डॉ लवलेश दत्त

डॉ० लवलेश दत्त हिंदी साहित्य जगत में तेजी से उभरने वाला एक सुपरिचित नाम है। आपके अब तक दो कविता संग्रह, तीन कहानी संग्रह, तीन संपादित पुस्तकें और एक उपन्यास प्रकाशित हो चुका है। ट्रांसजेंडर वुमेन पर केंद्रित आपका उपन्यास ‘दर्द न जाने कोई’ अभी हाल ही में विकास प्रकाशन, कानपुर से प्रकाशित हुआ है। थर्ड जेंडर या किन्नर विमर्श पर लिखे उपन्यासों में यह उपन्यास एकदम अलग और नये कलेवर का है। इस विमर्श पर अध्ययन करने वालों में इसकी खूब चर्चा हो रही है। यहाँ प्रस्तुत है वांग्मय पत्रिका के संपादक डॉ० फ़ीरोज़ ख़ान और इस उपन्यास के लेखक डॉ० लवलेश दत्त की बातचीत के प्रमुख अंश…

प्रश्न 1. आप अपने परिवार के बारे में विस्तार से बताएँ।
लवलेश दत्त: मेरा जन्म 24 सितंबर को बरेली (उ०प्र०) में हुआ। मेरे पिता स्व० श्याम दत्त बरेली के एक प्रसिद्ध फोटोग्राफर एवं चित्रकार थे। उनका स्टूडियो बरेली कॉलेज गेट पर स्थित था। मेरी पूरी शिक्षा बरेली में ही हुई। सरस्वती विद्यालय इंटर कॉलेज से कक्षा दस और राजकीय इंटर कॉलेज से इंटरमीडिएट की परीक्षा पास करने के बाद बरेली कॉलेज से बी.एससी. किया। बी.एससी. के बाद लगभग चार वर्ष तक चिकित्सा प्रतिनिधि की नौकरी की। इसी अवधि में हिंदी तथा संस्कृत में एम. ए. किया और डॉ० सुरेशचंद्र गुप्त के निर्देशन में पीएच.डी. में पंजीकरण करवाया। मेरे शोध का शीर्षक है ‘स्वातंत्र्योत्तर हिन्दी काव्य में गांधीदर्शन का प्रभाव’। 
विज्ञान स्नातक होने के बाद हिंदी में आने का कारण यह रहा कि मैं चिकित्सा प्रतिनिधि की नौकरी के साथ साथ पढ़ाई भी जारी रखना चाहता था लेकिन वह नौकरी लगातार घूमते रहने की है इसलिए संस्थागत छात्र के रूप में पढ़ना संभव नहीं था और पारिवारिक दायित्वों के चलते नौकरी भी नहीं छोड़ सकता था। परिणामः आगे पढ़ने के लिए मुझे ऐसा विषय चुनना था जिसे मैं व्यक्तिगत छात्र के रूप में परीक्षा दे सकूँ। इसलिए पहले मैंने अंग्रेजी विषय लेकर आगे पढ़ने का मन बनाया लेकिन सच्चाई यह है कि हिंदी साहित्य पढ़ने की रुचि बचपन से ही थी। कक्षा आठ से तुकबंदियाँ भी करने लगा था। ग्रीष्मावकाश में चंपक, नंदन एवं अन्य कॉमिक्स पढ़ा करता था। इसलिए मन में हिंदी और अंग्रेजी को लेकर एक उधेड़बुन थी। अंततः जब परीक्षा फार्म भरने का अवसर आया तो मैंने हिंदी को ही चुना और इस तरह मैं हिंदी का विद्यार्थी बन गया।
शोधकार्य के दौरान मेरी पढ़ने की रुचि बढ़ने लगी। पढ़ते-पढ़ते कब लिखने लगा पता ही नहीं चला। लिखने का विकास तब हुआ जब पीएचडी के बाद मैंने अपने शोध निर्देशक डॉ० सुरेशचंद्र गुप्त जी के संरक्षकत्व में एक त्रैमासिक पत्रिका साहित्यायन का संपादन किया।
प्रश्न. 2. थर्ड जेंडर पर उपन्यास लिखने की प्रेरणा कहाँ से मिली?
