समीक्षक 
डॉ  पुष्पलता  मुजफ्फरनगर
डॉ सुधाकर अदीब जी का वृहद   उपन्यास ‘महापथ’  मिला। असाधारण बालक आदि शंकराचार्य  के व्यक्तित्व और कृतित्व की विस्तार से शोध पूर्वक  लिखी गयी जीवन  कथा है।  आदि शंकराचार्य पर उपलब्ध अधिकाधिक सामग्री का यथासाध्य  अध्ययन करने के बाद उन्होंने  उनपर लिखने के लिए लेखनी उठायी है।उपन्यास आदि शंकराचार्य की धर्म -दिग्विजय यात्रा को रोचकता  से प्रस्तुत करता है।
अद्वैत वेदांत की महिमा प्रतिष्ठापित करने के बाद आदि  शंकराचार्य  ने भारत की चार दिशाओं में चार मठ स्थापित किये थे । आदि शंकराचार्य द्वारा स्थापित इन चारों मठों में सहस्त्रों  ज्ञानार्थी जाते हैं ।सतर्क  तटस्थ पौराणिक  अध्ययन के लिए इस प्रकार की पुस्तकों की  हमेशा आवश्यकता पड़ती है।इतिहास पर गहन शोध और पुनर्विचार के उद्देश्य से लिखी गयी इस पुस्तक का महत्व इसलिए भी बढ़ जाता है  क्योंकि  अगली पीढ़ियों  पर इस कार्य का दायित्व  बना रहेगा कि वे ऐतिहासिक दस्तावेजों, स्तंभों ,विभूतियों की  साज संभाल संरक्षण करें । महत्वपूर्ण और गंभीर सृजन के लिए पूर्ववर्ती विद्वानों, लेखकों  की पुस्तकों को  ध्यानपूर्वक पढ़ने ,चिंतन- मनन करने  के बाद ही  इस प्रकार के  विशेष शोध ग्रंथ की रचना की जा सकती है ।प्राचीन  भारतीय इतिहास के साथ पाश्चात्य और अनुसरणकर्ता विद्वानों द्वारा तथ्यों और काल क्रम से की छेड़छाड़ पर आपत्ति दर्ज करते  हुए लेखक ने  अपनी पुस्तक  जैसे  गहन शोध और पुनर्विचार के लिए प्रस्तुत की है ।
संगच्छध्वं संवदध्वं सं वो मनांसि जानताम्।
देवा भागं यथा पूर्वे सञ्जानाना उपासते।।
 हम सब साथ चलें ,सब मिलकर बोलें ,हमारे मन एक हों ।प्राचीन समय में देवताओं का ऐसा आचरण रहा ,इसी कारण वे वन्दनीय हैं।(ऋग्वेद)
श्लोक से उपन्यास का आरंभ किया गया है।उन्होंने असंभव व्यक्तित्व का जन्म आज से लगभग 2500 वर्ष पूर्व भारत वर्ष के  सुदूर दक्षिण भाग में   माना।काल्पनिकता,  एतिहासिकता , पौराणिकता  के  धरातल
पर  लिखी  कृति    को  तर्क  और वर्तमान यथार्थवाद अपनी  कसौटी  पर  कसने  लगता  है।
 मगर  आस्था  को किसी  तर्क  की  तलवार  से  काटा  नहीं  जा  सकता  । इतिहास  साक्षी  है  ,विज्ञान  के  अनुसार  भी  असाधारण  विशेष  विभूतियों  का  जन्म  होता  रहा  है  । आदि  शंकराचार्य  ऐसे  ही  असाधारण  बालक के  रूप  में शिव  गुरु के  घर  में  जन्म  लेते  हैं  जिन्होंने   सात  वर्ष  की  अवस्था  में  वेदों  ,  आरण्यकों ,,उपनिषदों  का  अध्ययन  कर  लिया  था  । उनके  पिता  का  मन भी सांसारिकता  में   अधिक  नहीं  रमा था   । उनके  पिता  ने  विशिष्टा नाम  की  कन्या  से  उनका  विवाह  कर  दिया  ।