अनिल गान्धी का पहला उपन्यास “ब्यूरोक्रेसी का बिगुल और शहनाई प्यार की” ‘पुरवाई’ कार्यालय लंदन तक डी.एच.एल. के माध्यम से पहुंचा। ख़ुशी भी हुई और हैरानी भी। अनिल गान्धी राज्य सभा में संयुक्त सचिव के पद से सेवा-निवृत्त हुए। उन्होंने दो एक कहानियां लिखने के बाद सीधे उपन्यास पर हाथ आज़माया और इसमें सफल भी हुए।
दरअसल amazon.in पर इस उपन्यास पर इतनी ईमानदार टिप्पणियां पढ़ने को मिलीं कि अपने पाठकों के साथ साझा करने का लोभ संवरण नहीं कर पा रहे। अनिल गान्धी के पहले उपन्यास को विश्व के बहुत से देशों के पाठकों ने सराहा है।
SP Gautam, 29 जून 2021 को भारत में समीक्षा की गयी
“अनिल गांधी के उपन्यास ‘ब्यूरोक्रेसी का बिगुल…’ में पचास पेज के बाद घटनाक्रम इस कदर हिचकोले मारता है कि आप अगला पृष्ठ पढने के लिए तत्पर रहते हैं।बस इसीलिए मैंने इसे दस दिनों में पढ़ डाला। यह पुस्तक अवर्ण-सवर्ण के बीच की खाई और हीनभावना को ही नहीं बल्कि स्वयं आरक्षित वर्ग के बीच पसरे भेदभाव शोषण और असुरक्षा की तमाम परते खोलता है।मुख्य किरदार,- नील सोनी और अलका आर्य नदी के दो छोर हैं। नील एक रंगकर्मी है और अलका आर्य दलित वर्ग से ऊँचे औदे वाली अफ़सरानी है।
ज्वार -भाटा से रागात्मक संबंध कब एक सुनामी में बदल जाएं ,’ताऊ -ते’ या ‘कैटरीना’ हो जाएं इसका कोई निश्चय नहीं। नील परम्परा-बद्ध लेखन की तरह है तो अलका छंद मुक्त कविता से लेकर नै कविता,हाइकु से लेकर क्षणिका तक एक साथ सब कुछ है। कब बैलाड , आलाऊदल की तरह वीर-गाथा बन जाए हल्दी घाटी हो जाए इसकी भी कोई प्रागुक्ति नहीं कर सकता।उपन्यास के अंदर एक अंडरकरेंट है अंतर्धारा है। सतह के बहुत नीचे जहां एक साथ थियेटर की प्रतिबद्धता और अनुशासन है ,साधन और साध्य का ऐक्य भी है तो अफसरी की बदमिज़ाजी और अहंकार भी है। और इसके के नीचे दबी कुचली एकल नारी की व्यथाकथा है निस्संगता और बेबसी है। लेकिन अफसरी उसके हाथ में ऐसा हथगोला है जिसे समाज के चील कौवो और गिद्धों पे दागने में वह ज़रा भी नहीं हिचकती। एक सामाजिक गुलेल से वह विपक्षी को कब निशाने पे ले ले, नील इससे बेहद आतंकित रहता है।अलका एक उत्पीड़ित आहत बाघिन है जो बेहद आहत हुई है अपनों के हाथों।पैदाइशी लेबल से उबरने में उसका जीवट उसका मददगार बनता है। अलका के यहां जातिगत दलदल कभी भी बघनखे खोल के नर-सिंह अवतार ले सकती है। बड़े बड़ों को वह उनकी औकात, कद काठी बतलाने में ज़रा देर नहीं लगाती है,चाहे गाली-गलोज ही क्यों न करना पडे।लेकिन वह अंदर से टूटी हुई एक आधी अधूरी महिला है, जो सम्पूर्णता की तलाश में है।उसकी तलाश में साथ देते हुए पाठक इस मैराथन खेले में शुरू से लेकर आखिर तक सांस रोके रहता है। अन्तिम पृष्ठ तक उसे लगता रहता है ये नदी के दो कूल एक दूजे से कब,क्यों और कैसे मिल पाएंगे!
