सुबह की सीटी बज रही थी। वह बच्चे को वहीं फेंककर खिड़की के पास जा खड़ी हुई। यह उसकी दिनचर्या थी। सुबह, शाम, रात, जिस वक़्त भी सीटी बजती थी, वह जाकर खिड़की पर खड़ी होती। इस बात पर रात भी उसने सेठ साहिब के कितने तमाचे खाए थे, पर वह आज फिर खिड़की पर खड़ी थी। ऐसा करने पर वह मजबूर थी।
सुबह की सीटी काम पर चढ़ने की सीटी थी और मज़दूर जल्दी-जल्दी, लंबे डग लेकर चलते, फैक्टरी की विशाल इमारत में दाखिल हो रहे थे, पर मज़दूर औरतें तनावमुक्त क़दमों से आहिस्ते-आहिस्ते उनके पीछे हँसती, हिलती-डुलती आ रही थीं। फैक्ट्री की औरतों को सेठ साहब ने काफ़ी सुविधाएँ दे रखी थीं। वह काफ़ी अरसा विदेश में रहकर आया था; औरतों के हक़ों से अच्छी तरह वाक़िफ़ था। जितनी नफ़रत और उपेक्षा उसे मर्द मज़दूरों से होती थी, उतनी ही औरतों से मुहब्बत और नर्मदिली बरतने की बुरी लत थी। 
चंचल शोख़ मज़दूर शोर के समूह के आख़िर में ज़ेबू थी। गंभीर और ख़ामोश। वह हमेशा की तरह आज भी चुपचाप, सबसे अलग, गर्दन झुकाए चली आ रही थी।
वह जो अपनी मौत पर कभी से सब्र धारण कर बैठी थी। जेबू का उदास चेहरा देखकर चुप न रह सकी, उसकी आँखें भर आईं।
*** 
छुट्टी की सीटी बज रही थी। वह फैक्टरी के बड़े गेट पर खड़ी जेबू का इंतज़ार कर रही थी। जेबू को पीछे से आते देख वह ग़ुस्से में कहने लगी-
अल्ला, ज़ेबी कितना इंतज़ार करवाया है। कितनी देर से खड़ी हूँ। बाक़ी तो सब चले गए।
अरे शम्मी, क्या बताऊँ, उस दुर्जन काने के पास गई थी।
रे-रे! मैनेजर साहब की शान में इतनी गुस्ताख़ी। कह दूँ मैनेजर को?’
अरे छोड़ो, चल तो अब चलें। सूरज ढल रहा है। बच्चे रोते होंगे।
सूर्य अस्त हो गया था। धीरे-धीरे अँधेरा बढ़ रहा था। वे दोनों तेज़ क़दमों से गाँव की तरफ़ जा रहे थे।
जेबू, तुम मैनेजर के पास क्यों गई थीं?’ उसने अचाक सवाल किया।
जेबू ने उसके चेहरे की ओर जतन से देखा, पर अँधेरे के कारण कुछ समझ न पाई।
हम मैनेजर के पास क्यों जाते हैं?’ ज़ेबू ने लापरवाही के साथ कहा।
उसने कुछ भी नहीं कहा!
कुछ देर के बाद ज़ेबू ने कहा, ‘सफू को कितने दिन से बुखार है। उतर ही नहीं रहा। कल डॉक्टर ने कहा, मुद्दे का बुखार है। इस बुखार की दवाइयाँ भी तो बहुत महंगी हैं।
ये निकम्मे बुखार भी मैनेजर और सेठ की तरह अंधे हैं। भला इन मलिन झोपड़ियों में उनके लिए क्या रक्खा है। ऐश ही करना है तो उन बँगलों में जाएँ। यहाँ तो यही जवार की रोटी और लस्सी मिलनी है। अपने आप मुँह फीका करके भाग जाएगा।
तुम पागल हो शम्मी, इसलिए ऐसा कह रही हो। मुझे न तो दिन में आराम है, न रात को क़रार। जाने क्या होगा मेरे यतीम बच्चे का?’
ज़ेबो ने मैली चुनरी के कोने से अपनी आँखें पोंछीं। अल्ला खुश रखेगा। हाँ बता, मैनेजर ने पैसे दिए तुझे?’
