आज का समय युवा लेखकों का हैवे अपनी लेखनी के जरिये न केवल चर्चा में रह रहे हैं, बल्कि अपनी किताबें पाठकों तक पहुंचाने में भी कामयाब हैं। भगवंत अनमोल ऐसे ही एक युवा लेखक हैं। किन्नरों के जीवन पर आधारित उनके उपन्यास ‘ज़िन्दगी 50 50’ ने उनकी लेखनी को एक विशिष्ट पहचान मिली है। अब उनका उपन्यास ‘बाली उमर’ आने वाला है, ऐसे में युवा लेखक-समीक्षक पीयूष द्विवेदी ने उनसे पुरवाई के लिए साक्षात्कार श्रृंखला की दूसरी कड़ी में यह बातचीत की है।

सवाल – सबसे पहले तो अपने निजी जीवन के बारे में हमारे पाठकों को बताइये।
भगवंत – सर्वप्रथम आपको नमस्कार पीयूष भाई। निजी? भाई जब आप पब्लिक स्फीयर में आते है तो निजी जैसा कोई शब्द नही बचता। खैर, मेरा जीवन भी अधिकतर हिंदी साहित्य से जुड़े लोगो की तरह ही है। कानपुर के पास फतेहपुर जिला के एक गाँव में जन्म हुआ, फिर पढ़ने-लिखने शहर चले आए और नौकरी करने महानगर। बस ईश्वर ने थोड़ा सा स्क्रिप्ट में बदलाव कर दिया है। जब दो वर्ष का था तो ईश्वर ने पिता जी को छीन लिया। फिर हकलाने की समस्या ने घेर लिया। कई बार आत्महत्या करने की भी सोचा, पर कहीं न कहीं मन में एक बात रह जाती थी कि मेरी ज़िन्दगी ऐसे ही तो नहीं गुजर जायेगी। इस एक आशा के सहारे ज़िन्दगी बिताता चला गया और प्रकृति मेरा साथ देती चली गयी। खैर, पढाई लिखाई में ठीकठाक था। कंप्यूटर साइंस से बीटेक किया और एक बहुराष्ट्रीय कंपनी में सॉफ्टवेर इंजिनियर के तौर पर तीन साल नौकरी की। जब मन भर गया तो झोला उठाकर वापस चला आया।
सवाल – तकनीकी पढ़ाई के बाद ये साहित्य लेखन की तरफ रुझान कैसे हो गया? अनायास या किसी घटना विशेष के कारण?
भगवंत – मुझे लगता है तकनीकी पढ़ाई बहुत बाद में आती है, कला पहले जन्म ले लेती है। भले ही बाद में हम अपने करियर के लिए कला का दम घोंट दें। ठीक उसी तरह बचपन से ही लिखने-पढ़ने का शौक था। राज़ कॉमिक्स, नंदन और चम्पक जैसी किताबे पढ़ा करता था। बचपन में एक दो तुकबंदी लिखने लगा था, जिन्हें मैं कविता कहता था, पर होती नहीं थीं। फिर जैसे अधिकतर लोगो का हाल होता है वैसा ही मेरा हाल हुआ। पढ़ाई-लिखाई में ठीकठाक था, इस वजह से अपना तथाकथित उज्ज्वल भविष्य बनाने के लिए पढ़ाई में मन लगाने लगा। किन्तु अगर ज़िन्दगी में कुछ लिखा होता है तो वह आपके पीछे ही पड़ जाती है। एकबार फिर से लेखन की खुमारी छाई और बीटेक के दौरान डायरी लिखने की शुरुआत की। उसके पीछे कारण यह था कि अंग्रेजी बेहतर हो जायेगी। आखिर एक प्रोफेशनल स्टडी करने वाले व्यक्ति की अंग्रेजी अच्छी होनी ही चहिये। उस डायरी को मेरा दोस्त पढ़ लिया करता था। उसने मुझे प्रेरित किया कि यह तो ठीकठाक है। चाहे तो प्रकाशित कर लो। वहां से मैंने इस बात को गंभीरता से लेना शुरू किया। फिर किताब लिखने के बारे में सोचने लगा।

सवाल – आजकल इंजीनियरिंग और मार्केटिंग के लोग बड़ी मात्रा में लेखन की तरफ बढ़ रहे हैं। क्या कारण है इसके पीछे और इसका कैसा प्रभाव साहित्य पर पड़ रहा है?
