राजस्थान! एक ऐसा प्रदेश जहां सूखा भी है तो रेतीले धोरे भी। अरावली पर्वतमाला भी है तो बर्फ गिरने लायक क्षेत्र भी। एक ऐसा प्रदेश जो राजनीति से लेकर सामाजिक, धार्मिक, सांस्कृतिक विरासत के लिए जाना जाता है। जो जाना जाता है ‘पधारो म्हारे देस’ जैसी भावना के लिए।
ऐसे राज्य में ऐसा भी इलाका है जहां खारे पानी की सबसे बड़ी झील भी है। ऐसे राज्य में राजाओं महाराजाओं के बनाए किले आज भी उनकी वीरता के पर्याय बन खड़े हैं। लेकिन उसी राज्य में राजसमंद जिला भी है। राजसमंद झील के नाम से 17वीं शताब्दी में राणा राज सिंह प्रथम द्वारा यहां बनाई गई झील और इसके आस पास की अरावली श्रृंखला में अब काफ़ी समय से माइनिंग का काम जोरों पर चल रहा है।
राजनीति के गढ़ वाले प्रदेश में राजनेताओं की नाक तले चल रहे इस प्रकृति के दोहन को रोकने या उसे सुचारू ढंग से प्रकृति को ज्यादा नुकसान पहुंचाए बिना माइनिंग करने के लिए कोई संसाधन नहीं। इस इलाके के स्थानीय लोगों, कामगरों की उम्र भी कम होती जा रही है। कारण है टीबी जैसी बीमारी।
क्या होगा कोई हल इसका? क्या राजनेता लेंगे सुध इसकी? या कोई समाज सेवी संस्थाओं द्वारा किए जाएंगे कोई पुनीत कार्य? क्या यूं ही यहां के लोग अपनी जमीनों को बंजर होने के लिए छोड़ देंगे? क्या वे माइनिंग का काम कर बने रहेंगे केवल मजदूर? ऐसे कई सारे सवाल यह डॉक्यूमैंट्री उठाती है।
यह डॉक्यूमैंट्री केवल राजसमंद के लिए ही सवाल नहीं उठाती बल्कि यह उस प्रकृति के लिए भी सवाल उठाती है जिसके अति दोहन के चलते हमने खुद अपने पांवों पर कुल्हाड़ियां चलाईं हैं।
‘अरावली द लॉस्ट माउंटेन’ नाम से बनी करीब 20 मिनट लंबी इस डॉक्यूमैंट्री को देख आप संतुष्ट तो होते हैं लेकिन पूरे तौर से नहीं। आपको महसूस होता है कि इसकी लंबाई दो गुनी हो सकती थी। फिल्म बताती है कि यहां माइनिंग का काम करीब 30,40 साल पहले यहां शुरू हुआ। जिसके चलते लोगों ने खेती छोड़ मजदूरी करना चुना। लेकिन इससे नुकसान जितना पर्यावरण को हुआ उतना ही उन्हें भी।
संगमरमर जिसे देख और जिसका नाम सुनकर ही आप भव्यता और आलीशान घरों, महलों की कल्पना करने लगते हैं उसी संगमरमर को देने वाला यह इलाका आज खुद उसके बारीक पत्थरों के बीच पिसता चला जा रहा है।
यह इलाका और डॉक्यूमैंट्री जितनी ज़रूरी है उतनी ही यह इस इलाके के मजबूरी को भी दिखाती है। कई सारे देश विदेश के फिल्म फेस्टिवल्स में सराही गई इस डॉक्यूमैंट्री को लिखने वाले ‘जिगर नागदा’ कई सारे स्थानीय लोगों को, शोधकर्ताओं, समाज सेवी संस्थाओं के लोगों को और पद्म श्री सम्मान प्राप्त श्याम सुंदर पालीवाल और माइनिंग फैक्टरी के मालिक को भी दिखाते हैं। वे सभी लोग यहां के अच्छे बुरे पहलू पर बात करते भी नजर आते हैं।
इतना सब होकर भी यह डॉक्यूमैंट्री एकदम सतही होकर रह जाती है। इतनी की इसकी कैमरागिरी, एडीटिंग और इसका किया गया ट्रीटमेंट आपको बेजान लगता है। लेकिन बावजूद इसके इसे जो अपना काम डॉक्यूमैंट्री होने के नाते करना था वह यह जरूर कर जाती है। पल भर के लिए ही सही आपको सोचने के लिए मजबूर करती है। सालों से बारिश ना होने की चिताएं दिखाती हुई यह फिल्म खेतीबाड़ी को छोड़ने के कारणों के अलावा एशिया की यहां मौजूद सबसे बड़ी माइनिंग फैक्टरी को दिखाती है।
यह दिखाती है कि राजस्थान एकमात्र पानी के चलते बहुत पिछड़ रहा है। पेड़ों की कटाई, धरती के अतिदोहन तथा  इस क्षेत्र के विकास के लिए सबसे अहम जल के दोहन को दिखाते हुए यह उन्हें सुरक्षित बचाए रखने के लिए भी जरूरी उपाय बताती है। जिगर नागदा और कुनाल मेहता ने मिलकर इससे पहले राजस्थानी स्टेज के लिए ‘अंगुठो’ नाम से शॉर्ट फिल्म भी बनाई है। अब तक के उनके किए काम को देखकर दर्शक इतना तो संतुष्ट होते हैं कि वे इन्हें लगातार अच्छा काम करते देखना चाहें।
नोट – फिल्म फेस्टिवल्स की राह में दौड़ रही यह शॉर्ट डॉक्यूमैंट्री जहां देखने को मिले देखिए और अपनी प्रकृति के लिए सजग होना सीखिए।

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