विचार और सन्देश का बहुत अधिक महत्त्व पश्चिम में जो पुनर्जागरण और वैचारिक क्रांति हुई उसकी देन है। उसका कारण यह है कि पश्चिम में, विशेषकर यूरोप में, मध्यकाल में विचार का इतना अधिक दमन हुआ और उन्होने वैचारिक स्वतंत्रता के लिए इतना लम्बा संघर्ष किया कि विचार को ही सर्वोपरि समझने लगे। वैचारिक स्वतंत्रता उनके लिए जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि हो गई। और यही धारणा पश्चिमी देशों से हमारे भारत में आई। वरना हमारे देश में विचार को इतना अधिक महत्त्व कभी नहीं दिया गया।

एक बात मुझसे अक्सर पूछी जाती है कि आपकी किताबें सन्देश क्या देती हैं। किस उद्देश्य से आपने किताब लिखी है? कौन सा सन्देश देना आपका उद्देश्य है? मैंने बहुत से बड़े साहित्यकारों को यह कहते हुए सुना है कि फलाँ, फलाँ किताब रोचक तो बहुत है, पढ़ने में आनंद तो बहुत आया मगर उसमें कोई सन्देश नहीं है, कोई विचार नहीं है।

उससे हमें कुछ मिला नहीं। ये बात बड़ी आलोचनात्मक रूप से कही जाती है बावजूद इसके कि उन्होने पुस्तक को पढ़ने का आनंद लिया। जैसे कि साहित्य में आनंद का कोई महत्व ही नहीं है। और यह बड़ी विडंबना है कि यह बात उस देश में, उस संस्कृति में कही जाती है जहाँ ईश्वर को ही सतचितआनंद कहा गया है।

मैं इन लोगों से एक बात पूछना चाहता हूँ कि जब आप किसी भी दूसरी कला का आनंद लेते हैं तो क्या यह देखते हैं कि उसमें सन्देश क्या है, विचार क्या है या वह ज्ञान क्या दे रही है। कला की किसी भी विधा की शास्त्रीय रचनाओं में? चाहे आप पंडित रविशंकर का सितारवादन सुनें, या मोज़ार्ट, बाक या बीथोवन की सिम्फनी सुनें, बिरजू महाराज का कोई नृत्य देखें, कोई क्लासिक पेटिंग जैसे कि मोनालिसा या वॉन गौफ़ की गार्डन या उनके कमरे की पेटिंग देखें, तो उससे वे कौन सा ज्ञान या सन्देश लेते हैं, कौन सा विचार लेते हैं। क्या वे उस्ताद ज़ाकिर हुसैन से पूछते हैं कि उनका तबला वादन क्या सन्देश देता है, या लता मंगेशकर के पास ही जाकर यह सवाल उठाते हैं कि उनके गीतों में क्या सन्देश है, किस उद्देश्य से वे गायन करती हैं। फिर साहित्य और साहित्यकार पर ही ज्ञान और सन्देश देने का इतना बोझ क्यों?

अच्छा यह एक भ्रम नहीं बल्कि एक बड़ा झूठ है कि साहित्य का ही उद्देश्य सन्देश या ज्ञान देना है, बाकी कलाओं का नहीं है। साहित्य जैसा कि आज हम जानते हैं जो लिखा हुआ साहित्य लोगों को उपलब्ध है, उसका इतिहास बहुत पुराना नहीं है। उसके पहले तो सन्देश और ज्ञान दूसरी कलाओं के माध्यम से ही दिए जाते थे।

नृत्य नाटिकाओं के ज़रिए, जिनमें नृत्य और गायन होता था, और मूक कलाओं के ज़रिए भी। नृत्य नाटिकाओं और गायन के ज़रिए ही गाथाएँ कही जाती थीं। चित्रों या चित्रकला के माध्यम से भी गाथाएँ कही गई हैं, ज्ञान दिया गया है, सन्देश दिया गया है। आज भी दिया जाता है।