ज्वार -भाटा से रागात्मक संबंध कब एक सुनामी में बदल जाएं ,’ताऊ -ते’ या ‘कैटरीना’ हो जाएं इसका कोई निश्चय नहीं। नील परम्परा-बद्ध लेखन की तरह है तो अलका छंद मुक्त कविता से लेकर नै कविता,हाइकु से लेकर क्षणिका तक एक साथ सब कुछ है। कब बैलाड , आलाऊदल की तरह वीर-गाथा बन जाए हल्दी घाटी हो जाए इसकी भी कोई प्रागुक्ति नहीं कर सकता।उपन्यास के अंदर एक अंडरकरेंट है अंतर्धारा है। सतह के बहुत नीचे जहां एक साथ थियेटर की प्रतिबद्धता और अनुशासन है ,साधन और साध्य का ऐक्य भी है तो अफसरी की बदमिज़ाजी और अहंकार भी है। और इसके के नीचे दबी कुचली एकल नारी की व्यथाकथा है निस्संगता और बेबसी है। लेकिन अफसरी उसके हाथ में ऐसा हथगोला है जिसे समाज के चील कौवो और गिद्धों पे दागने में वह ज़रा भी नहीं हिचकती। एक सामाजिक गुलेल से वह विपक्षी को कब निशाने पे ले ले, नील इससे बेहद आतंकित रहता है।अलका एक उत्पीड़ित आहत बाघिन है जो बेहद आहत हुई है अपनों के हाथों।पैदाइशी लेबल से उबरने में उसका जीवट उसका मददगार बनता है। अलका के यहां जातिगत दलदल कभी भी बघनखे खोल के नर-सिंह अवतार ले सकती है। बड़े बड़ों को वह उनकी औकात, कद काठी बतलाने में ज़रा देर नहीं लगाती है,चाहे गाली-गलोज ही क्यों न करना पडे।लेकिन वह अंदर से टूटी हुई एक आधी अधूरी महिला है, जो सम्पूर्णता की तलाश में है।उसकी तलाश में साथ देते हुए पाठक इस मैराथन खेले में शुरू से लेकर आखिर तक सांस रोके रहता है। अन्तिम पृष्ठ तक उसे लगता रहता है ये नदी के दो कूल एक दूजे से कब,क्यों और कैसे मिल पाएंगे!
उपन्यास में यूं दर्ज़न भर से ज्यादा पात्र हैं जो ऑक्सिलरी मेडिसिन की तरह उद्दीपन और उद्दीपक की तरह कथा को आगे ठेल ने में मदद गार बनते हैं,कहीं कोई स्पीड ब्रेकर नहीं है उद्दाम आवेग है रागात्मक आलोड़न है। यहां, उपन्यास पढ़ने से ताल्लुक रखता है सिर्फ एक मर्तबा नहीं बार -बार।”
शिव शंकर गहलौत
25-11-2020उपन्यास बेहतरीन शैली में लिखा गया है जिसे पढ़ना शुरू करने पर रुकना मुश्किल है । लेखन में इतना जबरदस्त बहाव है कि पाठक उसमें बहा चला जाता है। ये एक अजब गज़ब सी कहानी है जिसमें एक कूल और शांत रहने वाला विधुर थियेटर कलाकार एक ब्यूरोक्रेट महिला जो बड़े ओहदे पर है के बीच अचानक से पनपता है । महिला अपने ब्यूरोक्रेटिक एट्टीट्यूड से ग्रस्त है और हैंडसम कलाकार उसके अहसान तले दबा ज्यादा कुछ बोल नहीं पाता । महिला दो बार की डाइवोर्सी है जो कलाकार पर फिदा होकर उसे जीवन साथी बनाना चाहती है । उनका ये साथ कंकड़ पत्थर वाली ऊबड़-खाबड़ सड़क पर चलने की तरह आगे बढ़ता है । परन्तु कूल और शांत रहने वाला कलाकार इस महिला और परिस्थिति से कैसे पार पाता है यही उपन्यास की परिणति है । बीच में आये तूफानी झंझावत और अन्त इस कहानी को बेहद रोचक बनाते हैं । पठनीय ।
25-11-2020उपन्यास बेहतरीन शैली में लिखा गया है जिसे पढ़ना शुरू करने पर रुकना मुश्किल है । लेखन में इतना जबरदस्त बहाव है कि पाठक उसमें बहा चला जाता है। ये एक अजब गज़ब सी कहानी है जिसमें एक कूल और शांत रहने वाला विधुर थियेटर कलाकार एक ब्यूरोक्रेट महिला जो बड़े ओहदे पर है के बीच अचानक से पनपता है । महिला अपने ब्यूरोक्रेटिक एट्टीट्यूड से ग्रस्त है और हैंडसम कलाकार उसके अहसान तले दबा ज्यादा कुछ बोल नहीं पाता । महिला दो बार की डाइवोर्सी है जो कलाकार पर फिदा होकर उसे जीवन साथी बनाना चाहती है । उनका ये साथ कंकड़ पत्थर वाली ऊबड़-खाबड़ सड़क पर चलने की तरह आगे बढ़ता है । परन्तु कूल और शांत रहने वाला कलाकार इस महिला और परिस्थिति से कैसे पार पाता है यही उपन्यास की परिणति है । बीच में आये तूफानी झंझावत और अन्त इस कहानी को बेहद रोचक बनाते हैं । पठनीय ।
साकेत शुक्ला
18 जनवरी 2021 को भारत में समीक्षा की गयी
