पुस्तक – कवि के मन से विधा – काव्य संग्रह लेखक – शशि सहगल प्रकाशक – इण्डिया नेटबुक्स प्राइवेट लिमिटेड मूल्य – 300 रूपये संस्करण – प्रथम 2022
आलोचक
तेजस पूनियां
हिंदी कविता का संसार लम्बे समय से हिंदी साहित्य को समृद्ध करता आया है। जिसमें ढेरों महिला कवियत्रियों ने अपना योगदान देकर इसे समृद्ध किया है। मीराबाई से लेकर सुभद्राकुमारी चौहान और आज के दौर में अनामिका से लेकर शशि सहगल की कविताओं में मानव मन की जिजीविषा ने स्थान पाया है। कभी स्त्री विमर्श की कविताओं के रूप में तो कभी अपने परिवार, समाज, देश की विभिन्न परिस्थितियों पर मंथन करते हुए उनकी कलम जब चली तो ढेरों सवाल राजनीति, समाज, धर्म आदि पर उठे। कई बार विमर्श के दायरे में रहकर उन्होंने कवितायें लिखीं तो कई बार उनकी कविताओं से विमर्श के रूप में सवाल खड़े हुए।
एक बात यहाँ यह ध्यान देने योग्य है कि जरुरी नहीं विमर्श केवल गद्य साहित्य से ही उपजे वह कविताओं से भी निसृत हो सकता है। शशि सहगल की कविताएँ विमर्श के दायरे से परे की कवितायें हैं कहीं-कहीं विमर्श उपजा भी है तो उनके काव्य संग्रह को पढ़ते हुए यह ज्ञात होता है कि उन्होंने अपनी कविताओं से एक नया विमर्श गढ़ने का प्रयास किया है। दिल्ली विश्वविद्यालय से सेवानिवृत हो चुकी प्रोफेसर शशि सहगल लाहौर वर्तमान के पाकिस्तान में जन्मी तथा विभाजन के बाद भारत में रहकर शिक्षा पूरी करते हुए कवियत्री, कथाकार, अनुवादक एवं आलोचक के रूप में अपनी पहचान बनाई। एक स्त्री होने के नाते उनकी कविताओं का परिवेश घर-परिवार-समाज के भीतर संघर्ष करती हुए स्त्री के परिवेश के रूप में चित्रित हुआ है। वे अपनें तमाम सबंधों को भी कविताओं के माध्यम से नितांत निजी रूप में देखती-लिखती हैं। उनके रचनाकर्म में ‘मीठे चावल तथा अन्य कविताएँ’, ‘कविता लिखने की कोशिश में’, ‘टुकड़ा-टुकड़ा वक्त’, ‘मौन से संवाद’, ‘भाई वीर सिंह का मेरे साँईयाँ जियो’, ‘प्रभजोत कौर की पब्बी’ , ‘महिंदर सिंह सरना की चुनिंदा कहानियां’, ‘नानक सिंह की चुनिंदा कहानियां’, ‘करतार सिंह दुग्गल की चुनिंदा कहानियां’, ‘पंजाबी प्रवासियों की कहानियां’, ‘गुरु गोबिंद सिंह’, ‘नयी कविता में मूल्य-बोध’, ‘अन्वेषक:एक मार्डन क्लासिक’ साहित्य विधाएं’, ‘रीतिमुक्त कवि घनानंद’ , साहित्य: विविध विधाएं’ शामिल हैं।
इसके इतर भी वे रेडियो, दूरदर्शन इत्यादि से लगातार जुड़ी रही हैं। सौ से अधिक कविताओं के अपने संग्रह ‘कवि के मन से’ में शशि सहगल ने कविताओं को लिखने की कोशिश नहीं की है अपितु कविताओं ने उन्हें लिखा है यह कहा जाना चाहिए। अपनी पहली ही कविता से जिस तरह वे कविताओं के मर्म तक पहुँचती है वही उन्हें एक गंभीर कवियत्री के रूप में भी स्थान दिलाता है।
कान बजबजाने लगते हैं बच्चे की आवाज से
‘मम्मी भूख लगी है’
सारे के सारे चिथड़े / उसके मुंह में ठूंस / हताश मैं
देखती हूँ / कविता को रोटी में बदलते हुए।
