भूलना है बहुत कुछ, कितना और इतना भूलना है कि वो भी याद नही रहा – मसलन वो रास्ते जो अब भी ख्वाबों में भटकते हुए आ जाते है, वे बेजुबान आँखें जो रास्ता खोज रही थी – सम्भवतः मंज़िलें भी पर मैं आसमान से हट ही नही रहा था जमीन पर खड़ा होकर , मेरे कान उस टिटहरी की ओर लगे थे जहां से अब उसके लौटने की उम्मीद नही थी, उन सूनी दुपहरियों को भूलना चाहता हूँ जहाँ तेज गर्मी में पीपल और बरगद के नीचे गांव के गांव खाली पड़े थे महीनों से और जो लोग चैत काटने गए थे लौटे नही थे – कुछ बुजुर्गों ने फिर भी मुझसे गुफ्तगूँ की थी, एक बच्चे ने हेण्डपम्प से खींचकर पानी पिलाया था – उस मिठास और ठंडेपन को भूलना चाहता हूँ 
गैस के चूल्हे के सामने एक खड़े खड़े पूरा दूध उफन गया था हाथ में पोस्टकार्ड में दर्ज थी लिखावट तुम्हारी कि सतना को भूले नही हो अभी और सब कुछ इतना धुंधला हो गया कि दूध उफन कर यूँ बह गया जैसे जीवन से नमक और बेस्वाद सा हो गया सब कुछ – सागौन के पत्ते, निम्बोलियों के फूलों और यूकेलिप्टस के छोटे फूलों की भूरी छोटी छोटी तिकोनी टोपियों को बीनते हुए इतनी दूर चला गया था कि उस दूर गांव में बसे मिशनरी की वो सिस्टर आकर झिंझोड़ती नही और युवा पादरी होटल छोड़ने नही आता उस रात तो शायद यह सब आज लिखने का संत्रास ना होता 
पहाड़ों में कितना भी चल लो या जंगल की पगडंडियों पर भी – यदि आपकी देखने समझने और चाहने की क्षुधा शांत ना हो तो ना पहाड़ खत्म होते है ना पगडंडियों की धूल – थका हारा, बिन पानी के चलता जाता था, दूर से क्षितिज नुमा धुएँ के छल्ले दिखते तो आस बंधती थी , नथुनों में गर्म सिंकती रोटी की सुवास, पत्थर पर रगड़ी जाने वाली लाल मिर्च और लहसन की कलियों के साथ बजते गीत ऐसे लगते मानो कही से स्त्रियों के झुंड भोर में उठकर नदियों की ओर जा रहें हो हाथ में काँसे की थाली में शाश्वत अग्नि का दीवा जलाकर जल, जंगल या ज़मीन पूजने या शाम के समय तुलसी चौबारे पर बूढ़ी औरतें चुहल करती हुई कोई भजन गुनगुना रही हो समवेत स्वरों में – जिसमें वो सब प्रायश्चित्त सिलसिलेवार दर्ज है जो वो जीवन में कर ना सकी ; मैं कभी कोई गीत नही गा पाऊँगा क्योंकि प्रायश्चित्त ही समाहार है जीवन का अब 
समुद्र किनारे मछलियों को पकड़कर सैलानियों के सामने मारकर आग में सेंककर खिलाने वाली कर्कशा औरतों के चेहरे याद आते है, उनकी झगड़ती उगलती भाषा शैली और जीवन के प्रति मोह कितना वैभवशाली था, बड़ी छोटी डोंगी में झींगे और केकड़े पकड़कर ग्राहकों को संतुष्ट करने वाले निर्दयी पुरुष याद आते है जो असँख्य जीवों की हत्या कर बदले तीन – चार पेट पालने का खर्च निकालते है, उस ऐतिहासिक शिला पर वैभव और सुख – चैन खोजने आये देशी विदेशी उन बच्चों पर बिल्कुल दया नही करते जो उनके फेंके सिक्के खोजने गहराई में उतर जाते है और बहुधा लौटते नही है और यह सिर्फ समुद्र नही – पापनाशिनी गंगा के तट पर भी देखा है, इन बच्चों को वही ठीक पीछे स्थित मणिकर्णिका में कम।