भारत के पहले ट्रांसजेंडर धनञ्जय चौहान  जिन्होंने पँजाब विश्वविद्यालय से पीएचडी की है उन्हीं के जीवन पर आधारित है यह डॉक्यूमेंट्री। इस डॉक्यूमेंट्री में दिखाया गया है कि किस तरह धनञ्जय चौहान को अपने जीवन में संघर्ष करना पड़ा और संघर्ष करते हुए किस तरह उन्होंने पँजाब विश्वविद्यालय में ट्रांसजेंडर के लिए अलग से टॉयलेट बनवाया, फीस माफ करवाई। किस तरह उनके साथियों ने ही उनपर अत्याचार किए। रेप तक करने की कोशिशें हुई।
हमारे जीवन में सिनेमा, साहित्य, संगीत आदि अन्य कला रूपों का विशेष महत्व है  इनके द्वारा हमारी मानसिक जरूरतों की पूर्ति होती है, और हमारा अच्छा या बुरा मनोरंजन होता रहता है।  साहित्य की तरह सिनेमा भी वैचारिक संघर्षों की अभिव्यक्ति का एक माध्यम है। भारत में सिनेमा जीवन का अभिन्न अंग है। सिनेमा में व्यक्ति के सपने तथा अहसासत बिकते हैं और बिकते हैं नए किरदार।
हिंदी सिनेमा अपने आरंभिक काल से अब तक के सफर में समाज के विभिन्न पहलुओं को उजागर करता आया है। सिनेमा का इतिहास संक्षिप्त नहीं अपितु एक शताब्दी से भी अधिक लम्बे दौर का रहा है। “सिनेमा अपने विविध विषयों के चुनाव के लिए समाज पर आश्रित है। सिनेमा कितना भी व्यावसायिक हो, पर उसमें अगर सामाजिकता का सरोकार न हो तो वह चल नहीं सकता।’’
सिनेमा वस्तुतः समाज पर ही आश्रित है। इसी बात को पुरजोर शब्दों में रेखांकित करते हुए डॉ. दयाशंकर कहते हैं “साहित्य और सिनेमा कल्पना और व्यावसायिकता में विशेष आग्रह के बावजूद अपनी कच्ची सामग्री कमोबेश समाज से लेता है यहाँ तक कि दोनों अपने प्रयोजन में, वह आनंद हो चाहे मनोरंजन, सामाजिक ही होते हैं।” किन्तु समाज में आज भी कई ऐसे अनछुए पहलु विद्यमान है जो पूरे परिवेश के साथ सिनेमा में उभरकर सामने नहीं आ सके हैं। किन्नरों की आवाजें उसी का परिणाम है।
खैर द अडमिटेड डाक्यूमेंट्री न केवल समाज को उन्हें स्वीकारने की बात करती है बल्कि स्वयं को भी स्वीकारने की बात करती हुई दिखाई देती है। इससे पहले ऐसा नहीं है कि भारतीय फिल्म उद्योग में किन्नरों की कहानी को पेश न किया गया हो। लेकिन अमूमन जिन फिल्मों में उन्हें दिखाया गया वहां हमेशा उन्हें हंसी का पात्र बनाकर या उपेक्षित दृष्टि से ही दिखाया गया। यह डॉक्यूमेंट उन सभी फ़िल्म बनाने वालों के मुँह पर करारा तमाचा है और उन्हें चीख-चीखकर बताने का तरीका है। क्योंकि फ़िल्म उद्योग ट्रांस लोगों की व्यथा-कथा को हमेशा से मजाक के लहजे में लेता रहा है। यह फ़िल्म उन तथाकथित लोगों को संदेश देती है कि इस तरह से भी सिनेमा बनाया जा सकता है।
लगभग 8 से 10 घण्टे तक की बनी इस फ़िल्म को 2 घण्टे तक की समय सीमा के भीतर रखना भी निर्देशन की खूबसूरती के अलावा उन चुनौतियों को दर्शाती है कि एडिटिंग और निर्देशन ऐसा भी हो सकता है। फ़िल्म में धनञ्जय के अलावा उन्हें जानने वाले लोग भी उनके बारे में बात करते दिखाई देते हैं। धनञ्जय को इससे पहले कनाडा के प्रधानमंत्री ने अपने वहां की राष्ट्रीयता भी देने की बात कही थी जिसे धनञ्जय ने अस्वीकार कर दिया। उनका कहना था कि वे अपने देश में अपने समाज के सामने रहते हुए उनकी सोच को बदलना चाहते हैं।
यह वाक़ई धैर्य वाली बात है कि हमारे देश में जहां सदियों से इस वर्ग और तबके के लोगों को निकृष्ट नजर से देखा गया उसके बीच रहकर काम करना वाकई गौरव वाली बात है। धनञ्जय ट्रांस लोगों के लिए कई काम भी करते रहते हैं। लगभग दो साल पहले रोलिंग फ्रेम्स एंटरटेनमेंट के यूट्यूब चैनल पर आई यह फ़िल्म फेस्टिवल्स में भी सराही गई है। निर्देशक ओजस्वी शर्मा जो पंजाब से हैं उन्होंने इससे पहले भी कई छोटी-बड़ी फिल्में बनाईं हैं और उनकी बनाई अधिकांश फिल्में फेस्टिवल्स में ईनाम पाती रही हैं। बटर टोस्ट, लक्की कबूतर, स्कार्स 100 ईयर ऑफ जलियांवाला बाग, रूह आदि जैसी एक दर्जन से ज्यादा फिल्में वे बना चुके हैं।
शॉर्ट फिल्मों के लिए बेस्ट डायरेक्टर का अवॉर्ड, बेस्ट डॉक्यूमेंट्री क्रिटिक चॉइस अवॉर्ड भी ओजस्वी अपने नाम कर चुके हैं। उनके निर्देशन से निकलने वाली हर फिल्म अपने आप में कुछ नयापन लेकर आती है और यहीं पर वे तारीफ और तालियों के हकदार हो जाते हैं। निर्देशक पंजाबी भाषा और साहित्य को बढ़ावा देने के लिए सिख लेंस संस्था से भी जुड़े हुए हैं जो देश, विदेश में हर साल फ़िल्म फेस्टिवल का आयोजन भी करती है। यह फ़िल्म जितनी धनञ्जय चौहान की है उतनी ही फ़िल्म निर्देशक की भी। फ़िल्म में एडिटिंग, संगीत सभी उच्च स्तर के नजर आते हैं। ऐसी फिल्मों को नेशनल अवॉर्ड से भी नवाजा जाना चाहिए ताकि एक संदेश समाज में जाए। इससे पहले मुझे सिर्फ पाकिस्तान में बनी ट्रांस कम्युनिटी की डॉक्यूमेंट्री ही पसंद आई थी।

4 टिप्पणी

  1. तेजस पूनिया के विचारों ने डॉक्युमेंट्री देखने की उत्सुकता
    जागृत कर दी ,देखकर कुछ कहती हूँ ।यह समाज का अनछुआ
    पहलू है पर अब पर्दा हटाने की घड़ी आ गई है ।
    जब कोई वर्ग शिक्षित हो जाता है तब क्रांति का द्वार खुलता है ।
    प्रभा

    • बहुत बहुत आभार मैम्म आपका। ये डॉक्यूमेंट्री जरूर पसन्द आएगी आपको। यूट्यूब पर है देख सकते हैं आप।

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