ये दो रुपये हाथ में रखे। कितना गिड़गिड़ाई, पर अल्लाह ने तो उनकी दिल सीमेंट के पत्थर की बनाई है। जिस पर छींट भी पड़े तो भी असर नहीं होता!उदास स्वर में ज़ेबू ने जवाब दिया।
ज़ेबी, ये मेरे पास दस रुपये हैं, तुम रख दो।दुपट्टे के कोने में बँधी गाँठ से मेला नोट निकालकर ज़ेबू को देते हुए कहा।
ज़ेबू ने कुछ कहना चाहा तो उसने कहा-ख़बरदार ज़ेबी, कुछ न कहना। शफ़ी तुम्हारा बेटा है तो मेरा भी भांजा है। शफ़ू से कहना कि मैं रात को आकर उसे लाल बादशाहवाली बात बताऊँगी। अब जाती हूँ, बाबा रास्ता देखते होंगे।
वे दोनों अँधेरे में अलग-अलग रास्तों पर मुड़ गईं।
*** 
सीमेंट की फैक्टरी में काम करते उसे पाँचवाँ साल पूरा हो रहा था। वह जब पहले फैक्टरी में आई थी, तब तेरह-चौदह सालों की दुबली-पतली बालिका थी। पर इन पाँच सालों में वह काफी विकसित हुई थी। पाँच साल पहले वाली दुबली-पतली शम्मी में, और आज की शम्मी में ज़मीन-आसमान का फ़र्क़ था। बहुत सुंदर तो न थी, पर फिर भी एक बार उसे देखने के बाद दूसरी बार उसे देखने की ख़्वाहिश कोई भी दबा नहीं पाता था। शैतान भी बहुत ज़्यादा थी। काम वाली टोलियों में एक वही थी, जिसकी आँखें चमकती थीं और अधर मुस्कराते थे। उन दुख-भरे इंसानों की टोली में एक वही तो थी, जो ज़िंदगी की लहर बनकर उन्हें ज़िंदा रखती।
फैक्टरी उसे अपना घर लगती। कभी-कभी जब उसे काम न होता तो वह यहाँ-वहाँ फिरती रहती थी। पत्थर से लेकर सीमेंट बनने तक वह हर बात से परिचित थी। एक दिन जब वह सूची के मुताबिक सीमेंट की छोटी-छोटी बोरियाँ गिन रही थी तो एक बस में से लड़के-लड़कियों का समूह वहाँ उतरा। ऐनक पहने दो मर्द उन्हें वहाँ की एक-एक चीज़ दिखा रहे थे और अँग्रेज़ी में बतिया रहे थे।
वह पल-भर के लिए उन परियों के लश्कर को देखकर हैरत में डूब गई थी। तब ही होश-हवास में आई, जब एक लड़के ने उसके पास खड़े दूसरे लड़के से कहा-
अरे यार! इस सीमेंट की फैक्टरी में कँवल के फूल कहाँ से आए?’
कँवल के नहीं, सीमेंट के कहो! माथा पटकोगी तो माथा फट जाएगा, पर इन फूलों पर कोई भी असर नहीं होगा!दूसरे ने टेड़ी नज़र से उसकी ओर देखते हुए कहा।
वह हैरान थी। शहर में काम करते उसे पाँच साल हुए थे। इस अरसे में वह काफ़ी होशियार हो गई थी और गाँव वालों की तरह टेशन’ ‘टक्स’ ‘डॉक्टरवगैरह ऐसे शब्दों को यूँ तो न कहती थी, पर बावजूद इसके इतनी होशियार नहीं हुई थी कि इस तरह के वाक्य समझ सके।
लड़के आगे बढ़ गए। उनके पास ही गिलाँगुनियाँ रख रही थी। वह जाते हुए लड़कियों और लड़कों को देखते हुए कहने लगी, ‘चाची गिलाँ ये कौन थे?’
अरे तुझे मालूम नहीं है? सच में, जबसे तू यहाँ आई है, ये सिर्फ़ एक बार आए हैं। वो भी तब, जब उस दिन तू फैक्टरी में नहीं आई थी।
ठीक है, पर हैं कौन?’ उसने गिलाँ की बातों में रुचि न लेते हुए पूछा।
हाँ, बताती हूँ। ये कॉलेज के लड़के और लड़कियाँ हैं और दो लोग जो इनके आगे थे, वे उनके मास्टर हैं। यहाँ यह देखने आए हैं कि सीमेंट कैसे बनता है?’