लकड़ियों में भस्म कर दिया जाता है ; हाँफता हूँ, पसीना – पसीना हो जाता हूँ आधी रात को वहशत से भर जाता हूँ , डरता हूँ और कमरा छोड़कर छत पर आ जाता हूँ – आसमान ताकने लगता हूँ और शुक्र तारे की बाट जोहता हूँ – लगता है ये सब मेरी छाती पर बैठ हिसाब पूछ रहे है कि जब मैंने यह सब देखा था तो क्या किया, सत्यमंगलम के जंगल, कोच्चि और चंद्रभागा का समुद्र, कोणार्क के शिखर , द्वारका और रामेश्वरम के खारेपन से घिरी रेत में मीठे पानी के कुण्ड, तवांग या मंडी के पहाड़ या दण्डकारणय के घने जंगलों में ताड़ के ऊँचे पेड़ों पर चढ़कर सूर्योदय से पहले ताड़ी उतारते लोगों के मासूम चेहरे याद आते है जो कई बार ऊँचे पेड़ से गिरकर मर जाते है और उनका नाम किसी इतिहास में दर्ज नही होता 
सब भूलना है – क्योकि भूलें बिना मन मुक्त होगा नही, देह – मन, वाचा, कर्म से शुद्ध हो यह कहा गया है, अंतिम समय में सभी प्रकार के मोह एवं माया से दूर होना चाहिए, पर जितना कोशिश करता हूँ उतना ही स्मृति दंश चुभता है, छोड़ने के क्रम में संग्रह प्रवृत्ति बढ़ती है, निर्मोही और निस्पृह होने के बजाय आसक्ति बढ़ रही है – कुछ है जो खींचता है, कुछ है जो तिरोहित करने से रोकता है, कुछ है जो निरुत्तर कर देता है
हम सब बेचैनियों के शिकार है, हम जीवन को लेकर आश्वस्त है कि यह स्थाई है, हम सब वहाँ है जहाँ हमें नही होना था – हम अति आशावान है और अपने होने को लेकर, अपनी सत्ता और अपने स्पेस को लेकर भयानक भ्रम में है – एक जगह घेरकर हर कोई बैठा है और उसे लगता है कि वह व्योम का सर्वेसर्वा है और इस नाते वह दूसरे पर हक़ जता रहा है, वह कह भी नही पा रहा अपनी बात कि वह किसी और से कितना प्रेम करता है – यह दर्प खत्म कर रहा है शनै: – शनै: हम सबको और हम है कि कुछ भी भूलना नही चाहते
मैं इस सबसे पार निकलकर अपने स्पेस को और अपने घेरे को खत्म कर देना चाहता हूँ – सब कुछ विस्मृत करके – जल्दी ही , बहुत जल्दी – सम्भवतः आज या अभी 
खुसरो शरीर सराय है, क्यों सोवे सुख चैन
कूच नगारा सांस का, बाजत है दिन रैन “
***
संसार में समुद्रों की कमी नही है और इसका यह भी अर्थ है कि पानी की कमी नही है जो हर कही ढल जाता है, रँग रूप बदल लेता है, पर मेरे पास एक मटका है जिसे मैंने बरसों से सम्हाल रखा है, पानी भरने और उलीचने की नियमित प्रक्रिया में वह इतना पक गया है कि अब उसके फूटने की गुंजाइश बहुत कम बची है पर इधर शाम होते ही वह टपकने लगता है और हर दस बीस मिनिट बाद जब एक बून्द गिरती है तो उसका शोर ब्रम्हांड में यूँ दर्ज होता है मानो उल्का पिंड टकराये हो और मैं अब मानकर चलता हूँ कि मटका अब फूटेगा नही यूँ ही टप टप टप करके खाली हो चला है और एक दिन निर्जल हो जायेगा फिर उसकी मिट्टी, वह गार जिसपर कुछ ना चढ़ पाया था – वह कितनी भौंडी हो जायेगी एकदम अनोपयोगी और निस्पृह
