19 दिसंबर, 2021 को प्रकाशित पुरवाई के संपादकीय ‘गाय को लिपटाना भी एक इलाज है’ पर निजी संदेशों के माध्यम से प्राप्त पाठकीय प्रतिक्रियाएं

अक्षय आनंद
Sir ji
बहुत ही सराहनीय लेख है 🙏🙏
Thanks for sharing
मेरे पिता जी को पशुओं से बहुत ही प्रेम था। सब से अच्छे काले चनो को पिसवा कर गुड़ में मीला कर खिलाते थे और सब गायैं और बैलों पर खुद दिन में एक बार हाथ फेरते थे। एक समय पर पाँच जोड़ी बहुत अछी नसल के बैल थे खेती करने के लिए।
पद्मा शर्मा
गाय सम्बन्धी बहुत अच्छा सम्पादकीय लिखा है। विदेशी इस प्रक्रिया को अपना रहे हैं। गाय पर हाथ फेरने से बी पी भी कम होता है यह मेरा अनुभव है। उसका मूत्र और गोबर भी उपयोगी है। वह सभी रूपों में लाभदायक है। इसीलिए इसे माता की संज्ञा दी गई है…
डॉक्टर किरण खन्ना
आज इंसान जब पशु बनता जा रहा है और मछली पालन मुर्गी पालन के नाम पर बूचड़खानों की तादाद निरंतर बढ़ रही है इंसानी मांस तक को कुछ तथाकथित अंतराष्ट्रीय कम्पनियों द्वारा खाने-खिलाने की वस्तुओं से परोस दिया जाने लगा है ऐसे में यह संपादकीय बहुत अच्छा और अलग मनौवैज्ञानिक प्रभाव डालता है। गर्व होता है हम भारतीय हैं जिनकी संस्कृति को विश्व अपना रहा और विक्षोभ होता है कि हमी हमारे नैतिक सामाजिक और जीवन मूल्यों से पलायन कर चुके।
मनीष श्रीवास्तव
बहुत ही यूनिक जानकारी दी आपने। हमने कभी ये बात सोची भी न थी जिसे आपने वैज्ञानिकता के साथ बताया।
आपकी संपादकीय का हमेशा इंतज़ार रहता है, सर।
अनिल गांधी
बहुत अच्छे विषय का चयन किया- Cow Cuddling। बधाई।
इस विषय पर दो बिन्दु:
मेरे पिता श्री डंगर डॉक्टर थे। हमारे घर में सदा भैंस रही है। यकीन मानिए इस जानवर को भी cuddling पसंद है।इसका दूध गाय से अधिक पौष्टिक है। फिर भी गाय की कडलिंग पसंद के पीछे कारण रंगभेद हो सकता है।
दूसरा, हमारे शहर में लगभग दस हज़ार बेसहारा गाय आवारा सडकों पर घूमने को मजबूर हैं। विभिन्न बीमारियों से ग्रस्त। कचरा खाती हैं। हाल ही में फरीदाबाद में एक गाय के पेट से 75 किलो पोलीथीन निकाला गया था।यहाँ ऐसे होती है cuddling!!!