ये उपन्यास पकती उम्र में एक स्त्री एवं एक पुरुष के बीच सहज रूप में उपजे प्रेम के अंकुरों एवं उन अंकुरों का बढ़ कर एक विकसित पौधे के रूप में आने की एक बेहद रोचक कथा है। समकालीन भारतीय समाज में व्याप्त जातिगत विषमताओं का एक दलित स्त्री ,जो की पात्र के रूप में एक बड़ी ब्यूरोक्रेट है, एवं एक स्कूल मास्टर,सजो एक रंगकर्मी भी है, के बीच परस्पर संघर्ष, सामाजिक ताने एवं छींटाकशी आदि को लेखक श्री अनिल गाँधी जी ने अत्यंत यथार्थ रूप में कथानक में प्रवाहित किया है। एक स्त्री का प्रतिशोधात्मक रूप, उसका अक्खड़पन एवं समाज को आइना दिखा कर उसे जूते की नोक पर रखना, ये सब उपन्यास में बेहतरीन रूप में दिखाया गया है। कुल मिलाकर एक नवीन सोच को लेकर लिखा गया उपन्यास, जो पाठक को शुरू से अंत तक बांधे रखता है। व्याकरण की कुछ गंभीर त्रुटियों के बावजूद, समकालीन भारतीय समाज के लिए एक पठनीय एवं रोचक उपन्यास।
Abhishek
2 फ़रवरी 2021 को भारत में समीक्षा की गयी
लेखक ने अपने तजुर्बे की महीन बुनावट कर के, सरकारी विभाग, जात – पात, छोटे शहरों की मानसिकता और रंगमंच को बड़ी तसल्ली के साथ पेंट किया है। दलित वर्ग के प्रति लेखक की संवेदना अलका के जरिये पूरे उपन्यास में बहती धारा की तरह मुखरित है।
देखा जाए तो रंगमंच और देश कि दफ्तरशाही के बीच कोई मेल नहीं। यह दो अलग संसार हैं। ऐसे में अलका और नील की लव स्टोरी को उपन्यास के कैनवास पर देखना अपने आप में दिलचस्प एहसास है। लेखक ने बोलचाल की भाषा का प्रयोग किया है। कहीं ना कहीं उपन्यास में कसावट की कमी भी ज़रूर दिखती है। लेकिन फिर भी अनिल जी का यह उपन्यास समय से थोड़ा आगे होते हुए हम जैसे युवा वर्ग के लिए Must Read है जो थिएटर से प्रेम करते हैं और अपने भारतीय समाज को जानने के इच्छुक हैं!
देखा जाए तो रंगमंच और देश कि दफ्तरशाही के बीच कोई मेल नहीं। यह दो अलग संसार हैं। ऐसे में अलका और नील की लव स्टोरी को उपन्यास के कैनवास पर देखना अपने आप में दिलचस्प एहसास है। लेखक ने बोलचाल की भाषा का प्रयोग किया है। कहीं ना कहीं उपन्यास में कसावट की कमी भी ज़रूर दिखती है। लेकिन फिर भी अनिल जी का यह उपन्यास समय से थोड़ा आगे होते हुए हम जैसे युवा वर्ग के लिए Must Read है जो थिएटर से प्रेम करते हैं और अपने भारतीय समाज को जानने के इच्छुक हैं!
Anil Gandhi’s novel ” Bureaucracy Ka Bigul Aur Shahnai Pyar Ki” makes an interesting read. It is a bold commentary- through fiction- on India’s societal conflicts, value systems and churning. It also reminded the reviewer of Albert Camus’ The Stranger.
The boldness with which the author has conveyed the personal experiments of the protagonist is remarkable. It is a perfect recipe for binge reading! ( एक पाठक )
The boldness with which the author has conveyed the personal experiments of the protagonist is remarkable. It is a perfect recipe for binge reading! ( एक पाठक )
Anil Gandhi’s “Bureaucracy Ka Bigul Aur Shahnai Pyar Ki” brings forth a freshness to the world of Indian novels in general and Hindi novels in particular. The characters of the story are modern and speak day to day language. Fast pace of the story keeps one glued and the narrative gives interesting insights of the the lives of central characters. The book delivers on the promise of “quirky and a sweet love story” and would make for an intriguing silver screen tale. (एक और पाठक)
इस उपन्यास की एक विशेषता यह भी है कि यह मंगल इंस्क्रिप्ट फ़ॉण्ट में प्रकाशित उपन्यास है। सच तो यह है कि मंगल फ़ॉण्ट कोई बहुत सुन्दर फ़ॉण्ट नहीं है। युनिकोड में Kokila, Nirmala, Arial एवं Times New Roman बेहतर दिखने वाले फ़ॉण्ट हैं।
मगर भारत के हिन्दी प्रकाशकों के लिये यह एक सबक साबित हो सकता है जो अभी तक बाबा आदम के ज़माने के वॉकमैन चाणक्य, कृतिदेव जैसे फ़ॉण्ट इस्तेमाल कर रहे हैं।
अनिल गान्धी जी को पुरवाई टीम की ओर से इस उपन्यास के प्रकाशन के लिये बधाई। उम्मीद है कि वे उपन्यास लेखन में अपने लिये एक महत्वपूर्ण स्थान बनाने में सक्षम हो पाएंगे।
जल्दी ही पुरवाई टीम भी इस उपन्यास की समीक्षा अपने पाठकों के सामने रखेगी।