यह देखकर क्या करेंगे? किताबों में सीमेंट का क्या काम? वाह चाची, मुझे पागल बना रही हो। तीन सिंधी किताब तो मैंने भी मास्टर याक़ूब से पढ़ी हैं।
तो फिर मेरी माँ, सच कहती हूँ। मुझे भी इन्हीं लड़कों ने ही बताया था। ये लो। लौट रहे हैं। तुम ख़ुद पूछ लो!
ऊँ हूँ, मुझे क्या गरज़ पड़ी है!उसे उन लड़कों की बातें ध्यान में आ गईं।
वे सब आकर उसके पास खड़े हुए। एक मास्टर किसी लड़की से पूछ रहा था कि पत्थर से सीमेंट बनाने के लिए क्या-क्या करना पड़ता है?’
वह दिल ही दिल में खिल उठी। इतनी फैशनयाफ़्ता लड़की को यह भी पता नहीं। उसे तो हर बात की ख़बर है-
कहाँ से पत्थर बड़े-बड़े नालों के ज़रिये ऊपर चढ़ता है। कैसे पककर अलग-अलग खानों की मशीनों से गुज़रकर, सीमेंट के गोल टुकड़ों का आकार अख़्तियार करता है। उन्हें कैसे फिर चूरा करके सीमेंट की शक्ल दी जाती है। वह दिल ही दिल में ख़ुद को उन लड़कियों से ज़्यादा जानकार पा रही थी।
बस में चढ़ते समय एक-दो लड़कियों ने कपड़ों और बालों को रूमाल से साफ़ करते हुए कहा-तौबा! भाड़ में जाए ऐसी रसायनविज्ञान की जानकारी, हमारे तो कपड़ों और बालों का सत्यानाश हो गया है।
उसने सुना, कोई और लड़की उनसे कह रही थी, ‘तुम्हें थोड़ा-सा सीमेंट लगा है तो चिल्ला रही हो। वहाँ देखो!उसने  ऊपर की ओर देखा। सभी लड़कियाँ उन्हें देख रही थीं।
कमाल है, उनके तो चेहरे नज़र नहीं आ रहे हैं। सिर्फ़ सीमेंट ही सीमेंट है।
जैसे सीमेंट की पुतलियाँ।किसी लड़की की आवाज़ थी। एक तेज़ आवाज़ के साथ बस गेट के बाहर निकल गई। उसके कानों में उस अनजान लड़की के शब्द गूँज रहे थे-जैसे सीमेंट की पुतलियाँ।
उसने यहाँ-वहाँ काम करती औरतों को देखा और आख़िर में उसकी नज़रें अपने आप पर जम गईं।
हाथ, बाहें, कपड़े सब सीमेंट से लदे हुए। उसने धीरे-धीरे अपने हाथ, चेहरे और गर्दन पर फेरे तो वहाँ भी सीमेंट की कचकच महसूस हुई। उसने सोचा-सच में हम सीमेंट की पुतलियाँ हैं। कहीं मन पर भी यह गर्द न चढ़ जाए।
उसने नाखूनों से बाँह का सीमेंट खरोंचकर देखा तो भूरे रंग के नीचे काफ़ी साफ़ चमड़ी दिखाई दी। अपने हिस्से के बोरे रखकर वह बाहर निकल आई। उसका काम ख़त्म हो गया था। आज वह नल पर खड़ी, देर तक अपना मुँह धोने लगी। हर बार वह बाँहें धोते हुए देख रही थी।
ज़ेबू कितनी देर से उसकी ये हरकतें देख रही थी। जब छठी बार  उसने अपनी बाँहें मलते हुए धोईं तो वह आगे बढ़ गई। हाथ से उसकी ठुड्डी को पकड़कर, वह उसकी आँखों में घूरने लगी।
क्या कर रही हो, शम्मी?’
कुछ नहीं, सीमेंट साफ़ कर रही हूँ।
क्यों?’
क्यों? अरे! बदन को सीमेंट का पूरा लेप लग गया है। साफ़ नहीं करूँ क्या?’