भगवंत – पहले ये माना जाता था कि लेखक वही बन सकता है, जिसे किंकर्तव्यविमूढ़ जैसे गूढ़ शब्द लिखने का अच्छा ज्ञान हो। हिंदी विभाग का कोई बड़ा सा पद हो या फिर ऐसा माना जाता था कि लेखक किसी दूसरी दुनिया से आया कोई बुद्धिजीवी होता है। परन्तु अब सोशल मीडिया के माध्यम से लेखन से जुड़ाव रखने वाले लोग अपने अपने प्रिय लेखकों से जुड़ने लगे हैं। जिसके कारण उन्हें समझ आने लगा है कि लेखक किसी दूसरी दुनिया से नहीं आते हैं। उन्हें पता चलने लगा है कि वह भी हमारे जैसा ही सोचते हैं और लिखते हैं। ऐसा लेखन तो वह खुद भी कर सकते हैं, ऐसी कहानियां तो उनके पास भी हैं। साथ ही साथ सोशल मीडिया में हिंदी लेखन का चलन बहुत बढ़ा है। जिस वजह से उन्हें ऐसा लगने लगा है कि जैसे वह भी फेसबुक या ब्लॉग पर हिंदी में लिख सकते हैं। उन्हें पाठको से तारीफ मिलने लगती है। फिर उन्हें ऐसा महसूस होता है कि वह भी किताब लिख सकते है। सोशल मीडिया में बढ़ता हिंदी का दबदबा भी लेखक बनने को प्रेरित करता है।
आपको एक बात बताता हूँ, आज हिंदी में पाठको की वृद्धि का एक कारण यह भी है कि कई वर्ग से लेखक आ गए हैं। वे अपने साथ नए पाठक ला रहे हैं और साथ ही साथ पाठको को लेखक बनने के लिए प्रेरित कर रहे हैं। आपको जानकर अचरज होगा कि दो साल पहले जिसे हम पाठक समझ रहे थे और जिसने मेरी किताब की समीक्षा लिखी थी, वही दो साल बाद आज अपनी किताब का लिंक इनबॉक्स में दे जाता है। लेखक बढ़ने से पाठको में वृद्धि ही होती है। और सबसे बड़ा नुकसान उन लोगो को होता है जो लेखक होकर खुद को महान समझ रहे थे। अब हर वर्ग, हर उम्र से लेखक निकल कर आ रहे हैं, जिससे उनकी महानता की दीवार में दरार पड़ने लगी है। रही बात पाठको की तो उन्हें निर्धारित करना है कि उन्हें क्या पढ़ना है और क्या नहीं? इसे निर्धारित करने वाला कोई लेखक नही हो सकता।
सवाल – आपका पिछला उपन्यास किन्नरों पर था। इस तरह के विषय पर हिंदी में कम लिखा गया है। आपके दिमाग में इसपर लिखने का विचार कैसे आया?