डॉक्टर आरती गोयल
आदरणीय, बहुत अच्छा लगा जानकर कि हमारी संस्कृति, हमारे ऋषि-मुनियों की बातों पर अमेरिका में आचरण हो रहा है।
कुसुम भट्ट
तेजेन्द्र जी, संपादकीय अभी पढा । बेहतरीन। फ़ेसबुक पर भी डालें जानकारी मिले सबको। हमारे ऋषियों ने जो कहा सनातन सत्य है।
इंद्रजीत त्रिपाठी
भाई तेजेन्द्र, संपादकीय पढ़ा। अब तो नहीं… पर बचपन में जब हम गाय-भैंस चराया करते थे तो प्रायः गायों से लिपटने का मौका मिलता था। ज्यादातर सहलाने पर वे खुद अपना गर्दन उठाकर हमारे शरीर पर रख देती थीं। वाकई बड़ा सुखद अहसास होता था। आज भी किसानों को अपने जानवरों के साथ ऐसा करते देखता हूं, अच्छा लगता है। अहिंसा ने यकीनन सही पकड़ा है।
संजीव जायसवाल
शर्मा जी, अच्छा हुआ जो यह संपादकीय लिखने से पहले आप एक साहित्यकार के रूप में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपनी पहचान बना चुके हैं वरना गाय जैसे विषय पर सकारात्मक लेख लिखने के कारण बुद्धिजीवियों का एक वर्ग छुट्टा सांड की तरह आपके पीछे लग जाता।
आपका लेख पढ़ने के बाद सोचा तो याद आ रहा है की मुझे गाय के समीप खड़े होने या उस पर हाथ फेरने के सुअवसर बहुत कम मिले हैं लेकिन मुझे भी वह एक सुखद एहसास लगता था। आपके लेख ने न केवल उसकी वैज्ञानिकता सिद्ध की है बल्कि गौरवशाली भारतीय संस्कृति और परंपरा से भी जोड़ा है। गाय के वैज्ञानिक लाभों को रेखांकित करते हुए ऐसे अन्य लेखों की भी आवश्यकता है।
किंतु इसका एक दुखद पहलू भी है खास करके उत्तर प्रदेश में। लोगो ने अब दूध न देने वाली बूढ़ी गायों को घर से निकाल देने की परंपरा बना ली है जिससे गांवों में सैकड़ों की झुंड में गाय घूमती फिर रही है और मौका मिलते ही पूरी फसल साफ कर देती है। संपन्न किसानों ने तो अपने खेतों में कटीले तार लगवा लिए हैं लेकिन गरीब किसान रात रात भर जाग कर पहरा दे रहे जिससे काफी असंतोष है।
हालांकि सरकार की ओर से भारी संख्या में वृद्ध गायों के लिए गौशाला खोली गई हैं किंतु मैं तो उनकी संख्या पर्याप्त है और न ही उनकी स्थिति संतोषजनक। गायों और किसानों की इस दुर्दशा के लिए कोई और नहीं बल्कि स्वयं हम और हमारा समाज जिम्मेदार है। इस दिशा में भी सामाजिक जागरूकता फैलाने की आवश्यकता है…
डॉक्टर सचिदानंद
तेजेन्द्र जी संपादकीय पढ़ा। हमारे देश के गोपालों के लिए इलाज बरसों पुराना है। हम लोगों का पूरा बचपन और किशोरावस्था गाय चराने में बीता है। यह सुख हम लोगों ने खूब लूटा है। मौका मिलने पर गाय बाँधते समय आज भी मै गले लगा लेता हूँ। उसकी गर्दन बाँहों में भरके उसकी आँखो से या उसके मुँह से अपना मुँह लगा कर उससे मौन संवाद करना बहुत आत्मीय लगता है। वह अपनी माँ जैसी ही सगी लगती है।
दरअसल इतने वर्षों की गुलामी का मानसिक और सांस्कृतिक -सामाजिक दुष्प्रभाव इतना गहरा पड़ा है कि नयी पीढ़ी को अपनी भाषा, अपनी विद्या, अपनी सहज जीवन पद्धति खुलकर पिछड़ेपन का अहसास देने लगी है। लेकिन जब हमसे विकसित माने जाने वाली अंग्रेज जाति उसे खुलेमन से अपनायेंगे और किसी हीन भावना के बगैर उसका उत्साह पूर्ण तरीके से प्रचार करते हुए उसका व्यावसायिक हित भी पाते दिखेंगे।तब हम अपनी ही चीज को बड़ी लालसा भरी दृष्टि से देखेंगे..
स्मृति शुक्ला
वाह !! आपने संपादकीय के लिए बहुत अच्छा विषय चुना । गाय के बछड़ों के साथ बचपन मे मैं और मेरे भाई बहिन खेले हैं ।मुझे उनके सानिध्य की अनुभूति याद है ।आज भी मेरे घर के दरवाजे पर सुबह – सुबह एक गाय आती है ।जिससे हमारा पूरा परिवार बातें करता है जिनको वह समझती है । वह प्रायः गुड़ खाना पसंद करती है…
मधु मेहता
तेजेन्द्र जी संपादकीय पढ़ा कर मुंह से वाह निकल पड़ी।
बहुत ही नया विषय और बहुत ही मार्मिक!