निःसंतान  शिवगुरु  और  विशिष्टा देवी  को  ईश्वर की  विशेष  अनुकम्पा  से युधिष्ठिर  संवत  के  वर्ष  2631 में  बैशाख  पंचमी  के  दिन  दिव्य  पुत्र  की  प्राप्ति  हुई  ।जिसका  नाम  उन्होंने  शंकर रखा  ।शंकर नामक   बालक  का  जन्म  इस  प्रकार 507 ईसा  पूर्व  केरल  के  कालड़ी   ग्राम  में  हुआ  । बालक  में   जन्म  से   दुर्लभ  दिव्य  संकेत  मिल  रहे  थे  ।माँ  के  उच्चारण  से  पहले  उन्होंने  ओम  शब्द  का  उच्चारण  किया  था  ।  प्राथमिक  शिक्षा  के  बाद  आठ  वर्ष  कुछ  माह  का  भगवाधारी  सन्यासी  अपनी  उम्र  से कुछ  बड़े  मित्र  के  साथ  पैदल  बिना  किसी   संसाधन के  आगे  बढ़  रहा  था ।बाधाएँ  आ-  जा  रहीं  थीं  ।रास्ते  में  अनेक  रोचक  और  चकित  करने  वाले   विहंगम  दृश्य आ – जा  रहे  थे  । ब्रह्मचर्य  आश्रम में  ही सन्यास आश्रम का  वरण  करने  वाला  दिव्य  बालक स्वयं  ही  गुरु  की  तरफ  खिंचा  जा  रहा  था  या  गुरुत्वाकर्षण  की  तरह  गुरु  उन्हें  खींच  रहा  था पता  नहीं  चल रहा था ।महावन्य  प्रदेश  से  मित्र  को  अभयदान  देता  हुआ दिव्य  सन्यासी  बालक  निडरता  से  बढ़ा  जा  रहा  था।
आते – जाते  लोगों  से  योगीराज  गोविंदपाद  जी  महाराज का  पता  पूछ  लेता  था।लोग  महाशिव मन्दिर  का  पता  बताते  मगर  महात्मा के   बारे  में  अनभिज्ञता  प्रकट  करते  ।
जब  वे  वहां  पहुँचे  तो  उन्हें  मालूम  हुआ  समाधिस्थ  गुरु  गोविंद   लगभग  ढाई  सौ  वर्ष  पूर्व  समाधि में  बैठे  थे ।
उनपर  क्या  प्रतिक्रिया  हुई । आगे  क्या  हुआ  ?जैसे  अनेक  चमत्कारी  दृश्यों  से   भरा  हुआ  है  महापथ   ।इसे  पढ़ना  अपने  आप  में  एक  रहस्यमयी  रोमांचकारी , आलौकिक  यात्रा  के  अनुभव से  गुजरना  है  ।
 यह उपन्यास  सनातनी  व्यवस्था  की  पुनर्स्थापना  करता  सा  नजर  आता  है  । पुरातन  कथा  होते  हुए  भी  पहली  बार  पढ़ने  के  कारण  पाठक  को  अद्भुत   एवं  नूतन  जान  पड़ती  है  । उसका  मन विशिष्ट रहस्यमयी   आलौकिक  कंदराओं  में  घूमने  लगता  है  ।
 लेखक  ने  आदि शंकराचार्य जी   के  समूचे  जीवन  की  यात्रा  बारह  अध्यायों  में  समेटी  है  । हर  अध्याय  नयी दिव्य  घटनाओं    से  आनंदित    करता है । नूतन  उत्पन्न  जिज्ञासाओं   के  साथ  समाप्त  होता  है।