लवलेश दत्त: पत्रिका संपादन के साथ-साथ मैंने कहानियाँ लिखना भी आरंभ कर दिया था। मेरी कहानियाँ कई पत्रिकाओं में प्रकाशित भी होती रहती हैं। मुझे याद है कि किन्नरों पर मेरी एक कहानी ‘नेग’ किसी पत्रिका में प्रकाशित हुई थी। उन्हीं दिनों आप (डॉ० फ़ीरोज़ ख़ान) अपनी पत्रिका वांग्मय का थर्ड जेंडर कहानी अंक प्रकाशित कर रहे थे। उन्होंने मेरी उस कहानी को अपनी पत्रिका में प्रकाशित करने के लिए संपर्क किया। मुझे बहुत प्रसन्नता हुई। फिर जब उन्होंने बताया कि वे थर्ड जेंडर पर आगे भी काम कर रहे हैं तथा मुझसे अन्य कहानियाँ लिखने के लिए कहा तो मैंने इस विषय पर धीरे धीरे अध्ययन आरंभ किया। अपने संपर्क में आए लोगों से पूछताछ की। पुस्तकें पढ़ीं और इस विषय पर लिखना आरंभ किया। सही बताऊँ तो आपसे (डॉ० फ़ीरोज़ ख़ान से)  ही मुझे इस विषय पर विस्तार से लिखने की प्रेरणा मिली।
प्रश्न. 3. जब आप उपन्यास लिख रहे थे तब घर में लोगों की मानसिकता क्या थी और किन किन हालात से गुजरना पड़ा?
लवलेश दत्त: दरअसल मेरे लेखन कार्य में परिवार कभी कोई व्यवधान उत्पन्न नहीं करता। सभी को पता है कि मैं कहानियाँ आदि लिखता रहता हूँ। वे ये भी जानते हैं कि थर्ड जेंडर पर मेरी कई कहानियाँ हैं। जब उन्हें बताया कि मैं इस विषय पर उपन्यास लिख रहा हूँ तो कोई नकारात्मक प्रतिक्रिया नहीं हुई, बल्कि मुझे सहयोग ही मिला। हाँ,  किन्नर समुदाय की मर्मांतक पीड़ा के विषय में कभी पढ़कर, कभी फोन से बात करके तो कभी संपर्क में आने वाले किन्नर समुदाय के लोगों से जानकर स्वयं बहुत परेशान और भावुक हो जाया करता था। उनके दर्द को महसूस करके आँखें भी भर आती थीं। कुछ घटनाएँ तो ऐसी सुनने में आयीं कि दो-तीन दिनों तक मनःस्थिति सामान्य नहीं हो पायी।
प्रश्न. 4. आपने इसको लिखने के लिए कई उपन्यास देखे और पढ़े होंगे। इस आधार पर आपका उपन्यास औरों से अलग किस तरह है?