मुझे तो अपनी ‘सोना’ गाय याद आ गयी… भारत के लोग… इन सब भावनाओं को समझते ही नहीं है बहुत ही आत्मिक शब्दों के साथ.. अभी तक तो बच्चों को, दोस्तों,को गले लगाकर मन हल्का हो जाता है लेकिन यह बहुत ही सुंदर जानकारी…
रक्षा गीता, कालिंदी कॉलेज
संपादकीय में आज आपका लेख बहुत ही महत्वपूर्ण लेख है। सिर्फ इसलिए नहीं कि गाय पूजनीय है इसलिए उसे गले लगाओ… बल्कि पशुओं के प्रति संवेदना दिखाने से हमारी संवेदना में गुणात्मक परिवर्तन होते हैं और हम जिसे इंसानियत कहते हैं वह पशुओं के साथ जुड़कर समृद्ध होती हैं।
न जाने क्यों हम क्रूर व्यक्ति को ‘जानवर’ कह देते हैं जबकि जानवरों की क्रूरता इंसानी क्रूरता की तरह हिंसक कदापि नहीं है।
स्पर्श थेरेपी हो या गाय और पशुओं के साथ रहकर मनोवैज्ञानिक स्तर पर आत्मिक शांति का अनुभव हमारे भारतीय संस्कृति का अभिन्न हिस्सा रही हैं लेकिन पाश्चात्य संस्कृति की नकल से उत्पन्न भारतीय समाज और संस्कृति में जो विकृति आ रही है उस पुनःविमर्श,मंथन की आवश्यकता है। आपका यह लेख उसी मंथन की महत्वपूर्ण कड़ी है। साधुवाद 👏👏
शन्नो अग्रवाल, लंदन
तेजेन्द्र जी, नमस्कार।
इस बार का संपादकीय बड़ा रोचक और therapeutic लगा । कभी-कभी ऐसे विषयों पर भी बातचीत करना व पढ़ना आंनद देता है। 😊
इस आनंद की एक खास वजह और भी है कि अपना बचपन तो गाय-बछड़ों को देखते ही गुजरा।
उन्हें सहलाते, पुचकारते, गऊ माता से आशीर्वाद लेते बचपन का नजारा आँखों के सामने घूम गया।
घर के पिछवाड़े में कुछ गायें थीं।
ताजा दूध-मक्खन खाते हुये ही हम बड़े हुये । हमने तो बचपन में उपले भी थोपे हैं (मेरी अम्मा घर के काम करवाने में कोई कसर नहीं छोड़ती थीं।) तब गैस के चूल्हों का तो किसी ने नाम भी नहीं सुना था। सूखे उपलों को ही लकड़ी के साथ डालकर आग जलाई जाती थी। अलाव जलते थे तो वह भी उपलों की ढेरी से।
गोबर का उपयोग आँगन लीपने और खाद की तरह इस्तेमाल करने में भी किया जाता था।
किसी मंद बुद्धि वाले को हम आसानी से ‘गोबर गणेश’ की उपाधि दे बैठते हैं। लेकिन असल में गोबर में अनेकों गुन हैं।
टहलने-घूमने जाते थे तो खेतों में स्वच्छंद घूमती व घास चरती गायों के फ्री में दर्शन होते रहते थे। वह सुखद अनुभूति अब भी जहन में समाई हुई है। उन दिनों गाय-बछड़ों को सहलाने और उनसे चिपकने के लिये पैसा देने की किसी ने कोई कल्पना भी नहीं की थी। जब मन हुआ गऊ माता का माथा सहला दिया या पैर छू लिये। अब समय कहाँ से कहाँ पहुँच गया।
किंतु यह बहुत आश्चर्य, गर्व और प्रसन्नता की बात है कि हमारी गऊ माता को पश्चिमी देश इतना सम्मान दे रहे हैं। मेरे ख्याल से इन लोगों को उपले बनाने और उनके इस्तेमाल की ट्रेनिंग का सेंटर भी कहीं खोलना चाहिये। ताकि कहीं खुली हवा में लोग अलाव जलाकर उसका आनंद लेने के साथ उसकी मद्धम आग में आलू, शकरकंद ब भुट्टा आदि भी भून कर उनका स्वाद जान सकें। उपलों के धुयें से हवा में बिखरे कीटाणुओं का भी नाश होता है।
