानक्षेत्रे-कुरुक्षेत्रे’ कहानी की कथावस्तु जेएनयू के एक शोधार्थी के अनुभवों का संसार है जिसे बहुत-सी चीजे परेशान करती है। लेखक ने उच्च शिक्षा में व्याप्त पूंजीवाद, चापलूसी, साहित्यिक राजनीति, उच्च शिक्षा में व्याप्त भ्रष्टाचार आदि पर करारा प्रहार करते हुए लिखते हैं कि, “उसे बिलकुल ही पता न था की सामने हर चीज के बाजार पनप गए जहाँ हर चीज की बोली लगने लगी है। उसे बिलकुल भी नहीं पता था की ज्ञान भी पूँजी बन चूका है और सेठ और सत्ता अपनी सुविधानुसार उसका उपयोग कर रहे हैं। वह अनभिज्ञ था की ऊँची-ऊँची डिग्रियों का दाम अब दो कौड़ी था तथा वे पुस्तकालयों के कूड़ाघरों में फेंक दी जाती थी।” इस कहानी में साहित्य और राजनीति का सूक्ष्मता से विश्लेषण किया गया है साथ ही एक शोधार्थी की शोधयात्रा का सजीव चित्रण है। नियुक्ति प्रक्रिया पर भी निर्भीक और निष्पक्ष तरीके से गंभीरतापूर्वक विचार व्यक्त किया गया है यह लेखक का ही साहस है जो पाठकों के समक्ष उदाहरण प्रस्तुत करता है। बड़ी विडम्बना है कि उच्च शिक्षा में इस तरह की राजनीति आज भी व्याप्त है।
‘पत्थरों के मन में क्या है!’ कहानी में लेखक पत्थरों के मन और मनुष्य का पत्थर होता जा रहा मन दोनों से सवाल करता है, इसको पढ़कर आप स्वयं भी बहुत से सवालों के घेरे में आ जाएंगे। मनुष्य और ईश्वर का संबंध क्या है? ईश्वर कौन बनाता है? श्रद्धा और भक्ति के नाम पर अंधविश्वास, मनुष्यता के लोप पर हम मौन है? आदि। “ढेरावीर बाबा के उस अड़भंगी पत्थर पर पहला दिया शीतला चाची) ने ही जलाया था। चाची से ही आग पाकर बाबा स्पंदित हुए और फिर उसी के जीवन की बलि पाकर सिद्ध भी बने। पता नहीं यह कैसी उलटबाँसी थी! तब सोचा न था की देवता बनाना इतना जोखिम भरा है। क्या सचमुच, देवता, अपने निर्माता मनुष्य के प्रति बिलकुल कृतज्ञ नहीं होते?” चाची ने जिस पत्थर को भगवान बनाया था उसी पत्थर से मार कर उसकी हत्या कर दी जाती है। लेखक लगातार अपनी कहानियों के माध्यम से समाज में व्याप्त अंधविश्वास, कुंठित मानसिकता और अमानवीय कृत्यों के प्रति सजग करना चाहता है। नामवर सिंह अपनी पुस्तक ‘कहानी नई कहानी’ में कहते हैं “कहानी के लिए अब जीवन का एक कतरा काटते समय उसके हर जीवंत रेशे को भी सुरक्षित रखने की कोशिश की जाती है। इसीलिए सीधे-सीधे कहानी कहने अथवा एक विचार व्यक्त करने की अपेक्षा वास्तविकता के अधिक-से-अधिक स्तरों को उभारने की कोशिश हो रही है। इस कार्य को भली-भांति संपन्न करने के लिए कहानीकारों ने परंपरागत कार्य-कारण- बद्ध कथानक को जगह-जगह तोड़ दिया है, ताकि उनके बीच से जीवन-खंड के अन्य अनुभूति-तत्व उभर जाएँ। फिर इन टूटे हुए टुकड़ों को नए-नए रूपाकारों में सजाकर कहानी की नवीन कला- सृष्टियाँ की जाती हैं।” सर्वेश सिंह अपनी कहानियां में इन जीवंत रेशों को सुरक्षित करने में सफल रहे हैं। कथानक में नाटकीयता लाए बिना अनुभव को सहजतय: कैसे उभरने देना चाहिए इस कला का आदर्श रूप इनकी कहानियों में दिखाई देता है।
