बात अब मुख्तसर सी है शायद
उनकी बदली नज़र सी है शायद
मेरा साया नज़र नही आता
रौशनी बे ख़बर सी है शायद
आप कहते नही हैं अब आमीन
हर दुआ बे असर सी है शायद
जलती बुझती है याद आंखों में
जगनुओं के सफ़र सी है शायद
कब मुलाक़ात आप से होगी
जिंदगी मुख्तसर सी है शायद
प्यासा प्यासा हर एक दिन मेरा
रात सूखे शजर सी है शायद
लफ्ज़ रोने लगे हैं क्यों रूबी
शायरी चश्मे तर सी है शायद
डॉ रूबी भूषण
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बहुत खूबसूरत ग़ज़ल।
शुक्रिया