मगर कभी भी इन कलाओं और इनकी कलाकृतियों का मूल्यांकन इस आधार पर नहीं हुआ कि वे सन्देश क्या देती हैं, या उनके ज़रिए कौन सा विचार व्यक्त किया जा रहा है, या वो मनुष्य को कोई उद्देश्य या कोई मनोरथ देती हैं। सिवाए पिछली एक डेढ़ सदी के, जब कला में विशेषकर साहित्य और चित्रकला में विचार का महत्त्व हावी होने लगा।

दरअसल विचार और सन्देश का बहुत अधिक महत्त्व पश्चिम में जो पुनर्जागरण और वैचारिक क्रांति हुई उसकी देन है। उसका कारण यह है कि पश्चिम में, विशेषकर यूरोप में, मध्यकाल में विचार का इतना अधिक दमन हुआ और उन्होने वैचारिक स्वतंत्रता के लिए इतना लम्बा संघर्ष किया कि विचार को ही सर्वोपरि समझने लगे। वैचारिक स्वतंत्रता उनके लिए जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि हो गई। और यही धारणा पश्चिमी देशों से हमारे भारत में आई। वरना हमारे देश में विचार को इतना अधिक महत्त्व कभी नहीं दिया गया। हमारे यहाँ तो स्वतंत्रता की परिभाषा ही अलग रही।

हम जिसे स्वतंत्रता मानते हैं, जिसे हम जीवमुक्ति कहते हैं उसमें तो विचारातीत हो जाना एक महत्वपूर्ण अवस्था है। तो भारत में विचारों का अत्यधिक महत्व आयातित है और आरोपित भी है। और ये खासतौर पर एक विशेष विचारधारा को मानने वालों द्वारा किया गया जो भारत को और भारतीयों को कभी ठीक से समझ नहीं पाए। नतीजा यह हुआ कि कला की जिस भी विधा में इनका प्रभुत्व या प्रभाव रहा चाहे वह हिंदी साहित्य हो, समानांतर सिनेमा हो या रंगमंच हो वे आम जनमानस से कटते गए।

तो फिर कला का असली उद्देश्य क्या है? आर्ट फॉर आर्ट सेक? मैं इससे भी सहमत नहीं हूँ। कला का उद्देश्य है मगर वह उद्देश्य भौतिक, सामाजिक या नैतिक उद्देश्यों से परे है। कला का असली उद्देश्य वह है जिसके लिए कला बनी है। और कला बनी है मनुष्य की चेतना को परिष्कृत करने के लिए। हजारीप्रसाद द्विवेदी जी ‘अनामदास का पोथा’ में लिखते हैं, ‘नृत्य और नाट्य का उद्देश्य चैतन्य को जाग्रत करना है।’ साहित्य का उद्देश्य भी यही है, चैतन्य को जाग्रत करना, उसे विकसित और परिष्कृत करना, उसका विस्तार  करना, न कि विचार और सन्देश देना।

प्रसिद्ध आयरिश लेखक जेम्स जॉयस अपनी किताब ‘द पोर्ट्रेट ऑफ़ द आर्टिस्ट एस ए यंग मैन’ में दो तरह की कलाओं का ज़िक्र करते हैं, एक इम्प्रोपर आर्ट या निम्न स्तर की कला और दूसरी प्रॉपर आर्ट, उच्च स्तर की कला। जेम्स जॉयस इम्प्रोपर आर्ट उस कला को कहते हैं जो आपको किसी तरह के एक्शन में लाती है, जो आपमें कोई इच्छा या आवेश जगाती है, या द्वेष पैदा करती है, या आपको उत्तेजित या उद्वेलित करती है, या आंदोलित करती है। जिन्हें भारतीय आध्यात्मिक परंपरा में विकार कहा जाता है, ऐसी कला को वे निम्न स्तर की कला कहते हैं।