‘मसान भैरवी’ कहानी में बनारस के हरिश्चंद घाट का जीवंत चित्रण प्रस्तुत किया गया है। इस कहानी में लेखक असफल प्रेम की पीड़ा पर गहनता से विचार करता है। लेखक अपनी कहानियों के माध्यम से जीवन से निराश हुए इंसान को जीने के लिए प्रेरित करता है वह डूबने से बचाता है। ज्योति के प्रेम में असफल प्रेमी जब आत्महत्या का विचार कर संसार छोड़ देना चाहता है तब लेखक ही है जो उसे फिर वापस लौटने पर विवश करता है। मसान भैरवी, ईश्वर भी बस तुम्हें देखने आते थे और चाहना कहानी इसके अद्भुत उदाहरण हैं। लेखक प्रेम को उच्च कोटि पर पहुंचा देता है। प्रेम को छू पाना मानो ईश्वर की प्राप्ति। प्रेम और आध्यात्म का ऐसा मेल शायद ही कहानियों में दिखाई देता था इस बात की पुष्टि ‘ईश्वर भी बस तुम्हें देखने आते थे’ कहानी में हेमा वशिष्ठ और उदासी बाबा जैसे पात्रों की बुनावत से हो जाती है। इनकी कहानियों के पात्र जीवन से कितना भी भागे आध्यात्म का सहारा लें लेकिन अंत में लेखक उनको जीवन और संसार की ओर लौटा लाता है। बाबा हेमा से कहते हैं कि, “तुम… बस तुम्हारे साथ मेरा होना। वही एक सच था।बाकी सब निरर्थ थे। तुम बताओ, तुम्हें यकीन हुआ अब तक कि नहीं।’ ‘मैं यकीन कर भी लेती तो उससे क्या होता? कुछ बदलता क्या उससे?’ ‘बदलना कुछ नहीं था। बस एक सच का उन्मुक्त स्वीकार और उसमें रहना भर था। यहाँ आकर मुझे यकीन हुआ कि मेरे और तुम्हारे अलावा बाकी सब बस एक छलना है। ज्ञान, विज्ञान, आशियाने, हरीतिमा, ये बड़े बड़े शहर, मोटी मोटी पोथिया… य सब शायद बस इसीलिए हैं या आई, क्योंकि तुमसे एक दूरी बढती गयी या फिर मुझसे तुम्हारी दूरी बढती गई। मुझे अब लगने लगा है कि ये सब कुछ ना भी हों, तो भी, बस एक तुम्हारा ही होना इस ब्रह्माण्ड को सुंदर और सम्पूर्ण बनाता है।” प्रेम का ऐसा अलौकिक सौंदर्य शायद ही कहीं दिखाई देता है।
सर्वेश सिंह की कहानियों को पढ़ते समय लगता है जैसे कोई कविता पढ़ रहे हैं। ऐसी कविताई भाषा जीवन के गूढ़ रहस्यों को भी कम और आसान शब्दों में कह जाती है। “मैंने देखा, उन्होंने धीरे से बाबा का चेहरा अपने हाथों में ले लिया और बुदबुदायीं- ‘शब्दों ने कितना तो भरमाया है! आह कि तुम्हें आज भी देखना मेरा पेड़ हो जाना है… तुम्हें सुनना नदी होना… तुम्हारा स्पर्श मुझमें फसल का पकना है… तुम्हारा देखना मेरा आसमान हो जाना है”’ आपको ऐसे बहुत से उदाहरण ईश्वर भी बस तुम्हें देखने आते थे कहानी एवं कहानी-संग्रह