लवलेश दत्त: दरअसल मैंने इसे लिखने के लिए कोई उपन्यास नहीं पढ़ा। बल्कि लिखने से पहले ही या यूँ कहूँ कि इस विषय को जानने के लिए अवश्य कई पुस्तकें पढ़ीं जिनमें आपके (डॉ० फ़ीरोज़ ख़ान के) संपादन में प्रकाशित पुस्तकें भी शामिल हैं। इस विषय पर मैंने जितने भी उपन्यास पढ़े हैं, उनसे मेरा उपन्यास कई मायनों में अलग है।  सबसे पहली बात तो यह कि अधिकांश उपन्यासों का विषय किन्नर बच्चे के जन्म लेने, परिवार से तिरस्कृत होने और फिर जीवन संघर्षों से जूझने पर केंद्रित है जबकि मेरे उपन्यास का नायक एक पुरुष के रूप में जन्म लेता है तथा परिवार के सबसे छोटे बेटे के रूप में उसकी प्रतिष्ठा है। वह स्वयं भी यह जानता है कि वह एक लड़का है लेकिन जैसे जैसे उसकी आयु बढ़ती है, उसकी मनःस्थिति बदलती है। उसे महसूस होता है कि उसके तन और मन में सामंजस्य स्थापित नहीं हो पा रहा है। यहीं से उसका मानसिक द्वंद्व आरंभ होता है। वह अपने मन को नियंत्रित करने का हर संभव प्रयास करता है और कई बार यह सोचता है कि ‘वह तो एक लड़का है फिर क्यों लड़कियों जैसा व्यवहार कर रहा है।’ ऐसा सोचकर वह कई बार प्रतिज्ञा करता है कि अब लड़कियों जैसा व्यवहार नहीं करेगा। लड़कों की तरह रहेगा किंतु हर बार असफल हो जाता है। हालांकि वह अपनी पूरी शिक्षा और आरंभिक नौकरियों में स्वयं को एक पुरुष के रूप में ही प्रस्तुत करता रहा है और इसके लिए भले ही उसने कितना मानसिक द्वंद्व झेला हो। लेकिन जब वह अपने पैरों पर खड़ा हो जाता है और उसे अपनी ही तरह लोग मिलते हैं और उसे स्वयं को परिवर्तित करने के लिए प्रेरित करते हैं तो वह अपने मन से हार जाता है और अंततः चिकित्सिकीय परामर्श के साथ वह लिंगांतरण करवाकर स्त्री बन जाता है। उपन्यास इस अर्थ में भी औरों से अलग है कि लिंग परिवर्तन के बाद नायक अपने ही समुदाय के लिए पूरी तरह समर्पित हो जाता है। अपने जीवन में वह जिन बातों के लिए तरसता रहा, उसे औरों के लिए उपलब्ध कराने का हर संभव प्रयास करता है और अपने प्रयासों में सफल भी होता है। यदि आप गहनता से अध्ययन करेंगे तो पाएँगे कि उपन्यास में कई मुद्दे उठाने का प्रयास किया गया है। सबसे पहले तो इस समुदाय की पारिवारिक और सामाजिक स्वीकृति, फिर किन्नरों का शिक्षित होना और शिक्षा के लिए हर संभव प्रयास करना, किन्नर समुदाय को जागरूक और प्रेरित करना। सबसे महत्वपूर्ण बात यह कि यदि नायक अपने मन पर नियंत्रण रखता तथा स्वयं को ऐसे लोगों से दूर रखता जो उसके व्यक्तित्व को बदलने के लिए प्रेरित कर रहे थे तो संभव है वह एक पुरुष का जीवन जी रहा होता। हमारी संस्कृति व धर्म शास्त्रों ने सदैव मन को वश में करने की सीख दी है। मन को वश में न कर पाने के कारण ही आज कई देबू, दिव्या बनकर एक किन्नर का जीवन जी रहे हैं जबकि वे आधा जीवन एक पुरुष के रूप में बिता चुके हैं।
प्रश्न.5 दर्द न जाने शीर्षक के बारे में कुछ बताएँ।