बिला शक साफ़ करो। मैं तुम्हें मना नहीं कर रही। पर इतना ज़रूर कहूँगी कि यह सीमेंट का लेप सभी पर चढ़ा हुआ है। किसी के तन पर तो किसी के मन पर।
शम्मी ख़ामोशी से स्टोर रूम की ओर चली गई। वह कुछ यूँ ही गुमसुम बैठी ज़ेबू को देखती रही। फिर न जाने उसे क्या सूझा, उसने सीमेंट के ढेर से मुट्ठी भरकर अपने साफ़ धुले हाथों और मुँह पर मल दी। क्षण-भर में उसकी सफ़ेद चमड़ी फिर से सुरमई हो गई। सीमेंट के ज़र्रे उसकी आँखों में चुभने लगे, उसकी आँखों से पानी बह रहा था।
दूसरे दिन जब वह बोरियों के काम में व्यस्त थी, तब ज़ेबू ने उसके सीमेंट से लेपे मुँह को देखा और हँसते हुए कहने लगी-अरे शम्मी, सच में ये तो बताओ, कल तुम्हें कौनसा भूत चढ़ा था?’
कल? यूँ ही बस ऐसे ही।
फिर भी?
ट्रन! ! …..ट्रन! ….उसने साइकिल की घंटी सुनी, और बाहर भागी। साइकिल पर वही सफ़ेद पोशाक वाला नौजवान जा रहा था। साइकिल ने दो-तीन घंटियाँ बजाईं और सर….सर…. करती उसकी बग़ल से निकल गई। साइकिल सवार ने उसे एक बार भी नहीं देखा; पर वह ख़ुद वहाँ तब तक खड़ी रही, जब तक साइकिल उसकी नज़रों से ओझल न हो गई।
च…च…! बहुत ख़राब है। एक बार भी नहीं देखा।ज़ेबू उसके चेहरे की ओर देखते हुए हँसने लगी।
उसने कुछ नहीं कहा, ‘ज़ेबू से कुछ छुपाना व्यर्थ था। यह सच है कि वह मुक़र्रर बात पर उस अनजान साइकिल की घंटी सुनकर किसी जादुई खिंचाव के तहत बाहर खिंची आती थी और तब तक खड़ी होती थी, जब तक साइकिल और उसका दिलफ़रेब सवार दोनों गायब न हो जाते। उसने ख़ामोश पुजारिन को आँख उठाकर देखा भी नहीं था। अपने ही ख़यालों में गुमसुम चला जाता था। कितनी तमन्ना थी उसे, काश! सिर्फ़ एक बार ही सही, वह उसे आँख उठाकर देखे। रोज़ वह इस आस में बाहर आती और नाकामी हमेशा उसका स्वागत करती थी।
***
शम्मी!ज़ेबी ने रस्सी पर कपड़े फैलाते, शम्मी को आवाज़ दी। फैक्टरी बंद थी। शम्मी, ज़ेबू के बीमार बेटे को गोद में थामे हुए थी और ज़ेबू कपड़े धो रही थी।
हूँ!उसने बच्चे को प्यार करते हुए कहा-क्या है?’
मैं कह रही थी कि सईद है तो बहुत अच्छा आदमी पर….
सईद कौन?’ उसने हैरानी से पूछा।
अरे…वही तुम्हारा साइकिल वाला; और कौन है। उसका नाम सईद है। कितना अच्छा नाम है।
वह धीरे-धीरे होंठों में मंद ध्वनि से बड़बड़ाने लगी- स…इ….अ…द। सईद…स…।
अच्छा यह नाटक बाद में करना। पहले मेरी बात सुन।
हाँ सुनाओ!उसने खुशी से चहकते हुए कहा।
फैक्टरी में काम करने से पहले, मैं और शफ़ू के पिता इंजीनियर साहब के बँगले में काम करते थे। वहीं पर सईद भी रहता था।
क्यों भला?’