में मिलेंगे। जहां लगेगा कि आप कोई सुंदर कविता पढ़ रहे हैं। “कुछ देर बाद बाबा की आवाज गूंजी ‘प्रेम, मृत्यु नहीं, उसका परम बोध है। उसका होना मृत्यु के बाद भी है। वह निर्वाण है। जैसे सुगंध का बिखरना। दुनिया से पलायन नहीं, बल्कि एक बेहतर दुनिया की तलाश, और उसका निर्माण भी। एक घने प्रकाश की दुनिया। एक पवित्र वन। उर्वर स्वप्नों का देश। मन में अनाशक्ति का धारण । दर्पण सदृश बोध।” सर्वेश सिंह की कहानियां जीवन से पलायन नहीं अपितु वापसी हैं।
“पहले की तरह आज की कहानी ‘आधारभूत विचार’ का केवल अंत में संकेत नहीं करती, बल्कि नई कहानी का समूचा रूप-गठन (स्ट्रक्चर) और शब्द-गठन (टेक्स्चर) ही सांकेतिक है। कहानी के दौरान लेखक जगह-जगह संकेत देता चलता है और ये सभी संकेत एक-दूसरे से इस तरह जुड़े रहते हैं कि एक संकेत प्रायः किसी पूर्ववर्ती तथा परवर्ती संकेत की ओर संकेत करता जाता है, इस प्रकार आधारभूत विचार द्रवीभूत होकर संपूर्ण कहानी के शरीर में भर उठता है, कहीं एक जगह स्थिर नहीं रहता ! “(नामवर सिंह, कहानी नई कहानी) सर्वेश सिंह की कहानियों में सभी संकेत एक-दूसरे से जुड़े रहते हैं और अंत तक पाठक को जोड़े रखते हैं।
‘आर्वी’ कहानी में पूर्वोत्तर भारत विशेषकर मेघालय का प्राकृतिक एवं सांस्कृतिक सौंदर्य का वर्णन लेखक ने बड़े मनोयोग से किया। “स्थिर पहाड़ के सीने में मेघों का प्यार है। अपनी देह को पत्थरों पर पटकता पानी कुछ कहता है। मुझे सहसा कुछ समझ नही आता। तभी नीचे से एक सन्यासी बादल उठता है और पानियों को चूमते पहाड़ के सीने में विलीन हो जाता है, और अचानक पहाड़ दर्पण में तब्दील हो जाता है। पथरीले शीशे में समुंदर थरथराता है। पानियों की आवाज तब समझ आती है। वे पहाड़ को देख हंसती हैं, पहाड़ पेड़ों की ओर इशारा करते हैं, पेंड़ मेघों की ओर, मेघ खड़ी पाई की ओर. और खड़ी पाई प्रश्नवाचक में बदलने लगती है। जैसे पूछती हो कि हमेशा दिल्ली क्यों लिखते हो? कभी एक खड़ी पाई पेड़ों के बीचों बीच किसी पहाड़ की छाती पर बनाकर देखो! कभी पछाड़ खाते पानियों की एक कहानी लिखकर देखो। कविता में देवालय तो कितने लिखे, कभी मेघालय भी लिख कर देखो!!” साथ ही लेखक साहित्य जगत को संकेत करता है कि हम इस सौंदर्य को अपने साहित्य में शामिल करें। इस कहानी में ‘आर्वी’ अपने मित्र को मेघालय घूमती है इसमें नारितियांग शक्तिपीठ, मितंदु नदी, गुवाहाटी का कामाख्या मंदिर,मातृसत्तात्मक समाज आदि का सुंदर चित्रण है। मेघालय में स्त्री को अपने जीवन को स्वयं संचालित करने के अधिकार प्राप्त है और वह संपत्ति की अधिकारी भी है। आर्वी एक प्रसिद्ध गायिका और एक बच्चे की मां है लेकिन बच्चे के पिता नहीं हैं इस बात का समाज में कोई विवाद नहीं वरन एक बिन व्याही मां और उसके बच्चे का स्वर्गिक उत्सव है। लेखक ने इस कहानी में आर्वी का एक मार्मिक खासी गीत का जिक्र किया है जिसके कुछ पंक्तियां इस प्रकार हैं, एक लावारिश/ अकेला इस पृथ्वी पर मैं बेबस/बेचारा/ टूटा ह्रदय और दर्द से भरी हुई आत्मा/ बस तुम्हे ही याद करता हुआ/ वो मेरी माँ/ मेरे पापा/ तुम दोनों को साथ कहाँ पाऊं मैं।
