महीना वही पर मौसम अलग सा है
यह नवंबर कहां तुम्हारी महक सा है।
सबकुछ तो है मगर जैसे फीका सा है
जिंदगी के जायके में तू नमक सा है।
जिसे गुनगुनाना चाहता हूं हरदम मैं
हमदम तू बिलकुल उस ग़ज़ल सा है।
निहारता हूं अकेले में अक्सर चांद को
यकीनन वह तेरी किसी झलक सा है।
मैं अब तुम्हें पाऊं तो भला पाऊं कैसे
एक कतरा हूं मैं और तू फलक सा है।

डॉ मनीष कुमार मिश्रा
विजिटिंग प्रोफेसर ( ICCR HINDI CHAIR ),
ताशकंद स्टेट यूनिवर्सिटी ऑफ ओरिएंटल स्टडीज़, ताशकंद, उज्बेकिस्तान

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