दिनांक 19 दिसम्बर 2021 को केन्द्रीय हिंदी संस्थान, विश्व हिंदी सचिवालय, वैश्विक हिंदी परिवार एवं अन्य सहयोगी संस्थाओं के संयुक्त ऑनलाइन आयोजन में प्रवासी साहित्यकार दिव्या माथुर का रचना संसार विषय पर एक साहित्यिक विचार संगोष्ठी का आयोजन किया गया जिसकी अध्यक्षता प्रवासी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर प्रो. कमल किशोर गोयनका ने की।
कार्यक्रम का प्रारम्भ प्रो. राजेश कुमार एवं हिंदी भवन भोपाल के डॉ जवाहर कर्नावट ने दिव्या माथुर जी का परिचय देते हुए किया। स्वागत वक्तव्य मैसूर केन्द्र के प्रभारी निदेशक डॉ परमान सिंह तथा संचालन वैश्विक हिंदी परिवार के संयोजक, प्रवासी लेखक पद्मेश गुप्त ने किया ।
कार्यक्रम के प्रारम्भ में पद्मेश गुप्त ने डॉ निखिल कौशिक द्वारा दिव्या माथुर के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर निर्मित एक लघु फिल्म ‘घर से घर तक का सफर’ का प्रदर्शन किया जिसकी समस्त श्रोताओं ने करतल ध्वनि से बहुत प्रशंसा की।
दिव्या माथुर के रचना संसार पर डॉ मनोज मोक्षेन्द्र ने कहा कि उनकी रचनाएं स्त्री की पुरुष पराधीनता की बात तो करती हैं किंतु संबंधों के द्वंद को भी बखूबी उजागर करती हैं और दोनों ही पक्षों की कमजोरियों, पाखण्डों का मखौल भी उड़ाती हैं।
इन्द्रप्रस्थ कालेज दिल्ली की प्रो. डॉ रेखा सेठी ने दिव्या माथुर की शाम भर बातें, साँप सीढी, अंतःसलिला जैसी अनेक रचनाओं की चर्चा की और उनके अनुवादक पक्ष की भी प्रशंसा की और कहा कि उन्हें पढ़ते हुए अपने जीवन के एक समानांतर इतिहास से परिचय होता है। इंदु जैन की पंक्तियों को उद्धृत करते हुए उन्होंने कहा कि मैं डरी लेकिन मरी नहीं- दिव्या जी पर सटीक बैठता है।
कल्पना बाजपेयी ने कहा कि उनकी कविताएं पढ़ते हुए मन भीग जाता है। श्री राजेश कुमार ने दिव्या माथुर के उपन्यास के अंश का- एक आले जैसी खिड़की में जंग लगे सरियों की परछाइयों से बनती हुई मोमबत्ती से प्रारम्भ करते हुए प्रभावशाली पाठन किया।
हिंदी प्रवासी साहित्य के अंतरराष्ट्रीयकरम की चर्चा करते हुए दिव्या माथुर के रचनाधर्म के विषय में अरुणा अजितसारिया ने कहा कि उनकी कहानियों में सिर्फ भारत ही नहीं किसी भी देश के स्त्री पुरुष एवं बच्चों की कहानियां हैं, और वे आपको अपने आस पास की ही लगती हैं।
प्रसिद्ध लेखिका नासिरा शर्मा ने वैश्विक हिंदी परिवार, वातायन की संगोष्ठियों की प्रशंसा करते हुए कहा कि दिव्या जी का बचपना बने रहना उनकी सबसे बड़ी खासियत हैं कि जिस मासूमियत से लिखती हैं और हँसतीं हैं, वह दुर्लभ है। उन्होंने कहा कि मंत्रा लिंगुआ, दीपक की दीवाली, चीते से मुकाबला, सिया-सिया, बिन्नी बुआ का बिल्ला आदि की संक्षिप्त विवेचना करते हुए कहा कि दिव्या जी ने बच्चों को भी बड़ों से मिलाने  में अपने साहित्य और अनुवाद से विशेष भूमिका निभाई है। 
लेखिका, कवयित्री एवं संचालक अलका सिन्हा ने दिव्या माथुर की कहानियों एवं उनके मंचन, पाठन की विशेष चर्चा की और कहानियों में नएपन की सौंधी सुगंध से परिचय कराते हुए कहा कि उनके लेखन में पश्चिम एवं पूर्व की संस्कारशीलताओं के संघर्ष का भी भरपूर परिचय मिलता है और उनकी रचनाओं का पाठन, मंचन उनका सौभाग्य है और उन्हें उनसे बहुत अपनापन मिला है। राहुल देव ने दिव्या माथुर के विराट व्यक्तित्व को रेखांकित किया जो हिंदी साहित्य को अनेक विधाओं में अपने लेखन से समृद्ध कर रहा है।