सईद इंजीनियर साहब के ऑफ़िस में काम करता था। बिचारा ग़रीब मानस था। घर भी नहीं था। इसीलिए इंजीनियर साहब उसे अपने पास तक एक कोठी दे दी, पर सुन शम्मी। सईद कितना भी ग़रीब क्यों न हो, एक सीमेंट ढोनेवाली पुजारन की माला क़बूल कभी नहीं करेगा।
वह चुप हो गई। पहली बार उसे अहसास हुआ कि उसकी हैसियत क्या थी। उस दिन के बाद उसने साइकिल की घंटी सुनते हुए भी बाहर निकलना बंद कर दिया।
पर… उसके पाँव उसके बस में न थे। दिल पर अख़्त्यार किसे था? उसका दिल आज भी चाहता था कि वह दौड़कर जाए; अपने अनजान महबूब की राह में रुककर रास्ते के तिनके और पत्थर चुन ले; ताकि उसे साइकिल आगे बढ़ाने में कोई तक़लीफ़ न हो। पर हमेशा उसे ज़ेबू के शब्द याद आते थे। सईद कितना भी ग़रीब क्यों न हो, एक सीमेंट ढोने वाली पुजारन की माला कबूल कभी नहीं करेगा।
*** 
मैं कहती हूँ मैं नहीं दूँगी…कभी भी नहीं दूँगी।
वाह! यह भी कोई बात है। हम ग़रीब आदमी कहाँ से लाएँ इतने ढेर रुपये, कि खुद भी खाएँ, आपको भी दें, नहीं दूँगी मैं।
अगर नहीं दोगी तो आज से अपनी नौकरी पर से हाथ उठा लो। जाओ, जाकर अजीज़ से अपने बाक़ी पैसे लो और गाँव की राह पकड़ो।
पर मैनेजर साहब, आप समझते क्यों नहीं?’
ज़ेबू ने होंठों को दाँतों से कुतरते कहा-मैं बेवा हूँ, मेरा बेटा बीमार है और मेरे पास सिर्फ़ दो रुपये हैं। अगर वो भी मैं आपको दे दूँगी तो मेरे बेटे की दवा कहाँ से आएगी? क्या सेठ साहब के बेटे की पार्टी मेरे बेटे की जान से भी क़ीमती है?’
ये सब मैं नहीं जानता! तुम्हें पैसे देने होंगे, ‘दूसरी सूरत में वो रास्ता पड़ा है।
ज़ेबू कुछ वक़्त मैनेजर को ख़ामोश नज़रों से घूरती रही। फिर उसने दो रुपये पल्लू से खोलकर मैनेजर के फैले हुए हाथ पर रखे। उस हाथ पर, जिसकी लालच कभी खत्म होने वाली न थी, जिसे हर वक़्त कड़क नोटों और ठन-ठन करते सिक्कों के छुहाव की ज़रूरत रहती थी।
ज़ेबू,’ उसने ज़ेबू की बाँह पकड़ते कहा।
हूँ
पैसे दिए?’
हाँ!
कौन है यह जमाल?’
सेठ साहब का बड़ा बेटा।
फिर हम ग़रीबों का पेट काटकर…
चुप, चुप शम्मी! यह दावत तो फैक्टरी के मज़दूरों की तरफ़ से उनके सत्कार में दे रहे हैं और जमाल सेठ ने मेहरबानी फ़रमाकर इस दावत को क़बूल किया है।
आहिस्ते-आहिस्ते क़दम उठाते हुए ज़ेबू चली गई। उसकी आँखों में नफ़रत और घृणा उभरने लगी।
***
सभी के पाँव-तले ज़मीन खिसक गई, जब जमाल सेठ की तरफ़ से ऐलान हुआ कि मज़दूरों की मज़ूरी तीस प्रतिशत घटाई गई है।