‘आम के आम गुठलियों के दाम।’
अगर सोचो तो…
क्या नहीं हो सकता है
आज का सपना
कल की हकीकत
हो सकता है।
क्षमा चाहती हूँ तेजेंद्र जी। गाय का जिक्र छिड़ा तो मैं इतनी भावुक हो गयी कि अपनी यादों में उलझकर पता नहीं कहाँ से कहाँ पहुँच गयी।
रत्ना श्रीवास्तव
तेजेन्द्र जी, आज के संपादकीय में – “जेम्स ‘ कृष्णा गाय अभयारण्य’ का मालिक और मुख्य सेवक है… उसने अपना भारतीय नाम नारायण दास रखा हुआ है। पिछले 9 वर्षों से उसकी रुचि जैविक पर्माकल्चर तकनीकों में रही है और वह उनका अभ्यास  कर रहा है। पिछले 4 वर्षों से वह गहन रूप से गायों के साथ काम कर रहा है और उनके बारे में अध्ययन कर रहा है।
उसके पास सभी उम्र और आकार की 63 गाय हैं। वह गऊशाला प्रबंधन के बारे में सलाह भी देता है। उसे गोबर और मूत्र से बागवानी करना और स्वस्थ और स्वादिष्ट भोजन बनाने के लिए अपनी उपज का उपयोग करना पसंद है! जेम्स् का कहना है, “मुझे गायों से प्यार है और वे मेरी जिंदगी
चौकाने वाली जानकारी : अच्छी लगी
वंदना, टोरोंटो
बहुत अच्छी बात है कि पश्चमी देशों में गाय का महत्व समझ आ रहा है। शायद इन्हें ये भी समझ आये कि हम हिन्दू गाय को क्यों माँ का दर्जा देते हैं और पूजते हैं।
पश्चिमी देशों को तो समझ आ जायेगा मगर भारत के लोग जो भूल चुके हैं अपने ही सनातन धर्म को, शायद पश्चिमी देशों के माध्यम से अपनी परंपराओं और अपने सनातनी मूल्यों के प्रति हीन भावना कुछ कम हो और खुद को हिन्दू कहलाने में गर्व महसूस हो। आपके ऐसे लेख इस दिशा में बहुत महत्वपूर्ण हैं। आपको बहुत बहुत धन्यवाद..
निशीथ गौड़, आगरा
उत्तम संपादकीय …
सचमुच गाय पर हाथ फिराने से एक असीम शांति का अनुभव होता है…
पर एक बात और… विदेश की गाय भी अलग ही दिख रही हैं।
जैसे हमारी गिलहरी बहुत दुबली सी होती है और आपके यहां की गिलहरी बहुत मोटी और खूबसूरत होती है।
शिखा श्रीधर
अद्भुत और आश्चर्यजनक लेख है। भारतीय गाय माता को पाश्चात्य में इतना सम्मान व आदर देने की प्रेरणा भी किसी भारतीय मूल के आदर्श व्यक्ति की रही होगी।अच्छा लगा पढ़ कर।
आपके विषय विविधताओं से आपूरित हैं… भारतीय संस्कृति पाश्चात्य में अपनी विशिष्ट पहचान बना रही है, पढ़ कर मन हर्षित और प्रफुल्लित है।
अंजु अरोड़ा
हमारे देश में गाय हमेशा से ही पूज्यनीय रही है। मान्यता है कि उसमें देवी देवताओं का वास होता है।
मेरे मायके में गायें पाली जाती हैं… किंतु मैंने कभी भी उनका आलिंगन नहीं किया। आपके लेख के माध्यम से मुझमें प्रेम का अहसास जागा है। अब जब भी मैं अपने मायके जाऊंगी तो जरूर उन्हें अपने गले से लगाऊंगी।
आपका तहे दिल से शुक्रिया🙏🙏
अनिता यादव, दिल्ली
बेहद उम्दा जानकारी दी सर आपने!
और देखिए हमारे यहां गाय का नाम सुनते ही किस तरह से लोग छाती पीटने और पछाड़ खाने लगते हैं!!