अध्यक्षीय वक्तव्य में सुप्रसिद्ध प्रवासी साहित्य आलोचक, समीक्षक, ख्याति लब्ध विशेषज्ञ प्रो. कमल किशोर गोयनका ने दिव्या माथुर के साहित्यिक अवदान के लिए बधाई दी और कहा कि यह हिंदी का सौभाग्य है कि विदेशों में इतने अधिक लोग हिंदी में लिख रहे हैं और भारत के पाठकों को वह साहित्य घर बैठे मिल जाता है और वह उन देशों से और वहां के परिवेश से जुड़ जाता है। यही साहित्य का धर्म ही है कि वह सबको जोड़ता है-पूरी सृष्टि को एकात्म भाव से देखने में सहायक बनता है इसलिए इस भाव को आत्मसात करते हुए अपने लेखन में दिव्या जी वैश्विक संवेदनाओं की संवाहक हैं।
विविध संवेदनाएं – प्रवासी लेखन का मूल आधार ही है क्योंकि व्यक्ति और देश अलग हो सकते हैं किंतु मानवीयता एक ही होती है। बच्चों से बच्चों को जोड़ने से संस्कृति, देश बनते हैं जैसा कि जापान में सब बच्चे साथ मिलकर काम करते हैं तब देश और समाज बनता है। हमारे वेदों में भी कहा गया है- और यह लक्ष्य साहित्य के माध्यम से पाया जा सकता है क्योंकि संस्कृतियों के द्वंद से एक नई संस्कृति का भी जन्म होता है।
दिव्या माथुर ने अपनी भावुक टिप्पणियों में कहा कि इस आयु में भी मैं अपने बचपने को साथ रखती हूं और  जीवन की अंतर्निहित अर्थहीनता को ध्यान में रखते हुए मैं यह भी मानती हूँ कि हर जीव किसी न किसी उद्देश्य के लिए पैदा होता है। मैं शायद उद्देश्य, उसी की तलाश में हूँ; और इसीलिये मेहराब से लटकी हूँ।
संगोष्ठी का समाहार करते हुए केन्द्रीय हिंदी शिक्षण मंडल के उपाध्यक्ष श्री अनिल जोशी ने कहा कि दिव्या माथुर मात्र एक लेखिका नहीं हैं बल्कि वे एक शीर्ष रचनाकार हैं जो कि लंबे समय से निरंतर लेखन में लगी हुई हैं। आपने सुषम बेदी, सत्येन्द्र श्रीवास्तव जी जैसे अन्य अनेक समकालीन साहित्यकारों के अवदान की भी चर्चा की। उन्होंने स्मरण किया कि दिव्या माथुर ने 11 सितम्बर की घटना पर अपनी संवेदनाओं, उद्वेवलानोँ को बहुत संजीदगी से शब्द दिए और एक संकलन प्रकाशित हुआ।
उन्होंने कहा कि वे मौखिक अभिव्यक्ति के प्रति संकोची हैं और लेखन में पूरी तरह निखर के आती हैं। वातायन से जुड़े हुए आयोजनों में भी वे कम बोलती हैं परंतु बहुत लिखती हैं और वे अपने जिए जीवन को लिखने में सिद्धहस्त हैं। आपने दिव्या जी की कहानी मेड इन इंडिया की विशेषता की ओर इंगित किया और दिव्या जी की भाषा की प्रांजलता को नमन किया जो स्थानीय पात्रों के कथन उनकी स्थानीय भाषा में ही लिखती है। इस प्रकार वे हमारी वैश्विक धरोहर हैं। कल्पना बाजपेयी ने दिव्या माथुर की कविता ‘कढ़ी’ का वाचन किया जिसको भूरि-भूरि प्रशंसा मिली, जिसने परिवार, समाज के कमजोर रिश्तों पर तंज़ कसा कि किस तरह एक वृद्ध माँ की स्नेहिल भावनाएँ, भावुक बेवसी और पीड़ा अपने पुत्र, नाती, बहू से उपेक्षित होती हैं किंतु समाज के एक दूसरे बच्चे और परिवार से वह स्नेह, अपनत्व मिलता है तब वे कितने अपने लगते हैं। रचना की संवेदनाएं समृद्ध परिवारों के  समाज के खोखलेपन को व्यक्त करती है और सभी को भावुक कर देती हैं। कार्यक्रम में सर्वश्री नारायण कुमार, तोमियो मिजोकामी, शिव निगम, डॉ सुरेश मिश्र, रोहित हैप्पी एवं अनेक गणमान्य व्यक्ति उपस्थिति थे।
कार्यक्रम मे उपस्थित सभी अतिथियों, वक्ताओं सहित अध्यक्ष के प्रति डॉ जय शंकर यादव ने आभार प्रकट किया और दिव्या माथुर की साहित्य साधना के प्रति हिंदी पाठक समाज की ओर से कृतज्ञता व्यक्त की। आपने वैश्विक हिंदी परिवार, सभी सहयोगी संस्थाओं एवं व्यक्तियों के योगदान के प्रति भी आयोजन समिति की ओर से आभार प्रकट किया।
प्रतिवेदन
डॉ.राजीव कुमार रावत, वरिष्ठ हिंदी अधिकारी, भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, खड़गपुर 721302
मोबाइलः 9564156315, ईमेलः dr.rajeev.rawat@gmail.com

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