लवलेश दत्त: मुझे लगता है कि किसी भी रचना का शीर्षक बहुत महत्वपूर्ण होता है। कुछ सीमा तक शीर्षक से उस रचना की विषयवस्तु की जानकारी मिल जाती। जहाँ तक मेरे उपन्यास के शीर्षक का प्रश्न है तो मैं बताना चाहूँगा कि पूरा उपन्यास लिखने के बाद जब इसे मैं पढ़ रहा था और शीर्षक देने पर मंथन चल रहा था तो कई शीर्षक मेरे मस्तिष्क में कौंधे लेकिन उनमें से कोई भी मुझे पूरे उपन्यास पर फिट नहीं लगा क्योंकि वास्तव में उपन्यास में कहीं-न-कहीं नायक का अपने ही दर्द से संघर्ष है। हर बार उसका दर्द पहले से ज्यादा हो जाता है और उसी दर्द को मन में दबाए वह अपने जीवन पथ पर बढ़ता रहता है। दरअसल यह हर व्यक्ति की कहानी है। हर व्यक्ति अपने दर्द के साथ ही यात्रा कर रहा है। एक व्यक्ति दूसरे का दर्द नहीं जान सकता। सबके अपने-अपने दर्द हैं, इसलिए जब यह शीर्षक मेरे दिमाग में आया मैंने तुरंत इसे ही फाइनल कर लिया।
प्रश्न. 6. देबू उर्फ देवेंद्र प्रताप सिंह के बारे में कुछ विस्तार से बताएँ।
लवलेश दत्त: देबू यानी देवेंद्र प्रताप सिंह चार भाइयों और दो बहनों में सबसे छोटा है। उसके जन्म के कुछ समय बाद ही उसके पिता की मृत्यु हो गई इस कारण उसे अपने पिता की स्मृति नहीं है। पिता के चेहरे की कल्पना करने पर उसे अपने सबसे बड़े भाई तेजप्रताप सिंह का चेहरा ही याद आने लगता है। परिवार में सबसे छोटा होने के कारण वह सबका लाडला है। माँ और बहन उसे सीने से लगाए घूमती हैं। वह भी घर के कामों में अपनी बहन का हाथ बँटाता है। धीरे धीरे घर के कामों में उसकी रुचि बढ़ने लगती है और उसका मानसिक विकास इस प्रकार होने लगता है जिसमें वह स्वयं को एक स्त्री ही समझने लगता है। यहीं से उसके मानसिक, पारिवारिक, सामाजिक, शैक्षिक संघर्ष आरंभ हो जाते हैं। उसका सबसे बड़ा संघर्ष स्वयं के साथ ही होता है। काफी समय तक वह स्वयं ही निर्णय नहीं ले पाता कि वह स्वयं को एक पुरुष माने या स्त्री क्योंकि वह जानता है कि उसका शरीर पूरी तरह से पुरुषों जैसा है। लेकिन मन से वह पुरुष नहीं है। उसके मन में इस बात को लेकर अक्सर द्वंद्व चलता रहता है कि मैं और लड़कों जैसा क्यों नहीं हूँ? क्यों मुझे लड़कियों की तरह सजना सँवरना पसंद है? क्यों मुझे लड़कियों के साथ रहना, बातें करना, नाचना और खेलना पसंद है। यदि मैं लड़का हूँ तो क्यों मेरे मन में लड़कियों के प्रति आकर्षण न होकर लड़कों के लिए आकर्षण है? ऐसे तमाम सवाल उसके मन में चलते रहते हैं। उसे पता ही नहीं चलता और उसके हावभाव लड़कियों जैसे होने लगते हैं जिस कारण उसे अपने बड़े भाई से कई बार पिटना पड़ता है। हर बार वह ऐसा दुबारा न करने की कसम खाता है लेकिन मन पर नियंत्रण नहीं कर पाता और हर बार उसकी कसम टूट जाती है।  परिवार में उसकी पीड़ा को समझने वाला कोई नहीं है। कभी दीदी या माँ से वह कहने की कोशिश भी करता है तो उसे यही सुनने को मिलता है कि तू लड़कियों के साथ रहना छोड़ दे। ऐसे लड़कियों वाले काम करना छोड़ दे। यहाँ तक कि उसका एक मित्र भी उसे यही कहता है कि वह मानसिक रूप से बीमार है। देबू की एक अच्छी बात यह है कि वह परिस्थितियों का मुकाबला करता है। वह किसी भी परिस्थिति में पढ़ाई नहीं छोड़ता। कभी भी पढ़ने से भागता नहीं है हालांकि फेल हो जाने पर एक बार उसके मन में आत्महत्या का विचार भी आया लेकिन बाल-सुलभ मन में यह विचार दृढ़ नहीं रह पाया। देबू अपना हर संघर्ष स्वयं करता है। उसका साथ देने वाला न तो परिवार में कोई है और न ही स्कूल में। उसकी यह स्थिति तब तक चलती है जबतक वह होटल की नौकरी में नहीं आता। होटल की नौकरी से ही उसके जीवन में ऐसे मोड़ आते हैं कि वह अपने मन के अनुरूप स्वयं को ढाल लेता है। एक और चीज