1- बारामासा
मैं क्या दे सकती हूँ तुम्हें
सिवाय अपनी कामना के?
मैं चाहती हूँ
तुम्हारी भूख की हलक में
पहला निवाला
मेरे हाथों से सेंकी रोटी हो
तुम जब उन्हें तोड़ो तो मेरी उँगलियों को महसूस कर सको
और मैं तुम्हारे हाथों को
दृढ़ और विश्वासी!
मैं चाहती हूँ
गर बन सकूं तो
बन जाऊं तुम्हारी छाँव
मगर पीपल की नहीं
अमराई की भी नहीं
किसी एक मौसम की नहीं
सहना चाहती हूँ तुम्हारी धूप
बारामासा
2 – चूल्हा
बैठती हूँ तीन रोटियाँ बनाने के वास्ते
मेरी खिड़की सिंकती है
दीवार के तवे पर|
चूल्हे की भी है कोई तन्हाई
पता चला मुझे आज
मैं अंगीठी जनती हुई
अँधेरे कमरे में मौन
एक अकेला चूल्हा
एक निवाले के लिए
मेरी छत इतिहास लिख रही
मेरी पीड़ा का|
मैं निर्वात सह रही
अकेली रात जल रही|
3 – रेत
हाथ से छूकर उसे
उँगलियों की जकड़न से कसके
मुट्ठी की पूरी मजबूती से
बांध लेना चाह रही हूँ कुछ कण|
मगर मैं जितना जोर लगाती हूँ ऊपरी सिरे से
निचले छोर से गिर पड़ता है वो
उतनी ही आसानी से
झड़ता हुआ झड़-झड़|
जैसे कोई बेमौसम बरसात
जैसे कोई पूर्व-नियोजित तूफ़ान
जिसे आना ही है/
झड़ना ही है
और बहाकर ले जाना है
सब बहता ही जाता है|
4 – छोड़ देना
मत पकड़ो हाथ मेरा
ये असहाय हो जाएँगे तब
छोड़ दो इन्हें
इनकी उँगलियों की चाल पर
खुद आपसे आपका जोर
कितना दृढ़ हो रहा
मुट्ठी में बंद मेरी मैराथन
मत खोल देना तुम
बहुत दूर जाना है मुझे|
5 – मैं तुम्हें मिलूंगी
मैं तुम्हें मिलूंगी उन पन्नों में
लेखनी मेरी तुम्हारे पास हो
बन गई तुम्हारी जिजीविषा
मैं तुमसे दूर नहीं जा सकती|
कभी-भी नियत शून्य में
उन पन्नों के नज़दीक जाना
मेरे भाव सुलेख तुम्हें स्पर्श करेंगे
मैं अपनी कविता में तुम्हारे लिए ही समाहित हूँ
मैं तुम्हारे पास हूँ|
जब तन्हाई में अपनी
तुम उन पन्नों को दोहराते हो
मैं तुम्हें मिलूंगी शब्दों के अंदर
उन भावों की गहराई में
तुम्हारे होंठ जब-जब उन्हें छोएँगे
मैं मान लूंगी कि तुमने मुझे छूआ
मैं तुम्हें मिलूंगी
अपनी कविता के अन्तर्जगत में|
प्रेमा जी अच्छा ताना , बाना है कविताओं का ।