उस ख़बर को घोषित करने वाला मैनेजर था, जिसकी तनख़्वाह में सौ रुपया महीना इज़ाफ़ा किया गया था। मैनेजर का चेहरा रोज़ से कुछ ज़्यादा रोशन था और वह ख़ुश नज़र आ रहा था, हालाँकि इस ख़बर का ऐलान बक़ायदा जमाल सेठ की तरफ़ से ख़ुद किया गया था। वह फिर भी बड़ी नज़ाकत के साथ एक-एक को यह ख़ुशख़बरी सुना रहा था। सुनने वालों की आँखों के आगे अँधेरा और कानों में सूँ…सूँ… होने लगी थी और वह तारीक चेहरों को एक जीत भरी मुस्कराहट के साथ देखता रहा। एक के बाद एक को यह ख़बर देते हुए कभी नफ़रत भरी आवाज़ में कहता। हाँ हाँ बेटे, बड़े सेठ के साथ ज़ोर आज़मा लिया, जमाल सेठ के साथ टक्कर लेकर देखो तो जानूँ।
औरतों की हालत सबके विपरीत थी। कितनी सीमेंट की बोरियाँ गिर पड़ीं, कहाँ रखनी है किसी को सुध ही न रही। ये तो ऊपर वालों की मेहरबानी थी, जिनके होश गुम हो गए थे और उनकी ओर से ज़्यादा बोरियाँ आनी बंद हो गईं, वर्ना वे सब शायद सीमेंट की बोरियों के तले दब जातीं।
ज़ेबू के तसव्वुर में सिर्फ़ उसका बेटा दूध के लिए रोता नज़र आया। साढ़े तीन आने का एक पाव दूध वह कैसे लेगी। जब उसे सिर्फ़ एक रुपया मिलेगा। सात आने सेर आटा, भाजी, उसके सिवाय….उसका शफ़ू, उसका बीमार बेटा! उसे अपनी हर सोच में एक ही तसव्वुर रहा, जिसमें उसे शफ़ू की नंगी लाश दिखाई दे रही थी; जैसे वह अपनी अधखुली आँखें फाड़कर उससे कह रहा हो-अम्मा मुझे कफ़न भी नहीं दोगी। अम्मा-अम्मा मैं बीमार हूँ। मुझे दवा लाकर दो…मुझे भूख लगी है… मुझे…कफ़न दो…मैं नंगा हूँ… अम्मा।
और वह जो इतने समय से चुप बैठी थी। शफ़ू की ख़मोश सदा सुनकर, आगे की ओर सरकती आई और ज़ोर से अपना माथा पत्थरीली दीवार से टकराया। उसके बाद उसे होश न रहा।
***
फैक्टरी में दो दिन हड़ताल रही। मगर जमाल सेठ को रत्ती मात्र भी परवाह न थी। उसके पास एक फैक्टरी नहीं थी और भी दो-चार मिलें थीं। उसकी लारियाँ और मोटरें सारे मुल्क में चलती थीं। उसे चालीस-पचास हज़ार रुपये के नुकसान की कहाँ परवाह थी?
पर उनके लिए, जिनका गुज़र रोज़ की कमाई पर था, एक-एक पल बरस की तरह गुज़र रहा था। पहले दिन तो अगले दिन के बचे-खुचे पर गुज़रान किया गया। मगर सुबह से सभी की नज़र शहर वाले रास्ते पर जमी थी। हालाँकि हर एक दूसरे को यही दिखाने की कोशिश में व्यस्त था कि उसे कोई परवाह नहीं है। कोई आए न आए, पर परछाइयाँ ढलीं, अँधेरा छाने लगा। मैनेजर तो क्या, सेठ का चपरासी भी यह खुशख़बरी लेकर नहीं आया कि उनकी, जिनकी नौकरियाँ ख़ारिज की गई हैं, वे सुबह आकर अपने काम पर लग जाएँ। घर में रखे हुए दाने भी ख़त्म हो गए थे। उन्हें अपना जोश और ग़ैरत बच्चों की भूखी आँखों में दफ़न करनी पड़ी।
और दूसरे दिन जब उसके पिता, सेठ से समस्या के समाधान के बारे में बातचीत करने गया तो सेठ की बात सुनकर वह दंग रह गया। सेठ ने उससे कहा कि वह न फ़क़त उनकी नौकरी क़ायम रखेगा, पर मुनासिब इज़ाफ़ा भी घोषित करेगा….उसके लिए उसे शम्मी उसके हवाले करनी पड़ेगी। सीमेंट ढोने वाली एक मामूली मज़दूरन, जिसकी नस-नस में उसकी फैक्टरी का सीमेंट भरा हुआ था!