गाय में देवताओं के वास की बात ऐसे ही तो नहीं कही गई शास्त्रों में! यह विडंबना ही है कि पश्चिम से आने वाली विचारधारा की हवाओं को ही हम तवज्जो देते हैं अपनी पुरवाई को नहीं!😊
मैं शुभकामना देती हूं कि आपके द्वारा चलाई पुरवाई भारतीय परंपरा, भाषा और साहित्य का खूब भला करें।। आपको बहुत सारी बधाई🌹🌹
सुधा जुगरान
नमस्ते, भाई साहब…
बहुत अच्छा संपादकीय
Cow Cuddling के बारे में पहली बार पढ़ा। गांव में अपने पालतू पशुओं के साथ यह सब स्वाभाविक रूप से लोग करते हैं… पर यह इतना लाभदायक होता है, नहीं जानते हैं।
निहार गीते
जी यह सच है। मैंने इसे बहुत क़रीब से महसूस किया है।गाय सिर्फ religion नहीं।Being close to not only cow but all other animals is a therapy itself.But Cow definitely very innocently gives love like a mother.
भारती अग्रवाल
तेजेन्द्र जी संपादकीय पढ़ा। भारतीयों को अपनी संस्कृति अपनाने में शर्म आती हैं और जब वही पश्चिम देशों से होकर लौटती है तो वह खुशी-खुशी अपना लेते हैं। यह एक विडंबना है🙏
जवाहर रंजन पांडा
जी सर हमारे घर में भी गाय थी …कुछ ही दिन हुआ है उन्हें दान में दे दिए… दोनों का नाम गोमती और टिकली रखा गया है। गोमती के साथ एक फ़ोटो।

मीना शर्मा
तेजेन्द्र जी, आपने ठीक कहा। वैसे तो हमारे घरों में गाय के साथ ऐसा ही होता था। पश्चिमी सभ्यता ने इसे अब स्वीकारा है और भारत की आधुनिक सभ्यता इसे भूल रही है.. हमें शांति पाने के लिए पुनः जाग्रत होना चाहिए🙏🙏
डॉक्टर ऋतु माथुर
तेजेन्द्र जी, भारतीय संस्कृति में संस्कारों की द्योतक, जिन्हें हम गौमाता के नाम से पुकारते हैं, जो आज किसी राजनीतिक मुद्दे के कारण नहीं, अपितु वैदिक काल से ही विभिन्न वेदों पुराणों मे स्तुत्य रही हैं। जिनके दूध में शिफा और घी में दवा है… भूमंडल को सुरक्षित रखने वाली गाय यूं ही गौमाता नहीं कहलातीं वह अपने शांत करुणामय स्वरूप व आधिदैविक गुणों की संरक्षिका विश्वमाता का पर्याय है। अथर्ववेद में वर्णित है – धेनु सदनाम रचीयाम।
अर्थात गाय संपत्तियों का भंडार है। आज कोरोनाकाल में विश्व में केवल शारीरिक स्वास्थ्य के लिए ही नहीं अपितु भावनात्मक, मानसिक स्वास्थ्य सुरक्षा हेतु भी गौ माता का संरक्षण प्रमुख आवश्यकता सिद्ध हो चुकी है, जो अपने स्नेहिल आशीर्वाद से सभी के तन मन को प्रक्षालित करती है। गरिमामय मानवता की कल्पना गौ माता के आशीर्वाद के संभव नहीं है, यह प्रसन्नता का विषय है कि आज वैश्विक स्तर पर गौमाता के महत्व व कीर्ति का पुनर्प्रयास आरंभ हो चुका है।
आदरणीय आपका यह संपादकीय ‘यतो गावस्ततो वयं’ की उक्ति को सार्थक करता है,कि-गायें हैं,तो ही हम हैं,जिससे वैज्ञानिक,मनोवैज्ञानिक व आध्यात्मिक दृष्टि से गौ माता की प्रतिष्ठा, पवित्रता वैश्विक स्तर पर नवीन रूप में पुनर्प्रतिष्ठित होगी और साथ ही इस संदर्भ में शोध के नए आयाम भी जुडेंगे।
🙏 साधुवाद।
डॉ.ऋतु माथुर
प्रयागराज।

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