है जिससे देवेन्द्र सदैव वंचित रहा, वह है प्यार। उसके जीवन में सच्चे प्यार का अभाव सदैव बना रहा। उसे जो भी मिलता, उसका दैहिक, मानसिक और आर्थिक शोषण करने की कोशिश करता। यहाँ तक कि अपने अंतिम प्रेमी मुरली को एक नारी का सुख देने की चेष्ठा से वह अपना लिंगांतरण करवाता है लेकिन वह भी उसे धोखा देकर चला जाता है। उस दर्द की टीस लिए वह अपने जैसे उपेक्षित, शोषित, पीड़ित और दुत्कारे हुए लोगों को प्यार और अपनापन बाँटना शुरू कर देता है। उनके लिए सार्वजनिक शौचालय, आश्रय स्थल, शिक्षा संस्थान, उनके अपने घर आदि  बनवाता है। उसके त्याग और समर्पण पर सरकार भी उसे पुरस्कृत करती है। उसकी ख्याति इस बात पर और बढ़ती है कि वह पहली बार ट्रांसजेंडर एथलीट मीट और ट्रांसजेंडर सामूहिक विवाह करवाता है। यह इतिहास की महत्त्वपूर्ण घटना होती है। दरअसल देबू के मन में एक ही इच्छा थी कि वह किसी की दुल्हन बने। इसी आशा से वह लिंग परिवर्तन करवाता है लेकिन उसका स्वप्न पूरा नहीं होता इसलिए वह अपने जैसे उन सब लोगों का स्वप्न पूरा करना चाहता है जिनके मन में विवाह करने या घर बसाने की इच्छा है और वह अपने इस उद्देश्य में सफल होता है हालांकि अंत तक उसके दर्द को की नहीं जानता।
प्रश्न. 7. क्या आपको लगता है कि किन्नर बच्चे को किन्नरों की टोली उठा ले जाती है या सिर्फ किन्नर बच्चे को घर वाले डराकर रखते हैं?
लवलेश दत्त: हमारे समाज में यह एक आम धारणा है कि किन्नर बच्चे को किन्नरों की टोली उठाकर ले जाती है। ऐसा कोई प्रमाण मुझे आजतक नहीं मिला है। हो सकता है कभी कोई एकाध ऐसी घटना कहीं घट गई हो जिसके कारण यह बात चल पड़ी हो। दरअसल हमारे समाज में केवल स्त्री और पुरुष लिंग को ही सार्वजनिक रूप से मान्यता मिली हुई है। यदि स्त्री और पुरुष दोनों में कोई बदलाव होता है यानि स्त्री में पुरुषोचित गुण हों या पुरुष में स्त्रैण, तो उस व्यक्ति के प्रति समाज की धारणा बदल जाती है। बिना यह सोचे कि लैंगिक विकृति से व्यक्ति के मानवीय गुणों में कोई परिवर्तन नहीं होता है। समाज में अभी तक तृतीय लिंगी, उभयलिंगी या ट्रांसजेंडर को पूरी तरह से मान्यता नहीं मिली है इसलिए अभी तक ऐसे बच्चे का जन्म परिवार के लिए अपमान, उपेक्षा और उपहास का कारण है। इसलिए परिजन ऐसे बच्चों को या तो घर से निकाल देते हैं या स्वयं ही किन्नर टोली को सौंप देते हैं या फिर उसकी पहचान छुपाकर और उसे डरा धमकाकर रखते हैं।
प्रश्न. 8. क्या कारण है कि अधिकांश किन्नर आत्महत्या करना चाहते हैं? आपकी राय।
उत्तर. सार्वजनिक रूप से तिरस्कार, उपेक्षा, शोषण, अपमान, अपनी पहचान न बना पाने की घुटन, मौलिक अधिकारों से वंचित रहना आदि ऐसे अनेक कारण हैं जो किन्नरों को आत्महत्या करने के लिए मजबूर करते हैं। सबसे बड़ा कारण अपने ही परिवार से मिलने वाली मानसिक और शारीरिक प्रताड़ना है। डरा धमकाकर रखा जाना या फिर बहिष्कृत किया जाना भी किन्नरों को आत्महत्या करने पर मजबूर करता है। इसके अलावा सरकारी योजनाओं का अभाव और किसी भी प्रकार का प्रोत्साहन न मिलना भी इनके अनिश्चित भविष्य का द्योतक है जिसके परिणामस्वरूप इन्हें अपना जीवन अंधकारमय और दिशाहीन लगने लगता है और ये आत्महत्या जैसा कदम उठाने को मजबूर हो जाते हैं।
प्रश्न. 9. क्या किन्नरों का कोई घर नहीं होता? आपकी राय।