यह कविता की अंतिम पंक्तियाँ अमूमन हर कवि के जेहन में उपज अवश्य सकती है।और वह संभवत इसलिए ही कहता है कि मैंने कविताओं को नहीं गढ़ा अपितु कविताओं ने मुझे गढ़ा है। कविता लिखने की इसी कोशिश में कवियत्री की कविताओं के सम्बन्ध में लेखक, आलोचक डॉ. मोहसिन खान के कविता संग्रह ‘रंगतंत्र’ की भूमिका याद आती है। जहाँ वे लिखते हैं – सार्थक कविता का एक लक्षण यह भी मानता हूँ कि वह व्यक्ति को बैचेन कर दे, उसे सुलाए नहीं, बल्कि उसके भीतर उतरकर, प्रश्नों को, आक्रोश को जगा दे। उसके भीतर असंतुष्टि की भावना और विचार पैदा कर उसे मथते हुए कुव्यवस्था के विरुद्ध उत्प्रेरित कर दे। यहीं वे आगे लिखते हैं कि – कविता दो काम तो अवश्य करती है; एक तो व्यक्ति जड़ता को मिटा देती है, दूसरी समाज की जड़ता और अंधता के विरुद्ध लड़ना सिखा देती है। यही लड़ना प्रोफेसर शशि सहगल की कविताओं में भी नजर आता है।
‘असर’, ‘धर्मग्रन्थ’, ‘न्याय’, ‘आजादी’, ‘गुनाह यूँ भी होता है’, ‘जिजीविषा’ इत्यादि कविताएँ इन्हीं संघर्षों के विरुद्ध उपजी हुई कविताएँ प्रतीत होती है। इसी तरह कविता ‘आम का पेड़’ में पेड़ का आदमी जैसे होने जाने की भावना नजर आती है। क्योंकि पेड़ों का काम है फल, छाया प्रदान करना। लेकिन आधुनिक हो रहे विश्व में जब इन्हें काटा जा रहा है तो कहीं-न-कहीं प्रकृति भी बाँझ होती जा रही है। यह बाँझपन शारीरिक तो है ही किन्तु उससे कहीं अधिक यह मानसिक है। जिस तरह इंसानों की प्रवृति है दूसरों को कुचल कर आगे बढ़ने की तथा दूसरों की लाशों पर अपने महल-चौबारे खड़े करने की। वे लिखती हैं-
यह कैसा सन्नाटा है?
जड़ है हर पत्ता / और आंगन में यह खून के धब्बे!
सिहर उठती हूँ मैं / छूकर देखती हूँ पेड़ को
कहीं वह आदमी तो नहीं बन गया!
इसी तरह जब न्याय की खोज में कवियत्री पहुँचती है तो इसी शीर्षक से न्याय की खोज करने वालों के सामने उस न्याय व्यवस्था पर चोट करते हुए उसकी सच्चाई से पाठकों को रूबरू करवाती है। क्योंकि न्यायपालिका में पहुँचते ही वे लोग भी न्याय की आड़ में एक डंडा उठा लेते हैं जिससे हांका जाता है पीड़ितों को, जिससे हांका जाता है निरीहों को। और डंडा उठा वे साथ ही गूंगे-बहरे भी हो जाते हैं। इसके लिए वे अपने कानों में रूई ठूंस लेते हैं। यह रूई का ठूंसना और डंडे से हांका जाना कविता के माध्यम से प्रतीक है। इस तरह प्रतीकों का इस्तेमाल भी सहगल की कविताओं में नजर आता है। जिसके फलस्वरूप के चीखें ही सुनाई देती हैं। और फिर वह निकलती है ‘खोज’ में और खोज करती है एक ऐसे सिर की जो सोच सकता हो, जो प्रलोभनों के विरुद्ध खड़ा हो और जो आदमियों की पहचान खेमों से ना करता हो। क्योंकि यह वही आदमी है जो पेड़ों को ही नहीं बल्कि उनके साथ-साथ स्वयं तथा देश को भी काटता है।