निराशा जब बढ़ने लगती है तो स्वप्न भी आपको उन रास्तों पर ले जाते हैं जहाँ लौटना निषेध होता है और वो रास्ते आपको बेहद डराते है इतना कि सहसा यकीन नही होता कि ये वही है जहाँ अठखेलियाँ करते हुए आपने अपने बेहतरीन पल गुजारे थे
नींद एक नशा है जो आपको अमूमन ऐसे अमूर्त में ले जाता है जिसमे सिर्फ आप होते है, स्मृतियाँ और आपके अनकांशस दिमाग़ के विचार अपने सम्पूर्ण और वीभत्स स्वरूप में पर आप समझौता नही करते – तमाम दुखस्वनों के बाद भी नींद में गुम होकर पलायन कर ही जाते है – भले ही एक लम्बी भरपूर रात हो या क्षणिक झपकी, आप बार – बार उस सबको जीना चाहते है जो आप होशो हवास में नही कर पा रहें है और इस तरह एक तरह का वितान रचते है अपने आसपास कि अब तो चैन मिलें 
एक समय ऐसा आता है जब हम ठहर जाते है अपने आप में – ना कहानी, ना कविता, ना संगीत, ना खेल, ना दोस्ती और ना दुश्वारियां – बस एक जुनून आपको अपने ही भीतर ले जाता है खींचकर और एक अभिशप्त एवं उदास सांझ के आगोश में सबसे दूर, कोलाहल को छोड़कर आप कुछ नही करना चाहते
हम लड़ते है, याद करते है खामोश होकर अपनी सफलताओं को, अपनी हार को याद करके उद्दाम वेग से सब कुछ नेस्तानाबूद कर देना चाहते है, पर लगता है समय का घोड़ा तेजी से बहुत आगे बढ़ गया है, वो हरा देने वाले लोग मैदान में सिर उल्था करके लेटे है, सफल लोग उन पर वमन कर रहे है,अट्टाहास करके उन्हें लताड़ रहें हैं और इस दृश्य में अपने को हिंसक बनाकर बदला लेना कितना सार्थक होगा – इसलिये मैं सबको मुआफ़ करता हूँ और मैदान में उलथे पड़े सिरों को एक वक्र दृष्टि डालकर निकल जाता हूँ किसी कोने में 
लिखना अब बेमानी है, कविता के बिंब चूक गये है और जो लिख रहे हैं वे सिर्फ सर्ग और प्रत्यय लगाकर दोहरा रहें है, शब्दों की आँच में सत्ताएं पोषित हो रही है, क्रांतियों की दास्ताँ सुनकर अब कोई चहक नही उठती, इतिहासकार कब्र में छुप गए है, संगीत सुनाने वाली गायिका के सुरों में अनहद नाद नही गूँजता, साजिंदे शाम के समय देशी दारू का एक पव्वा लेकर किसी मज़ार की ओर रुखसत कर रहें है – जहाँ कोई दरवेश या औलिया झूमते हुए कव्वाली गायेगा और आधी रात को कुत्ते की छोड़ी हुई हड्डी चूसकर सोने का जतन करेगा 
विक्षप्त समय है, काल भयानक है ; मौत का संगीन साया हर रोज नमूदार होता है, रात में देर तक चमगादड़ हुलसते है , बिल्ली का अपशकुनी रोना सुनाई देता है, कबूतरों की गुटरगूँ भयभीत करती है, चाँद यूँ दबे पांव आता है मानो नदियों के सूख जाने का अपराधी हो और एक गिद्ध मुझे देखता है और पूछता है – और कब तक इंतजार करूँ
***
आज फिर अमावस है और मैं गर्म ऊँची चट्टानों पर खड़ा तेज सूरज की रोशनी में जीवन का वृन्द गान सुन रहा हूँ, एक छोर पर मेरी तेज़ आवाज़ है, बीच में शोर और दूसरे सिरे पर सिर्फ़ डूबते हुए सुरों की मद्धम लय सुनाई देती है, पहाड़ी धुन में बंसी, मालकौंस में सारँगी, झपताल में तबला, कान्हा की बंसी के सुर गूंज रहें हैंसारँगी, सितार, संतूर और पेटी के मिश्रित स्वरों का आपस में यूँ गूँथ जाना मानो जीवन में सुख और दुखों का एकसार होकर आरोह अवरोह खत्म कर देना है, जैसे धृष्टता से किसी के द्वारा अपनी सांसों पर कब्ज़ा कर लेने जैसा है