उत्तर. यदि इस बात में थोड़ी भी सच्चाई है तो यह बहुत दुर्भाग्यपूर्ण और दुखद है। दूसरों के घरों में जाकर उनको दूधों नहाओ पूतों फलो, सदा बने रहो, घर बना रहे आदि आदि का आशीर्वाद देने वाले किन्नरों को सर छुपाने के लिए आश्रय न मिलना हम सबके लिए अत्यंत शर्मनाक है। दरअसल किन्नरों के लिए सबसे पहले अपना घर ही है जिसमें वे जन्म लेते हैं। वहाँ रहना उनका अधिकार है। मैं ऐसे  कई ट्रांसजेंडर्स को जानता हूँ जो अपने परिवार के साथ रह रहे हैं‌ क्योंकि अपने घर परिवार से बढ़कर सुरक्षित और आरामदायक स्थान दूसरा नहीं होता। इसके बाद मेरे विचार से जिस प्रकार अनाथालय या वृद्धाश्रम होते हैं उसी तरह किन्नरों के लिए भी आश्रय स्थल होने चाहिए। हालांकि यह सबसे अंतिम विकल्प है। सर्वश्रेष्ठ तो यही है कि माता-पिता अपने किन्नर बच्चे को अपने साथ रखें। उन्हें पढ़ने और  आगे बढ़ने का अवसर प्रदान करें। उन्हें सामान्य बच्चों की भांति ही समझें।
प्रश्न. 10 उपन्यास में एक पात्र है सोनम, उसके बारे में बताएँ।
लवलेश दत्त: जी, उपन्यास के अन्य पात्रों की तरह यह भी एक वास्तविक पात्र है हालांकि नाम काल्पनिक है। दरअसल जब पढ़ने सुनने में यह आया कि किन्नर राजनीति में सक्रिय हो रहे हैं, धार्मिक संगठनों में सक्रिय हो रहे हैं, शहर के मेयर बन रहे हैं तो इस पात्र की परिकल्पना की गई। सोनम एक ट्रांसजेंडर वुमेन है। अपने धनाढ्य पिता की इकलौती संतान है। उसे किसी भी प्रकार का कोई अभाव नहीं है। उसने स्वयं को एक पुरुष से स्त्री में परिवर्तित करवा लिया है और वह अपने जैसे लोगों के साथ समाज के अन्य पिछड़े और उपेक्षित लोगों की सहायता करती है।‌ इन सबके साथ वह अपने पिता के व्यवसाय को भी सँभालती है। उसका मानना है कि यदि किन्नर राजनीति में भी हिस्सेदारी करेंगे तो वे अपने समाज की पीड़ा, परेशानियाँ, आवश्यकताएँ आदि आसानी से सरकार को बता पाएँगे। इसी उद्देश्य से वह चुनाव लड़ती है और अपने प्रांत के पढ़े लिखे किन्नरों को अपने चुनाव प्रचार में आमंत्रित करती है। सोनम की सबसे अच्छी बात उसकी सकारात्मक सोच है। वह देवेन्द्र कओ मानसिक रूप से लिंगांतरण के लिए तैयार करती है और उसकी हर संभव सहायता करने के लिए भी तैयार रहती है। कुल मिलाकर यह पात्र ऐसे किन्नरों के लिए एक प्रेरणास्रोत है जो जीवन से हार मानकर पलायनवादी सोच विकसित कर लेते हैं।
प्रश्न. 11. आपको क्या लगता है क्या साहित्य से समाज में जागरूकता पैदा होती है क्योंकि साहित्य तो एक निश्चित वर्ग तक ही सीमित होता है।
लवलेश दत्त: साहित्य कभी भी सीधे समाज सुधार नहीं करता बल्कि वह हर उस संभावना को सामने लाता है जो समाज सुधार में सहायक होती है। साहित्य सृजन समकालीन समस्याओं को सामने लाकर उनके समाधान के मार्ग सुझाता है। समाज में सुधार करना तो सरकार का काम है और जनता का काम है उन सुधारों के लिए सरकार का सहयोग करना। आपने कहा कि साहित्य का एक सीमित वर्ग है, मुझे ऐसा लगता है कि अपने समय में साहित्य भले ही सीमित लगे लेकिन वास्तव में वह कालजयी होता है और समय समय पर समाज का मार्गदर्शन करता है।
प्रश्न. 12. आपने उपन्यास की भूमिका में कुछ प्रश्न उठाते हुए कहा है कि आपने उन प्रश्नों के उत्तर उपन्यास में तलाशने का प्रयास किया है, क्या आपको उनके उत्तर मिले?
