लेखन कला एक ऐसा मधुबन है जिसमें हम शब्द बीज बोते हैं, परिश्रम के खाध्य का जुगाड़ करते हैं और सोच से सींचते हैं, तब कहीं जाकर इसमें शब्दों के अनेकों रंग-बिरंगे सुमन निखरते और महकते हैं।
किसी भी भाषा का साहित्य उस भाषा का वैभव है, उसका सौंदर्य है जो उसकी पूर्णता दर्शाता है । सामान्य साहित्य हो या बाल साहित्य हो दोंनों का उदेश्य और प्रयोजन समान है । बच्चों का एक स्वतंत्र व्यक्तित्व होता है, उनकी रुचि और मनोवैज्ञानिक बुनियादी विशेषताओं को ध्यान में रखकर लिखा गया साहित्य ही बाल साहित्य कहलाया जाता है । एक ऐसा साहित्य जो बच्चों में बोये हुए अंकुरों को पुष्ट करता है और उन्हें अपनी छोटी समझ-बूझ के आधार पर जीवन-पथ पर आती-जाती हर क्रिया को पहचानने में मदद करता है, साथ-साथ उन्हें यह भी ज्ञान हासिल होता है कि वे भले-बुरे की पहचान पा सकें, अपना फैसला लेने में सक्षम होते रहें। विकास और उन्नति के सभी दरवाजे उनके लिए खुले रहें।
हिंदी बाल साहित्य के लेखक का यह भी फर्ज़ बनता है कि बाल साहित्य के माध्यम से बच्चों की सोच को सकारात्मक रूप देने का प्रयास भी करें । साहित्य को रुचिकर बनायें, विविध क्षेत्रों की जानकारी अत्यंत सरल तथा सहज भाषा में उनके लिये प्रस्तुत करें जिससे बालक की चाह बनी रहे और उनमें जिज्ञासा भी उत्पन होती रहे । इससे उनमें संवेदनशीलता और मानवीय संबंधों में मधुरता बनाए रखने की संभावना बरक़रार रहने की उम्मीद बढ़ेगी।
चर्चित लेखिका उषा साहू जी ने, अपने इस बाल साहित्य को समृद्ध करने की प्रथा में एक सकारात्मक योगदान देते हुए इस रचित संसार को “बच्चे और त्यौहार” भेंट किया है. । यह एक गुदगुदी पैदा करती सरल भाषा में बुनी हुई शब्दों की एक कलाकृति है जो आज के इस दौर की माँग भी है और यथाकथिक मूल्यांकन करती बच्चों के लिए देन भी है।
संग्रह के आगाज़ी पन्नों में अपनी प्रस्तावना में बाल लेखन की अनुभूतियों को सराहते हुए कथाकार सूर्यबाला ने अपने मनोभावों को व्यक्त करते हुए लिखा है –
“त्यौहार हमारे जीवन की संजीवनी हैं । ये हमारी रोज़मर्रा की उबाऊ और एकरस दिनचर्या के बीच, हर्ष-उल्हास और ऊर्जा की सृष्टि करते हैं। ये हमारे सदभाव बढ़ाते हैं, हमारे रिश्तों को प्रगाढ़ करते हैं । विशेषकर आज के इस समय में, इस तेज रफ्तार के जीवन में, जबकि हम असंवेद्न्शील होते चले गए हैं.”
बच्चों का मानसिक विकास ही कुछ ऐसा है, वह आज़ादी का कायल रहता है, बँधन-मुक्त । अगर कोई उनसे कहे कि यह आग है, जला देती है, तो उसका मन विद्रोही होकर उस तपिश को जानने, पहचानने और महसूस करने की कोशिश में खुद को कभी-कभी हानि भी पहुंचा बैठता है। सवालों का ताँता रहता है, क्यों हुआ? कैसे हुआ? और अपनी बुद्धि अनुसार काल्पनिक आक्रुतियाँ खींचता है और अपनी सोच से अनेक जाल बुनता रहता है. मसले का हल अपनी नज़र से खुद खोजता है । यही उसका ग्यान है और यही उसका मनोविग्यान भी । उनके मानसिक व बौद्धिक विकास को ध्यान में रखकर रचा गया साहित्य उनके आने वाले विकसित भविष्य को नज़र में रखकर रचा जाये तो वह इस पीढ़ी की आने वाली पीढ़ी को दी गई एक अनमोल देन होगी या विरासत कह लें तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी।
इस संग्रह में उषाजी ने इसी संजीवनी को बड़ी खूबी से, दीदी के माध्यम से अपनी सोच को सशक्त रूप से अभिव्यक्त किया है, जिसमें भारत वर्ष की परंपराओं को, धार्मिक और राष्ट्रीय त्यौहारों की जानकारी, छोटे और बड़ों के बीच संधिपरक व्यवहार को बड़े ही सलोने ढंग से प्रस्तुत करते हुए, देश के जात पात के बंधन से मुक्त, उन्मुक्त हवाओं में परिंदों की तरह उड़ान भरने की सफल कोशिश की है .। स्वतंत्र भारत के मुख्य दिन, मुख्य त्योहार, चाहे धार्मिक हों या परंपराओं के प्रतीक, शिवरात्रि, दिवाली, होली हो या ईद हो सभी को एक साथ ले चलते हुए क़लम की धार में पिरोया है । कुछ ऐसे जैसे कला के एक अनोखे पक्ष का विविध रंगों से एक इंद्रधनुष प्रस्तुत किया है। इसकी आभा सदा बाल जगत के क्षितिज पर दमकती रहेगी।