हम सबने अपनेअपने मंच पर सभी ने जीवन राग गाये है और कभी सुर लगा, कभी नही लगा, खराश कभी इतनी हावी हुई कि गले की पकड़ से सुर बाहर हो गए और दिल दिमाग़ में बजकर रह गएहम निराश हुए, फिर वीणा के तार कसें, फिर जल तरंग का पानी बदला, डग्गे को हथौड़ी से ठोंककर साधा, इकतारा के एक तार को यूं कसा कि कही बिखर ना जाएंविशाल धरती पर जैसे बिखरती है यादें और खाली करके लौट जाती है व्योम में, पर अफ़सोसनही साध पाएँ कुछ भीथके, हारे और फिर जुत गए जैसे मानसून के पहले खेत जोतना पड़ते हैं तेज धूप में, और थकते हुए किसी नरम छाँव में बैठकर गुनगुने एवं पनीले सपनों के गीत गा लेते हैबबूल के तले जहाँ इतने काँटे बिखरे होते है कि कहना मुश्किल होता है कि हरियाली है, पत्ते या काँटे
हम सबने चौदहवी का चाँद देखा है अपने जीवन मेंएक नही, दर्जनों बार और उसके बाद पूनम का चाँद भीयह चाँद देखकर हम मुस्काये, गाये, झूमें और नाच किया कि धरती काँप गई, पर पूनम के चाँद का जीवन खुशियों के मानिंद छोटा होता हैसिर्फ़ एक रात का, पर वो अपना सम्पूर्णत्व पूरी गरिमा और आभा के साथ लुटाकर चला जाता है
एक जीवन संगीत गाने और सुनने वाला मैं सिर्फ इतना कहूँगा कि चाँद फिर आएगा कलगीत गाने वाले और नये लोग होंगे, कान लगाकर सुनने वाले नये श्रोता और होंगे, नई रागिनियाँ और नए ताल होंगेहम नही होंगे, मैं नही रहूँगा तो क्या संगीत थोड़े ही खत्म होगा, वो तो अनहद है, शाश्वत है, अनंतिम है, चिरंतन सत्य यही हैअफ़सोस करने का कोई अर्थ नहीचट्टानों पर धूप बढ़ते जा रही है, आवाज़ों का शोर धीमा होते जा रहा है, मेरी आवाज़ और आभा जुगनुओं के समान भिनभिन में बदल कर रह गई है एकदम मंद पड़ गया है साँसों का सफर, टूट रही है गति, आसमान काला पड़ गया है, दिशाएँ खो गई है और उम्मीद का एक टुकड़ा भी नज़र नही आतामैं, चाँद जहाँ से उगता हैउस दिशा में मुंह करके खड़ा हो जाता हूँइकतारे का तार फिर टूट गया है और बग़ैर तार का यह लकड़ी का खिलौना अपनी अस्मिता, गरिमा और आकार खोने लगा है, यह मिट्टी हो चला है
ऐसे लग रहा है जैसे इस समय लाखों की संख्या में शव इस धरा पर बिखर गए हैं और सबको इंतज़ार है एक जान फूंक देने वाले जादूगर का जो आये और सबके तार जोड़कर फिर से राग छेड़ दें, जीवन को तुनतुना दें, मिट्टी में ताक़त भरकर पुतलों को खड़ा कर दें, मैं बुदबुदाता हूँ जैसे एक बार बुदापेस्ट में साक्षात मौत देखकर चिल्लाया थाउस दिन भी यही काली अमावस की रात थी, अनजान सड़के थी और अपरिचित आसमान 
आज फिर अमावस है और मैं इस काली रात के साये में जीने को एक बार फिर अभिशप्त हूँआओ कोई इस तन के तम्बूरे में तार जोड़ दो
