पुस्तक :- महाब्राह्मण लेखक :- त्रिलोक नाथ पाण्डेय प्रकाशक :- राजकमल प्रकाशन ,नई दिल्ली वर्ष :- 2023 मूल्य :- 299
राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित “महाब्राह्मण” उपन्यास आईपीएस ऑफिसर त्रिभुवन नारायण मिश्रा की जीवन गाथा है। जिनका सुसाइड नोट और उनका नोटबुक उनकी पत्नी मृणालिनी और पत्नी के प्रेमी द्विजेंद्रनाथ को मिलता है । इसी नोटबुक के सहारे यह कहानी पूरे समाज के समक्ष प्रस्तुत हुई है जिसमें एक महाब्राह्मण की करुण संघर्ष गाथा है। जिसकी पूरी जिंदगी समाज की क्रूरता को झेलते बीती।
उपन्यास को उठाते हीं महाब्राह्मण शब्द पर ध्यान अटक जाता है। दरअसल हिंदू धर्म में श्राद्ध का काम अपेक्षाकृत निचले स्तर के ब्राह्मण करवाते हैं। इन्हें महापत्तर या महापात्र कहते हैं। जबकि पूजापाठ, यज्ञोपवीत, सत्यनारायण कथा आदि तमाम कर्मकांड करवाने वाले ब्राह्मण को अपेक्षाकृत श्रेष्ठ माना जाता है। मृत्युपरांत मोक्ष प्राप्ति हेतु क्रिया-कर्म, हवन-यज्ञ तथा पिण्डदान कराने वाली विशेष ब्राह्मण जाति को महाब्राह्मण कहा जाता है।
मान्यता यह भी है कि महान कर्मों के ज्ञाता होने तथा आत्मा के मोक्ष प्राप्ति के श्रेष्ठ कर्म को करने वाले ब्राह्मणों में महान एवं श्रेष्ठ कहलाये ब्राह्मणों को महाब्राह्मण की उपाधि प्राप्त हुईं। कालांतर में यह जाति अधिक पिछड़ गईं, अशिक्षा एवं गरीबी से त्रस्त इस ब्राह्मण वंश के लोग अपने कर्म ज्ञान से विमुख हो गये, और अपना ज्ञानवर्धन की जगह मृत्युोपरांत अधिक दान प्राप्ति के लालच में अपने कर्म से गिर कर अपने वंश की मर्यादा भूल गए और कुछ निर्लज्ज लोग अशुद्ध दान ग्रहण करने लगे। इस प्रकार गिरे हुए कृत्यों तथा अशुद्ध दान से अन्यज ब्राह्मणों ने इनका साथ छोड़ कर इन्हें निम्न स्तर के ब्राह्मण जैसा व्यवहार प्रदान कर पिछङा बना दिया। कालांतर में यह जाति अपना यश,कीर्ति एवं ख्याति खोकर तथा अपने वैदिक धर्म एवं कर्म से विमुख अंधकारमय जीवन जीने लगी।
महाब्राह्मण आईपीएस ऑफिसर त्रिभुवन नारायण मिश्रा के पिता डकैत रहे थे। जिनके गुनाहों की सजा पुलिस वालों ने उनकी पत्नी को उनका बलात्कार कर दिया। त्रिभुवन नारायण मिश्रा की माताजी ने उसी दिन प्रण किया कि अपने पेट के अजन्मे बालक को पुलिस ही बनायेंगी जो कमजोरों की रक्षा करेगा और किसी बेकसूर कमजोर औरत को प्रताड़ित होने से बचाएगा। अपने गांव बभनियांव से पहले महाब्राह्मण त्रिभुवन नारायण मिश्रा रहे जो अपने जाति कर्म से ऊपर उठकर शिक्षा की ओर अग्रसर हुए। गांव से बाहर भी अपनी जाति को लेकर हर जगह अपमानित होना पड़ा लेकिन अपने संघर्ष को अपनी मां की आशाओं को उन्होंने निराश नहीं किया। अच्छी शिक्षा और जीवन स्तर में आधुनिक एवं अभूतपूर्व परिवर्तन से त्रिभुवन नारायण मिश्रा अपने यश एवं कीर्ति की पुनः प्राप्ति की ओर अग्रसर हुए। अच्छे संस्कार और संस्कृति को अपनाकर ज्ञानवर्धन के माध्यम से अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा एवं धूमिल छवि को अच्छी करने में जुट गए। उन्होंने दान दक्षिणा का त्याग कर एक आईपीएस अधिकारी बनके अपने जीवन को मधुर एवं सम्मानित बनाने की कोशिश की।