लवलेश दत्त: जी बिल्कुल। मैंने पूरे उपन्यास में यह बात स्पष्ट रूप से दर्शायी है कि नाचने गाने और बधाई माँगने को ही किन्नर समुदाय की नियति मान लेना उनके पौरुष, उनकी सामर्थ्य, उनके बौद्धिक क्षमता आदि के साथ अन्याय करने जैसा है। केवल लैंगिक विकलांगता से उनके समूचे व्यक्तित्व को नकार देना कहाँ तक सही है। यदि कोई व्यक्ति संतान उत्पत्ति करने में अक्षम है तो क्या वह अन्य क्षेत्रों में अपनी प्रतिभा नहीं दिखा सकता? उसे अपनी प्रतिभा को निखारने का अवसर मिलना चाहिए। ऐसे लोग शत-प्रतिशत मनुष्य हैं तो उनके साथ वैसा ही व्यवहार भी होना चाहिए। उन्हें भी कलाकार, लेखक, चित्रकार, नेता, पत्रकार, डॉक्टर, इंजीनियर आदि बनने का अवसर मिलना चाहिए। क्या उनमें ये प्रतिभाएँ नहीं हो सकतीं? बिल्कुल हो सकती हैं।
प्रश्न. 13. ऐसा देखने में आता है कि इस प्रकार के विमर्श कुछ वर्षों के बाद   ठंडे पड़ जाते हैं या उनसे लोग ऊब जाते हैं, आप क्या मानते हैं?
लवलेश दत्त: देखिए कोई भी विमर्श कभी भी ठंडा नहीं पड़ता और न ही लोग ऊबते हैं, क्योंकि विमर्श से ही संघर्ष का मार्ग खुलता है। हाँ, इतना अवश्य है कि संघर्ष पथ के यात्री समय और परिवेश के अनुसार बदलते रहते हैं। वे अपने अनुसार उस संघर्ष को गति देते हैं। इसलिए यह कहना कि विमर्श ठंडा पड़ जाता है सही नहीं होगा। किन्नर विमर्श तो रामायण, महाभारत के युग से चलता चला आ रहा है। वैसे भी अभी तो किन्नर विमर्श की सारी परतें खुली ही नहीं हैं। अभी तो केवल किन्नरों की पारिवारिक और सामाजिक स्वीकृति की ही बात उठ रही है।‌ अभी तो इसमें किन्नरों के अतिरिक्त ट्रांसजेंडर मेन/वुमेन, समलैंगिक, उभयलिंगी आदि पर भी व्यापक स्तर विचार होना शेष है।
प्रश्न. 14. क्या आपको लगता है कि एक पुरुष का स्त्री में अथवा एक स्त्री का पुरुष में बदलना प्रकृति से छेड़छाड़ है, मतलब हमें जो शरीर प्राकृतिक रूप से मिला है उसे अपने मनोविकार के चलते परिवर्तित करना कहाँ तक उचित है?