भगवंत – कहते हैं, बुद्धिमान वह होता है जो स्वयं को अच्छे से जानता है। मुझे अपनी अच्छाइयों और सीमाओं के बारे में ठीक-ठीक अंदाज़ा है। मुझे यह बात अच्छे से पता है कि अभी मेरे पास भाषा की वह शब्दावली या जादूगरी नही है जो एक अच्छे साहित्यकार में होती है, जिससे मैं अपनी भाषा के दम पर पाठको को अपनी किताब पढ़ा सकूं। तो फिर? फिर मेरे पास सिर्फ यही विकल्प बचते हैं – विषयवस्तु और लेखन शैली। कहते हैं, सोच किसी के बाप की जागीर नही होती। इसलिए मैं ऐसे विषय की तलाश करता हूँ, जिसपर कम लिखा गया हो या न लिखा गया हो। इसी सिलसिले में मैं 2013 में एक ऐसे विषय की तलाश पर था जिस पर कम बात हुई हो। मैं उस वक्त मुंबई के मलाड में नौकरी करता था और रोज़ मलाड चौराहे से होकर गुजरता था। वहां पर कई किन्नर भीख माँगा करते थे। मेरे मन में एकदम से ख्याल आया कि ये लोग ऐसा क्यों करते हैं? फिर उनके बारे में गूगल में पढ़ा और समझा। इसके बाद मैं एकदिन मलाड चौराहा गया और वहां पर एक किन्नर से पूछ बैठा कि दिन भर में कितना कमा लेते हो? उसने जवाब दिया दो हज़ार रुपए। मैंने उससे बात करने के लिए वक्त माँगा परन्तु उसने नहीं दिया। अंत में काफी मसक्कत के बाद एक किन्नर मान गयी। मलाड चौराहे के पास में ही ओबेरॉय माल है, वहां पर उसे बर्गर खिलाने ले गया और उसके बारे में जानकारी इकट्ठी की। उसकी और उसके दोस्तों की कहानी सुनकर लगा, मुझे इसी विषय पर लिखना चाहिए।
सवाल – ‘बाली उमर’ के विषय में कुछ बताइये।
भगवंत – बाली उमर गाँव के पांच बच्चो की कहानी है। इसमें नैतिकता वाली वे बाते नही हैं जो बच्चो की नैतिक शिक्षा में पढ़ाई जाती हैं। कतई यह टिपिकल बाल उपन्यास की तरह नही है, जिसमे यह बताया जाए कि चोरी करना बुरी बात है और ‘आनेस्टी इज द बेस्ट पालिसी’। इसके मुख्य पात्र बच्चे हैं, परन्तु यह सभी उम्र के पाठको लिए उपन्यास है। इसमें बच्चो की जिज्ञासाएं, उनकी उत्सुकता, शरारतें और मानसिकता को दर्शाया गया है। जो आपको अपने बचपन के दिनों की याद दिलाएगा और गुदगुदायेगा। साथ ही साथ इसमें एक सामाजिक पहलू भी है। एक कर्नाटक का बच्चा किसी  हिंदी भाषी गाँव में आकर फंस जाता है और कैसे पागल बन के वक्त गुजारता है? उसे कैसी यातनाएं सहनी पड़ती है, वह कैसे पीड़ा सहता है? वह ऐसे चक्र्व्यूह से निकल भी पायेगा या नही या फिर यहीं दम तोड़ देगा? आखिर उसकी निकलने की नाकामयाब या कामयाब कोशिश में कौन साथ देगा? आखिर आजकल भी तो कहीं भाषा के नाम पर, कहीं चमड़ी रंग के नाम पर, कहीं प्रदेश और कहीं धर्म के नाम पर भेदभाव फैलता जा रहा है। यह किताब इन सभी सामाजिक पहलुओं पर बात करती है। मेरी नजर में बच्चों की मानसिकता और भाषा के रेसिस्म पर हिंदी में यह पहला उपन्यास है।
सवाल – आपने कहा कि ये पांच बच्चों की कहानी है तो कहीं ऐसा तो नहीं कि आपने नोस्टाल्जिया में डूबकर एक मनोरंजक बाल-कथा लिख डाली है? या इसके आगे की भी कुछ चीज है इसमें?