उपन्यास एक महाब्राह्मण के जीवन की संघर्ष गाथा होने के साथ-साथ समाज की कई अन्य जटिलताओं और कुव्यवस्थाओं पर भी रोशनी डालता है। प्रोफेसर श्यामसुंदर शुक्ला के जरिए जातीय दंभ से ग्रस्त एक पुरातनपंथी ब्राह्मण को चित्रित किया गया है जो संस्कृत को ब्राह्मणों की संपत्ति समझते थे और मानते थे कि संस्कार सिर्फ ब्राह्मणों के होते हैं। जोड़-तोड़, लॉबिंग, भागदौड़ एवं जुगाड़ के माहिर प्रोफेसर श्यामसुंदर शुक्ला जाति विशेष के विद्यार्थियों पर विशेष कृपा रखते थे। त्रिभुवन नारायण मिश्रा की वास्तविक जाति नहीं जानने की वजह से शुक्ला जी उन्हें अपने घर ले जाते हैं। इस घनघोर एहसान के पीछे वजह यह थी कि उनकी हार्दिक इच्छा थी कि उनकी इकलौती पुत्री अंजलि से त्रिभुवन नारायण मिश्रा का विवाह हो। कुछ समय बाद जब उन्हें अपने प्रिय शिष्य की वास्तविक जाति का पता चलता है तो जितने प्यार और सम्मान से उसे वह घर लाए थे उतनी ही तेजी से अपमानित कर उसे घर से बाहर फिंकवा दिया।
देश में चल रही राजनीति के स्वरुप पर भी उपन्यास में कटाक्ष है। गांव और शहर की अलग-अलग सामाजिक स्थिति की महिलाओं पर भी लेखक ने भरपूर प्रकाश डाला है। मृणालिनी, लक्ष्मी, सावित्री, विद्या, जैसी संपन्न वर्ग की स्त्रियां, मनीजराइन, मंगरी, सोमारी जैसी श्रमिक वर्ग की महिलाएं एवं मुख्य पात्र त्रिभुवन नारायण मिश्रा की मां के माध्यम से लेखक ने स्त्रियों के अलग-अलग स्वरूप को सामने रखा है।
ब्राह्मण बिरादरी से ही कुछ पात्र लेखक ने उठाए हैं जिनका व्यक्तित्व पुरातन पंथी भी है और प्रगतिशील भी। उपन्यास में एक पात्र राकेश पांडे हैं जिनका महत्वपूर्ण योगदान रहा त्रिभुवन नारायण मिश्रा के आईपीएस बनने में। प्रगतिशील विचारधारा के समर्थक राकेश पांडे जी जाति बिरादरी में यकीन नहीं रखते और यह जानते हुए भी कि त्रिभुवन नारायण मिश्रा महाब्राह्मण हैं उनकी हर संभव मदद करते हैं। वहीं एडीजी इंटेलिजेंस कृष्ण कुमार दीक्षित दिखावे भर को प्रगतिशील बनते हैं और त्रिभुवन नारायण मिश्रा से कहते हैं कि उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता कि वह महाब्राह्मण है । “मिश्रा, एक बात जानते हो? ब्राह्मणों की सैकड़ों उपजातियाँ हैं और ये एक-दूसरे से अपने को ज्यादा महान, विद्वान और पवित्र मानने में लगे रहते हैं। इससे क्या फर्क पड़ता है कि कौन किस उपजाति का है! आज के जमाने में इसका कोई महत्त्व है?” लगा दीक्षित सर यह प्रश्न पूछते हुए मुझसे नहीं, बल्कि खुद से सवाल कर रहे थे। आगे, उन्होंने कुछ गहरा सोचने की मुद्रा अख्तियार कर ली और फिर बोलने लगे, “व्यक्ति ब्राह्मण जन्म से नहीं कर्म से होता है। सैकड़ों साल के इतिहास में ब्राह्मण वर्ण कितनी उपजातियों में और किन-किन कारकों से विभाजित और विखंडित हुआ कौन जानता है! और, कौन दावा कर सकता है कि मैं फलाँ ऋषि के गोत्र का शुद्ध रक्त वाला ब्राह्मण हूँ। सामाजिक अन्तर्क्रियाओं के चलते विभिन्न जातियों-उपजातियों के कैसे-कैसे सम्मिलन और विखंडन हुए यह सही-सही कौन कह सकता है? मैं खुद नहीं जानता कि मुश्किल से पाँच पीढ़ी पहले मेरे पूर्वज कौन थे?”