लवलेश दत्त: कुछ हद तक हम यह मान सकते हैं कि यह अप्राकृतिक है। लेकिन यदि गंभीरता के देखें तो हम पाएँगे कि तन और मन में सामंजस्य स्थापित न करके स्वयं प्रकृति ने ही ऐसे लोगों के साथ खिलवाड़ किया है। आपने देखा होगा कि प्रकृति द्वारा रची चीज़ों में विकृति होती है। कहीं दो सिर वाले बच्चे पैदा होते हैं तो कहीं तीन हाथ वाले। क्या उन्हें हम सही नहीं करवाते? आज मेडिकल साइंस ने इतनी प्रगति कर ली है कि प्राकृतिक गलतियों के सुधारा जा सके को फिर क्यों न मनुष्य उसका भरपूर लाभ उठाए? जहाँ तक मनोविकार की बात है तो ऐसे व्यक्तियों की जाँच सबसे पहले मनोचिकित्सक ही करते हैं और यह सुनिश्चित करते हैं कि वह व्यक्ति की केवल मानसिक दुर्बलता है या वास्तव में प्रकृति का अन्याय।‌ जब यह बात पूरी तरह सिद्ध हो जाती है कि व्यक्ति मानसिक रूप से पूरी तरह स्वस्थ है और एक गलत शरीर में पैदा हो गया है तभी उसकी शल्य चिकित्सा करके लिंग परिवर्तन किया जाता है।
प्रश्न. 15. आपको क्या लगता है क्या समाज ऐसे लोगों को पूरी तरह स्वीकार करेगा? क्या ये लोग मुख्य धारा में आ पाएँगे?
लवलेश दत्त: समाज ऐसे लोगों को स्वीकार कर रहा है। विशेष रूप से नयी पीढ़ी बहुत जागरूक है और इन लोगों को आगे आने का पर्याप्त अवसर देने के लिए तैयार है। जिस ट्रांसजेंडर वुमेन के जीवन पर मैंने अपना उपन्यास लिखा है वह स्वयं  छत्तीसगढ़ में एक बड़ी हस्ती है। उसके प्रयासों से किन्नर और ट्रांसजेंडर बच्चे शिक्षित होकर विभिन्न विभागों में नौकरी पा रहे हैं। एक ट्रांसजेंडर वुमेन ने तो छत्तीसगढ़ की एक फिल्म में नायिका की भूमिका निभाई है। मुझे पूरा विश्वास है धीरे धीरे विभिन्न क्षेत्रों में इन लोगों को हम देखेंगे और स्वागत करेंगे। मेरा उपन्यास इसी आशा और विश्वास की परिणति है।
प्रश्न. 16 लवलेश जी आपने सभी प्रश्नों के उत्तर बहुत स्पष्ट रूप से दिए। अपने उपन्यास में आपने बहुत सकारात्मक और प्रेरणाप्रद घटनाओं को चित्रित किया है यह एक सार्थक सृजन की पहचान है और इसका स्वागत साहित्य जगत में किया जाना चाहिए। एक अंतिम प्रश्न क्या आगे भी ऐसा ही कुछ लिखने का विचार है या फिर किसी अन्य विषय पर लिखेंगे?
लवलेश दत्त: सबसे पहले तो आपको धन्यवाद कि आपने मुझे अपनी बात रखने का अवसर दिया। आगे क्या लिखूँगा, किस विषय पर लिखूंगा यह बता पाना अभी मुश्किल है क्योंकि लेखन अनुभवजन्य होता है। इसलिए जैसे जैसे जीवन का अनुभव होता जाएगा, लेखन को भी दिशा मिलती जाएगी।
प्रश्न. 17. आपका बहुत बहुत धन्यवाद लवलेश जी। आपके उपन्यास के लिए बहुत बहुत शुभकामनाएँ।
लवलेश दत्त: आपका भी बहुत बहुत धन्यवाद एवं आभार।

डॉ. फ़िरोज़ खान
Email: vangmaya@gmail.com 
Mobile: 00-91-70076 06806

कोई जवाब दें

कृपया अपनी टिप्पणी दर्ज करें!
कृपया अपना नाम यहाँ दर्ज करें

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.