भगवंत – ऐसा तो मैं बिलकुल नहीं कहूँगा कि इस किताब में बचपन का नोस्टाल्जिया नही है। नोस्टाल्जिया बिलकुल है, पर वैसा नोस्टाल्जिया नही है जो आजकल युवा लेखकों की किताब में होता है। मैं यह कहने से कतई गुरेज नही करूंगा कि मैं बहुत पिछड़ा हुआ लेखक हूँ। युवा लेखको की सोच जहाँ से शुरू होती है, मेरी वहां ख़त्म हो जाती है। आप खुद ही देख लीजिये अधिकतर युवाओं की किताब  टीनएज की प्रेम कहानी से शुरू होती है पर यह किताब टीनएज आने से पहले ही ख़त्म हो जाती है। यह 6 से 13 वर्ष के बच्चो की कहानी है। इसकी खासियत ही यही है कि मुख्य पात्र बच्चे हैं, पर यह बाल-कथा टाइप नही है। खैर, जैसा कि मैंने पहले भी बताया कि यह किताब सिर्फ नोस्टाल्जिया नही है। मेरा मानना है कि साहित्य का अपना एक मकसद होता है। किताब सिर्फ मनोरंजन का साधन नही हो सकती। बेशक मनोरंजन होना चाहिए जिससे पाठक उस किताब के साथ जुड़ा महसूस करे और उसे ख़त्म करने को लालायित रहे, लेकिन सिर्फ मनोरंजन न रहे। मैं मानता हूँ कि किताब में सिर्फ एंटरटेनमेंट, एंटरटेनमेंट और एंटरटेनमेंट ही नहीं होना चाहिए। मेरी किताब में आपको एंटरटेनमेंट, सोशल इशू, और मोटिवेशन तीन चीज़े मिलेंगी। इसलिए यह कहानी नोस्टाल्जिया से भी आगे की किताब है। इस किताब में उस कर्नाटक के लड़के के संघर्ष की दास्ताँ है जो हिंदी भाषी गाँव में फंस गया है। इस किताब में बच्चो की एकजुटता और हार न मानने की वह कहानी है जो लोगों को प्रेरित करेगी।
सवाल – आजकल बेस्टसेलर की बड़ी चर्चा है। इसके समर्थक भी हैं और विरोधी भी। आप भी बेस्टसेलर रह चुके हैं। सो कैसे देखते हैं इसे?
भगवंत – बेस्ट सेलर को थोड़ा वृहद टर्म में देखने की जरूरत है। असली बेस्ट सेलर वही है जिसके लिए प्रकाशक दो साल बाद भी कहे कि अमुक लेखक की किताब हमारे यहाँ से सबसे ज्यादा बिकती है। परन्तु अभी कुछ वर्ष पहले तक हिंदी में ऐसा कोई टर्म था ही नही। किताब की बिक्री पर बात ही नही होती थी, बल्कि चर्चित किताब का विशेषण दिया जाता था। यह कोई और नहीं देता था बल्कि लेखक के गिरोह के मठाधीश ही दे दिया करते थे। जिससे पता ही नही चल पाता था कि किताब बिक भी रही है या सिर्फ चर्चा कराई जा रही है।
अब मैं दैनिक जागरण का इस मामले में शुक्रिया अदा करना चाहूँगा कि उन्होंने इस  टर्म को हिंदी भाषी पाठको के बीच पहुंचा दिया है। अब तो हाल ऐसे हैं कि दैनिक जागरण बेस्टसेलर लिस्ट ही हिंदी बेस्टसेलर का पर्यायवाची हो गया है। जबकि दोनों अलग-अलग बाते हैं। एक प्रकाशक कई चैनल से किताबे बेचता है और लम्बे समय तक बेचता है। परन्तु जागरण बस कुछ चैनल में ही सर्वे करता है और सिर्फ तीन महीने की लिस्ट निकालता है। इसके फायदे भी हैं, उस लिस्ट में आई किताब दैनिक जागरण के माध्यम से एक बड़े पाठक वर्ग के पास पहुँचती है। हम जैसे लेखको को अधिक पाठको तक पहुचाने में जागरण बेस्टसेलर लिस्ट का हाथ है। अगर यह लिस्ट मुहर न लगाती कि फलाँ किताब बिक रही है तो शायद कोई न मानता।
सवाल – आजकल साहित्य में एक प्रवृत्ति यह दिखाई दे रही है कि लोग पढ़ कम रहे, लिखने ज्यादा लगे हैं। इस पर आपकी क्या राय है? इसका साहित्य पर कैसा प्रभाव देखते हैं आप?