शम्मी का बाप सेठ की बात सुनकर हँस पड़ा। यह सेठ भी कितना मूर्ख है। भला इतनी मामूली बात के लिए इतना हंगामा करने की क्या ज़रूरत थी? अगर वो ऐसे भी उससे बेटी माँगता तो क्या वह इनकार करता? आख़िर सेठ में क्या बुराई है? शक्ल-सूरत तो मर्दों की देखी नहीं जाती। वैसे भी ज़माल सेठ तो और कई सेठों से बेहतर था। उसका पेट आम सेठों की तरह निकला हुआ नहीं था और खोपड़ी पर एक-दो दर्जन बाल भी थे। जिन्हें वह बहुत ही सावधानी से उमदा किस्म का तेल लगाकर सँवारता था, वर्ना अक्सर वे नादान सीधे खड़े हो जाते थे। रही उम्र की बात, तो यह किस बला का नाम है? उम्र दर हक़ीक़त व्यक्तित्व का नाम है और व्यक्तित्व के लिहाज़ से से जमाल सेठ बिल्कुल जवान था। उसका बाप हँसता हुआ सेठ के कमरे से निकला। जब उसने यह ख़बर सुनी, तो उसके ज़ेहन में अनगिनत साइकिल की घँटियाँ बजीं और फिर गहरी ख़ामोशी छा गई।
***
सेठ की पत्नी थी। पर इस बात की ख़बर सिवाय सेठ की बड़ी बेगम और चंद अज़ीज़ रिश्तेदारों और नौकरों के सिवाय किसी को भी नहीं थी।
उसकी हैसियत उस घर में उस पुराने खिलौने जैसी थी, जो अनगिनत पुरानी चीज़ों के नीचे दब गया हो। किसी का दिल करे तो लेकर खेले और फिर कोने में ढकेल दे।
कुछ अरसा वह अपने तन्हा ख़ामोश कमरे में साइकिल की घंटी की आवाज़ सुनती रही। पर फिर हर तरफ़ गहरी उदासी छा गई। सेठ के सितम और लापरवाह बर्ताव के कारण वह लगभग बिस्तरे में दाख़िल हो गई थी। वह नर्म बिस्तर में होते हुए भी अपने हर अंग-अंग में पीड़ा महसूस करती। वह सोचती- काश सेठ उसे अपनी पत्नी समझता।वह पत्नी, जो मर्द की हर तरह से जीवन-साथी बनकर बसर करे और आत्मीय मित्र भी बनी रहे। पर सेठ को क्या ज़रूरत थी कि अपनी चीनी गुड़िया-सी पढ़ी-लिखी पत्नी की मौजूदगी में उस सीमेंट की पुतली को अपना आत्मीय मित्र बनाए? वह तो सिर्फ़ पत्नी थी और बस!
***
बड़े सेठ ने अपनी सारी जायदाद सेठ जमाल और उसके छोटे भाई को बाँटकर दे दी। सीमेंट फैक्टरी जमाल के छोटे भाई को मिली थी और वह रात में अपने भाई से अपने अधिकार लेने आया था। रात जब वह बड़ी बेगम के सर में मालिश करके लौट रही थी तो जमाल सेठ के कमरे से बातों की आवाज़ सुनकर वह खड़ी हो गई। कमाल कह रहा था-दादा, आप यह फैक्टरी ले लो। मुझे शहर वाली कपड़े की मिल दे दो। मैं इस छोटे से गाँव में रह नहीं पाऊँगा। यहाँ कोई लुत्फ़ ही नहीं है जीने में। ताजुब होता है, आप जाने कैसे रह रहे हैं?’
अरे… तुम यहाँ कुछ वक़्त रहकर तो देखो। फिर निकलने को दिल नहीं स्वीकारेगा।यह जमाल जेठ की आवाज़ थी।
यह भला कैसे?’
बस, देखते रहना। यहाँ चीनी की गुड़िया नहीं है। पर सीमेंट की अनेक पुतलियाँ हैं।
हूँ….!