उच्च स्तर की कला वह उसे कहते हैं जो आपको बाँध देती है, जो आपको मंत्रमुग्ध कर देती है, स्पेल बाउंड कर देती है, एक एस्थेटिक अरेस्ट देती है। एक तरह से आपको निर्विकार कर देती है। जेम्स जॉयस की इसी परिभाषा के आधार पर प्रसिद्द गल्पशास्त्री जोसफ़ कैम्पबेल अपनी एक पुस्तक, द इनर रीचेस ऑफ़ द आउटर स्पेस के चैप्टर ‘द वे ऑफ़ आर्ट’ में लिखते हैं कि मन्त्रमुग्ध करने वाली या एस्थेटिक अरेस्ट देने वाली कला मनुष्य को उसकी व्यक्तिगत चेतना से ऊपर उठाकर ब्रह्मांडीय चेतना से जोड़ती है। ऐसी कला आपको आपके विकारों से ऊपर उठाकर निर्विकार  से जोड़ती है, जिसे अंग्रेज़ी में transcendence कहते हैं। एक बात जोसफ कैम्पबेल लिखते हैं कि “The seat of the soul is there, where the outer and the inner worlds meet

जोसफ कैम्पबेल के अनुसार, कला का एक बाह्य रूप होता है, वह चाहे चित्र में हो, शब्दों में हो, स्वर में हो या किसी भी अन्य भौतिक रूप में, और एक कला का आन्तरिक रूप होता है जो उसे देखकर, पढ़कर या सुनकर अपनी व्यक्तिगत चेतना में बनाते हैं। और जब कला का आंतरिक रूप आपको बाँध देता है, एस्थेटिक अरेस्ट देता है तो बाहरी और भीतरी रूप के बीच एक ऐसा संतुलन बनता है कि आप अपनी आत्मा से जुड़ते हैं, या ब्रह्मांडीय चेतना से जुड़ते हैं। तो एक तरह से आपकी चेतना में एक खिड़की या झरोखा सा खुलता है जिससे आप ट्रांसेंड होते हैं।

लौकिक से निकलकर अलौकिक में पहुँचते हैं। और इसलिए जोसफ कैम्पबेल कहते हैं कि कला को दर्पण कहना उसका बहुत छोटा मूल्यांकन है। क्योंकि दर्पण आपको कुछ नया दिखा ही नहीं सकता। वह तो वही दिखाएगा जो पहले से है। कला तो वह झरोखा है जो आपको एक नए संसार के दर्शन कराता है। कला का झरोखा अलौकिक का अनुभव देता है।

अब एस्थेटिक अरेस्ट पर आते हैं। जोसफ कैम्पबेल कहते हैं कि एस्थेटिक अरेस्ट देने में रसों की सबसे महत्वपूर्ण भूमिका होती है। रसों के बारे में भी हमारे कई भ्रम होते हैं। आमतौर हम रसिक उसे कह देते हैं जो विषय और भोग में लिप्त हो, जबकि रसों का अर्थ विषय और राग से बहुत अलग है। रस का अर्थ है मनुष्य के अनुभवों और अनुभूतियों का सत्व या निचोड़। तो साहित्य में रसों का उपयोग ऐसा हो जो पाठक को बाँध दे, एस्थेटिक अरेस्ट दे, जैसा कि विश्व के महानतम क्लासिक्स में हुआ है, भले वे क्लासिक्स ट्रेजेडी हों या कॉमेडी हों। तो जो सिर्फ विचारों से भरे नीरस साहित्य को जोसफ कैम्पबेल निम्न स्तर का साहित्य मानते हैं।

चर्चित लेखक हैं. हिंदी में अबतक समरसिद्धा और डार्क नाईट नामक दो उपन्यास प्रकाशित हो चुके हैं. फेसबुक पर लिटरेचर लाइफ नामक समूह का संचालन करते हैं. बर्मिंघम में निवास है.

कोई जवाब दें

कृपया अपनी टिप्पणी दर्ज करें!
कृपया अपना नाम यहाँ दर्ज करें

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.