 काशी  में  चार  कुत्तों  के  साथ  चांडाल  के  रूप  में  आदि शंकराचार्य   को  शिव  दर्शन अस्पृश्यता  का  पूर्ण  उन्मूलन    करता  है  ।काशी  में  ही  पति  का  शव  लिए  विलाप  करती  स्त्री  के  माध्यम  से  आदि  शक्ति  का  आदि  शंकराचार्य  को   यह अहसास  करवा  देना   बिना  शक्ति  के  शिव   प्राणहीन  हैं  अद्भुत  लगता है ।परम  ब्रह्म  भले  ही  अंतिम  सत्य हो  ब्रह्मा  ,विष्णु , महेश  उनके  अंशभूत  किंतु  शक्ति  के  बिना  त्रिदेव  भी  श्रीहीन  हैं जान  पड़ता  है ।शक्ति  संयुक्त  होकर  ही  वे  इस  सृष्टि  को  उत्पन्न  करने  उसका  पालन करने  और  उसका  संहार  करने  में  समर्थ  हो  सके  हैं  ।इस  प्रकार लेखक  शिव  के  साथ  शक्ति  की  महत्ता  निरूपित  कर  अनजाने  ही  पुरुष   के  साथ  स्त्री  की  महत्ता  भी  रेखांकित  कर  देते  हैं  ।
जैसे-  जैसे  आदि  शंकराचार्य  महा पथ  से  गुजरते  हैं  आप  चारों  धाम  ही  नहीं  समूचे  भारत के  तीर्थ  स्थलों  की  यात्रा  कर  लेते  हैं  ।विशिष्ट  रोचक  शैली  में  लिखा  गया  उपन्यास  रोचक  दिव्य  कथाओं  से  आपकी  जिज्ञासा  बनाये  रखता  है  ।
श्रृंगेरी तीर्थ  ,ओंकारेश्वर  ,काशी, हिमालय,देव  प्रयाग  ,रुद्र  प्रयाग  ,कर्ण  प्रयाग, नंद  प्रयाग, ज्योतिर्धाम ,विष्णु  प्रयाग  आदि  सभी  तीर्थो  से  गुजरते  हुए  पाठक  बद्रीनाथ  ,केदारनाथ  ,सोन प्रयाग  ,गौरी  कुंड  राम  बाड़ा  आदि  सभी  पवित्र  स्थल  घूम  लेता  है।गंगोत्री, गोमुख  उत्तरकाशी  ,प्रयाग  राज  होता  हुआ  दक्षिण में  पहुँच  जाता  है  ।
उपन्यास  पढ़ते  हुए  पाठक  यह पढ़कर  चकित  होता  है  कि  जिन  आदि शंकराचार्य  को  समस्त  भारत  में  विशेष  सम्मान  मिल  रहा  था  उन्हीं  को  अपनी  माँ  के  अंतिम  संस्कार  में  चार  कंधे  नहीं  मिल  पाए  थे  घर  के  सामने  अंतिम  संस्कार  करना  पड़ता  है ।
अपनी     किस्म  के  विशिष्ट  उपन्यास  में  जगह – जगह प्रकृति  का  अत्यंत   खूबसूरत वर्णन   मिलता  है  ।  देखिये
‘जब  जगद्गुरु  और  उनके  अनुयायी  केदारनाथ  पहुँचे  तो  वह  भव्य  मंदिर  चारों  और  श्वेत  बर्फ  के  मध्य  अविचल  खड़ा  जैसे  स्वयं  कैलाशपति  महादेव के  प्रतिरूप  जैसा  दिखने  लगा  था  ।पूरा  केदारनाथ  मंदिर  परिसर  चारों  और  हिम की  धवलता  से  अत्यंत  विशिष्ट  दृश्य   समुपस्थित  कर  रहा  था  ।कुछ  दूर  पर  खड़े  केदार  पर्वत  एवं  अन्य  पर्वत  ऊपर  से  नीचे  तक  बर्फ  की  चादर  ओढ़े   किन्हीं  विराट  योगियों  की  भांति    मौन  दिख  रहे  थे  । आदि  शंकराचार्य  की अनूठी  , रोचक, मार्मिक  दिग्विजयी जीवन  यात्रा को  एक  पुस्तक  में  समेटना  बहुत  दुष्कर  और  दुर्लभ  कार्य  था  उसके  लिए  लेखक  वास्तव  में सराहना  , साधुवाद  के  पात्र  हैं  । हर  अध्याय  पाठक  के  सम्मुख  चलचित्र  की  तरह  खुलता   है।  इस  अद्भुत  महत्वपूर्ण   जीवन  गाथा  पर  फिल्म बनाई  जायेगी  तो   बहुत  अधिक  सराहना  पायेगी  ।

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