इसी काटने के क्रम में प्रो. सहगल अपनी कविता के माध्यम से ‘अहसास’ भी करती हैं कि हम मनुष्य कायदे से आज भी किसी को समझ नहीं पाए हैं। यही वजह रही हैं कि बदलते समय के साथ हम इस मोड़ पर आ खड़े हुए हैं जहाँ से हम दूसरों को तथा स्वयं को खुश होने का स्वांग भर करते नजर आते हैं। फिर एक माँ का ममत्व देखने वाली इस मनुष्य प्रजाति ने जब उसका ‘पहला स्पर्श’ पाया तो उस छुअन से माँ को जो संवेदनाएं महसूस हुईं उन्हें भी प्रो. सहगल कविता के माध्यम से संजोती हुई लिखती हैं –
सच तो यह है कि / कुछ संवेदनाएं कभी नहीं मरती
ताजा रहती हैं वे / अपनी पूरी ताजगी के साथ तन में बसी
आखरी सांस तक।
यह सच है कि संतान भले ही उन संवेदनाओं को विस्मृत कर दे किन्तु उस स्पर्श तथा संवेदना को जिस प्रकृति ने जन्म दिया वह भला कैसे भुला सकती है। कविताओं के लिखने के इसी क्रम में संवदेना के गुजरते हुए जब कवियत्री रूप में अपने आस-पास घटित हो रहे घटनाक्रम से व्यथित हो प्रो. सहगल ‘गुनाह यूँ भी होता है’ कविता लिखती हैं तो कहती हैं –
जानते हैं सभी / वह सब मैंने नहीं किया / बड़ी खूबसूरती के साथ
साबित हो गया कि/ मैं ही गुनाहगार हूँ। बड़ी मासूमियत से
कबूल कर लिया है/ वह गुनाह जो मैंने/ कभी नहीं किया।
प्रो. सहगल के इस संग्रह में शामिल ‘नियति’ कविता किसी विमर्श के दायरे में फिट नहीं बैठती अपितु वह खुद से अपना विमर्श तैयार करती है। जिन्दगी के संघर्ष का भी कोई विमर्श होना चाहिए। अक्सर हिंदी साहित्य में विमर्श के दायरे में रहकर नहीं लिखने वाली जमात का मानना है कि विमर्शों ने साहित्य को बहुत पीछे धकेला है। वे अपने तर्कों पर सही साबित हो सकते हैं किन्तु विमर्श रहित तथा विमर्श के दायरे वालों से बहस का विषय इसे ना बनाते हुए इसे जीवन विमर्श कह देना उचित होगा। प्रत्येक मानुष के अपने संघर्ष रहे हैं। किन्तु बहुत से मनुष्यों के संघर्ष को समान रूप से परखते हुए एक ही धारा में बहने वाले संघर्षों का क्या विमर्श नहीं होना चाहिए? इसे कोई कुतर्क कहकर काट भी दे तो फिर वे बाकी विमर्शों की रौ में वे क्यों बहते हैं, उनके सहारे अपने जीवन की नौका को पार ले जाने के स्वांग भरे सपने संजोते हैं। वे लिखती हैं – कितना हास्यास्पद है/ रोज/ एक ही तरह की जिन्दगी जीना। इसमें मात्र पेड़ की परछाई ही नहीं बल्कि गूढ़ रूप से जीवन की परछाई भी छिपी नजर आती है। जिस तरह एक बीज से वृक्ष बनने के पीछे पेड़ का संघर्ष छिपा है ठीक उसी तरह एक छोटे बच्चे से लेकर उसके पूरे जीवन तक का भी संघर्ष उसके साथ छिपा होता है। जो उसकी परछाई बनकर उसके साथ-साथ चलता है। इसी तरह एक महिला के जीवन तथा उसके मन में छुपे हुए पहलू ‘निकटता’ का सहारा पाकर सामने आते हैं। जिसमें आस-पास के माहौल में न रमते हुए एक गृहिणी को घर में बच्चे, घर का राशन इत्यादि की चिताएं सता रही होती हैं।