“विचार, वायरस से भी अधिक संक्रामक है” स्वामी शिवानंद के कथन से ‘वायरस’ कहानी की शुरुआत होती है लेकिन इस कहानी में केवल विचारों का संक्रमण नहीं अपितु जिस वायरस ने जीवन मरण के अंतर को ही समाप्त कर दिया था, जिसके नाम से ही दुनिया तिल-तिल मर रही थी और कब किसके मरने की सुनने में आ जाए, डर से सहमी हुई थी यह वही कोरोना वायरस है। इस कहानी में उसी भयावह समय का मार्मिक चित्रण प्रस्तुत किया है। न्यूज चैनलों  की बहसें मन को व्यथित कर रही थीं। ऐसा लग रहा था मानो प्रकृति अपने ऊपर हुए सारे जुल्मों का हिसाब ले रही है, सब शांत और केवल प्रकृति की अनुगूंज थी। लेखक वायरस कहानी में इस स्थिति का चित्र खींचते हुए लिखता है, “निर्जन सड़क पर झरती सर्पीली सी रोशनी। हवा बंद। क्रासिंग बंद। आसमान में तारों की झिलमिल; जैसे कि आँसूओं भरी असंख्य आँखे खुलती और बंद हो रही हों। सडक किनारे खड़े शांत वृक्ष; जैसे कि कुंभक खींचे योगियों की कतारें हों। जब तब तेजी से गुजरते किसी ट्रक की चीख या पुलिस जीप का सायरन सुन धुकधुकी बढ़ जाती है।” इस समय में कितने लोगों के करीबी उनसे बिछड़ गए कितनों का रोजगार छूट गया। सब कुछ बेसहारा हो गया था केवल एक ईश्वर के प्रति आस्था ही थी जो बचाए हुए थी जीवन और जगत को।
सर्वेश सिंह की कहानियों में संस्कृत के श्लोक, कबीर के दोहे, तुलसी की चौपाई, अज्ञेय, मंगलेश डबराल और लीलाधर मंडलोई की कविताएं भी दिखाई देती हैं। यह इनका पहला कहानी-संग्रह होने बावजूद सर्वेश सिंह की कथा शैली अज्ञेय  और निर्मल वर्मा की कोटि की है। लेखक भारतीय संस्कृति के प्रति बहुत समर्पित और सजग है। वह पलायन नहीं चाहता। प्रेम और आध्यात्म को उच्च शिखर तक पहुंचा कर फिर वापिस कर्तव्य पथ की ओर अग्रसर होने के पक्ष में है। समकालीन कथा साहित्य में इस तरह का लेखन एक संजीवनी बूटी की तरह है जो उम्मीद भरता है कि हमें साहित्य और समाज के संबंध को बचाकर रखना है। तभी मनुष्यता विजनीय होगी। प्रसाद के शब्दों में, शक्ति के विद्युत्कण जो व्यस्त विकल बिखरे हैं हो निरुपाय/समन्वय उसका करे समस्त विजयिनी मानवता हो जाए!
सोनम तोमर
अतिथि प्राध्यापक, हिंदी विभाग
कॉलेज ऑफ वोकेशनल स्ट्डीज,
दिल्ली विश्वविद्यालय।
tomarsonam888@gmail.com

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