***
सुबह हड़बड़ाहट में होती है और सामने दिखता है मोरपेन क़ा शुगर नापने वाला यंत्र, रात सपने में इस यंत्र की स्क्रीन दिखती है कभी 648, 576, 349, 232 जबकि मेरा सपना है 90, 95 या 118 पर जीते जी तो यह सम्भव नही हो रहा, उठता हूँ और इस कमबख्त को उठाकर दसों उंगलियों में से किसी एक को खरोचता हूँ – पिन चुभने का एहसास खत्म हो गया है , पिछले बीस वर्षों से इतनी सुईयाँ चुभोई है कि शायद ही चमड़ी अब संवेदनशील बची हो – दर्द मानो स्थाई भाव हो और सुईयाँ उसका रस
सामने स्क्रीन पर शुगर का स्कोर देखकर कुछ नही होता – ख़ौफ़ नही लगता ज्यादा स्कोर से क्योंकि अब इतनी निराशा हो गई है कि लगता नही सामान्य स्तर पर कभी आ भी पाऊंगा – बस बिस्तर छोड़कर बाहर आता हूँ छत पर, आसमान निहारता हूँ – इतना रंग बिरंगा होने लगा है इन दिनों कि रँगों के प्रकार ही समझ नही पाता – आज ही छत गीली थी, कपड़े गीले, तेज़ छत पर सूख रहें प्याज भी गीले हो गए थे पर कोई फ़र्क नही पड़ रहा मुझे, दिन में धूप निकलेगी तो सब फिर सूख जाएगा, व्यायाम तो क्या ही कहूँ, हां थोड़ा स्ट्रेचिंग कर लेता हूँ – श्वास के दो चार आसन करके थक जाता हूँ
सुबह – सुबह चिरायते और गिलोय के साथ रात को भिगोये हुए अजवाइन का काढ़ा पीता हूँ, थोड़ी देर में मशीनीकृत ढंग से फ्रीज खोलकर थायरॉइड की गोली निकालता हूँ और चाय चढ़ाता हूँ , फिर इसी के साथ खाने की तैयारी – भिंडी बनाई आज, एक तरफ चाय उबल रही थी दूसरी तरफ मूंग छिलका शीजाने को कुकर में रख दी, जब तक चाय उबल रही है करीने से भिंडी काटता हूँ, एक प्याज़, दो हरी मिर्च और फिर चाय छानकर पीता हूँ – सिर्फ दूध, पत्ती और पानी है, आजकल खूब अदरख, काली मिर्च, बड़ी इलायची और दालचीनी डाल देता हूँ 
सब्जी बघारता हूँ – पकने पर एक छोटे बर्तन में डालकर रखता हूँ और लहसन छीलता हूँ अदरख फिर बारीक काटता हूँ , इन सबके साथ सूखी लाल मिर्च का तड़का देकर दाल बघारता हूँ – शरीर के प्रपंच इतने हो गए है कि सम्हालना अब बहुत मुश्किल हो चला है, खाना है नही पर जब तक जीने का स्वांग करना है खाना भी पड़ेगा ही, कही जाता हूँ तो शर्म आती है कि क्या क्या परहेज बताऊँ और कोई क्यों पालें ये सब नखरे 
आठ बजते है – टीवी पर न्यूज लगाता हूँ और रोटी का आटा सानकर रखता हूँ, फ़ूड चैनल देखकर यह समझ आया है कि आटा गूंथकर रख दो कम से कम आधा घण्टा तो रोटियाँ बढ़िया बनती है, धीरे से मुस्कुराता हूँ जैसे रोटी बनाने की प्रतिस्पर्धा में नोबल जीतना हो, फिर आकर न्यूज देखता हूँ और होम्योपैथी की पांच प्रकार की दवाएं लेता हूँ गोलियां है मदर टिंचर में कुछ और है जिनमें एल्कोहल की मात्रा बहुत है – जैसे ही लेता हूँ लेट जाता हूँ आधा घण्टा , न्यूज चलती रहती है और मैं दूर किसी सुरंग में निस्तब्ध होकर यात्रा करता रहता हूँ