अपनी उन चिंताओं तथा जिजीविषाओं के साथ वह ‘समझौता’ करते हुए हर बार आगे बढ़ने की कोशिश करती है।जिसमें वह पाती है कि उसने स्वयं को बहुत ईमानदारी से समझने की कोशिश की लेकिन उसे प्रतीत होता है कि वही हर बार गलत भी साबित हुई। उसे ऐसा लगना भी स्वाभाविक है क्योंकि वह सदा से समझौतों की राह पर जो चली है। इन समझौतों से ही फिर ‘सैलाब’ निकलता है, जिसमें उसे ‘घास’ भी स्मरण हो आती है। यही वजह है कि ‘घास’ कविता में कवियत्री लिखती हैं – ‘रात भर/ आकाश से दुःख बांटती है घास/ सुबह होते ही/ रह जाती है अकेली/ होती है उदास। यहीं वह घास ‘सबक’ भी देती है जिसके सम्बन्ध में कविता है ‘सबक’ कविता कहते हुए प्रो. सहगल लिखती हैं – घास देती है/ दो सबक एक साथ/ सिर उठा कर जीना/ और/ दूसरों के सम्मान में बिछ जाना।
‘कवि के मन से’ संग्रह में कुछ अन्य कविताएँ भी हैं जो गहनता से लिखे गये रचनाकर्म की ‘सौगात’ है। जिसमें ‘सपने’ भी हैं तो ‘दुविधा’ भी ’बेबसी’ है तो ‘विसंगति’ भी जीवन का ‘रीतना’ भी है तो उसे ‘महफूज’ रखने की कोशिश भी जिसमें कभी ‘पूरा चाँद’ नजर आता है तो कभी ‘बेटा’ कभी रूढ़ियों के विरूद्ध ‘ऐलान’ भी तो कभी ‘मौन’ भी उसमें उसकी अपनी ‘खीज’ भी छुपी हुई है तो ‘भटकन’ भी और उनके ‘झरोखे’ से अब तक के जीवन और समाज का ‘मूल्यांकन’ करती नजरें भी। जिसमें कभी ‘प्रश्न’ है तो कभी उनका ‘पुनर्जन्म’ भी। संभवत: यही वजह है कि प्रो. सहगल ‘घुन’ को भी नहीं छोड़ती अपितु उसके माध्यम से मानव-मन को टटोलने की भरपूर कोशिश करती नजर आती हैं। वे लिखती हैं – आवाज करती/ टूटने वाली चीजों ने/ कभी दुखी नहीं किया मुझे/ घबराती हूँ/ बिना आवाज की टूटन से/ जो घुन-सी ख़ा जाती है/ आदमी को। यह घुन ख़ास करके महिलाओं को अधिक खाती है उसके पीछे की वजहें शशि सहगल की एक कविता ‘बेटा’ में व्याख्यायित हुई हैं जहाँ वे लिखती हैं – कोख का सुख/ लोक का सुख/ परलोकका संचरित सुख/ सभी कुछ पाया मैंने/ आशीषों की वर्षा से/ भीग उठी मैं/ बेटा पा जी उठी मैं। बीतता रहा समय/ बदलते गये कैलेंडर/ और आज जब/ बाप का जूता पहना है उसने/ उद्विग्न-सी घूम रही हूँ मैं/ खुश होने के बजाय/ सहम गई हूँ, उसका बदलाव देखकर/ क्यों अपरिचित हो गया है वह/ किसने छीन ली है छुअन मुझसे/ समय ने!/ पूछती हूँ एक सवाल आपसे/ बेटा बड़ा होकर/ आदमी क्यों बन जाता है?
प्रो. सहगल की कविताएँ अपने समय के समाज को बहुत बारीकी से देखती हैं। जिन्हें पहचानने के लिए पाठक का सहृदय होना पहली शर्त है। पाठक का सहृदय होना यूँ तो उसके पाठक होने की भी पहली शर्त है। एक गंभीर लेखक एक गंभीर पाठक हो सकता है लेकिन एक गंभीर पाठक एक गम्भीर लेखक हो यह जरुरी नहीं। इसलिए जब भी कोई पाठक शशि जैसे आलोचकों की कविताएँ पढ़ता है तो वह स्वत: ही सहृदय होता चला जाता है। साहित्य में आलोचक का एक अच्छा कवि होने ना होने के पीछे की भी बहसें हैं और हो सकती हैं किन्तु फिलवक्त ‘कवि के मन से’ जो ये कवितायेँ उपजी हैं वे पाठक को सहृदय बनाने की राह में आगे अवश्य ले जाती है।

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