वह अपनी बेटी से आईपीएस त्रिभुवन नारायण मिश्रा का विवाह कराना चाहते हैं।अपनी बेटी मृणालिनी से विवाह करवाने के पीछे जो उनकी कुटिल बुद्धि की पोल कुछ ही समय बाद खुल जाती है। जब त्रिभुवन नारायण मिश्रा मृणालिनी से मिलते हैं। उन्हीं के गांव के लड़के के प्रेम में पड़ी मृणालिनी हद से ज्यादा शराब पीती है। इसी लड़की को सुधारने के लिए त्रिभुवन नारायण मिश्रा से उसका विवाह कराया जाता है। और एक तरह से त्रिभुवन नारायण मिश्रा की बलि चढ़ा दी जाती है।
आधुनिका, धनवान और उच्च जाति की स्त्री होने का गौरव लिए शराबी मृणालिनी जो कि त्रिभुवन नारायण मिश्रा के गांव में ही रहने वाले द्विजेंद्रनाथ की प्रेमिका है किसी भी तरह से सीधे-साधे त्रिभुवन नारायण मिश्रा की पत्नी बनने के लायक नहीं थी। विवाह के पीछे शायद नायक की भी मंशा रही हो कि मृणालिनी से विवाह के उपरांत अपनी तथाकथित नीच जाति से ऊपर उठने में सहयोग मिलेगा जो कि हुआ नहीं। विवाह के उपरांत खुद को ठगा सा महसूस करता नायक अपनी मां के आदेश को (किसी स्त्री पर अत्याचार ना करना) मानता हुआ इस जीवन को भी स्वीकार कर लेता है।
त्रिभुवन नारायण मिश्रा द्विज (मृणालिनी का प्रेमी )की बहन विद्या जो अपने प्रेमी के साथ गांव से भागी थी लेकिन प्रेमी की मृत्यु के बाद वैश्यालय में स्थान पा गई थी को मुक्त करा कर अपने आवास ले आता है। वह उसे अपनी बहन मानता है क्योंकि वह उसी के गांव की है। लेकिन मृणालिनी जिसने त्रिभुवन नारायण मिश्रा को कभी पति का दर्जा नहीं दिया और उसके साथ भी नहीं रही वह और उसका प्रेमी द्विजेंद्र दोनों मिलकर विद्या की उसके घर में रहने को लेकर काफी हंगामा करते हैं दोनों को खूब भला-बुरा कहते हैं मारपीट भी करते हैं ग्लानि स्वरूप विद्या आत्महत्या कर लेती है और इसका सारा इल्जाम त्रिभुवन नारायण मिश्रा पर आ जाता है। भावुकता में आकर त्रिभुवन नारायण मिश्रा ने भी नींद की गोलियां खाकर आत्महत्या कर लिया और अखबारों की खबर कुछ इस तरह रही :- “आईपीएस ऑफिसर त्रिभुवन नारायण मिश्रा का प्रेम-प्रसंग अपने विद्यार्थी-काल से ही अपने गाँव की लड़की विद्या मिश्रा के साथ था। बाद में उन्होंने विद्या को गाँव से भगाकर एक अज्ञात स्थान में छुपाकर रखा था। विद्या उनसे विवाह के लिए लगातार जोर डालती रही थी लेकिन वे उसे किसी न किसी तरह बहका देते थे। इस बीच, अपनी उपजाति एवं विद्या के संग प्रेम-प्रसंग को छुपाकर त्रिभुवन नारायण मिश्रा तत्का-लीन एडीजी कृष्ण कुमार दीक्षित की सुसंस्कृत एकलौती बेटी मृणालिनी के संग शादी करने में सफल रहे। यह बात विद्या को जब पता लगी तो वह बहुत नाराज हुई। वह खुलकर सामने आ गई और उनके फैजाबाद आवास में आकर रहने लगी। साथ ही, वह शादी करने का दबाव बनाने लगी। उधर, मृणालिनी के रहने लायक व्यवस्था बनाने का झाँसा देते हुए मिश्रा मृणालिनी को अपने फैजाबाद आवास पर आने से रोकते रहे। इधर, विद्या उनके ऊपर दबाव बनाती रही और दोनों के बीच अक्सर झगडे होने लगे। इन झगड़ों से तंग आकर और अपने को बुरी तरह ठगा पाकर आखिर विद्या ने एक दिन आत्महत्या कर ली। इस मामले में स्थानीय थाने में दर्ज एक एफआईआर में मिश्र को आरोपी के तौर पर नामित भी किया गया है। पत्रकारों ने जब मिश्रा की विधवा मृणालिनी से बात करने की कोशिश की तो वह सिर्फ धारासार रोती रहीं और कुछ भी बोलने से मना कर दिया। स्पष्ट है उपजाति और दूसरी लड़की से रिश्ता रखने के मामले में अपने पति द्वारा अँधेरे में रखे जाने से वह बहुत आहत थी। सबसे अधिक आहत थीं वह अपने पति की मृत्यु से जो किसी भारतीय महिला के लिए अपूरणीय क्षति होती है।”
उपन्यास का दुखद अंत समाज में व्याप्त जाति व्यवस्था के दुष्परिणामों को विश्लेषित करता है। जटिल जाति व्यवस्था को संपूर्णता में दर्शाने के लिए लेखक ने कई व्यंग्यात्मक प्रसंगों को चित्रित किया है। इनमें कहीं कहीं हास्य व्यंग्य भी उभर कर आया है जिसने कथावस्तु को रोचक तो बनाया ही साथ ही गहराई से जाति विशेष की मानसिकता और दर्द दोनों को बखूबी दर्शाया है। उपन्यास के विभिन्न घटनाक्रमों को जोड़ते हुए उपन्यास की रचना शैली को देखें तो महसूस होता है कि एक लघु भारत उपन्यास में मौजूद है।
डॉ कुमारी उर्वशी
सहायक प्राध्यापिका
हिंदी विभाग रांची विमेंस कॉलेज,रांची मोबाइल – 9955354365 ईमेल –[email protected]