रात के बर्तन,सफ़ाई, कपड़े, स्नान आदि करके रोटी बनाकर रखता हूँ – कुल तीन रोटियाँ बनती है दिन के लिए दो और रात के लिए एक – पर है तो बड़ा काम और इसे करना ही पड़ता है ; प्रोटीन शेक सोयाबीन के दूध में बनाकर रखा है फ्रीज में – उसे पीकर शुगर की गोली लेता हूँ और दिन का पहला इंजेक्शन जांघ के मांस में लगाता हूँ – इस बीच कुछ काम करके हिसाब – किताब और कुछ मेल देख लिए, सोशल मीडिया पर झांक लिया, शरीर एकदम टूट गया है मास्क लगा – लगाकर चेहरे पर एलर्जी होने लगी है आंखों में दिक्कत होने लगी है स्क्रीन टाईम कम करना है पर लगता है समय बचाकर करूँगा क्या अब 
दोपहर होते – होते खाने का समय हो जाता है, दूसरा इंजेक्शन पेट पर लगाता हूँ, कल रात जहाँ लगा था – वो जगह लाल हो गई है और कड़क भी बरसो से जंघा, हाथ और पेट सुन्न हो गए है कोई संवेदनशीलता बची ही नही है, बीच मे दिन के इंजेक्शन अपने मन से बंद कर दिए थे पर इस कोरोना ने और इसकी दवाईयों ने शुगर इतनी बढ़ा दी कि डाक्टर्स ने हाथ टेक दिए कि “जब तक चारो वक्त इंजेक्शन नही इलाज नही” – आखिर फिर लौट आया – सबसे अच्छा देर रात वाला है लेंट्स जिसका असर सोलह घँटे रहता है न्यून्तम 
थोड़ी देर कुछ काम करता हूँ – कुछ मित्र मदद कर रहें हैं थोड़ी आर्थिक रूप से पर शर्म आती है कि मैं उतना बदले में नही दे पा रहा हूँ जितनी उनकी अपेक्षा है ; कमज़ोरी और इस शुगर ने कोरोना में बुरी तरह से तोड़ दिया है – शारीरिक, आर्थिक, मानसिक और भावनात्मक रूप से इतना कमज़ोर कर दिया है कि अब चीजें भूलने लगा हूँ, लगता है सच मे बूढ़ा हो गया हूँ एक हफ्ते पहले किसी काम के लिए मोहित को अपना अकाउंट नम्बर देना था तो गलत दे दिया, उसका ना मात्र समय खराब हुआ, बल्कि आर्थिक नुकसान भी कर दिया – रुपये के नुकसान से डॉलर का नुकसान ज्यादा मुश्किल होता है, बेहद शर्मिंदा हूँ अपराध बोध भी हो रहा और अपने बूढ़े होने की प्रक्रिया पर दया भी आ रही है – यह आत्म ग्लानि का समय है और अपने ही जमीर से टकराता हूँ और हर बार और नीचे गिरता हूँ, यह कन्फेशन नही वास्तविकता है 
कोरोना का दुष्काल भयावह था – दो बार डोज़ लेना पड़ा, पूरा क्योंकि ठीक नही हो रहें थे संक्रमण ; फेविफलू की गोलियाँ हो या एंटी बायोटिक्स या स्टेरॉइड्स और ये सब कोरोना ठीक तो कर रहें थे पर कमबख्त पुराने जख्मों को हरा कर बढ़ा रहें थे – क्या किया जा सकता था – कोई चारा नही था, जीने की अदम्य इच्छा तो नही, पर एकाध साल में दो – चार काम कर लूँ – यह मोह जरूर है, बाकी तो तटस्थ हो गया हूँ – जीने के ना उद्देश्य बचे है – ना लालसा है कोई
थोड़ी देर में भूख लगती है, दिन भर कुत्तों की तरह से खाने का मन करता है, चने खाता हूं, परमल चबाता हूँ, कुछ काजू – बादाम, नीम्बू पानी लेता हूँ, फिर शाम को होम्योपैथी के डोज़, शाम की गोलियाँ – मुंह कसैला हो गया है, सेवफल, पनीर या लौकी में फर्क समझ नही आता – स्वाद की दुनिया ही खत्म है – फिनाईल, डेटोल और सेनिटाइजर की बदबू इतने भीतर धँस गई है कि सब जगह मुझे यही दुर्गंध एक आकार में साक्षात रूप में नजर आती है 
