1- इश्क और मुश्क
तुम्हारे होने के एहसास भर से
रहता हूँ एक उजाले से सराबोर
आजकल घुप्प अंधेरे में भी
एक मुस्कुराहट मेरा कवच बनी रहती है
युद्ध के मैदान में भी टकराकर मुझसे
फूल बन जाती हैं गोलियाँ आजकल
मैं खाक हूँ
पर दहक उठता हूँ जब
तुम गुजर जाती हो मुझसे होते हुए
मैं जानता हूँ कि
बहुत मुश्किल होता होगा
मुझे देखकर तुम्हारा भी
बने रहना पूर्ववत अविचल, निर्विकार
या सीधे-सीधे कहूँ ऐसे कि
जैसे कोई फर्क न पड़ता हो
मैं समझ सकता हूँ कि
साँसों की गति को संभालना
वो भी तब
जब वो हो रहीं हों मदहोश
उसी समय आँखों को
एक अनचाही दिशा में टिकाए रखना
जब वो हो रहीं हों मतवाली सबसे ज्यादा
अपने हृदय के भावों को
अपने दिमाग की परत से ढकना
जब वे उबल रहे हों पुरजोर
यह सब कुछ है बहुत मुश्किल
हाँ हो तुम एक कुशल अदाकारा
पर सुनो !
किसी ने खूब कहा है
इश्क और मुश्क छुपाए नहीं छुपते
तो करो न कोशिशें बेकार की।
2- मजदूर बने पिता
उस दिन के बाद
मेरी रातें हो गईं थीं
और स्याह और डरावनी
मैं नींद से अक्सर
चौंक कर जाग जाया करता था
मेरे दिन भी हो गये थे बेहद उदास
हृदय की गति भी
हो गई थी बहुत असमान्य
पढ़ते-पढ़ते धुंधला जाते थे अक्षर
कहीं भी लगता नहीं था मन
जिस दिन पिता को देखा था
घुटनों पर टिकाये सर
रोते हुए
माँ उनके गालों पर
अपनी गर्म हथेलियां रख दे रही थी दिलासा
पर मेरे आते ही
हो गये थे दोनों सामान्य और
उसके बाद भी मुझे दिखते रहे बिल्कुल सहज
लेकिन उनके भीतर का शांत तूफान
बहुत दिनों तक मुझे मथता रहा था
और बनकर चक्रवात समा गया था मुझमें
हालाँकि भूल गया था यह सब
कुछ दिन बाद ही मैं
पर पढ़ लिखकर नौकरी लगी तब
बताया पिता ने मुस्कुराते हुए
‘बिटवा खेत बेचने पड़े थे तुम्हारे फीस की खातिर
और किसान से मजूर हो गये थे हम
पर अब सब ठीक हो जाएगा’
पिता बता तो रहे थे खुश होकर
पर मुझे दिख रहे थे वही रोते हुए पिता
सोच रहा था कि ‘क्या लौटा सकता हूँ मैं
पिता के वो दिन जो
किसान से मजदूर बन बिताए उन्होंने’
आज जितना सोचता जाता हूँ
वह चक्रवात मुझे फिर से
खुद में घेरे चला जाता है उतना ही।
3 – डरा हुआ आदमी और कविता (1)
राजनीति में मुझे पड़ना नहीं था
इसलिए समाज पर लिखी
मैंने एक कविता
कविता में अनायास उठे कुछ सवाल
सवालों पर बहुत से लोगों ने
किया बवाल
कहा- संस्कृति की महानता के गान की बजाय
क्यों समाज की मर्यादा रहे हो उछाल
यह कहकर कविता मिटा दी गई
डरा हुआ मैं सोचने लगा
परिवार पर लिखूँ
कोशिश कर ही रहा था कि
परिवार नाराज होकर कहने लगा
कुछ काम कर लो
ये कविता काम नहीं आएगी
अंत में
मैंने सोचा प्रेम पर लिखता हूँ
सबसे सुरक्षित है यह
इस पर कोई आवाज़ नहीं उठ पाएगी
पर लाख चाहने पर भी लिख न सका
प्रेम पर कविता
आखिर मैं जिससे प्रेम करूँ या
मुझसे जो करे
ऐसा कोई तो होता
एक डरा हुआ शून्य आदमी
आखिर लिखे भी तो क्या ?
4- डरा हुआ आदमी और कविता (2)
एक डरा हुआ आदमी
जब लिखता है कविता
वह लिख नहीं पाता उसमें अपना डर
न ही उजागर कर पाता है
उसे डराने वाले का चेहरा
वह लिखता है तो सिर्फ
डर से दूर की कोई बात
जैसे वह पिछली दफा जब खुश था
तो उसने क्या किया था
कैसे उन पलों को जिया था
या कि सरकार साहब कैसे कर रही है भला सबका
और देश का नेता कैसे सिर्फ नेता नहीं मसीहा है
एक डरा हुआ आदमी
अपने डर से घिरा हुआ आदमी
अपनी कविता में हाजिर होता है
चापलूसी, जी हुजूरी, जय जयकार करते हुए
उसके शब्द करते हैं देश की चिंता
डर में डूबी उसकी आत्मा गाती है-
राष्ट्र, देश और समुदाय के गीत
उसकी दुबकी हुई चेतना सुनाती है-
संस्कृति, परंपरा और अतीत का गौरव गान
कुल मिलाकर डरा हुआ आदमी
मारे डर के नहीं आता है डर के मुद्दे पर
वह छुपाता है खुद को ऐसे ही परदों में
हमें ही पहचानना और हटाना होगा
आगे बढ़कर
न केवल इन परदों को
बल्कि डर को भी।
5- मछली और पानी
सुनो!
जितना मछली होती है पानी में
उतना पानी कहाँ होता है मछली में
भले
पानी के विछोह में मरती रहीं मछलियाँ
पर पानी सूखा तो अपनी नियति से
प्रेम में पड़कर नहीं
संभवतः
प्रेम के इस एकतरफा रंग से ही तो
पानी रंगहीन रहा और मछलियाँ सतरंगी हो गईं
साथ ही
मछलियाँ रहीं हमेशा सौंदर्यवान, गुणवान
लेकिन पानी रूपहीन, गंधहीन, स्वादहीन
क्या यह प्रेम का जादू नहीं था ?
देखो
तुम्हारी आँखों में भी तो दो मछलियाँ हैं
और खारे पानी के सोते भी
सावधान
पानी को रखना सहेज कर
कहीं बह न निकले
मछलियाँ बची रहनी चाहिए
प्रेमिकाओं का तड़पना ठीक नहीं ।