ह्रदय के द्वार पर बदरी छाई है
घर के कोने में एक तन्हाई है
तन्हाई बन गयी एकातं है
बंद द्द्वार खुली खिड़की है
घुटन है मगर स्वच्छ हवा आयी है
जायें तो जायें कहाँ
कोई बताये ये कैसी ऋतु आयी है…
मन के उदगार उमड़ उमड़ रहे हैं
एक जगह होकर भी कण कण बिखरे हैं
सिमटा है सारा जहाँ
बरसे तो बरसे कहाँ
उष्मा का आभाव है
प्रकृति दिखाती अपना भाव है
जायें तो जायें कहाँ
कोई बताये ये कैसी ऋतु आयी है…
सांसारिक मोह माया पर ग्रहण लग रहा है
अपनी जर जमीन एक सपना बन गयी है
हकीकत जमीन पर सच तलाश जारी है
फिसलन भरी भूमि चहुँ ओर दिख रही है
माटी अपने रोद्र रूप में सुंदर सहज है
जायें तो जायें कहाँ
कोई बताये ये कैसी ऋतु आयी है…
बदरी की बूँद गिरती है थम थमकर
ह्रदय ऊपजती है फसल धैर्य बांधकर
बुनियादी सुखों की फसल काटते हैं
जीवन मूल्यों का खाध पाते हैं
कम में ज्यादा है ज्यादा में क्या रखा है
कम में ही संतोष कर जाते हैं
संतुष्टि के दाम बढ़ गये हैं
जायें तो जायें कहाँ
कोई बताये ये कैसी ऋतु आयी है…

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