सूरज डूबता है, पक्षियों का कलरव सुन बाहर छत पर आता हूँ, अपने गुलमोहर को निहारता हूँ, ओजस कहता है पेड़ का तना सड़ गया है – बस एक ओर से ही ठीक है बाकी खत्म है – जल्दी ही गिरेगा – मैं मुस्कुराता हूँ कि सही कह रहे हो – इसे अपने हाथों से लगाया था, पेड़ की उम्र भी ज़्यादा नही होना चाहिये – खासकरके फल – फूल वाले पेड़ों की – वे अपने जीवनकाल में ही बड़े हो, फलें फुलें और नजरों के सामने ही खत्म हो जाएं तो इससे बेहतर और क्या होगा
रोज लिखकर रखता हूँ सॉफ्ट बोर्ड पर कि आज किसको फोन लगाना है – एक डेढ़ घँटे दोस्तों से बात करता हूँ – काली चाय पीता हूँ,आकाश निहारता हूँ, माँ – पिता और भाई की स्मृतियों को याद करके भीगता हूँ , उनकी लाशें लगता है मेरे चारो ओर उड़ रही है, वेन्टीलेटर्स नजर आते है, शरीर मे लगी हुई नलियां बारी बारी से खुलने लगती है, मैं चिल्लाता हूँ डाक्टर, डाक्टर पर आवाज गले मे ही फँस जाती है – गों गों गों, और उन तीनों से भीख माँगता हूँ कि अपने पास बुला लें – बिजली अक्सर जाती है तो फोन करता हूँ, वो लड़का जो आपरेटर है कहता है “एकाध घण्टा बिजली ना आएगी तो मर नही जाओगे और आपकी अकेले की ही नही पूरे शहर की बिजली गायब है” – आगे से उसे कौन बताये कि अब जीना – मरना क्या है, सब एक ही है 
उम्र बढ़ती जा रही है, यूँ 55 वर्ष बहुत नही होते पर किसी ने एक दिन में दो जीवन जियें हो, एक जीवन में अनेक मुखौटों के साथ कई जिंदगियां जी हो – तो 55 का अर्थ 110 वर्ष भी होता है, रात गहराने लगी है – सुबह का खाना पड़ा है – गर्म करता हूँ , खाता हूँ, फिर दो इंजेक्शन लगाता हूँ – सुबह के लिए गिलोय, चिरायते का पाउडर और अजवाइन गलाता हूँ एक बर्तन में, रात की गोलियाँ लेता हूँ – सोने से पहले कोट्टाकल का अश्वगंधा और धृतपापेश्वर का महासुदर्शन काढ़ा लेता हूँ कि नींद आ जाये, इम्युनिटी बनी रहें जब तक हूँ तब तक कम से कम, सुबह उठ सकूँ, और पक्षियों के वृंदगान सुन सकूँ
जीवन में कभी अनुशासन नही पाला पर कोरोना, शुगर और बाकी बीमारियों ने दवाईयों के बहाने सुबह से रात तक की दिनचर्या बना दी है – सोलह घँटे काम करने वाला मैं, महीने में 28 दिन तक देश भर में घूमने वाला मैं, समय से पहले काम करके देने वाला मैं, खूब कहानियाँ – कविताएँ लिखने वाला मैं, गप्प लड़ाने वाला यारबाश आदमी मैं, चुस्त दुरुस्त और हंसने हंसाने वाला मैं – आज अपने आप पर ही बोझ बनकर रह गया हूँ – धन, संपदा और मोह माया की चिंता नही की और कभी इन पर ध्यान भी नही दिया, बस जीवन अपनी शर्तों पर जीना था – परंतु अफ़सोस आज इन दवाओं पर पूर्णतया आश्रित हो गया हूँ तो बंधन खुलते जा रहें है 
अब ना उद्देश्य है, ना जीने की इच्छा, कभी पूर्ण विराम लगाया नही – पर अब एक पूर्ण विराम जल्दी लगाना चाहता हूँ – इसके पहले कि यह फूलों से लदा हुआ गुलमोहर गिर पड़े किसी दिन – मैं मुक्त हो जाना चाहता हूँ 