भगवंत – जिन्हें यह लगता है कि लौंडेपन की कहानी ही लेखन है, वही लोग पुस्तकें नहीं पढ़ते होंगे। ऐसे लोग बेमौसम बरसात की तरह आते हैं, फिर गायब हो जाते हैं। लोग ढूढ़ते रहते है कि एक ऐसा लेखक भी तो आया था। बाकी जो सच में लेखक होगा, वह पुस्तके जरूर पढ़ता होगा। रही बात कम पढ़ने की तो यह हर किसी पर लागू हो रहा है। जब से मोबाइल फोन का जिओ नेटवर्क के साथ मधुर मिलन हुआ है तब से मान लीजिए कि इसने हर व्यक्ति पर प्रभाव डाला है। लोगो का फोकस कम होने लगा है। काम करते वक्त मन में एक दूसरा ख्याल चलता रहता है कि फलां पोस्ट में फलां व्यक्ति ने क्या कमेंट किया होगा, जिसका असर पुस्तके पढने पर भी पड़ा है। पहले जो दिन भर में एक किताब निपटा दिया करते थे, अब वही व्यक्ति हफ्ते भर में पूरी पढ़ पाते हैं। जो हफ्ते भर में एक किताब पढ़ते थे, उन्हें पूरी किताब ख़त्म करने में महीना भर लग जाता है।
सवाल – आपके प्रिय लेखक-लेखिका और किताबें?
भगवंत – कसप, गुनाहों का देवता और चित्रलेखा मेरी आल टाइम फेवरेट किताबे हैं। वरिष्ठ लेखको में गीता श्री की लेडीज सर्किल, प्रभात रंजन की कोठागोई, पंकज सुबीर, गौतम राजऋषि बेहद पसंद हैं। जबकि अपने हम उम्र लेखको में नीलोत्पल मृणाल की डार्क हॉर्स, अंकिता जैन की किताबें, प्रवीण कुमार की भाषा, संदीप नैयर का साहित्यिक ज्ञान और प्रवीण झा का विभिन्न विषयों में लेखन पसंद है।
उत्तर प्रदेश के देवरिया जिला स्थित ग्राम सजांव में जन्मे पीयूष कुमार दुबे हिंदी के युवा लेखक एवं समीक्षक हैं। दैनिक जागरण, जनसत्ता, राष्ट्रीय सहारा, अमर उजाला, नवभारत टाइम्स, पाञ्चजन्य, योजना, नया ज्ञानोदय आदि देश के प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में समसामयिक व साहित्यिक विषयों पर इनके पांच सौ से अधिक आलेख और पचास से अधिक पुस्तक समीक्षाएं प्रकाशित हो चुकी हैं। पुरवाई ई-पत्रिका से संपादक मंडल सदस्य के रूप में जुड़े हुए हैं। सम्मान : हिंदी की अग्रणी वेबसाइट प्रवक्ता डॉट कॉम द्वारा 'अटल पत्रकारिता सम्मान' तथा भारतीय राष्ट्रीय साहित्य उत्थान समिति द्वारा श्रेष्ठ लेखन के लिए 'शंखनाद सम्मान' से सम्मानित। संप्रति - शोधार्थी, दिल्ली विश्वविद्यालय। ईमेल एवं मोबाइल - sardarpiyush24@gmail.com एवं 8750960603

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