कल तुम्हारे लिए भी कोई ढूँढनी पड़ेगी।
उससे अधिक वह सुन नहीं पाई। उसे चक्कर आया और वह ज़मीन पर गिर पड़ी।
जब उसे होश आया तो वह अपने कमरे में थी। कामवाली लड़की ने दूध का गिलास उसे देते हुए पूछा-साहब कहते हैं कि हम सुबह शहर जा रहे हैं, तुम चाहो तो अपने बाप के पास चली जाना।’ 
उसने नफ़रत की निगाह से कामवाली की ओर देखते हुए कहाः सेठ से कहना कि चली जाऊँगी।
पर फिर जाने क्या सोचकर बेगम साहिबा ने कहलवा भेजा कि वह भी अपना सामान बटोर ले। उसे भी शहर चलना है। उसने न जाने का फ़ैसला किया था। पर अचानक उसकी नज़र अपनी बेटी पर पड़ी। सेठ ने मार-पीट के सिवा यह ज़ालिम छोकरी भी उसे बख़्शी थी। ज़ालिम इसलिए कि वह अपनी सुंदर सूरत की बदौलत उस पर जुल्म कर रही थी। अगर वह यहाँ रही तो उसकी बेटी भी सीमेंट की पुतली बन जाएगी! और उसे यह किसी भी सूरत में गवारा न था।
***
आज फैक्टरी में उसका आख़िरी दिन था। सात सालों का साथ आज छूट रहा था। शादी के बाद उसकी किसी के साथ दिलचस्पी न रही थी। न बाप के साथ, न गाँव से, न और मज़दूर औरतों से। कभी-कभी ज़ेबू उसे याद आती थी, पर उसने ज़ेबू से भी कभी मिलने की कोशिश नहीं की थी।
शाम का वक़्त जब फैक्टरी की चिमनियों से निकलते धुएँ से घिर जाता था, तो वह एक अनजान तरफ़ से आती साइकिल की घंटी पर जाग जाती और उसका ज़र्द चेहरा थोड़ा सा गुलाबी हो जाता था।
धो…ओ…
दुपहर हो गई थी और मज़दूरों को खाना खाने की छुट्टी मिली थी। उसने घुटन-भरी साँस ली। हँसते, ख़ामोश, चिंतन करते सभी मज़दूर फैक्टरी से निकल रहे थे और उनके पीछे शोख़, तेज़-तर्रार मज़दूर औरतें टोलियाँ बनाकर निकल रही थीं। जब वे उसके कमरे की खिड़की के पास से गुज़रने लगीं तो वह झुककर ग़ौर से एक-एक का चेहरा देखने लगी। शायद कमाल के लिए कोई नई सीमेंट की पुतली दिख जाए!

रशीदा हिजाब
जन्म: 21 अक्टूबर 1942, शिकारपुर मेँ, सिन्ध (पाकिस्तान)।  सिंध यूनिवर्सिटी में शिक्षा प्राप्त करके जामशारो से पीएच.डी की और बाद में Rutgers University, America से पोस्ट डॉक्टरेट हासिल की। 1976 में गवर्नमेंट कॉलेज हैदराबाद में प्रवक्ता के रूप में नियुक्त हुईं और फिर 1991 से गवर्नमेंट गर्ल्स कॉलेज हैदराबाद में प्रधानाचार्य रहीं। सन् 1999 में डायरेक्टर कॉलेज हैदराबाद, 1999 में इंटरमीडिएट और सेकेंडरी। एजूकेशन हैदराबाद की चेयरपर्सन नियुक्त हुईं। सन् 1986 में उन्हें ‘ईवान शफ़ाक़त’ की ओर से एकेडेमिक अवार्ड मिला।
बाल साहित्य, लेख-आलेख, और लगभग 100 कहानियाँ पत्रिकाओं में छपी हैं। 1962 में बेहतरीन कहानी के लिए ‘महाराण अवार्ड’ और अनेक आकडेमिक अवार्ड हासिल हैं। सन् 1973 में न्यूयार्क अमेरिका की ओर से Merit Certificate और कई सम्मानों से सम्मानित। निवास: हैदराबाद सिन्ध।  

देवी नागरानी
जन्म: 1941 कराची, सिंध (तब भारत), 12 ग़ज़लव काव्यसंग्रह, 2 भजनसंग्रह, 12 सिंधी से हिंदी अनुदित कहानीसंग्रह प्रकाशित। सिंधी, हिन्दी, तथा अंग्रेज़ी में समान अधिकार लेखन, हिन्दीसिंधी में परस्पर अनुवाद। श्री मोदी के काव्य संग्रह, चौथी कूट (साहित्य अकादमी प्रकाशन), अत्तिया दाऊद, व् रूमी का सिंधी अनुवाद. NJ, NY, OSLO, तमिलनाडू, कर्नाटक-धारवाड़, रायपुर, जोधपुर, केरल व अन्य संस्थाओं से सम्मानित। डॉ. अमृता प्रीतम अवार्ड, व् मीर अली मीर पुरूस्कार, राष्ट्रीय सिंधी विकास परिषद व् महाराष्ट्र सिन्धी साहित्य अकादमी से पुरुसकृत। सिन्धी से हिंदी अनुदित कहानियों को सुनें @ https://nangranidevi.blogspot.com/                               contact: dnangrani@gmail.com 

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