***
उदासी मन को ही नही, तन को भी घेर लेती है और फिर लगता है शरीर भी साथ नही दे रहा, अक्टूबर वह माह है – जो जन्म के माह से ज्यादा पीड़ादायक है, पूरा माह यूँही बीत गया और कुछ नही किया, मानसून में बरसात कम थी, अगस्त से शुरू हुई तो अक्टूबर तक बरसती रही, काली घटाओं का घुमड़ना और डरा – डरा कर बरसना बहुत असहनीय था, इस बीच धूप का तांडव और कुल मिलाकर बीत ही जा रहा है यह 55 वां अक्टूबर भी
गिलहरी से लेकर छोटे पक्षियों और आसमान में पँक्तिबद्ध उड़ते पक्षियों की उड़ान भी कोई हौंसला नही दे सकी, भीतर की बेचैनी, जकड़न ने तोड़ दिया बहुत कुछ, सब कुछ आहिस्ता – आहिस्ता बिखरने लगा है, ऐसा नही कि बीते 54 अक्टूबर ऐसे नही थे, सब यूँही आते थे और पीछे एक लंबी लकीर छोड़ जाते थे और हर नया अक्टूबर अपनी लकीर को बड़ा कर खत्म हो जाता था, पर अबकी बार यह जो छोड़कर जाने वाला है – वह निर्णायक लकीर साबित हो सम्भवतः 
दिन की धूप गुनगुनी हो चली है, देर रात जब छत पर अपने कमज़ोर होते घुटनों से घूमता हूँ तो लगता है बहुत कुछ देख लिया, समझ लिया और सह भी लिया, हर जगह कूप है, मिट्टी से बने रिश्ते, काँच से नाज़ुक सम्बन्ध और व्यक्तित्व को रद्द कर देने वाली अनिवार्य किस्म की अस्वीकार्यता – लिहाज़ा मान्यता लेने की होड़ में बहुत नीचे गिरना पड़ेगा, अपने को इस दौड़ में देखता हूँ तो वैसे ही लिजलिजा सा पाता हूँ – केंचुएं समान, पर बावजूद इसके कभी – कभार आईना देख लेता हूँ – यह हिम्मत अभी बाकी है
पर, अब जब साल खत्म होने में दो माह शेष है और पिछले पूरे 55 वर्ष याद करके खोया – पाया की तर्ज पर अपने को तौलता हूँ तो लगता है सब कुछ व्यर्थ चला गया, कमोबेश हर जगह सफलताओं के अम्बार में नीचे कही खिसियाई हुई एक अनिर्वचनीय असफलता मुखर थी – जो उस शिखर पर सफलता में डूबे दम्भ को खोखला कर रही थी, जीवन सफलता नही – इस खोखली और भौंथरी होती जा रही संवेदनाओं का अक्स है 
उमंग, उत्साह और उद्दाम वेग से चलते जीवन का एक अंत होता है, और यह होना लाज़मी भी है , अक्टूबर इसी की याद दिलाता है, यह एहसास भी शिद्दत से कराता है कि कोमल तन्तुओं से जुड़े रिश्ते हो या वायवीय – वे अंततः किसी पतझड़ की भाँति झड़ ही जाते है और नई आवक के लिए जगह बनाना पड़ती है, हम सबको जगह खाली करनी है और बहती हवा के संग साथ पीले जर्द पत्तों की तरह निकल पड़ना है
कार्तिक माह की भोर में उठकर बर्फ से जमे ठंडे पानी को बदन पर डालता हूँ तो लगता है सब कुछ ठंडा हो रहा है, सब कुछ छूट रहा है और अक्टूबर का अनुतोष शनै – शनै सब कुछ खत्म कर नए पथ पर जाने को अग्रसर करेगा, और फिर एक चिर शांति मिलेगी
[संदीप नाईक देवास, मप्र में रह्ते है, अंग्रेजी साहित्य में शोध, समाज विज्ञान और ग्रामीण विकास के साथ क़ानून के परा स्नातक है, एक कहानी संकलन “नर्मदा किनारे से बेचैनी की कथाएं” – प्रकाशित है जिस पर प्रतिष्ठित वागेश्वरी पुरस्कार मिला है, पचास कहानियाँ और डेढ़ सौ के लगभग कविताएँ प्रकाशित है, 35 वर्ष विभिन्न पदों पर काम करने के बाद इन दिनों फ्री लांसिंग करते है ]

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